कई बार ये बहस होती है की पिछले समय में रहे रामराज्य और सतयुग जैसे काल स्वर्णयुग थे। मेरे इस लेख का उद्देश्य इन कालों की ऐतिहासिकता को लेकर नही है। मैं नही जानता की सचमुच इस तरह का कोई युग या राज्य कभी था या नही। मेरा उद्देश्य केवल उस विचार पर अपनी राय रखना है जो इनमे निहित है।
दुनिया में बहुत से व्यक्ति और संगठन हमेशा पीछे देखने में गौरव का अनुभव करते हैं। पिछले समय के किसी काल को वो मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित करते हैं। जैसे आरएसएस। कई बार कुछ लोग भी उनकी कहि सुनी बातों को सही मान लेते हैं और उनका समर्थन करते हैं। पिछले दिनों एक मित्र के साथ इस बात पर बहस हुई की मानव सभ्यता का स्वर्णकाल सतयुग था या नही। मेरा ये मानना है की मौजूद व्यवस्था पिछली सभी व्यवस्थाओं से प्रगतिशील और बेहतर है। कहीं पर कुछ समय के लिए इसके विपरीत हो सकता है लेकिन विकास की गाड़ी अपनी भूल सुधार कर फिर रस्ते पर आ जाती है।
आज के समय में सबसे मूल्यवान समझे जाने वाले कुछ मूल्य जैसे, समानता, स्वतन्त्रता और लोकतंत्र आदि पहले नही थे। ये सारे मूल्य सभ्यता के क्रम में बहुत बाद में जाकर पैदा हुए। इनमे कुछ तो फ़्रांसिसी क्रांति की उपज हैं। उससे पहले की व्यवस्थाओं में इनका कोई स्थान नही था। और इनके लिए संघर्ष आज भी जारी है। अगर हम अपने देश की बात करें तो आज भी दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदायों और मजदूरों को ये हासिल नही हैं। इसके लिए लगातार लड़ाई जारी है।
अब फिर मूल सवाल पर आते हैं। उस मित्र ने मुझे राजा हरिश्चन्द्र की कहानी ये समझाने के लिए सुनाई की उस युग में सत्य पर कितना जोर था और की हर आदमी कैसे सत्य पर अडिग रहता था। लेकिन फिर मैंने उससे कुछ सवाल पूछे। मैंने पूछा की जिस युग और सभ्यता में आदमियों की खरीद बिक्री होती हो, ऐसी व्यवस्था आदर्श व्यवस्था कैसे हो सकती है। इस कहानी में ये साफ जाहिर है की मनुष्यों की खरीद बिक्री उस समय आम बात थी और किसी ने भी इस पर एतराज नही किया। जहां तक वचन का पालन करने की बात है, तो वचन तो राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को भी दिए होंगे। उनका क्या हुआ ? कैसे ये सारी कहानी केवल गुलामो की अपने मालिकों के प्रति नैतिकता के मापदण्ड तय करती है। गुलाम और मालिक के सम्बन्ध और उसमे किसी भी स्थिति में अपने मालिक के प्रति वफादारी को ही सर्वोतम मूल्य साबित किया गया है। इसमें बाकि सभी चीजें उसके बाद आती हैं। मैंने उससे पूछा की ऐसे सतयुग का हम क्या करें जो आदमी की खरीद बिक्री न्याय सम्मत ठहराता हो। मेरे मित्र के पास इस बात का कोई जवाब नही था। असल में उसने इस तरह से विश्लेषण करने की जरूरत ही महसूस नही की थी। जो बात जिस तरह बता दी गयी, उसे उसी तरह मान लिया गया।
दुनिया में बहुत से व्यक्ति और संगठन हमेशा पीछे देखने में गौरव का अनुभव करते हैं। पिछले समय के किसी काल को वो मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित करते हैं। जैसे आरएसएस। कई बार कुछ लोग भी उनकी कहि सुनी बातों को सही मान लेते हैं और उनका समर्थन करते हैं। पिछले दिनों एक मित्र के साथ इस बात पर बहस हुई की मानव सभ्यता का स्वर्णकाल सतयुग था या नही। मेरा ये मानना है की मौजूद व्यवस्था पिछली सभी व्यवस्थाओं से प्रगतिशील और बेहतर है। कहीं पर कुछ समय के लिए इसके विपरीत हो सकता है लेकिन विकास की गाड़ी अपनी भूल सुधार कर फिर रस्ते पर आ जाती है।
आज के समय में सबसे मूल्यवान समझे जाने वाले कुछ मूल्य जैसे, समानता, स्वतन्त्रता और लोकतंत्र आदि पहले नही थे। ये सारे मूल्य सभ्यता के क्रम में बहुत बाद में जाकर पैदा हुए। इनमे कुछ तो फ़्रांसिसी क्रांति की उपज हैं। उससे पहले की व्यवस्थाओं में इनका कोई स्थान नही था। और इनके लिए संघर्ष आज भी जारी है। अगर हम अपने देश की बात करें तो आज भी दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदायों और मजदूरों को ये हासिल नही हैं। इसके लिए लगातार लड़ाई जारी है।
अब फिर मूल सवाल पर आते हैं। उस मित्र ने मुझे राजा हरिश्चन्द्र की कहानी ये समझाने के लिए सुनाई की उस युग में सत्य पर कितना जोर था और की हर आदमी कैसे सत्य पर अडिग रहता था। लेकिन फिर मैंने उससे कुछ सवाल पूछे। मैंने पूछा की जिस युग और सभ्यता में आदमियों की खरीद बिक्री होती हो, ऐसी व्यवस्था आदर्श व्यवस्था कैसे हो सकती है। इस कहानी में ये साफ जाहिर है की मनुष्यों की खरीद बिक्री उस समय आम बात थी और किसी ने भी इस पर एतराज नही किया। जहां तक वचन का पालन करने की बात है, तो वचन तो राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को भी दिए होंगे। उनका क्या हुआ ? कैसे ये सारी कहानी केवल गुलामो की अपने मालिकों के प्रति नैतिकता के मापदण्ड तय करती है। गुलाम और मालिक के सम्बन्ध और उसमे किसी भी स्थिति में अपने मालिक के प्रति वफादारी को ही सर्वोतम मूल्य साबित किया गया है। इसमें बाकि सभी चीजें उसके बाद आती हैं। मैंने उससे पूछा की ऐसे सतयुग का हम क्या करें जो आदमी की खरीद बिक्री न्याय सम्मत ठहराता हो। मेरे मित्र के पास इस बात का कोई जवाब नही था। असल में उसने इस तरह से विश्लेषण करने की जरूरत ही महसूस नही की थी। जो बात जिस तरह बता दी गयी, उसे उसी तरह मान लिया गया।
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