Monday, November 30, 2015

राज्य सभा के अधिकारों में कटौती पर बहस और सीधे चुनाव का संदर्भ

पिछले कुछ समय से राज्य सभा के अधिकारों पर बहस शुरू हो गयी है। ये बहस नई चुन कर आई हुई सरकार द्वारा बहुमत ना होने के चलते राज्य सभा से अपने संविधान संशोधन बिल पास ना करवा सकने के चलते शुरू हुई है। वित्त मंत्री ने भूमि बिल और GST बिल के राज्य सभा में अटक जाने के कारण बयान देते हुए कहा की बिना चुने हुए लोग, चुने हुए लोगों के काम को अटका रहे हैं और ये लोकतंत्र के लिए सही नही है। उसके बाद कई लोगों ने इस पर अपनी बात कहि है। इसमें अभी-अभी ताजा उदाहरण बीजू जनता दल के सांसद जय पांडा के इस संदर्भ में ताजा लिखे लेख का है जिसमे उसने भी लगभग अरुण जेटली की राय का लगभग समर्थन किया है। इस पूरी पृष्ठ भूमि में इस सवाल की एक विस्तृत छानबीन की जरूरत है।
संविधान की व्यवस्था --
                                       संविधान में राज्य सभा को कुछ मामलों में लोकसभा के बराबर के अधिकार के अधिकार दिए गए हैं और कुछ मामलों में लोकसभा को अबाधित अधिकार दिए गए हैं। बजट को पास करवाने के लिए और किसी भी प्रकार के मनी बिल के संदर्भ में किसी भी बिल को राज्य सभा में पास करवाने की कोई जरूरत नही है। इस मामले में लोकसभा को पूर्ण रूप से अकेले ही अधिकृत किया गया है। लेकिन हमारे संविधान के संघीय ढांचे को देखते हुए संविधान संशोधन के मामले में और दूसरे मामलों में राज्य सभा को वो सभी अधिकार हासिल हैं जो लोकसभा को हासिल हैं। राज्य सभा राज्यों द्वारा चुने गए सदस्यों  सदन है और लगभग राज्यों की काउन्सिल की तरह काम करती है। इसलिए संविधान के  संघीय ढांचे को बनाये रखने के लिए उसे ये अधिकार दिए गए हैं। राज्य सभा के लोग कोई बिना चुनाव के आये हुए या नामित किये हुए नही हैं। फर्क केवल इतना है की ये लोग लोकसभा सदस्यों की तरह सीधे चुन कर आने की बजाए राज्य विधान सभाओं में लोगों द्वारा चुने गए, लोगों द्वारा चुने गए हैं।
सीधे चुनाव का सवाल -
                                       ये बात की राज्य सभा के सदस्य लोगों का सीधा प्रतिनिधित्व नही करते, सीधे रूप में सही होने के बावजूद दूसरे रूप में सही नही है। राज्य सभा के सदस्य विधान सभाओं के जिन सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं वो सदस्य भी लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं। लेकिन राज्य सभा का चुनाव लोकसभा द्वारा एकसाथ नही होता है बल्कि हर दो साल बाद इसके एक तिहाई सदस्यों का चुनाव होता है। इसलिए अगर इन दो सालों  में किसी विधान सभा के चुनाव हुए हों ओर उसमे पार्टियों की स्थिति में बदलाव आया हो तो उसका सीधा असर इस चुनाव पर पड़ता है और नए सदस्यों के हिसाब से लोग चुने जाते हैं। लोकसभा के चुनाव में एक साथ सभी सदस्य सीधे लोगों द्वारा चुने जाते हैं इसलिए उसे सीधा लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन माना जाता है। इसलिए ये मांग उठाई जा रही है की उसे अबाधित अधिकार दिए जाएँ। लेकिन इसमें इस बात का खतरा भी रहता है की लोकसभा चुनाव में लोग किसी तात्कालिक घटना, सहानुभूति के आधार और किसी लहर के चलते भी चुन कर आ सकते हैं। और इस तरह चुन कर आये हुए लोग जल्दबाजी में संविधान में कोई ऐसा परिवर्तन या संशोधन कर सकते हैं जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। संविधान निर्माताओं के ध्यान में ये बात भी रही होगी और इसीलिए उन्होंने कानून बनाने और संविधान संशोधन करने जैसे मामलों में राज्य सभा को भी बराबर के अधिकार दिए ताकि इस तरह की चीजों को रोका जा सके।
लोकसभा और लोक-प्रतिनिधित्व ----
                                                            हमारे देश में लोकसभा का चुनाव जिस तरीके से होता है उसमे ये कतई जरूरी नही है की लोकसभा के चुने हुए सदस्य लोगों के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हों। हमारी चुनाव प्रणाली के अनुसार तो 25 % वोट लेने वाली पार्टी भी लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर सकती है। उसके आलावा कोई ऐसी पार्टी भी सरकार में पहुंच सकती है जो देश के किसी एक क्षेत्र जैसे उत्तर या दक्षिण में ही प्रभाव रखती हो। इस हालात में केवल लोकसभा को सारी शक्तियां देना देश के संघीय ढांचे और बहुमत की राय के खिलाफ जा सकती हैं। इसलिए ऐसे मामलों में दोनों सदनों को समान अधिकार एक दूरदर्शी फैसला था।
लोकमहत्त्व के काम और राज्य सभा ---
                                                               दूसरा सवाल ये है की क्या राज्य सभा सचमुच में लोक महत्त्व के बिलों को रोकने का साधन बन गयी है ? अभी जो पार्टी सत्ता में है वो अपना प्रो-कॉर्पोरेट एजेंडा लागू करने की जल्दबाजी में है। इसलिए वो कुछ ऐसे संशोधन करना चाहती है जिन पर देश में गंभीर बहस है और देश का एक बड़ा वर्ग उनका विरोध कर रहा है। राज्य सभा पहले भी संविधान संशोधनों को मंजूरी देती रही है और ऐसा नही है की उसने सभी बिलों रोक कर रक्खा हुआ है। लेकिन अपने एजेंडे को लागु ना कर पाने की खीज में सरकार की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं। इसलिए संविधान निर्माताओं की समझ और राज्य सभा को मिले अधिकारों के महत्त्व को परोक्ष या अपरोक्ष चुनाव के नाम पर कम नही किया जाना चाहिए।

Thursday, November 26, 2015

संविधान दिवस, बाबा साहेब अम्बेडकर और राजनाथ सिंह

आज संसद में बाबा साहेब अम्बेडकर की 125वीं जयंती पर संविधान दिवस मनाये जाने के अवसर पर संसद में इस विषय पर बोलते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा की भारत में कई बार और बार-बार अपमान सहन करने के बावजूद बाबा साहेब ने कभी देश छोड़ने की बात नही की। राजनाथ सिंह के दिमाग में उस समय भी आमिर खान छाये हुए थे।
            लेकिन राजनाथ सिंह ने  एक बात नही बताई की ब्राह्मण वादी हिंदू धर्म से अपमानित होकर और ये समझ लेने के बाद की हिन्दू धर्म में रहते हुए किसी भी दलित वर्ग के व्यक्ति के लिए बराबरी का सम्मान प्राप्त करना सम्भव नही है। और इसी कारण से बाबा साहेब अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया था और समग्र दलित समाज से हिन्दू धर्म का त्याग करने की सलाह दी थी। ये ब्राह्मण वादी हिन्दू धर्म की असहिष्णुता ही थी जिसने बाबा साहेब अम्बेडकर को हिन्दू धर्म छोड़ने के लिए मजबूर किया। ये  वही लोग थे जो बाकि किसी को इस देश का नागरिक मानने को भी तैयार नही थे और आज भी वही लोग हैं जो बाकि किसी को देशभक्त मानना तो दूर, उनको इस देश का नागरिक होने का दर्जा भी देने को तैयार नही हैं।
             जब असहिष्णुता की बात होती है तो सभी असहिष्णु तत्व इस बात को इस तरह प्रचारित करते हैं जैसे ये पुरे देश के और खासकर सभी हिन्दुओं के असहिष्णु होने की बात हो। इस मामले पर पुरस्कार लौटाने वाले ज्यादातर लोग हिन्दू ही हैं। और इस असहनशीलता का शिकार होकर जान खो देने वाले दाभोलकर, कलबुर्गी और गोविन्द पंसारे तीनो हिन्दू ही थे। ये लड़ाई हिन्दू और गैर हिन्दू की नही है और ना ही भारतीय और गैर भारतीय की है। ये लड़ाई समाज को बाँटने वाले और देश को एक धर्म आधारित राज्य में बदल देने की कोशिश करने वालों और उसका विरोध करने वालों के बीच है। लेकिन इसमें दुर्भाग्य की बात ये है की इसमें ऐसे लोग भी जो हमेशा से सहिष्णु रहे हैं और इस तरह के विवाद के खिलाफ हैं वो भी दुष्प्रचार के शिकार हो जाते हैं।

Wednesday, November 25, 2015

GST Bill पर सरकार का मिथ्या आशावाद

GST Bill पर सरकार और विपक्ष के बीच का गतिरोध कोई नया नही है। इस बिल पर सरकार और विपक्ष के बीच गंभीर मतभेद हैं। सरकार पहले दिन से इन मतभेदों को छिपाने और इस पर लगभग आम सहमति का दावा करती रही है। लेकिन इसके बावजूद वो इसको पास करवाने में नाकामयाब रही है। सरकार इसके लिए चाहे कितना ही विपक्ष को विकास विरोधी बताये और कोसे, लेकिन उससे ये बात खत्म नही हो जाती की वो इसे पास नही करवा पा रही है।
             अब जब शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है तो सरकार का ये बयान की उसे इस सत्र में इसके पास होने की पूरी उम्मीद है केवल उसके मिथ्या आशावाद या फिर लोगों को गुमराह करने की कोशिश ही है। कारण ये है की इस दौरान सरकार ने ऐसा कुछ नही किया है जिससे ये संकेत मिलता हो की इस पर सरकार और विपक्ष के बीच मतभेद कम हुए हैं। उल्टा शीतकालीन सत्र से पहले बीजेपी के कुछ नेताओं द्वारा राहुल गांधी और राबर्ट वाड्रा पर तेजी से व्यक्तिगत हमले हुए हैं जिससे सरकार और विपक्ष के बीच कड़वाहट कम होने की बजाए बढ़ी ही है। सीपीआई [एम ] नेता सीताराम येचुरी ने तो बिलकुल साफ साफ कहा है की शीतकालीन सत्र में इस बिल का पास ना होना सरकार द्वारा होमवर्क की कमी का नतीजा होगा। येचुरी ने कहा की सरकार ने इस पर बात करने के लिए एक सर्वदलीय बैठक तक नही बुलाई।
             अब सत्र से ठीक पहले वित्तमंत्री का ये कहना की वो इस मामले पर कांग्रेस से बातचीत को तैयार हैं की ट्यून भी कुछ ऐसी है जैसे ये कोई कांग्रेस की जिम्मेदारी है और सरकार उसके लिए कोई रियायत दे रही है। कुछ लोगों का ये कहना की बीजेपी अभी भी ये नही समझ पाई है की वो अब विपक्ष में नही बल्कि सत्ता में है, ठीक ही लगता है। इसलिए इस बिल के इस सत्र में पारित होने की आशा करना विलासिता ही होगी।

-----इस विषय पर दूसरे लेख ------

GST बिल घोर जनविरोधी, भयंकर महंगाई बढ़ाने वाला और लघु उद्योगों की मौत का फरमान है। 

GST बिल अलोकतांत्रिक,संघीय प्रणाली के खिलाफ और अमीरों और बड़ी कम्पनियों के फायदे में है।

 

कर्मचारी भविष्य-निधि संगठन [ EPFO ] के ETF में निवेश के कम मुनाफे पर चिंता

सरकार के शेयर मार्केट में निवेश को बढ़ावा देने की कोशिश में कर्मचारी भविष्य-निधि संगठन [EPFO ] के धन का इसमें निवेश करने के फैसले के बाद इसके CBT ने मार्च 2016 तक शेयर मार्केट में 6000 करोड़ के निवेश का फैसला लिया। ये निवेश केवल ETF यानि एक्सचेंज ट्रेडेड फण्ड के माध्यम से करने का फैसला हुआ। इसके बाद ऑगस्त से लेकर अब तक इसमें 2322 करोड़ का निवेश किया जा चूका है। इस फैसले के समर्थन में सरकार और शेयर बाजार के समर्थको का तर्क था की भविष्य-निधि संगठन को अपने निवेश के लिए ज्यादा मुनाफा देने वाले स्रोतों की खोज करनी चाहिए। केवल तयशुदा ब्याज में निवेश ज्यादा फायदेमंद नही है। लेकिन सभी केंद्रीय ट्रैड यूनियनों ने इसका ये कहकर कड़ा विरोध किया था की शेयर बाजार का निवेश बहुत जोखिम भरा होता है और कर्मचारियों की बचत का पैसा इस तरह के जोखिम वाले जगहों में निवेश नही किया जाना चाहिए। परन्तु उस समय सरकार और बाजार समर्थक इसमें ज्यादा मुनाफा होने का तर्क दे रहे थे।
                  अब इसके सेंट्रल बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज की मीटिंग में जब इस निवेश के मुनाफे [ Return ] की गणना की गयी तो ये सालाना 1 . 52 % हुआ। जिससे इसका विरोध करने वालों की आशंका सही साबित हुई। अब बाजार समर्थक ये तर्क दे रहे हैं की इतने कम समय में शेयर बाजार के रिटर्न की समीक्षा सही नही है और की शेयर बाजार हमेशा लम्बी अवधि में ज्यादा रिटर्न देता है। लेकिन अब इसके बोर्ड की अगली मीटिंग में इस पर पुनर्विचार होगा।
                     इस पुनर्विचार में इस निवेश को रोके जाने या पलटे जाने की संभावना से इसके केंद्रीय कमिशनर ने इंकार किया है  इतना तो जरूर है की इसका विरोध करने वाले कर्मचारी यूनियनों के सदस्यों का पक्ष मजबूत होगा। CITU के नेता और इसके सेंट्रल बोर्ड के सदस्य ए, के, पद्मनाभम ने कहा है की शेयर मार्केट में निवेश से पहले सरकार इसके एक न्यूनतम रिटर्न की गारंटी दे। वरना कर्मचारियों की जिंदगी भर की बचत का पैसा शेयर बाजार में लगाने का वो सख्ती से विरोध करेंगे।
                   इन हालात को देखते हुए 6 दिसंबर को होने वाली इसके सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग पर सबकी नजर रहेगी।

Tuesday, November 24, 2015

Comment -- रूस का विमान गिराने पर तुर्की को अमेरिका और नाटो का समर्थन

खबरी -- अमेरिका और नाटो ने रूस का विमान गिराये जाने की घटना पर तुर्की का समर्थन किया है।

गप्पी -- रूस ने विमान गिराने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में इसे आतंकवादियों के सहयोगियों द्वारा पीठ में छुरा घोंपने की घटना बताया था। रूस और दुनिया के बहुत से लोग ये मानते हैं की ISIS की स्थापना और उसका सहयोग अमेरिका और उसके समर्थक कर रहे हैं। कई चीजों और घटनाओं के द्वारा ये बात साफ हुई है। लेकिन ये देश खुद अपने देश की जनता और शेष विश्व के सामने इससे इंकार करती रही हैं। अभी दो दिन पहले सयुंक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित करके ISIS के खिलाफ साझी कारवाही का आग्रह किया है। उसके बावजूद ये घटना कुछ दूसरे ही संकेत देती है।
                 अगर हम इस घटना पर सरसरी नजर भी डालें तो इसके दूसरे उद्देश्य साफ हो जाते हैं। रूस का विमान जब हमले का शिकार हुआ तब वो सीरिया की सीमा में था। उसका मलबा और उसके दोनों पायलट सीरिया के इलाके में गिरे। जिनमे एक पायलट के मृत शरीर पर सीरिया के विद्रोहियों को नाचते हुए दिखाया गया है। खुद तुर्की ने इस पर जो बयान जारी किया है उसमे उसने पांच मिनट में दस बार चेतावनी देने की बात कही है। इसका मतलब ये है की तुर्की ने चेतावनी देने के पांच मिनट के अंदर ही विमान को मार गिराया। रूस सीरिया में ISIS के खिलाफ कार्यवाही कर रहा है और अगर किसी कारणवश ये मान भी लिया जाये की उसके विमान द्वारा तुर्की की सीमा का उल्ल्ंघन हो गया तो इसमें ऐसी कौनसी आफत आ गयी थी की विमान गिराने जैसी कार्यवाही की जरूरत पड़ी। असल कारण ये है की रूस द्वारा सीरिया में असद सरकार को समर्थन इनको हजम नही हो रहा है और इन्हे लगता है की रूस की कार्यवाही के जारी रहते सीरिया के असद विरोधी दलों को कामयाब नही किया जा सकता। अपने बयान में अमेरिका ने कहा है की तुर्की को अपनी वायुसीमा की रक्षा का हक है और रूस अगर केवल ISIS के खिलाफ की कार्यवाही पर ध्यान दे तो टकराव की संभावना कम होगी। ये बयान अपने आप में अमेरिकी और उसके साथी देशो की नीति को स्पष्ट करते हैं।
                      इसमें एक बड़ा सवाल ये खड़ा होता है की आतंकवाद पर अमेरिका हमेशा दोहरे मापदंड क्यों अपनाता है। उसके तर्क हर बार बदल जाते हैं। जैसे -
१.   अमेरिका जब अफगानिस्तान में कार्यवाही करते हुए पाकिस्तान में घुस कर हमला करता है या इस्राइल जब लेबनान और सीरिया में हमला करते हैं तो अमेरिका कहता है की उसे आतंकवादियों का पीछा करने और मार गिराने का हक है।
२.   अमेरिका जब असद सरकार के खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को समर्थन देता है तो कहता है की वो सीरिया में लोकतंत्र की स्थापना में मदद कर रहा है। और जब वो यमन के भगोड़े राष्ट्रपति को समर्थन देकर यमन के विरोधी दलों पर हमला करता है तो कहता है की एक legitimate सरकार को समर्थन दे रहा है।
३.   जब अमेरिका के ड्रोन पाकिस्तान में घुस कर हमला करते हैं और उसमे पाकिस्तान के निर्दोष नागरिक मारे जाते हैं तो अमेरिका इसे " गलती से हुआ " हमला बताता है और इस बात पर जोर देता है की आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही में इस तरह की एकाध भूल को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए। और केवल पांच मिनट में रूस के विमान गिराने की तुर्की कार्यवाही को उसके वायुसीमा की रक्षा का हक करार देता है।
       इन सब घटनाओं से एक बार फिर ये साबित होता है की अमेरिका केवल अपने हितों पर ध्यान देता है और उसका कोई इरादा नही है आतंकवाद के खिलाफ किसी निरपेक्ष कार्यवाही में शामिल होने का। आतंक के सवाल पर दुनिया के नजरिये में दरार बार बार सामने आती है और अमेरिका और उसके सहयोगी केवल अपने आर्थिक और सामरिक हितों के अनुसार सोचते हैं। फिर भले ही खुद उनके नागरिकों को भी इसकी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े। आतंक के सवाल पर अमेरिका की भारत और पाकिस्तान नीति में दशकों से ये बात सामने आ चुकी है।

Comment -- आमिर खान का बयान, कश्मीर और भक्तगण

देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के खिलाफ आमिर खान द्वारा दिए गए बयान पर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वो अपेक्षित थी। आमिर खान ने ये बयान रामनाथ गोयनका अवार्ड दिए जाने के समय हुए समारोह में दिया और उस वक्त सरकार के कुछ बड़े मंत्री और नेता, जैसे की अरुण जेटली, रविशंकर प्रशाद और संबित पात्रा वहां मौजूद थे। जाहिर है की इस पर प्रतिक्रियाएं भी आनी ही थी। लेकिन इन प्रतिक्रियाओं में एक अजीब किस्म की झल्लाहट झलक रही थी।
               इस पर प्रतिक्रिया करते हुए अनुपम खेर ने कहा की अतुल्य भारत कब से असहनशील हो गया ? संघी कलाकारों  यही मुसीबत है की वो अपने आप को ही भारत समझते हैं। आमिर खान का बयान ना तो भारत के खिलाफ था और ना ही हिन्दुओं के खिलाफ था। ये बयान केवल और केवल उन संघी गुंडा गिरोहों के खिलाफ था जो देश का माहौल बिगाड़ने  कोशिश कर रहे हैं। लेकिन हमेशा की तरह संघ से जुड़े लोग विशाल हिन्दू बहुमत  पीछे छिपने  कोशिश करते हैं और ऐसा माहोल बनाने की कोशिश करते हैं जैसे वो सारे हिन्दू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। अगर ऐसा होता तो  आपका बिहार में ये हाल होता ? एक दूसरे प्रवक्ता हैं अशोक पंडित, जो हर जगह घुसने  कोशिश करते हैं और बहस पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं, और जिनके बारे में संघ के ही एक दूसरे प्रशंसक पहलाज निहलानी ने आज ही फर्जीवाड़ा करने का आरोप लगाया है उन्होंने भी ऐसी ही हिंदू प्रतिनिधि की मुद्रा अपनाई है। एक बयान परेश रावल का भी आया है जिसमे उसने कहा है की किसी भी देशभक्त को मुसीबत के समय अपनी मातृभूमि को छोड़कर नही भागना चाहिए। उन्होंने ये बयान शायद कश्मीर के संदर्भ में अशोक पंडित और अनुपम खेर के लिए दिया है जो मुसीबत के समय कश्मीर से भाग गए अब हररोज टीवी  कश्मीर-कश्मीर चिल्लाते रहते हैं। मैं कश्मीर और कश्मीरी पंडितों से जुड़े कुछ सवाल इनसे पूछना चाहता हूँ।
१.  क्या कश्मीर में अब एक भी पंडित नही रहता ? और अगर अब भी कश्मीर में पंडित रहते हैं तो वो क्यों भाग आये ?
२.  अब तो कश्मीर में और केंद्र में दोनों जगह आपकी सरकार है, फिर आप वापिस क्यों नही जा रहे ?
३.   अगर अब भी कश्मीर में हालत सामान्य नही है तो आपकी सरकार क्या कर रही है ?
४.   अगर आपको लगता है की कश्मीर के हालात पर सरकार का ज्यादा काबू नही है तो आप पिछली सरकार को क्यों कोसते थे ? क्या उसके पीछे राजनितिक कारण थे ?
५.   आपकी सरकार कश्मीर में लहराते ISIS के झंडों और उन्हें लहराने वालों पर कार्यवाही नही कर पा रही है या करना नही चाहती ?
६.   अगर आपकी सरकार कार्यवाही कर नही पा रही है तो उसका कारण बताइये। और अगर करना नही चाहती तो उसका कारण बताइये। अब ये मत कहना की ये राष्ट्रिय सुरक्षा का मामला है और इस पर बहस नही की जा सकती क्योंकि इस मांग पर आपने हजारों टीवी कार्यक्रम किये हैं।
७.   आपकी सरकार के आने के बाद आपने शरणार्थी कैम्पों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए कौन-कौन सी नई सुविधाएँ लागु की हैं ?
           अगर आपके पास इन सब सवालों का कोई पुख्ता जवाब नही है और अगर आप इन पंडितों को घाटी में वापिस नही बसा पा रहे हैं तो टीवी बहसों में भौकना बंद कीजिये।
                      मेरा एक सवाल और सलाह भक्तों के लिए भी है। वो अपने आप को इस देश और इस देश के हिन्दुओं का ठेकेदार ना समझें। अभी इसका ठेका उन्हें नही मिला है। इस देश में रहने वाला हर नागरिक अपनी समस्याओं और परेशानियों पर अपनी राय रखने का अधिकार रखता है और सरकार से उस पर जवाब और कार्यवाही की उम्मीद भी रखता है और ये अधिकार उसे देश के संविधान ने दिया है। और ये उस संविधान ने दिया है जिसे बनाने में और लागु करने में आपके पूर्वजों की कोई भूमिका नही थी।

Friday, November 20, 2015

Comment -- मोदी जी की भारत यात्रा, चीन की गैर क़ानूनी बैंकिंग व्यवहार की खबर और UP में गाय

खबरी -- मोदी जी फिर विदेश यात्रा पर। 

गप्पी -- हाँ ! मोदी जी की भारत यात्रा आज समाप्त  गयी।  अपनी अगली भारत यात्रा के दौरान उम्मीद है की मोदी जी भारत की संसद को सम्बोधित करेंगे।

खबरी -- चीन में बड़े पैमाने की गैर क़ानूनी विदेशी मुद्रा बैंकिंग पकड़ी गयी है।

गप्पी -- चीन सरकार ने USD 64 बिलियन के विदेशी मुद्रा देश से बाहर भेजे जाने को पकड़ने की घोषणा की है। अब तक चीन में USD 126 बिलियन के गैर क़ानूनी बैंक व्यवहार पकड़ने और 370 लोगों पर कार्यवाही करने की खबर दी है। चीन जैसे देश, जहां इतने सख्त कानून और सजाएं हैं, वहां अगर इतने बड़े पैमाने पर काला धन विदेश भेजा जा रहा है तो हमारे देश की हालत का तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता  है। 

खबरी -- अब मुलायम सिंह ने एक समारोह में गाय पालने की बात कही है।

गप्पी -- बिहार चुनाव के बाद गाय के पास कोई काम नही था, सो वह पड़ोस के उत्तर प्रदेश में चली गयी। मुलायम सिंह ने सोचा होगा की जब तक बीजेपी इस पर कब्जा जमाये, इसे अपने आँगन में बांध लिया जाये।

Thursday, November 19, 2015

COMMENT ON NEWS -- ओबामा, मोदी और मुलायम सिंह यादव

खबरी -- ओबामा ने कहा है की रूस को सीरिया में असद और legitimate सरकार में से एक को चुनना होगा। 

गप्पी -- सीरिया में राष्ट्रपति असद की सरकार के खिलाफ लड़ने वाले अमेरिका और पश्चिमी देशों से समर्थन प्राप्त विद्रोही वहां चुनाव में भाग लेने से इंकार करते हैं। उनका कहना है की बिना किसी चुनाव के सीरिया की सरकार को उनके हवाले कर दिया जाये। क्योंकि विद्रोही और अमेरिका दोनों जानते हैं की उन्हें लोगों का समर्थन प्राप्त नही है। अमेरिका को सीरिया में भी लीबिया, इराक और यमन की तरह एक Legitimate सरकार चाहिए।

खबरी -- उत्तरप्रदेश में भी बिहार की तरह महागठबंधन की बात चल रही है।

गप्पी -- लेकिन ये गठबंधन किस-किसके बीच हो सकता है अभी इस पर स्थिति साफ नही है। बिहार चुनाव में मुलायम सिंह द्वारा बीजेपी समर्थक स्टैंड लिए जाने के बाद दादरी की घटना पर मुलायम सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था की उनकी सरकार ने तीन ऐसे लोगों की पहचान कर ली है जो दादरी और मुजफ्फर नगर , दोनों जगह दंगे करवाने के लिए जिम्मेदार हैं, और इन लोगों पर कार्यवाही की जाएगी भले ही उनकी सरकार क्यों ना चली जाये। उसके बाद हमेशा की तरह मुलायम सिंह यादव चददर तान कर सो गए और लोग अभी भी कार्यवाही का इंतजार कर रहे हैं। इसलिए लगातार खत्म होती साख के बाद मुलायम के नेतृत्व में कोई गठबंधन बन सकता है इसमें लोगों को शक है।

खबरी -- प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है की विविधता हमारी ताकत है। 

गप्पी -- मोदी जी कई बार इस तरह के बयान देते रहते हैं जो उनकी पार्टी और आरएसएस की गतिविधियों से मेल नही खाते। अगर विविधता को आप ताकत मानते हैं तो इसे खत्म करने के प्रयास क्यों कर रहे हैं। मोदी जी की साख भी केवल बयानों से बहाल होने वाली नही है। उन्हें भी इसके लिए कार्यवाही करनी होगी।

Wednesday, November 18, 2015

OPINION --" कांग्रेस मुक्त भारत " की इच्छा और संसदीय गतिरोध

लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी एक नारा बड़े जोर-शोर से लगाती थी। ये नारा था " कांग्रेस मुक्त भारत " का। पिछली कांग्रेस सरकार की घटती हुई या यूँ कहिये की लगभग खत्म हो चुकी लोकप्रियता के चलते किसी को ये नारा अटपटा नही लगा। लेकिन अब जब इस सरकार का एक तिहाई समय गुजर चूका है और लोग अभी उसके वायदों के पुरे होने का इंतजार ही कर रहे हैं, ऐसे समय में लोगों को ये नारा अच्छा नही लग रहा है।
                लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के इवेंट मैनेजमेंट के करिश्मे को लोगों ने कामयाब होते देखा। इससे पहले भी गुजरात के चुनावों में बीजेपी और नरेंद्र मोदी इस इवेंट मैनेजमेंट का इस्तेमाल करते रहे हैं। हर जीते जाने वाले चुनाव के बाद बीजेपी ने जैसे ये मान लिया की लोकतंत्र केवल इवेंट मैनेजमेंट के द्वारा चलाया जा सकता है। हमारा मीडिया, जो इस मैनेजमेंट का सीधा बनिफिसयरी था, वो भी सारी चीजों को उसी तरह पेश कर रहा था। लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामो ने इस पुरे मिथक की हवा निकाल दी।
                पिछले लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के खिलाफ लोगों और कॉर्पोरेट सेक्टर की जो नाराजगी थी उसके बाद बीजेपी को उसका फायदा मिला। लेकिन बीजेपी ने ये समझ लिया की वो सचमुच में कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ बढ़ सकती है। सरकार बनने के बाद भी बीजेपी की तरफ से कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार पर उसके व्यक्तिगत हमले जारी रहे। बीजेपी ने चाहे राहुल गांधी की व्यक्तिगत इमेज हो या राबर्ट वाड्रा हो कोई मौका हमला करने का नही छोड़ा।
                 इसके बाद बारी आई संसद में सरकारी कामकाज की। पहले ही सत्र में संसद ने काम के नए रिकार्ड स्थापित किये। सरकार ने कई ऐसे बिल पास करवा लिए जिनका खुद उन्होंने विपक्ष में रहते हुए विरोध किया था और पॉलिसी पैरालिसिस का इल्जाम सरकार पर लगाया था। इन बिलों को पास करवाने में कांग्रेस ने सक्रिय योगदान दिया। लेकिन सरकार ने इसे भी उसकी खुद की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया। बीजेपी ने ऐसा आभास देने की कोशिश की जैसे पिछली सरकार सचमुच निकम्मी थी और वो बहुत कार्यक्षम सरकार है। बीजेपी ने विपक्ष को धन्यवाद देने की सामान्य परम्परा का भी निर्वहन नही किया।
                उसके बाद विवादास्पद भूमि बिल आया। जिसका पुरे देश में किसान संगठनो और विपक्षी दलों ने भारी विरोध किया। लेकिन बीजेपी को लगता था की वो विपक्ष को विकास विरोधी चित्रित करके उसे इस बिल का समर्थन करने को मजबूर कर देगी। और बीजेपी ने यही तरीका अपनाया। इसके लिए उसने चार बार इसके किये अध्यादेश जारी किया। विपक्ष के खिलाफ विकास को रोकने का इल्जाम पुरे जोर-शोर से लगाया। लेकिन चूँकि लोकतंत्र केवल इवेंट मैनेजमेंट नही होता, बीजेपी इसे पास करवाने में विफल हो गयी। उसने शर्मिंदगी के साथ इस बिल को वापिस ले लिया।
                   उसके बाद आया GST बिल का मुद्दा। इस पर भी कांग्रेस ने विरोध का रास्ता अपना लिया। बीजेपी ने फिर वही विकास विरोध की बातें करनी शुरू की और कांग्रेस के खिलाफ अपने हमले जारी रखे। लिहाजा वो इस बिल को पास कराना तो दूर संसद को भी नही चला पाई। उसने संसद के गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की, लेकिन लोगों को बीजेपी द्वारा संसद को बाधित करने के वाक़ये अभी भी याद थे। इसलिए लोगों ने इस मामले पर सरकार की राय को कोई महत्त्व नही दिया, ये बिहार चुनावों से भी साफ हो गया।
                 अब फिर संसद का सत्र सामने है। मीडिया और लोगों का एक हिस्सा इसको भी गतिरोध की भेंट चढ़ जाने का अंदेशा प्रकट कर रहे हैं। कॉर्पोरेट सेक्टर इस सत्र पर आँखे गड़ाए हुए है। लेकिन इससे पहले एक बार फिर राबर्ट वाड्रा और कांग्रेस पर व्यक्तिगत हमलों की बौछार शुरू हो गयी है। बीजेपी अब भी समझती है की वो इस तरह डरा धमका कर अपना काम निकाल लेगी। लेकिन उसकी इस रणनीति के कारण एकबार फिर ये सत्र भी गतिरोध का शिकार होता नजर आ रहा है।
                  अब समय आ गया है की बीजेपी आत्म-मुग्धता की स्थिति से बाहर निकले और विपक्ष के साथ बातचीत और सहयोग का रवैया अपनाये। उसकी ये धारणा गलत है की विरोध करने पर विपक्ष या कांग्रेस बदनाम होगी, उसे ये समझना चाहिए की काम होने या ना होने की जिम्मेदारी उसकी है और इसका जवाब भी उसको ही देना है। लोगों को कांग्रेस और बीजेपी की आपसी राजनीती से कोई मतलब नही है। अगर सरकार काम नही कर रही है तो जिम्मेदारी उसकी ही होगी।

Tuesday, November 17, 2015

Comment--- बच्चों को कटटरता से बचाने का सवाल

खबरी -- ओबामा ने बच्चों को कटटरता से बचाने का बयान दिया है।

गप्पी -- ओबामा ने बच्चों को कटटरता से बचाने का बयान खासकर मुस्लिमो के संदर्भ में दिया है जिस पर पूरी दुनिया में एक बहस छिड़ गयी है। बहुत से लोग इसे अमेरिका का मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह बता रहे हैं जो खुलकर सामने आ गया है।
                 फिर भी ये बात अपनी जगह सही है की बच्चों को कटटरता से बचाया जाना चाहिए। ये कटटरता कई प्रकार की होती है और इन सभी प्रकारों की कटटरता को इसमें शामिल किये बिना न तो इसका कोई हल निकल सकता है और ना ही इसके लिए कोई विश्व स्तरीय जनमत बनाया जा सकता है। जो बच्चे कुछ कटटर देशों के हमलों के शिकार होते हैं उनको इसमें शामिल किए बिना इसका कोई मतलब नही रह जाता है।
armed childs from isis
                बहुत से लोग ये भी याद दिलाते हैं की इराक पर अमेरिकी पाबंदियों के चलते दवाइयों के आभाव में करीब दस लाख बच्चे मारे गए थे और अमेरिका समर्थित इसराइल के हमलों में हर रोज गाजा में कितने ही बच्चे मारे जा रहे हैं उनके बारे में अमेरिका की क्या राय है ये भी बहुत मायने रखता है।
dead body of a child and a person running with a injurd child
                 इसके अलावा गैर-मुस्लिम धर्मो के संगठनो द्वारा बच्चों में डाली जा रही कटटरता के बारे में भी दुनिया को उसी तरह का रवैया अपनाना पड़ेगा। जैसे भारत में आरएसएस द्वारा बच्चों को दी जाने वाली हथियारों की ट्रेनिंग के बारे में। वरना अगर सलेक्टिव रवैया अपनाया जायेगा तो इसकी जन भागीदारी प्रभावित होगी और इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जायेगा।
girls with guns and flags of a rss organization

Saturday, November 14, 2015

Comment -- फ़्रांस पर आतंकी हमला और ISIS के खिलाफ जवाबी कार्यवाही का सवाल

ISIS ने फ़्रांस में सीरियल बम ब्लास्ट करके लगभग 150 लोगों को मार डाला। इस बर्बर और कायरता पूर्ण हमले की पुरे विश्व ने निंदा की और फ़्रांस के साथ एकजुटता का इजहार किया। इस हमले के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति ने इस हमले का कड़ा जवाब देने की घोषणा की। लेकिन पश्चिमी देशों की राजनीती को देखते हुए इस पर कुछ सवाल खड़े होते हैं।
१.  अमेरिका सीरिया में बसर-अल-असद की सरकार को हटाने के लिए ISIS को लगातार मदद देता रहा है। उसे मध्य-पूर्व में अपनी कब्जावर राजनीती और उद्देश्यों के लिए ISIS की लगातार जरूरत पड़ती है।
२.   यूरोपीय देशों को भी असद सरकार को हटाने के लिए ISIS जरूरी नजर आता है और वो इसके खिलाफ रुसी हमले का विरोध कर रहे हैं। पुतिन द्वारा सीरिया में ISIS के खिलाफ कार्यवाही का सबसे ज्यादा विरोध अमेरिका और फ़्रांस ने ही किया था।
३.  ईरान और सीरिया गठबंधन को कमजोर करने और लेबनान में हिजबुल्ला को रोकने के लिए इसराइल भी ISIS को सहयोग करता रहा है और वो मध्य-पूर्व में एक बड़ी और निरंकुश सैन्य ताकत है।
४.  सऊदी अरब भी शिया-सुन्नी अंतर्विरोध के चलते ISIS की मदद कर रहा है।
              इस पूरी गोलबंदी के बाद ISIS के खिलाफ कोई प्रभावी कार्यवाही ये लोग करेंगे इसका भरोसा किसी को नही हो रहा है। अमेरिका और यूरोपीय देश जब भी ISIS के खिलाफ कार्यवाही की बात करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई बाप अपने बिगड़ैल बच्चे को धमका रहा हो।

Friday, November 13, 2015

NEWS -- नितेश राणे अब भी शिव सैनिक ही हैं ?

खबरी -- नितेश राणे ने गिरीश कर्नाड के बयान का विरोध करते हुए उनसे माफ़ी की मांग की है।

गप्पी -- मुश्किल यही है की कांग्रेस में भी ऐसे लोगों की बड़ी तादाद है जो इलाका, धर्म और सम्प्रदाय की राजनीती करते हैं।  नितेश राणे के पिता नारायण राणे कभी शिवसेना के बड़े नेता होते थे जो बाद में कांग्रेस  में शामिल हो गए। लेकिन उनकी सोच, राजनीती और तोर तरीके शिवसेना से मिलते हैं। जब पूरा देश असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रहा है और हिन्दू संगठन कर्नाटक में गिरीश कर्नाड को जान से मारने की धमकी दे रहे हैं, उसी समय नितेश राणे का गिरीश कर्नाड पर हमला फिर से ये साबित करता है की इस लड़ाई को कांग्रेस की  अगुवाई में नही लड़ा जा सकता। हालाँकि कांग्रेस में नितेश राणे कोई नेता नही हैं फिर भी इस लड़ाई में एक असमंजस तो पैदा होती ही है।

Monday, November 9, 2015

बिहार चुनाव के एग्जिट पोल ( EXIT -POLL ) इतने गलत साबित क्यों हुए।

बिहार चुनाव के एग्जिट पोल आने शुरू हुए, और उनमे लगभग सभी कांटे की टककर दिखाने लगे और कुछ तो बीजेपी गठबंधन को आगे दिखाने लगे तो सबसे ज्यादा असहमत उन चैनलों के एंकर ही लग रहे थे। वो एग्जिट पोल प्रसारित जरूर कर रहे थे  परन्तु उनके चेहरे पर इन पोल के परिणामो से असहमति साफ नजर आ रही थी। इसका  कारण ये था की धरातल से जो खबरें उन्हें मिल रही थी वो इनसे मेल नही खा रही थी। उनमे से बहुत से रिपोर्टर और एंकर या तो खुद बिहार से थे या रिपोर्टिंग के लिए बिहार गए थे। उन्होंने वहां महागठबंधन के पक्ष में एक स्पष्ट माहोल देखा था इसलिए उनका दिमाग इन सर्वे रिजल्ट को स्वीकार नही कर पा रहा था। वोटों की गिनती से पहले NDTV पर प्रसारित किये गए हंसा रिसर्च के सर्वे में बीजेपी गठबंधन को आगे बताया गया। ये प्रोग्राम प्रसारित करते समय एंकरिंग रवीश कुमार कर रहे थे, जिनकी निजी राय के अनुसार महागठबंधन बिहार में 160 सीटें जीतने जा रहा था। जहां तक NDTV का सवाल है उसकी प्रतिष्ठा इतनी तो जरूर है की कोई ये नही मानता की ये सर्वे उसने जानबूझकर बीजेपी के पक्ष में दिखाया है। फिर क्या हुआ। बिहार चुनाव में एग्जिट पोल करने वाली ज्यादातर संस्थाएं वहां के असल हालात को क्यों नही पकड़ पाई। सबके परिणाम गलत क्यों साबित हुए ?
                मुझे लगता है की एग्जिट पोल करने की जो पध्दति है उसमे कुछ गंभीर किस्म की खामियां हैं। ये खामी उनमे हमेशा शामिल रहती है भले ही किसी बार ये पोल सही भी क्यों ना साबित हुए हों। उनका तरीका भले ही कितना ही वैज्ञानिक होने का दावा करे, भारत जैसे देश में उसको एकदम सटीक होने के लिए अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना पड़ेगा। इस बात को कई सर्वे करने वाले लोग भी मानते हैं की उनके सैंपल लेते वक्त एक अपर-क्लास बायस रहता है कम या ज्यादा। लेकिन इसके अलावा भी कई चीजें हैं जो उनके परिणामो को गलत दिशा में ले जाती हैं।
                     इनमे एक चीज जो सबसे ज्यादा इनके परिणामो को प्रभावित करती है वो हर समाज और समूह द्वारा किये गए वोटिंग प्रतिशत की जानकारी ना होना है। हर संस्था अपने पोल को ज्यादा से ज्यादा सटीक और वैज्ञानिक बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास करती है। वो ये भी देखती है की सर्वे किये जाने वाले इलाके में किस जाती समूह का वोट प्रतिशत कितना है, और इस बात की पूरी कोशिश भी करती है की उनके सैंपल उसी हिसाब से लिए जाएँ। लेकिन हमारे यहां अलग अलग समूहों का वोट डालने का प्रतिशत हमेशा अलग अलग होता है। जिस तरह शहर और गांवों के वोटिंग प्रतिशत में फर्क होता है, उसी तरह अलग अलग समूहों के वोटिंग प्रतिशत में भी फर्क होता है। और ये फर्क कभी कभी बहुत ही निर्णायक होता है। लेकिन इसकी सुचना उसी दिन सर्वे एजेंसी के पास नही होती। इस तरह की सूचनाएं आने में समय लगता है। इसलिए सर्वे करने वाली एजेंसी उसे समान मानकर नतीजे निकाल देती है जो परिणामो को एकदम बदल देते हैं। ये वैसा ही है जैसे बिहार चुनाव की गिनती शुरू होने के तुरंत बाद पोस्टल बैलेट की गिनती ने एक घंटा पुरे देश को नचाकर रख दिया था और वो बीजेपी की एकतरफा जीत दिखा रहे थे। डाक से वोट भेजने वाले मतदाताओं का समूह बिहार के कुल मतदाताओं से एकदम विपरीत वोट कर रहा था।
                          दूसरा सबसे बड़ा कारण ये है की गरीब और अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति  और जनजाति के लोग सैम्पल लेने वाले आदमी को सही बात नही बताते। मेरा खुद का अनुभव है की एक बार रोज मेरे साथ रहने वाले एक अनुसूचित जाति के आदमी ने मुझे उसके द्वारा दी जाने वाली वोट के बारे में गलत सुचना दी थी। सही सम्पलिंग के लिए सर्वे करने वाली संस्थाओं को उसी समूह या जाति के आदमी का इस्तेमाल करना पड़ेगा वरना उसमे गलत सुचना मिलने की पूरी पूरी संभावना हैं।
                      हमारा समाज एक बहुत ही जटिल समाज है। इसमें सैंपल के आधार पर किये जाने वाले सर्वे के लिए एकदम वैज्ञानिक और सटीक तरीके की खोज करना बहुत ही दुरूह काम है। अभी इसमें पता नही कितने सुधारों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए बिहार चुनाव के एग्जिट पोल करने वाले चैनल गलत साबित हुए।

Tuesday, November 3, 2015

कहां है असहिष्णुता ? कहां है असहनशीलता ?

                         देश के कुछ बुद्धिजीविओं ने कहा की देश में असहनशीलता और असहिष्णुता का माहौल है। उन्होंने इस बात पर की सरकार इस माहौल को ठीक करने के लिए काम करने की बजाए, उन संगठनो को बढ़ावा दे रही है जो इस माहोल को बिगाड़ रहे हैं अपने पुरुस्कार लौटा दिए।
                         इस पर प्रतिक्रिया हुई, जो की होनी ही थी। पहले तो सरकार के प्रवक्ताओं ने इस देश में हुए अब तक के सारे अपराध ये कह कर गिनवा दिए की तब इन्होने पुरुस्कार क्यों नही लोटाये। इससे बात नही बनी। पुरुस्कार लौटाने का सिलसिला जारी रहा। अब इस को और ज्यादा जोर से गलत साबित करने की जरूरत थी। उसके बाद जो हुआ, वो इस प्रकार है। -
                           सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा की देश में कोई असहनशीलता का माहोल नही है। देश एकदम सही और शांतिपूर्वक तरीके से चल रहा है। ये जो साहित्यकार हैं, ये सब के सब या तो वामपंथी हैं या कांग्रेसी हैं। ये अपना सरक्षण खत्म होने के कारण घबराये हुए हैं। इन्होने बहुत मलाई काटी है। इन्होने अपनी किताबें बेचीं हैं और देश में मुफ्त का सम्मान प्राप्त किया है। पिछले साठ सालो में आरएसएस से संबंधित लोगों को पुरुस्कार नही दिए गए। ये मान लेते हैं की उनमे कोई काबिल नही था, लेकिन क्या इसको लोकतंत्र कहते हैं। कुछ तो दिया होता। लेकिन नही, सारे अकादमिक पदों पर यही लोग बैठ गए। हमारे लोगों को तीसरे दर्जे  में भी नही बैठने दिया, क्या ये लोकतंत्र है ? लोकतंत्र मिलबाँटकर खाने का नाम होता है लेकिन इन्होने हमे केवल इसलिए नही पूछा की हम काबिल नही थे। अब हम इन सब लोगों की सफाई कर देंगे। हर एक अकादमिक संस्थान में एक गजेन्द्र चौहान बिठा देंगे। और इन लोगों के सारे काम पर प्रतिबंध लगा देंगे। साथ में मैं ये भी कहना चाहता हूँ की देश में पूरी तरह सहनशीलता का माहोल है। ये लोग समझ लें इस बात को।
                       उसके बाद दूसरे प्रवक्ता आये। उसने कहा की ये सब लोग राजनीती कर रहे हैं और हम इसको बर्दाश्त नही करेंगे। ये लोग राष्ट्र विरोधी हैं। ये सब देश विरोधी है। ये सब हिन्दू विरोधी हैं। ये ऐसे ऐसे कालेजों से आये हैं जहां नकस्लवादी भरे पड़े हैं। वहां हम BSF का कैंप बना देंगे। हम उन युनिवर्सिटियों को बंद कर देंगे। मान लिया की उनमे से बहुत से लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सम्मान रखते हैं लेकिन उससे हमे क्या फर्क पड़ता है। हमने नोबल पुरुस्कार प्राप्त अमृत्य सेन को नालंदा विश्वविद्यालय से बाहर किया या नही। हमने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को नक्सलवादी बताकर जेल में बंद किया या नही। हमारे खिलाफ कोई किताब लिखी जाएगी तो हम उसका मुंह काला कर देंगे। लोगों को क्या खाना चाहिए ये जब तक हमारी सरकार है तब तक तो हम ही बताएंगे, वरना मारे भी जा सकते हैं। और जहां तक असहिष्णुता की बात है ऐसा कुछ भी नही है। अगर ये लोग बोलना, लिखना बंद कर दें तो इनको कोन क्या कहता है ?
                         मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहावत याद आ गयी। एक आदमी अपनी पत्नी को चिट्ठी लिख रहा था। उसका एक दोस्त नजर बचाकर उसे पढ़ रहा था। ये बात उस आदमी को मालूम हो गयी। उसने चिट्ठी में लिखा की शेष बातें दूसरे पत्र में लिखूंगा। अभी तो एक मुर्ख दोस्त पास बैठा हुआ चिट्ठी पढ़ रहा है। उसका दोस्त तुरंत बोला की कमाल है यार, मैंने कुछ नही पढ़ा, फालतू में मुझे मुर्ख ना बताओ। चिट्ठी लिखने वाला आदमी बोला की क्या अब भी किसी प्रमाण की जरूरत है ? बात समझ में आते ही उसका दोस्त बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने माफ़ी मांगी। परन्तु या तो ये लोग अब भी समझ नही पा  रहे हैं या फिर इनमे इतनी नैतिकता भी नही बची है।
                           इसके बाद कुछ लोग और आये। उनसे पूछा गया की ये कौन हैं ? तो उनमे से कई रो पड़े, बोले देखा, हमे कोई नही पहचानता। क्योंकि हमे साहित्य अकादमी सम्मान नही दिया गया इसलिए ये हालत है। इन लोगों को जब पुरुस्कार मिला था तब भी इनकी तारीफ हो रही थी और जब ये लोटा रहे हैं तब भी इनकी तारीफ हो रही है। लेकिन इन्हे बताना होगा इन्होने 1984 में सम्मान क्यों नही लौटाया, 1975 में क्यों नही लौटाया। तब ये कहां थे ?
                             एक पत्रकार ने पूछ लिया  आप तब कहां थे ?
                         देखिये हम तो कभी भी कहीं नही होते। ना हम 1984 में कहीं थे, ना 1975 में कहीं थे। दूसरी बात ये है की  हमारे पास लौटाने को था ही क्या। अब हमे सरकार ने कहा है की वो हमे एडजस्ट करेगी।
                            लेकिन माहौल के बारे में आपका क्या कहना है ?
                        माहोल तो एकदम सही है। अगर आपको लिखना ही है तो ऐसी चीज लिखिए जिससे किसी को भी खराब ना लगे। सरकार की प्रशंसा में गीत लिखिए। आरएसएस की विचारधारा को समर्थन देते हुए नाटक लिखिए, भले ही लोग उसको प्रहसन समझें। उसके बाद आपको कोई कुछ कहता है तो बताइये। आप सरकार और हिंदुत्व के खिलाफ फिल्म बनाएंगे तो क्या सरकार आपको छोड़ देगी ? उसके बाद माहोल को दोष देना गलत बात है। हमे तो किसी ने कुछ नही कहा।
                          आपने क्या लिखा है ?
                        पांच साल पहले एक कविता लिखी थी तितली पर। मेरा पोता अब तक उसे गाता है। हमे तो कोई धमकी नही मिली।