Sunday, August 28, 2016

ऐसे सतयुग का क्या करें, जिसमे इंसानो की खरीद बिक्री होती हो ! सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र की कहानी के सन्दर्भ में।

                कई बार ये बहस होती है की पिछले समय में रहे रामराज्य और सतयुग जैसे काल स्वर्णयुग थे। मेरे इस लेख का उद्देश्य इन कालों की ऐतिहासिकता को लेकर नही है। मैं नही जानता की सचमुच इस तरह का कोई युग या राज्य कभी था या नही। मेरा उद्देश्य केवल उस विचार पर अपनी राय रखना है जो इनमे निहित है।
                  दुनिया में बहुत से व्यक्ति और संगठन हमेशा पीछे देखने में गौरव का अनुभव करते हैं। पिछले समय के किसी काल को वो मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित करते हैं। जैसे आरएसएस। कई बार कुछ लोग भी उनकी कहि सुनी बातों को सही मान लेते हैं और उनका समर्थन करते हैं। पिछले दिनों एक मित्र के साथ इस बात पर बहस हुई की मानव सभ्यता का स्वर्णकाल सतयुग था या नही। मेरा ये मानना है की मौजूद व्यवस्था पिछली सभी व्यवस्थाओं से प्रगतिशील और बेहतर है। कहीं पर कुछ समय के लिए इसके विपरीत हो सकता है लेकिन विकास की गाड़ी अपनी भूल सुधार कर फिर रस्ते पर आ जाती है।
                   आज के समय में सबसे मूल्यवान समझे जाने वाले कुछ मूल्य जैसे, समानता, स्वतन्त्रता और लोकतंत्र आदि पहले नही थे। ये सारे मूल्य सभ्यता के क्रम में बहुत बाद में जाकर पैदा हुए। इनमे कुछ तो फ़्रांसिसी क्रांति की उपज हैं। उससे पहले की व्यवस्थाओं में इनका कोई स्थान नही था। और इनके लिए संघर्ष आज भी जारी है। अगर हम अपने देश की बात करें तो आज भी दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदायों और मजदूरों को ये हासिल नही हैं। इसके लिए लगातार लड़ाई जारी है।
                    अब फिर मूल सवाल पर आते हैं। उस मित्र ने मुझे राजा हरिश्चन्द्र की कहानी ये समझाने के लिए सुनाई की उस युग में सत्य पर कितना जोर था और की हर आदमी कैसे सत्य पर अडिग रहता था। लेकिन फिर मैंने उससे कुछ सवाल पूछे। मैंने पूछा की जिस युग और सभ्यता में आदमियों की खरीद बिक्री होती हो, ऐसी व्यवस्था आदर्श व्यवस्था कैसे हो सकती है। इस कहानी में ये साफ जाहिर है की मनुष्यों की खरीद बिक्री उस समय आम बात थी और किसी ने भी इस पर एतराज नही किया। जहां तक वचन का पालन करने की बात है, तो वचन तो राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को भी दिए होंगे। उनका क्या हुआ ? कैसे ये सारी कहानी केवल गुलामो की अपने मालिकों के प्रति नैतिकता के मापदण्ड तय करती है। गुलाम और मालिक के सम्बन्ध और उसमे किसी भी स्थिति में अपने मालिक के प्रति वफादारी को ही सर्वोतम मूल्य साबित किया गया है। इसमें बाकि सभी चीजें उसके बाद आती हैं। मैंने उससे पूछा की ऐसे सतयुग का हम क्या करें जो आदमी की खरीद बिक्री न्याय सम्मत ठहराता हो। मेरे मित्र के पास इस बात का कोई जवाब नही था। असल में उसने इस तरह से विश्लेषण करने की जरूरत ही महसूस नही की थी। जो बात जिस तरह बता दी गयी, उसे उसी तरह मान लिया गया।

Tuesday, August 23, 2016

व्यंग -- अब तुम अकेले हो धनञ्जय।

                     हाँ धनञ्जय, इस प्रतियोगिता में तुम अकेले हो। ये तो तुम्हे मालूम ही होगा की ये द्धापर युग नही है बल्कि कलियुग है। जो सुविधाएँ तुम्हे द्धापर युग में हासिल थी वो अब नही हैं। उस समय तो पूरी सत्ता, पूरा समाज और यहां तक की खुद भगवान भी तुम्हारी जीत के लिए प्रयासरत रहते थे। दूसरे प्रतियोगियों को इसका मलाल भी रहता था और एतराज भी। लेकिन वो कुछ कर नही सकते थे। अब तुम कर्ण को ही लो। जितनी बार भी उससे तुम्हारी प्रतियोगिता हुई, पूरी दुनिया उसे हराने और तुम्हे जिताने लग जाती। कोई भी प्रतियोगिता कभी भी बराबरी पर नही हुई। उसके पास तुम्हारे जैसे सरकारी कोच भी नही थे और सरकारी साधन भी नही थे। उसके बावजूद उसने जब भी तुम्हे ललकारा, तुम्हारे लोगों ने नियम बदल दिए। द्रोपदी का स्वयम्बर तो तुम्हे याद  होगा ? उसे अवसर दिए बिना ही बाहर कर दिया गया। वरना शायद ये देश महाभारत के युद्ध से बच जाता। उसे लायक होने के बावजूद सरकारी विद्यालयों में शिक्षा नही मिली। क्योंकि उस समय क्षत्रियों के लिए 100 % आरक्षण का प्रावधान था। उसने जब ब्राह्मण ऋषि परसुराम से अपनी जाति  छुपाकर शिक्षा प्राप्त की तब परसुराम ने भी उसे श्राप दे दिया। उसके बावजूद तुम उसे युद्ध में हरा नही पाए। तुमने उसे धोखे से मारा और तुम्हारे मित्र कृष्ण ने तुम्हारी इज्जत बचाने के लिए उसे नियमानुसार सिद्ध कर दिया। लेकिन आम लोग इस बात को भूले नही। आज भी आम जन में कर्ण का सम्मान तुमसे ज्यादा है।
                       इस प्रतियोगिता में पितामह भीष्म भी नही हैं जो महिलाओं को प्रतियोगिता से बाहर कर दें। हालाँकि भीष्म के नए अवतार मोहन भागवत ने महिलाओं को हर तरह की प्रतियोगिता से बाहर रखने को जरूर कहा, लेकिन लोग केवल हँस कर रह गए। अब तो लोग कहते हैं की अगर मोहन भगवत की बात मान ली जाती तो भारत को उतने ही मैडल मिलते जितनी संख्या का आविष्कार आर्यभट्ट ने किया था।
                      इस प्रतियोगिता में एकलव्य का अंगूठा काटने की भी मनाही है और कृष्ण को भी कह दिया गया है की बहुत सक्षम हो तो खुद ही उतर जाओ प्रतियोगिता में। बाहर बैठे तुम्हारे लोग हे नरसिंह, हे योगेश्वर, चिल्लाते रहेंगे लेकिन जीतना तो तुम्हे अपनी ताकत पर ही पड़ेगा। यहां कृष्ण खुद हारने पर जरासंध के सामने भीम को नही उतार सकते।
                    सो हे पार्थ, जरा ध्यान रखना। ये कलियुग है और तुम्हे कोई आरक्षण प्राप्त नही है। यहां तुम निपट अकेले हो।

Monday, August 22, 2016

दुर्घटना बीमा पर सीमा तय करना न्याय और सुरक्षा के बुनियादी सिद्धान्त के ही खिलाफ है।

                 केंद्र सरकार ने मौजूदा  सत्र में मोटर व्हिकल ( अमैंडमैंट ) एक्ट का जो प्रस्ताव लोकसभा में दिया है उसकी समझ बहुत चिंता पैदा करती है। सरकार ने इसमें जुर्माना बढाये जाने पर ही सारा ध्यान केंद्रित किया है। उसे लगता है जैसे भारी भरकम जुर्माना लगाए जाने मात्र से दुर्घटनाओं में कमी हो सकती है। जबकि ट्रेनिग और दूसरे उपायों पर बात ही नही की गयी है। इसके साथ ही इसमें जो बदलाव सबसे गम्भीर सवाल उठाता है वो ये है की दुर्घटना की सूरत में बीमा कम्पनियों की क्लेम भुगतान की जिम्मेदारी अधिकतम 10 लाख तक तय कर दी गयी है। अदालत द्धारा इससे अधिक क्लेम स्वीकार किये जाने की सूरत में बाकि के भुगतान की जिम्मेदारी वाहन के मालिक की होगी। सरकार का तर्क है की इससे बीमा कम्पनियों पर बोझ कम होगा।
                   आखिर सरकार को बीमा कम्पनियों के बोझ की इतनी चिंता क्यों है? जब से बीमा के क्षेत्र में प्राइवेट कम्पनियों की हिस्सेदारी बढ़ रही है तब से सरकार की ये चिंता भी बढ़ गयी है। बीमा कम्पनियां प्रीमियम लेकर क्लेम की जिम्मेदारी लेती हैं, वो कोई सामाजिक कार्य थोड़ा न कर रही हैं जो सरकार उनकी चिंता में दुबली हुई जा रही है। इस फैसले के कुछ गम्भीर निहितार्थ हैं जिन्हें अनदेखा नही किया जा सकता।
                    वाहन के लिए थर्ड पार्टी दुर्घटना बीमा की शुरुआत जिन जरूरतों को ध्यान में रखकर की गयी थी, ये  बदलाव उसके ठीक उल्ट है। हमारे देश में सालाना करीब डेढ़ लाख लोग वाहन दुर्घटनाओं के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ये एक नए किस्म की  सामाजिक समस्या है। सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले अधिकतर लोग वो होते हैं जिन पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। अक्सर कमाऊ सदस्य ही ज्यादातर सड़क पर होते हैं। कमाऊ सदस्य की दुर्घटना में मौत हो जाने पर एक पूरा परिवार बर्बादी के कगार पर पहुंच जाता है। इस समस्या को देखते हुए थर्ड पार्टी दुर्घटना बीमा को अनिवार्य किया गया था। क्योंकि उसके ना होने पर मृतक के परिवार को राहत मिलना बहुत मुश्किल होता था। कई मामलों में तो ये सम्भव ही नही होता था। या तो वाहन चालक या मालिक के पास भुगतान  के लिए कोई पैसा ही नही होता था ,या फिर फैसले और अपीलों में मामला लटक जाता था। इसलिए ये व्यवस्था की गयी थी की दुर्घटना में हुए नुकशान की भरपाई बीमा कम्पनी कर दे और मृतक के आधारहीन परिवार को आसरा हो जाये। इसके लिए वाहन के मालिक को  एक निश्चित रकम का भुगतान बीमा कम्पनी को हर साल करना होता है।
                     लेकिन अब बीमा कम्पनियों के बोझ को कम करने के लिए इस भुगतान की अधिकतम सीमा 10 लाख रखने का प्रस्ताव किया गया है। जिसका व्यावहारिक मतलब ये होगा की उससे ज्यादा के क्लेम की सूरत में प्रभावित परिवार को फिर उसी स्थिति में खड़ा कर दिया जायेगा जो इस व्यवस्था के लागु होने से पहले थी। पूरी दुनिया में इस तरह की व्यवस्था कहीं नही है।
                      इस प्रस्ताव के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं वो ठीक वैसे ही हैं जैसे अमेरिका न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर दे रहा था। उसकी मांग थी की न्यूक्लियर दुर्घटना की स्थिति में कम्पनी पर एक निश्चित स्तर तक ही भुगतान की जिम्मेदारी डाली जाये। जिसका पुरे देश के जानकार हलकों में भारी विरोध हुआ था।
                       ये भी अपने आप में एक संयोग ही है की कम्पनियों पर जिम्मेदारी के मामले में हमारी सरकार और अमेरिकी सरकार की समझ में कितना तालमेल है। इसलिए सरकार को इस प्रस्ताव को वापस लेने के लिए मजबूर किया जाये और विपक्षी पार्टियों और जन संगठनों को इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए।

Sunday, August 21, 2016

GST Bill -- इसके दुष्परिणामो की जिम्मेदारी कौन - कौन लेगा ?

               राज्य सभा में लम्बे समय तक अटके GST Bill का पास होना और इस तरह पास होना, कम से कम मेरे लिए तो आश्चर्यजनक है। इस बिल पर लोगों को बहुत आपत्तियां रही हैं। कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों को इस पर भारी एतराज था। वो इसका विरोध तब से कर रहे थे जब से कांग्रेस इसे पास कराने की कोशिश कर रही थी। अब इस पर कांग्रेस के एतराज को कुछ लोग बदले की कार्यवाही मान रहे थे, लेकिन जो सवाल कांग्रेस ने उठाये थे वो बहुत ही वाजिब सवाल थे। जिनमे से सरकार ने दो को मान लिया। एक महत्त्वपूर्ण सवाल, जिसे सरकार ने नही माना वो टैक्स की दर पर 18 % से ऊपर एक संवैधानिक रोक से सम्बन्धित था।
                लेकिन इस पर राज्य सभा में जो बहस हुई, वो भी हैरत अंगेज थी। जदयू के नेता शरद यादव इस बिल पर आम सहमति बनाने का श्रेय ले रहे थे और नीतीश कुमार भी बाहर इस तरह की बात कर रहे थे जैसे ये बिल केवल उनके कारण ही पास हो रहा है।
                    दूसरा उदाहरण कामरेड सीताराम येचुरी का है। सी.पी.एम. जिन कारणों से इस बिल का विरोध कर रही थी वो सारे कारण सीताराम येचुरी ने अपने भाषण में एक बार फिर गिनवा दिए। उनमे सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल राज्यों के उस अधिकार से समन्धित था जिसमे स्थानीय स्तर पर टैक्स लगाने का उनका अधिकार इसके बाद समाप्त हो जाने वाला है। उन्होंने सभी कारणों को उसी कुशलता के साथ गिनाया, लेकिन बिल का विरोध नही किया। एक जनविरोधी बिल पर इस तरह की आमसहमति भय पैदा करने वाली है।
                    इस बिल के बाद जो टैक्स की व्यवस्था लागु होगी उसमे राज्य सरकारों की भूमिका केवल राजस्व विभाग जितनी रह जाएगी। अगर कोई राज्य सरकार ये समझती है की उसे किसी वस्तु पर लोगों को टैक्स में छूट देनी है तो नही दे पायेगी। बीजेपी और हमारी पूरी मोनोपलिस्टिक व्यवस्था जिस एकीकृत और केंद्रीकृत व्यवस्था का सपना देख रही थी, ये उसकी तरफ एक बड़ा कदम है।
                     राज्य सभा की बहस में जो चीज सबसे अजीब और वितृष्णा पैदा करने वाली थी, वो ये की GST के बारे में, जो की सीधे राज्यों से सम्बन्धित है, सरकार कोई भी फैसला ले तो सभी विपक्षी सांसद सरकार और वित्त मंत्री से आजिजी कर रहे थे की उस बिल को मनी बिल के रूप में ना लाया जाये। क्योंकि मनी बिल पर राज्य सभा को वोट का अधिकार हासिल नही है। ये कैसी व्यवस्था है जिसमे राज्यों के सीधे प्रतिनिधियों को राज्यों के बारे में फैसला करने वाले बिल पर वोटिंग का अधिकार नही है। टैक्स की आमदनी बढ़ने की ख़ुशी में अतिउत्साहित सांसद इसमें इतना बदलाव तक नही करवा पाए की इससे सम्बन्धित कोई भी बिल मनी बिल के रूप में पेश नही होगा।
                    दूसरा जो उल्टा अर्थशास्त्र लोगों को पढ़ाया जा रहा है वो ये है। वित्त मंत्री बार बार ये कह रहे हैं की इससे राज्यों की आमदनी बढ़ेगी। जो दिखाई भी दे रहा है। अगर सरकार GST की दर 18 % के न्यूनतम स्तर पर भी रखती है ( जो की सम्भव नही लगता ) तो भी सभी चीजों पर सर्विस टैक्स 14 % से बढ़कर 18 % हो जायेगा। बाकि चीजों के दाम  भी बढ़ेंगे। इससे राज्यों और केंद्र, दोनों की कमाई बढ़ेगी। लेकिन उसके बाद ये कहना की इससे लोगों को सस्ती चीजें मिलेंगी, हद दर्जे का मजाक है। राज्य की कमाई बढ़ जाये और चीजें सस्ती हो जाएँ, तो बीच का पैसा क्या अमेरिका आपको देगा ? कॉरपोरेट मीडिया द्वारा बार बार बोले जा रहे इस झूठ की सच्चाई तो ये टैक्स लागु होते ही लोगों के सामने आ जाएगी। उसके बाद ?
                     इस बिल के जो दुष्प्रभाव होंगे, लोगों पर जो बोझ पड़ेगा , उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? क्या उसके बाद शरद यादव , अरुण जेटली, सीताराम येचुरी या तृणमूल के नेता संसद में और बाहर छाती ठोंककर ये कहेंगे की हाँ, हम हैं इसके जिम्मेदार। या फिर वही राजनैतिक बयानबाजी का दौर चलेगा। हमारी कोई सुन नही रहा, सरकार ने हमे धोखे में रक्खा, हम इस महंगाई के खिलाफ है आदि आदी।
                    या फिर लोगों को मान लेना चाहिए की सब नूरा कुश्ती है।

डॉ उर्जित पटेल नए RBI गवर्नर

खबरी -- रिज़र्व बैंक के नए गवर्नर के बारे में क्या ख्याल है ?

गप्पी -- डॉ उर्जित पटेल एक बहुत ही काबिल और विद्धान शख्शियत हैं। मोदी सरकार के अब तक के अनुभवों को देखते हुए, और रघुराम राजन जैसे काबिल आदमी को गवर्नर की दूसरी टर्म नही दिए जाने को लेकर लोगों में ये आशंका थी की RBI गवर्नर जैसे महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील पद पर भी किसी गजेन्द्र चौहान को ना बैठा दिया जाये। अब तक मोदी सरकार महत्त्वपूर्ण सरकारी पदों पर आरएसएस और बीजेपी से जुड़े कम योग्य लोगों को नियुक्त करती रही है। इसलिए लोगों के मन में गहरा सन्देह था। लेकिन डॉ उर्जित पटेल की नियुक्ति के बाद लोगों ने सन्तोष की साँस ली है। डॉ उर्जित पटेल बेहद काबिल इंसान हैं और एक प्रख्यात अर्थशास्त्री होने के कारण अर्थव्यवस्था की जरूरतों को अच्छी तरह समझते हैं।
               जहां तक सोशल मीडिया में उनके रिलायंस से जुड़े रहने के बारे में सवाल उठाये जा रहे हैं तो इससे ये सिद्ध नही होता की वो एक उद्योग समूह के हिसाब से निर्णय लेंगे। उनका कार्यकाल शुरू होने से पहले ही इस तरह के सवाल उठाना सही नही है।
                देश ये उम्मीद करता है की गवर्नर की हैसियत से डॉ उर्जित पटेल महंगाई को काबू में रक्खेंगे और जनता के विशाल बहुमत के हितों की रक्षा करेंगे।

Wednesday, August 17, 2016

मोदी जी , क्या आप ओबामा को गद्दार कहेंगे ?

                आमिर खान की पत्नी ने अकेले में अपने पति को अपना डर जाहिर करते हुए कहा की क्या हमे देश छोड़कर दूसरी जगह चले जाना चाहिए ? जिसे आमिर खान ने ख़ारिज कर दिया। ये बात खुद आमिर खान ने बताई। लेकिन आरएसएस और बीजेपी को आमिर खान के मुसलमान होने के चलते उसे गद्दार ठहराने का भूत सवार हो गया। जो लोग तीस लाख रूपये में अमेरिकी वीजा खरीदने के लिए लाइन लगा कर खड़े हैं और मौका मिले तो आधीरात को देश छोड़ सकते हैं वो भी आमिर को गद्दार बता रहे थे।
                    लेकिन अब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से कहा है की अगर ट्रम्प राष्ट्रपति का चुनाव जीतते हैं तो वो और उनका परिवार अमेरिका छोड़कर कनाडा चले जायेंगे। इस पर अमेरिका में तो इस तरह की कोई प्रतिक्रिया नही हुई, लेकिन मोदीजी को तो ये जरूर कहना चाहिए की ओबामा गद्दार है।

Wednesday, August 10, 2016

देश मजे से डूब रहा है।

खबरी -- आजकल देश का क्या हाल चाल है ?

गप्पी -- देश एकदम मजे में है। बस कुछ दलित प्रदर्शन कर रहे हैं, कर्मचारी और मजदूर हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं, कश्मीर में कर्फ्यू लगा हुआ है, आदिवासी विरोध यात्रा निकाल रहे हैं, मुस्लिम डरे हुए हैं और जो कल तक प्रधानमंत्री को हिन्दू हृदय सम्राट बताते थे वो उन्हें गद्दार कह रहे हैं। वरना सब ठीक ठाक है। सबका साथ और सबका विकास हो रहा है।

खबरी -- लेकिन लोगों को सरकार के विकास के दावे पर भरोसा क्यों नही हो रहा है ?

गप्पी -- पिछले एक साल में अदानी की सम्पत्ति में 25000 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। फिर भी किसी को भरोसा नही है तो इसमें सरकार बेचारी क्या कर सकती है।

खबरी -- ये आप पार्टी के सांसद मान का क्या मामला है ? सुना है अकाली और बीजेपी के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष को कोई चिट्ठी लिखी है ?

गप्पी -- आम आदमी पार्टी और देश के कई लोग कह रहे थे की पंजाब में नशे की समस्या बहुत बड़ी हो गयी है तो अकाली और बीजेपी इसे पंजाब को बदनाम करने की साजिश कहते थे। अब इस घटना से उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया की सचमुच पंजाब में नशे की समस्या बहुत गहरी है।

खबरी -- लेकिन इस सब के बावजूद भारत में लोकतंत्र की मजबूती को तो मानना पड़ेगा।

गप्पी -- बिल्कुल, देखो ना जो GST बिल भारी विरोध के कारण 12 साल अटका रहा , उसमे बिना किसी सैद्धान्तिक बदलाव के भी उसके खिलाफ एक भी वोट नही पड़ा। जब दुष्परिणाम सामने आएंगे तो फिर एक दूसरे पर इल्जाम लगाने का एक नया सिलसिला शुरू होगा। ये हमारे लोकतंत्र की मजबूती का ही तो सबूत है।