Friday, February 24, 2017

व्यंग -- एक गधे से प्रेरित प्रधानमंत्री।

                 
   और चुनाव के बीच में प्रधानमंत्री ने अचानक घोषणा कर दी की वो गधे से प्रेरणा लेते हैं। जैसे ही ये खबर आयी, मेरे पडौसी तुरन्त मेरे घर में घुस आये और बोले, देखो मैं न कहता था की ये आदमी जरूर गधे से प्रेरित है। मैंने इस पर प्रतिवाद करने की कोशिश की, " देखो प्रेरणा तो कोई किसी से भी ले सकता है। हमारी अंग्रेजी की किताब में किंग ब्रुश मकड़ी से प्रेरणा लेता है। "
                     " अब बात को घुमाओ मत। प्रधानमंत्री कोई कृश्न चन्दर के पढ़े लिखे गधे से प्रेरणा नही ले रहे हैं। वो गुजरात के जंगली गधों से प्रेरणा ले रहे हैं। जो काम धाम तो कुछ करते नही हैं बस खाते  हैं और घूमते दौड़ते रहते हैं। हमारे प्रधानमंत्री भी जब से सत्ता में आये हैं, बस घूम ही रहे हैं। अब तो शायद ही कोई देश बचा हो। " पड़ोसी ने तर्क दिया।
                     " लेकिन प्रधानमंत्री ने तो कहा है की वो देश के लिए गधे की तरह काम करते हैं। इसलिए  जंगली गधे से तो प्रेरित नही लगते। " मैंने फिर टोका।
                    " अब तक जब लोग कहते थे की प्रधानमंत्री गधे की तरह काम करते हैं तो तुम्हे बड़ा एतराज था। अब खुद कह रहे हो तो ये सम्मान की बात हो गयी। खैर छोडो, चलो तुम्हारी बात भी अगर मान लें और ये मान लें की प्रधानमंत्री किसी कुम्हार या धोबी के गधे से प्रेरणा ले रहे हैं तो भी उससे क्या निष्कर्ष निकलता है ?  कुम्हार का गधा अपने आप कुछ नही करता है। वो सब कुछ कुम्हार की मर्जी से करता है। जब हम कहते थे की ये प्रधानमंत्री भी कुछ पूँजीपतियों के कहने से सब कुछ करता है, तब भी तुम एतराज करते थे। " पड़ोसी ने अगला तर्क दिया।
                     " लेकिन गधे में भी कुछ तो खासियत होती होगी ?" मैंने कहा।
                     " हाँ, होती है। होती क्यों नही। एक तो गधे को तेजी पसन्द नही है। उसकी चाल सुस्त होती है। इसी खासियत के कारण प्रधानमंत्री ने नोटबन्दी करके अर्थव्यवस्था की चाल सुस्त कर दी। दूसरी ये की वो काम तो कुम्हार का करता है और चरता है किसान के खेत में। यही काम हमारे प्रधानमंत्री भी कर रहे हैं। " मेरे पड़ोसी ने पहले से तैयार तर्क दे मारा।
                        मुझे गुस्सा आया। मैंने कहा की गधे की खासियत तो ये भी होती है की बोलता कुछ नही है बस चुपचाप अपना काम करता रहता है। हमारे प्रधानमंत्री तो बहुत बोलते हैं। यहां तक की कुछ लोग तो ये भी कहते हैं की प्रधानमंत्री बस बोलते ही हैं और करते कुछ नही।
                      मेरे पड़ोसी ने ठहाका लगाया। " अरे भई, वो गधे से प्रेरित हैं खुद गधे थोड़ा न हैं। और ये तुलना मैंने नही की है, खुद प्रधानमंत्री ने की है। "
                      ये कह कर पड़ोसी विजेता के अंदाज में बाहर चले गए और मैं पिटे हुए के अंदाज में सिर सहलाता रह गया।

Thursday, February 9, 2017

नोटबंदी - जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल।

           ये एक पुरानी हिंदी फिल्म का गीत है जो अब हम सब भारतीयों पर खरा उतर रहा है। जब से नोटबन्दी हुई है और सरकार रोज नए नए नियम तय कर रही है उससे लोगों का जीना तो मुश्किल हो ही गया था, अब मरणा भी मुश्किल हो गया है। जैसे - 
             रिजर्व बैंक ने करंट खातों से रकम उठाने की सीमा खत्म करने की घोषणा कर दी। साथ ही एटीएम से भी सीमा हटा ली गयी। लेकिन इसके साथ निजी कम्पनियों की तरह एक टर्म एंड कन्डीशन लगा दी। वो ये है की रिजर्व बैंक ने भले ही सीमा हटा ली हो, लेकिन बैंक अपनी सुविधा के अनुसार सीमा तय कर सकते हैं। अब हाल ये है की बैंक में 20000 का चैक लेकर जाओ तो बैंक कहता है की केवल 12000 मिल सकते हैं। अब क्या करें ? यानी जीना भी मुश्किल, और मरना भी मुश्किल।
              यही हाल एटीएम का है। सीमा समाप्त कर दी गयी है लेकिन एटीएम बन्द हैं। पुरे शहर में 15 - 20 % एटीएम ही चालू हैं। उनमे भी कब कैश खत्म हो जायेगा पता नही है। मार्च के बाद सरकार और RBI सारी सीमाएं हटाने की घोषणा कर देंगी। लेकिन देश बन्द एटीएम और बैंक में नाकाफी नकदी के भरोसे रह जायेगा।
              दूसरा मुद्दा सरकार के दूसरे नियमो का है। सरकार कहती है की आप घर पर एक सीमा से ज्यादा पैसा नही रख सकते। अगर जरूरत है तो डिजिटल पेमेन्ट करिये। डिजिटल पेमेन्ट करेंगे तो चार्ज लगेगा। आप बैंक से नकदी निकालेंगे तो चार्ज लगेगा। आपकी मजबूरी है की आप चार्ज देकर भुगतान करें। सारा देश बंधक हो गया और इसको लोकतंत्र कहते हैं। ये पूरी दुनिया में अपनी तरह का अकेला लोकतंत्र है। प्रधानमंत्री कहते हैं की पूरी दुनिया के अर्थशास्त्रियों के पास हमारी नोटबन्दी का मूल्यांकन करने का पैमाना ही नही है। यानि पूरी दुनिया के अर्थशास्त्रियों ने अब तक जो पढ़ा है वो सब बेकार गया। अब इस लोकतंत्र के मूल्यांकन के लिए भी दुनिया के समाजशास्त्रियों और राजनीती के विद्यार्थियों को नए पैमाने तय करने पड़ेंगे। उन्हें ये सीखना होगा की अब तक वो जिसे तानाशाही कहते आये हैं, उसे अब लोकतंत्र में कैसे फिट किया जाये।
               अब आपको जिन्दा रहने का चार्ज देना पड़ेगा। कैश निकलोगे तो चार्ज और डिजिटल पेमेंट करोगे तो चार्ज। और लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इसमें भी बायें हाथ से जेब काटने का प्रबन्ध किया गया है। सरकार कहती है की कार्ड से पट्रोल खरीदने पर ग्राहक को कोई चार्ज नही देना पड़ेगा और की चार्ज का भुगतान तेल कम्पनियां करेंगी। यानि तेल कम्पनियां चार्ज का खर्च निकालने के लिए कीमत उस हिसाब से तय करेंगी। सरकार तो पहले ही कह चुकी है की अब तेल की कीमतें तय करना कम्पनियों पर छोड़ दिया गया है और सरकार का उसमे कोई दखल नही है। यानि अब आपको तेल की कीमत में चार्ज जोड़ कर देना होगा। इसी तरह बाकि सामान की कार्ड पेमेंट करने पर दुकानदार को जो चार्ज देना होता है वो सामान की कीमत में जुड़ जाता है। जाहिर है की कोई भी व्यापारी अपने पास से उसका भुगतान क्यों करेगा। इस तरह अब आपकी जेब काटने से पहले आपको देशभक्ति और भृष्टाचार से लड़ने वाले सिपाही होने का एनस्थिसिया दिया जायेगा और फिर आपकी जेब काटी जाएगी। और आप जेब कटवाकर ख़ुशी ख़ुशी मोदी मोदी करते हुए घर चले जायेंगे। जो लोग सरकार की इस बाजीगरी को नही समझते हैं और भक्ति की मुद्रा में हैं उनको तो कोई परेशानी नही है। जो लोग इसको समझते हैं उनके लिए तो जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल।

नोटबन्दी से कर्ज सस्ता होने की उम्मीद भी समाप्त।

                 

p chidambaram image speeking in parliament
8 नवम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबन्दी की घोषणा करते हुए इसके चार उद्देश्य बताये थे। उसके बाद हर दिन गुजरने के साथ उन्हें और उनकी सरकार को ये अहसास होने लगा की इन उद्देश्यों में से कोई भी पूरा नही होने जा रहा है। इसके बाद हर रोज वो और उनकी पार्टी इस पर अपना स्टैंड बदलने लगी। इसी क्रम में भृष्टाचार और कालेधन से होती हुई कैशलेस इंडिया की बातें करने लगी। लोगों को डिज़िटल लेनदेन करने के लिए मजबूर करने के तमाम उपाय किये गए। और कैशलेस होने का सबसे बड़ा फायदा ये बताया गया की एक तो इससे टैक्स चोरी रुकेगी, दूसरा बैंको के पास बड़ी मात्रा में कैश उपलब्ध होने के कारण लोगों को सस्ता कर्ज मिलेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी। सरकार के सारे मंत्री लोगों को सस्ते कर्ज के फायदे गिनवाने लगे। नोटबन्दी की विफलता को छुपाने की ये सरकार की आखिरी कोशिश थी। लेकिन पिछले तीन दिन में ये कोशिश भी दम तोड़ गयी।
                        रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने मुद्रा पालिसी पर विचार करते हुए ये कह कर ब्याज दर घटाने से इंकार कर दिया की खुदरा महंगाई दर अपनी जगह चिपकी हुई है और कच्चे तेल और धातुओं के मूल्य में होने वाली बढ़ोतरी और रूपये की घटती हुई कीमत के कारण इसके बढ़ने का खतरा मौजूद है। इसलिए रेपो रेट में कोई भी बदलाव सम्भव नही है। इसके साथ की रिजर्व बैंक ने ब्याज दर कम होने के सायकिल के समाप्त होने की घोषणा करके भविष्य में ब्याज कम होने की सम्भावना पर भी पूर्णविराम लगा दिया।  RBI के निर्णय की घोषणा होते ही सभी बैंको के अध्यक्षों  घोषणा कर दी की और ब्याज कम करने के लिए अब बैंकों के पास कोई जगह ( रूम ) नही है। यानि ब्याज कम होने का आखरी बहाना भी समाप्त हो गया। अब सरकार के पास नोटबन्दी से हासिल फायदा गिनाने के लिए कुछ नही बचा है। नोटबन्दी का फैसला एक आपराधिक और गैरजिम्मेदाराना फैसला था जिसने देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर और स्थाई नुकशान पहुंचाया है।
                        आज बजट पर चर्चा के दौरान राज्य सभा में बोलते हुए पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने जिस तरह आंकड़ों के साथ सरकार के इस निर्णय की आलोचना की, उसका कोई भी जवाब बीजेपी के पास नही था। उसके नेता केवल कांग्रेस के 44 सीटों पर आ जाने जैसे घिसेपिटे जुमले ही दोहराते रहे। उन्होंने चिदम्बरम की एक भी बात का जवाब नही दिया।

Demonetisation a grave mistake by govt: P Chidambaram

                       आने वाले समय में नोटबन्दी सरकार के लिए विफलता का मील का पत्थर साबित होने जा रही है।

Tuesday, February 7, 2017

कुत्तों वाली परम्परा और प्रधानमंत्री मोदी

                  
modiji and other members image in parliyament
   आज संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस नेता के इस बयान का की आरएसएस  के परिवार से किसी ने कोई क़ुरबानी नही दी, यहां तक की एक कुत्ता तक नही मरा, जवाब देते हुए कहा की वो कुत्तों की परम्परा में पले बढ़े नही हैं।
                      अब होने को तो इस बयान के बहुत से मतलब हो सकते हैं। लेकिन हमारे देश की महान परम्परा के अनुसार अगर किसी वाक्य के चार मतलब होते हों, तो छह तो निकाल ही लिए जाते हैं। सारे देश में इस बयान पर बहस हो रही है। लोग मजाक उड़ा रहे हैं। उनमे से एक आदमी की राय इस प्रकार है -
                        प्रधानमंत्री ने आखिर इस बात को स्वीकार कर ही लिया। अब तक हम कहते थे तो वो इंकार करते थे। आज मान लिया। कुत्तों वाली परम्परा का मतलब होता है वफादारी की परम्परा। पूरी दुनिया में कुत्ते को वफादारी का प्रतीक माना जाता है। और जब हम कहते थे की आरएसएस की परम्परा देश से गद्दारी की परम्परा रही है, उसने हमेशा दुश्मनो का साथ दिया। आजादी की लड़ाई में जब सारा देश गोलियां खा रहा था, लोग जेल जा रहे थे, तब आरएसएस अंग्रेजो का समर्थन कर रहा था। वह देश की जनता और अपने सदस्यों को आजादी की लड़ाई से अलग रहने को कह रहा था। अंग्रेजो के लिए मुखबिरी कर रहा था। आजादी के सिपाहियों के खिलाफ गवाहियां दे रहा था। जब मुस्लिम लीग बंटवारे की मांग कर रही थी तब उसके नेता मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार चला रहे थे। जब बंटवारा हुआ और दंगे भड़के, तब उसके सदस्य सीधे तौर पर दंगों में शामिल थे। जब आजादी मिली तब उसके सदस्य तिरंगा जला रहे थे। और यहां तक की उसके लोगों ने आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े नेता और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कत्ल भी कर दिया। वो अलग बात है की आरएसएस गोडसे के बारे में कहता है की उसने गाँधी हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था। लेकिन जो संगठन अपनी सदस्यता का रिकार्ड तक नही रखता हो उसकी इस बात पर कितना भरोसा किया जा सकता है। गोडसे के धरवाले तो आज भी कहते हैं की गोडसे ने कभी आरएसएस नही छोड़ा था।
                         उसके बाद उसने अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा से हमेशा इस देश की एकता अखण्डता और भाईचारे की जड़ों में मट्ठा डाला। आजादी के बाद हुए कितने ही दंगो की जाँच करने वाले आयोगों ने उसमे आरएसएस का हाथ होने की बात कही है। इसलिए जो संगठन देश  के खिलाफ काम करता हो, उसकी तुलना कुत्तों वाली परम्परा से कैसे की जा सकती है। अच्छा हुआ आज प्रधानमंत्री ने खुद ही मान लिया।