Wednesday, March 30, 2016

व्यंग -- जानिए मोदीजी ने कैसे रोका भृष्टाचार।

                       मोदीजी ने सरकार में आते ही भृष्टाचार खत्म करने का अपना वायदा पूरा कर दिया। मोदीजी के आने के बाद किसी भी क्षेत्र में कोई भृष्टाचार नहीं हो रहा है। पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया मोदीजी के इस करिश्मे पर हैरान है। लोगों को कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जो लोग अब तक ये कहते फिरते थे की इस देश में भृष्टाचार को रोकना मुस्किल ही नहीं नामुमकिन है उनकी बोलती बंद हो गई। लो रोक दिया भृष्टाचार।
                      अब पूरी दुनिया ये जानने को उत्सुक है की आखिर ये हुआ कैसे ? लोगों ने इस पर खोज टीमें बनाई। इसे समझने की कोशिश की। और उसके बाद जो कुछ चीजें सामने आई वो इस प्रकार हैं। --
                      सरकार ने सभी मंत्रियों और पार्टी कार्यकर्ताओं को ये आदेश दे दिया की वो कम से कम दिन में तीन बार ये राग जरूर अलापें की सरकार पर एक पैसे का भृष्टाचार का दाग नहीं है।
                      जब भी किसी ने कोई भृष्टाचार का आरोप लगाया तो सरकार ने तुरंत उसे ख़ारिज कर दिया।
                      जब किसी ने कुछ सबूतों के साथ आरोप लगाए और जाँच की मांग की तो सरकार ने जाँच करने से इंकार कर दिया और सामने वाले को चुनौती दी की अगर उसके पास पुख्ता सबूत हैं तो वो कोर्ट में जाये। वो बेचारा ये कहता ही रह गया की कोर्ट के लायक सबूत तो जाँच से  ही जुटाए जा सकते हैं। लेकिन सरकार ने साफ कह दिया की पहले सबूत लाओ बाद में जाँच होगी।
                       इस दौरान भृष्टाचार रोकने के लिए जो भी एजंसियां बनाई गई हैं चाहे वो लोकपाल हो, CVC हो या कोई और, किसी भी जगह पर नियुक्तियां नहीं की गई हैं। इसमें गुजरात का अनुभव भी बहुत काम आया की जब तक 12 साल मोदीजी वहां मुख्य्मंत्री रहे तब तक वहां लोकायुक्त की नियुक्ति ही नहीं की गई और उसका जिम्मा कांग्रेस पर डाल दिया जैसे लोकायुक्त को कांग्रेस की जाँच करनी हो।
                        रही सही कमी RTI का जवाब ना देकर पूरी कर दी गई। सरकार ने सभी विभागों को सख्त आदेश दे दिया की किसी भी RTI का जवाब ना दिया जाये। जब लोगों के पास जानकारियां ही नहीं होंगी तो भृष्टाचार के आरोप भी कैसे लगेंगे।
                       इस सभी चीजों के बाद भी अगर कोई ज्यादा ही बेशर्म हो जाता है और आरोप लगाता है तो ये कह दिया जाता है की कांग्रेस के जमाने में इतना भृष्टाचार हुआ था तब तुम कहां थे ?
                       इस तरह मोदीजी ने एक फूलप्रूफ और भृष्टाचार रहित सरकार देश को उपलब्ध करवा दी। बाकि दुनिया चाहे तो उनके इस अनुभव से फायदा उठा सकती है।

प. बंगाल चुनाव के ओपिनियन पोल की समीक्षा

                  हम ये बहुत पहले से कहते रहे हैं की चुनावों के दौरान किये जाने वाले ओपिनियन पोल अधिकतर किसी पार्टी के समर्थन में हवा बनाने के लिए किये जाते हैं। इसके लिए कई टीवी चैनल पैसे भी लेते हैं। ताकि लोगों को प्रभावित किया जा सके।
                     लेकिन एक तबका ऐसा भी है जो इसे एक वैज्ञानिक कवायद मानता है। ये भी सही है की सभी चैनलों पर पैसे लेकर पोल करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इसलिए इसके मापदंडों पर भी बहस होती है और उसके निष्कर्षों पर भी। इसी दौरान ABP NEWS ने प. बंगाल के चुनावों पर एक ओपिनियन पोल जारी किया है। हम उसके कुछ पहलुओं पर बात करना चाहते हैं।
                     प. बंगाल के सभी तुलनात्मक आधार या तो 2011 के विधानसभा चुनावों के अनुसार हो सकते हैं या फिर 2014 के लोकसभा चुनावों के अनुसार हो सकते हैं। इस ओपिनियन पोल में जो नतीजे निकाले गए हैं उसमे एक है बीजेपी का घटता हुआ वोट शेयर। ये पोल दिखाता है की राज्य में बीजेपी का वोट शेयर ना केवल लोकसभा चुनावों के मुकाबले घट रहा है बल्कि पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले भी घट रहा है। पोल के अनुसार ये वोट प्रतिशत केवल 4 % रह जाने वाला है। पिछले लोकसभा चुनावों में ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को इसके लिए बड़ी सफलता मिली थी की विपक्षी वोटों का एक बड़ा हिस्सा 17 % बीजेपी लेने में कामयाब हो गई थी और लेफ्ट को केवल 29 % वोट से संतोष करना पड़ा था। अब की बार ये नहीं हो रहा है और लेफ्ट +कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बिच सीधा मुकाबला है। जाहिर है की इससे तृणमूल के लिए मुकाबला सख्त होने वाला है।
             दूसरा जो नतीजा ये पोल निकाल रहा है वो ये की तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट + कांग्रेस के बीच केवल एक प्रतिशत वोट का फर्क है। एक प्रतिशत के वोट फर्क के आधार पर सीटों के नतीजे निकालना बहुत ही हास्या स्पद होता है जबकि हरेक ओपिनियन पोल कम से कम 3 % का मार्जिन ऑफ़ एरर मानता है। एक और कारण है जो इस पोल को गलत साबित करता है वो ये है की बीजेपी में चले गए वोटर वापिस लोट रहे हैं और पोल उन्हें तृणमूल के खेमे में दिखाने की कोशिश कर रहा है। दूसरी चीज ये है की कांग्रेस और लेफ्ट के वोट इस बार एक जगह गिर रहे हैं। जिस तरह मीडिया बिहार चुनाव में कांटे की टककर दिखाने की कोशिश कर रहा था उसी तरह वो किसी भी तरह खींचतान करके ममता को आगे दिखाने की कोशिश कर रहा है।
                बंगाल के चुनावों में एक बात का बड़े जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है की बंगाल का मुस्लिम वोटर तृणमूल के साथ है और ममता द्वारा लिए गए कदमों से उसका धुर्वीकरण ममता के पक्ष में हुआ है। जबकि ध्यान से देखा जाये तो ये गलत धारणा है। लेफ्ट और कांग्रेस दोनों को कभी भी मुस्लिम विरोधी नहीं माना जाता इसलिए उनके खिलाफ किसी धुर्वीकरण की सम्भावना दिखाई नहीं देती। दूसरे अगर ऐसा धुर्वीकरण होता है तो उसके विरोध में भी धुर्वीकरण होता है जो बीजेपी के वोट घटने के हिसाब से दिखाई नहीं देता। इसलिए इस ओपिनियन पोल द्वारा निकाले गए सीट वितरण के नतीजे संदिग्ध ही नहीं बल्कि सिरे से गलत हैं। अगर मीडिया अपने पहले ही ओपिनियन पोल में केवल एक प्रतिशत का वोट अंतर् दिखा रहा है तो इसका दूसरा मतलब ये होता है की तृणमूल हार रही है।

Monday, March 28, 2016

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाना Cooperative Federalism तो छोडो Federal Fair Play भी नहीं है।

               उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद इस पर बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है। कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की तानाशाही की तरह देख रहे हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के प्रवक्ता इस पर सफाई देने में पूरी ताकत लगा रहे हैं। उसके बावजूद वो इस बात की सफाई नहीं दे पा रहे हैं की राज्य पाल द्वारा मुख्य्मंत्री को विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिए जाने के बावजूद उससे एक दिन पहले ही सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाना किस तरह जायज है।
                लेकिन इस पर कुछ टीवी चैनलों में जिस तरह की बहस हो रही है वो एकदम गए गुजरे स्तर की है। कुछ टीवी चैनल के पत्रकार खुद को तठस्थ दिखाने की कोशिश में इस तरह के कोमेन्ट कर रहे हैं जो बहुत ही हल्के स्तर के हैं। सरकार का सारा कामकाज संवैधानिक प्रावधानों की बदलती हुई व्याख्या के अनुसार होता है। आज देश में कोई कानून है तो उसके अनुसार सजाएं भी होंगी और कार्यवाही भी होगी। बाद में अगर उस कानून को रद्द कर दिया जाये तो पिछली सरकार पर ये आरोप नहीं लगाया जा सकता की उसने उस कानून के तहत कार्यवाही की थी। सरकार का कोई भी फैसला जब न्याययिक स्क्रूटिनी से गुजरता है तो उस समय के हालात और नए संदर्भों में उसकी समीक्षा होती है जिसमे कुछ नई चीजें सामने आती हैं। इसी तरह आर्टिकल 356 के प्रयोग को लेकर भी इस तरह के बदलाव होते रहे हैं।
                सबसे पहले सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में जो 1987 में आई थी इस पर बहुत विस्तार से विचार किया गया और कुछ नियम तय किये गए जिससे संविधान के संघीय ढांचे को नुकशान पहुंचाए बिना केंद्र के इस अधिकार पर कुछ पाबंदियां लगाई गई और इसे पारदर्शी बनाने के तरिके सुझाए गए। इसके बाद धारा 356 के मनमाने प्रयोग या दुरूपयोग की संभावनाओं पर लगाम लगी। उसके बाद 1994 में जब एस आर बोममई केस  में सर्वोच्च अदालत का फैसला आया तो उसमे लगभग हर स्थिति  निपटने और राज्य पालों के अधिकार समेत कई चीजें निधारित कर  दी। उसके बाद धारा 356 के किसी भी उपयोग को नए तरिके से देखा जाने लगा। इसलिए उससे पहले के फैसलों और उसके बाद के फैसलों के बीच  एक गुणात्मक अंतर् है और इसे बहस करने वाले हर व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए।
                 उत्तराखंड में 356 के प्रयोग को उपरोक्त दोनों संदर्भों के अनुसार सही नहीं माना जा रहा। बीजेपी के अलग अलग प्रवक्ता इस पर अलग अलग वक्तव्य दे रहे हैं। अभी तक ये बात सामने नहीं आई है की केंद्र सरकार ने राजयपाल की रिपोर्ट के किस पहलू को आधार बना कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की है। लेकिन बीजेपी के प्रवक्ता इस पर तीन चार तरह के तर्क दे रहे हैं। उसमे पहला ये है की मुख्यमंत्री एक विडिओ में दिखाई दे रहे हैं जिसमे कथित रूप से विधायकों की खरीद फरोख्त की बात है। लेकिन बिना किसी न्यायालय द्वारा इस पर दोषी ठहराए किसी सरकार को बर्खास्त करना बहुत ही लचर आधार है। दूसरा कारण ये दिया जा रहा है की स्पीकर ने बजट को बिना वोटिंग के पास कर दिया जो की नियमों के खिलाफ है। अब इस स्थिति के दो पहलू हैं। एक स्पीकर की गलती, जिसके अनुसार आप स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं और दूसरा अगर आपको शक है की सरकार के पास बहुमत नहीं है तो आप या तो विधानसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं या फिर राजयपाल से सरकार को बहुमत साबित करने के लिए कह सकते हैं। बीजेपी और बागी विधायकों ने दूसरा रास्ता चुना। उस पर राज्य पाल ने मुख्य्मंत्री को बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे दिया। अब बीजेपी का ये कहना की राज्य पाल द्वारा ज्यादा समय दिया जाना ही गलत था तो ये तो राज्य पाल के अधिकार पर ही सवाल उठाने की बात है। लेकिन इसे कम से कम राष्ट्रपति शासन का आधार तो नहीं ही बनाया जा सकता है।
                    तीसरा तर्क ये दिया जा रहा है की स्पीकर ने नौ विधायकों की सदस्य्ता गलत तरिके से रद्द कर दी। इसके खिलाफ आप कोर्ट में जा सकते हैं और इस बिना पर राष्ट्रपति शासन कैसे लगाया जा सकता है। अभी राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार सामने नहीं आया है और उसके कोर्ट की कार्यवाही के दौरान सामने आने की सम्भावना है लेकिन अभी तक राजनैतिक विश्लेषकों को उसका एक भी मजबूत कारण दिखाई नहीं देता है। बीजेपी का व्यवहार ऐसा  है जैसे वो कह रही हो की अगर सरकार होगी तो हमारी होगी वर्ना किसी की नहीं होगी। जो आदमी इस बारे में संवैधानिक स्थिति के बारे में तकनीकी और क़ानूनी जानकारी प्राप्त करना चाहता है उन्हें चाहिए की वो इस बारे में 1997 में Frontline में छपे जाने मने लेखक परवीन स्वामी का लेख पढ़ लें। इसका लिंक मैं दे रहा हूँ। http://www.frontline.in/static/html/fl1422/14220170.htm  इसमें उन सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा की गई है।
                  अगला सवाल बीजेपी की नियत का है। अगर उसकी इच्छा तोड़फोड़ या खरीद फरोख्त से सरकार बनाने की नहीं है तो उसने विधानसभा को निलम्बित करके रखने की बजाय उसे भंग करना चाहिए था। कानून की तकनिकिओं को विपक्ष की सरकार गिराने और जबरदस्ती अपनी सरकार लादने के लिए प्रयोग करना तो लोकतंत्र की हत्या ही माना जायेगा।

Sunday, March 27, 2016

व्यंग -- मैं किसानों को उपाय बता रहा था, फिर पता नहीं क्या हुआ ?

                मैं कई दिन से मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे किसानों की समस्याओं को दूर करने के अथक प्रयास देख रहा था। लेकिन किसान हैं की फिर भी आत्महत्या पर आत्महत्या किये जा रहे थे। मुझे मामला समझ नहीं आ रहा था। ये ठीक है की मैंने कभी खेत नहीं देखा था ( खेती करने की बात तो बहुत दूर ) लेकिन मैंने टीवी पर किसान देखे थे। उनके फोटो देखे थे और सरकारी नेताओं के बयान सुने थे। सरकार के इतने प्रयासों के बावजूद उनकी समस्या खत्म क्यों नहीं हो रही थी।
                  इसके लिए मैंने एक दिन एक सरकारी किसान नेता, जो शेयर मार्किट में दलाली का काम करता था और इसी कारण से मेरी उससे जान पहचान थी, उससे पूछ लिया, " भाई साब, ये किसानों की समस्याएं खत्म क्यों नहीं हो रही। "
                   तो उसने मुझे बताया की सरकार की योजनायों का प्रचार नहीं हो पा रहा है। अभी अभी प्रधानमंत्री ने भी पार्टी के सम्मेलन में यही बात कहि है। मामला साफ है की बस यही बात है। जब प्रधानमंत्री कह रहे हैं तो दूसरी कोई बात हो भी कैसे सकती है।
                    मेरे मन में प्रधानमंत्री के लिए अपार श्रद्धा में और बढ़ोतरी हो गई। मैं खुद को देश का जिम्मेदार नागरिक मानता हूँ, इसलिए मैंने सरकार की योजनाओं को किसानों तक पहुंचाने का फैसला लिया। इसके लिए पहले तो मैंने एक मित्र के सहयोग से कुछ सचमुच के किसानों का प्रबंध किया और उनकी एक सभा बुलाई जिसमे करीब 200 लोगों को बुलाया। मुझे ये देखकर आष्चर्य हुआ की ये सभी वैसे ही फटेहाल किस्म के लोग थे जैसे टीवी में दिखाए जाते हैं। मुझे इस बात पर गर्व हुआ की हमारा मीडिया कितना यथार्थवादी है। बेचारे को वैसे ही गालियां दी जाती हैं। उसके बाद कार्यक्रम शुरू हुआ। मैंने बोलना शुरू किया।
                     मित्रो, ( ये शब्द मैंने मोदीजी से प्रभावित होकर लिया है ) जैसा की आप जानते हैं हमारे देश में किसानों की हालत बहुत खराब है। उनको कई तरह की समस्याएं हैं। लेकिन एक बात और है जो आप नहीं जानते। वो ये है की हर समस्या का हल सरकार खोज चुकी है। और आप लोगों को वह हल बताने के लिए ही आज यहां बुलाया गया है। ( इस पर हमने प्रभाव डालने के लिए रिकॉर्ड की हुई तालियां बजाई जिसके देखा देखी कुछ किसानों ने भी तालियां बजाई। )
                    मित्रो, सरकार ये मानती है की किसानों की सबसे बड़ी समस्या ये है की उनकी आमदनी कम है। इसलिए सरकार ने और खुद प्रधानमंत्री ने अथक मेहनत करके किसानों की आमदनी बढ़ाने के तरीके निकाले हैं। उसके लिए सबसे पहला काम ये है की आप अपने अपने मोबाईल पर किसान ऐप डाऊनलोड कीजिए। उससे आपको पता चलेगा की किस देश में किस चीज का क्या भाव है। आप अपनी वस्तु ऊँची कीमत पर बेच सकते हैं। जैसे आपको मालूम पड़ता है की इस  बार अफ्रीका में मक्की की कीमत ज्यादा है तो आप अपनी मक्की अफ्रीका के बाजार में बेच सकते हैं।
                     किसानों में खुसर पुसर शुरू हो गई। मुझे लगा की मेरी बात का  असर हो रहा है। इतने में एक किसान खड़ा होकर बोला ," लेकिन पानी कहां है ? हमे पानी चाहिए। "
                     मैं बड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा की पानी बाहर दरवाजे पर रखा है और वो भी मिनरल वाटर। क्या आपने देखा नहीं ?
                     " हम खेतों के लिए पानी की बात कर रहे हैं। " एक किसान चिल्लाया।
                    हाँ, आप बोतल में डालकर इसे खेत में भी ले जा सकते हैं। इसमें परेशानी क्या है ? मैं हैरान था।
                       " बेवकूफ, हम सिंचाई के लिए पानी की बात कर रहे हैं। " दो तीन किसान इकट्ठे चिल्लाए।
            " सिंचाई की बात भी आएगी आगे। आपको थोड़ा धर्य रखना चाहिए। पहले जो चीजें ज्यादा जरूरी हैं वो आएँगी जैसे मोबाईल ऐप। उसके बाद अब मैं आपको ये बताऊंगा की आप अपनी फसल को ऑनलाइन कैसे बेच सकते हैं। उसके साथ ही सरकार ने जो फ़ूड प्रोसेसिंग के लिए छूट दी हैं वो सुन लीजिए। हर किसान अपनी फसल को ऐसे ही बेचने की बजाय अगर डिब्बाबंद करके बेचे तो उसको ज्यादा मुनाफा मिल सकता है। और प्रधानमंत्री ने जैसे कहा है अगर डिब्बे पर किसी लड़की की फोटो हो तो और भी ज्यादा मुनाफा हो सकता है। इसके लिए आपको विज्ञापन बनाने वाली कम्पनि से सम्पर्क करना पड़ेगा। इसके लिए आप गूगल का प्रयोग कर सकते हैं। "
                  मैंने देखा की कुछ किसान मेरी तरफ बढ़ रहे हैं। मुझे लगा की वो मुझसे हाथ मिलाने आ रहे होंगे। उसके बाद पता नहीं क्या हुआ। जब मुझे होश आया तो मैं एक जान पहचान के नर्सिंग होम था। अब मैं समझ गया हूँ की किसानो की समस्या कभी हल नहीं हो सकती। क्योंकि ये लोग सरकारी योजनाओं का फायदा ही नहीं उठाना चाहते।

Saturday, March 26, 2016

व्यंग ख़बरें -- ये क्या हो रहा है भक्तो।

                कल मुझे एक मित्र ने बताया की ललित मोदी का असली नाम लतीफ़ मोदी है और वो एक बांग्लादेशी मुस्लिम है। और विजय माल्या का असली नाम विजय मुल्ला है और वो एक अरबी मुस्लिम है। ये सारा षड्यंत्र एक हिन्दू राष्ट्र को बर्बाद करने के लिए मुस्लिम राष्ट्रों की तरफ से रचा गया है।
                 अनुपम खेर ने JNU में कहा की जेल से लोटा हुआ आदमी हीरो कैसे हो सकता है और उसे सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए। बीजेपी ने उनके इस बयान का इतना बुरा माना की कल एक जेल से लोटे हुए आदमी ( अमित शाह ) ने दूसरे जेल से लोटे हुए आदमी ( श्रीसंत ) को केरल की राजधानी से बीजेपी का उम्मीदवार घोषित कर दिया।
                 उत्तराखंड में कांग्रेस के बागी विधायकों को बीजेपी ने ये भरोसा दिलाया की वहां की कांग्रेस सरकार को बदल दिया जायेगा। अगर किसी कारण सरकार नहीं बदल पाए तो राजयपाल को तो जरूर बदल दिया जायेगा।
                  दिल्ली में डा. नारंग की हत्या में शामिल लोगों को इसलिए बांग्लादेशी बताया जा रहा है की असम और बंगाल में चुनाव है। अगर पंजाब में चुनाव होता तो उनका संबंध खालिस्तानी उग्र्रवादियों से स्थापित कर दिया जाता।
                  असम में एक सभा में मोदीजी ने वहां के बीजेपी के CM उम्मीदवार सर्वानंद की तरफ इशारा करते हुए कहा की उनको आसाम भेजने से उनकी सरकार और देश को बहुत नुकशान हुआ है। असम के लोगों ने इस बयान को गम्भीरता से लेते हुए फैसला किया है की वो चुनाव के बाद उसे केंद्र में वापिस भेज देंगे और देश का नुकशान नहीं होने देंगे।

Friday, March 25, 2016

बीजेपी और पीडीपी की निजी स्वार्थ पूर्ति को छोड़कर सब घाटे में.

                  जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने की कवायद अब लगता है की अपने अंजाम तक पहुंचने वाली है। मुफ़्ती साहब के इंतकाल के बाद महबूबा ने इस तरह से व्यवहार किया जैसे उनके लिए सत्ता कोई मायने नहीं रखती। उसके बाद लगातार तीन  महीने तक ये गतिरोध कायम रहा। उसके बाद बीजेपी के एक बयान ने महबूबा द्वारा बनाई जा रही सारी हवा को बेकार कर दिया। ये असलियत सामने आ गई की महबूबा भी वैसी ही सत्ता की लालची है जैसे बीजेपी है। अपने आप को कश्मीर के लोगों की सबसे बड़ी हितैशी दिखाने के उसके दावे खुल गए।
                    दूसरी तरफ बीजेपी का सत्ता का लालच तो उसी समय सामने आ गया था जब उसने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की घोषणा की थी। इस घोषणा को कोई भी नाम या बहाना दे दो लेकिन ये केवल सत्ता की मलाई काटने का प्रोग्राम है ये तो कुछ बीजेपी के कार्यकर्ता भी मानते हैं। सारी देशभक्ति सामने आ गई। वैसे बीजेपी का ये पुराना इतिहास रहा है की अगर कुर्सी सामने हो तो उन्हें दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता, फिर चाहे मायावती का मामला हो या महबूबा का।
                     इस मामले में भी लोगों का अनुमान है की पर्दे के पीछे बहुत आस्वासन दिए गए हैं। सत्ता प्राप्ति के समझौते को सिरे चढ़ाने के लिए बीजेपी के मंत्री पाकिस्तान दिवस पर अलगाववादी नेताओं के साथ खाना तक खाने की हद तक चले गए। ये वही लोग हैं जो केवल अफजल के कार्यक्रम होने मात्र को देशद्रोह कहते रहे हैं। अब उन्हें महबूबा के अफजल और पाकिस्तान के प्रति जगजाहिर रुख  से कोई एतराज नहीं है।
                        इस तरह के अवसरवादी समझौतों से कुछ नेताओं के निजी स्वार्थ तो पुरे हो सकते हैं जो सत्ता की मलाई को बिल्ली की नजरों से घूर रहे हैं लेकिन इससे लोगों को कुछ हासिल नहीं होगा। कश्मीरी जनता के सवाल वहीं रहेंगे। यहां तक की दोनों पार्टियों के वो कार्यकर्ता जो विचारधारा के सवाल पर उनके साथ थे, उन्हें भी बेहद निराशा हुई है।

Thursday, March 24, 2016

बीजेपी की राजनैतिक होली तो दो साल से जारी है।

               हमारे देश में होली के मोके पर कई तरह के हंसी मजाक होते हैं। लेकिन बीजेपी है की वो होली है या नहीं ये देखे बिना भी लोगों से मजाक करती रहती है।
                  अभी हाल में बीजेपी के कई नेताओं ने कुछ लोगों की जुबान काटने, सर काटने इत्यादि पर इनामो की घोषणा की, जैसे मुंबई में मटकी फोड़ने पर रखते हैं। इस पर मोदीजी ने कहा की विकास पर ध्यान दो।
                 और उन नेताओं ने इनाम की रकम बढ़ा क्र एक करोड़ कर दी।
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                अभी अभी केरल के लोकप्रिय नेता ए के गोपालन की बरसी थी। वहां उनके नाम पर मार्क्सवादी पार्टी द्वारा चलाई जाने वाली एक लाइब्रेरी को संघ के लोगों ने जला दिया। अगले दिन अमित शाह ने वहां प्रैस कॉन्फ्रेंस करके कहा की मार्क्सवादी पार्टी को हिंसा से दूर रहना चाहिए।
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                 देश के कई विष्वविद्यालयों में पिछले कई दिनों से टकराव का वातावरण है। इसमें  एक तरफ कहीं वामपंथी छात्र यूनियनें हैं, कहीं अम्बेडकर छात्र संघ है, कहीं एनसीपी की छात्र यूनियन है , कहीं कोई अल्पसंख्य्क छात्र यूनियन है लेकिन एक कॉमन चीज है --- दूसरी तरफ ABVP है। लेकिन उससे  कोई सवाल नहीं पूछ रहा।
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Wednesday, March 23, 2016

हैदराबाद विष्वविद्यालय के छात्रों पर पुलिस दमन और अप्पा राव

                     हैदराबाद विश्विद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के लिए वाइस चांसलर अप्पा राव, मानव संशाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और केंद्रीय मंत्री दत्तात्रेय के खिलाफ FIR दर्ज हुई। उसके बाद अप्पा राव को लम्बी छुट्टी पर भेज दिया गया। पुलिस ने इस FIR पर कोई गिरफ्तारी नहीं की और आधार ये बनाया की सुसाइड नॉट में किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। इन सारी बातों  की अनदेखी कर दी गई की इस आत्महत्या के लिए उकसाने वाले सभी पारिस्थितिक साक्ष्य मौजूद हैं। इसके बाद अचानक अप्पा राव को दुबारा चार्ज लेने के लिए भेजना कोई अचानक घटने वाली या आम घटना नहीं है।
                      इस पूरी घटना को बकायदा एक प्लान के तहत लागु किया गया है। ये तो जगजाहिर था की अप्पा राव का विरोध होगा, जो की हुआ भी। इस विरोध के दौरान कुछ तोड़फोड़ की घटनाएं भी हुई। बस प्रशासन को अपनी योजना लागु करने का मौका मिल गया। उसके बाद पुलिस ने विष्वविद्यालय में जो तांडव मचाया उसकी कुछ तस्वीरें तो सोशल मीडिया पर मौजूद ही हैं। वहां 44 छात्रों को इलाज के लिए विष्वविद्यालय हॉस्पिटल में दाखिल किया गया है। दस गम्भीर घायल छात्रों को बाहर प्राइवेट हॉस्पिटल में दाखिल किया गया है। दो अध्यापकों समेत 32 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। उसके बाद विष्वविद्यालय की बिजली, पानी और इंटरनेट काट दिया गया है। छात्रों के एटीएम कार्ड को ब्लॉक कर दिया गया है। खाने की मेस बंद कर दी गई है और किसी को भी विश्व्विद्यालय के अंदर जाने की इजाजत नहीं दी जा रही है। कुछ छात्र जो सामूहिक रूप से खाना बनाने की कोशिश कर रहे थे उन पर पुलिस ने हमला किया जो गम्भीर घायल अवस्था में हॉस्पिटल में भर्ती हैं। और ये सब किया गया इसके बावजूद की एक भी पुलिस वाला घायल नहीं है। यानि ये सब छात्रों को सबक सिखाने के लिए किया गया है। सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है की कैंपस को नाज़ी कैंप में बदल दिया गया है।
                      क्या एक लोकतान्त्रिक कहे जाने वाले देश में यह सब सम्भव है। और अगर ये सब होता है और कोई सवाल नहीं उठता है तो क्या हम कानून के राज में जी रहे हैं। पुलिस और सेना को खाकी पुतलों में बदला जा रहा है। उन्हें तो ये भी नहीं मालूम की वो क्या कर  रहे हैं। और टीवी चैनलों पर संघी प्रवक्ता इसे सही साबित करने की कोशिश करते हैं। केंद्र सरकार के मंत्री एक तरफ देशद्रोही छात्रों को सीधा कर रहे हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान के कार्यक्रम में अलगाववादियों के साथ डिनर कर रहे हैं।
                       क्या इतनी बड़ी घटना को बिना विरोध के गुजर जाने दिया जायेगा। हम एक जिन्दा कौम हैं ये इसके विरोध से साबित होगा। फासिज्म को रोकना होगा। उसे अपने घर के दरवाजे पर पहुंचने से पहले रोकना होगा।

बाबा साहेब अम्बेडकर के राष्ट्रिय स्मारक के मोदीजी द्वारा उदघाटन के बाद सोशल मीडिया पर रंगे सियार के चुटकुले क्यों ?

               
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के राष्ट्रिय स्मारक का उदघाटन किया। इस मोके पर मोदीजी ने नीली जैकेट पहनी हुई थी जो बाबा साहेब द्वारा चुना गया रंग माना जाता है और देश में दलितों की राजनीती करने वाली पार्टियां इसी रंग का प्रयोग करती हैं चाहे वो बहुजन समाज पार्टी हो या रिपब्लिकन पार्टी। इस मोके पर मोदीजी ने खुद को अम्बेडकर का भक्त बताया। लेकिन उसके तुरंत बाद सोशल  मीडिया पर उसकी प्रतिक्रिया आनी  शुरू हो गयी। इसमें मोदीजी द्वारा खुद को अम्बेडकर का भक्त कहे जाने और उनके द्वारा किये गए उन कार्यों की तुलना की जानी शुरू हो गयी जो दलित विरोधी माने जाते हैं।
                                     इस सब के बीच में वो चुटकुला भी शामिल रहा जिसमे एक सियार के नील के मटके में गिर जाने से नीला हो जाने के बाद वो खुद को देवदूत बताने लगता है। ये कथा साहित्य  में रंगे सियार की कथा के नाम से मशहूर है। इसका मतलब प्रधानमंत्री को रंगा सियार बताना हुआ।
                     सवाल ये है की जब प्रधानमंत्री खुद को अम्बेडकर का भक्त बताते हैं तो लोग भरोसा क्यों नही करते ?

Monday, March 21, 2016

व्यंग -- लो, जिन्हे भगवान समझते थे वो तो भक्त निकले।

                   भक्त बहुत दुखी हैं। दुखी इसलिए की जिन्हे वो अब तक भगवान मानते थे उन्होंने खुद खड़े होकर कह दिया की नही, हम तो केवल भक्त हैं। जो भक्त अब तक भगवान के भक्त थे वो एक दर्जा नीचे आकर एक दूसरे भक्त के भक्त हो गए। डिमोसन हो गया। अभी कल की ही तो बात है जब वेंकैया जी ने उनको भगवान का वरदान और गरीबों का मसीहा बताया था। लेकिन  उन्होंने सबके दिल तोड़ते हुए घोषणा कर दी की वो तो केवल एक भक्त हैं।
                     भगवान कृष्ण ने गीता में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिन रास्तों यानि योग के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया है उनमे उन्होंने कहा है की जो सबसे उच्च श्रेणी के साधक हैं उनके लिए ज्ञान योग है। उन्होंने कहा की ज्ञान योग ही सबसे श्रेष्ठ योग है। विज्ञानं भी यही कहता है की मुक्ति के लिए ज्ञान जरूरी है। भगवान बुद्ध ने भी बुद्धि को गुरु मानने की सलाह दी थी। कृष्ण ने ये भी कहा की ज्ञान योग ही ऐसा योग है जिससे साधक एक पल में मुक्ति का अनुभव कर सकता है। अष्टावक्र ने इस बात की पुष्टि की है। लेकिन इसके साथ ही भगवान कृष्ण ने ये भी कहा है की ये केवल उच्चत्तम श्रेणी के साधकों के लिए है लेकिन आजकल भक्तों की एक श्रेणी ज्ञानयोग के साधको को देशद्रोही घोषित कर सकती है और ज्ञान के मंदिर को देशद्रोहियों का अड्डा बता सकती है।
                   जो उससे नीचे की श्रेणी के साधक हैं और जो सामान्य नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करते हैं उनके लिए गीता में कर्मयोग का प्रावधान है। भगवान कृष्ण ने कहा है की मनुष्य कर्म करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है अगर वो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित कर दे। लेकिन यहां तो ऐसे साधक हैं जो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित करना तो दूर, दूसरे के कर्मों को भी अपने नाम पर चढ़ाने में लगे रहते हैं। इसलिए कर्मयोग उनके लिए नही है।
                   इसके बाद भगवान कृष्ण ने निम्नतम स्तर के साधक के लिए भक्ति योग का प्रावधान किया। ये सबसे निचले स्तर के साधक होते हैं। जो ना तो अपने कर्मो की जिम्मेदारी लेते हैं और ना दूसरों के कर्मो को मान्यता देते हैं। इस किस्म के साधक भक्ति योग अपना सकते हैं। इसमें कई सुविधाएँ रहती हैं। भक्त हमेशा ( जब उसका दिल चाहे ) भक्ति में डूबा रह सकता है। वह किसी के प्रति जवाबदेह नही होता। वह भगवान के गुण  दोष नही देखता इसलिए उम्मीद करता है की लोग उसके गुण  दोष भी ना देखें। जब भी जवाब देने का समय आता है वो मोन साध लेता है। जब मोन रहने का समय होता है वो प्रवचन देना शुरू करता है। गीता ने भक्तों के लिए कई प्रकार की सुविधाएँ जाहिर की हैं। भक्त के लिए ये कतई जरूरी नही होता की भगवान के दिखाए रस्ते पर चले। वो उससे बिलकुल उल्ट रास्ते पर भी चल सकता है। जैसे-
                   कोई अम्बेडकर का भक्त हो सकता है बिना इस बात की परवाह किये की उसके घर में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी है। जब दलित कुंए से पानी ना भरने देने की गुहार लगा रहे होते हैं तो बाबा साहब का भक्त उन्हें सयम रखने की सलाह दे सकता है। जब महिलाएं मंदिर में प्रवेश की मांग कर रही होती हैं तो वो मुंह फेर सकता है। जब अल्पसंख्यकों को पेड़ से लटकाया जा रहा होता है तो इस्लाम की परम्परा पर भाषण दे सकता है। जब रोहित वेमुला बनाया जा रहा हो तो वो उसे जातिवादी और देशद्रोही बता कर उस पर सहमति दे सकता है। बाबा साहब का भक्त एक ऐसे संगठन का सदस्य हो सकता है और गर्व से हो सकता है जिसका मुखिया ना दलित हो सकता है और ना महिला हो सकती है। भक्त उसकी मूर्ति पर माला चढ़ा सकता है जिसका उसने कल पुतला फूंका था। आज जिसकी हत्या पर मिठाई बांटी हैं कल उसके चरणो में मत्था टेक सकता है। भक्त के लिए सब माफ़ है। भगवान ने कहा है की वो निम्न दर्जे का साधक है। लेकिन चालक भक्त दिखावा भी कर सकता है। हो सकता है उसके दिल में कोई दूसरा देवता बैठा हो और वो माला किसी दूसरे देवता को पहना रहा हो। ऐसा भक्त बाजार का चलन देखकर बोली लगा सकता है। ऐसे भक्त से सावधान रहने की जरूरत है।

व्यंग -- ( राजनीती का तीसरा पाठ )- केवल कुतर्क पर भरोसा करो।

                   संघ के राजनीती के विद्यालय में आज तीसरा पाठ था। एक बहुत ही जोरदार अध्यापक आज की क्लास ले रहे थे। इन्होने कई बार संघ और बीजेपी की तरफ से टीवी चैनल में प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभाई थी। सो लोगों ( मेरा मतलब छात्रों से है ) में बहुत उत्साह था। अध्यापक ने अपनी क्लास संस्कृत के श्लोक से शुरू की। एक छात्र ने श्लोक का अर्थ पूछा तो शरमा गए और बोले मंत्रों का अर्थ पूछना अश्रद्धा होती है। इसलिए भविष्य में इस बात का ख्याल रखा जाये। उसके बाद उन्होंने आगे बोलना शुरू किया।
                     " आज का विषय ये है की राजनैतिक बहसों में हमे किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। विरोधी को कैसे चारों खाने चित किया जाये। सो सभी लोग ध्यान  सुनेंगे। इसमें सबसे पहला फार्मूला ये है की तर्कों की बजाय हमेशा कुतर्कों पर भरोसा करो। तर्क आपको कभी भी उलझा सकते हैं खासकर उस समय जब हमारे पास कहने को कुछ नही होता। हमे ये भी ध्यान रखना चाहिए की चाहे हमारा अतीत हो या वर्तमान, हमारे काम ऐसे नही हैं जिन्हे हम बीच बाजार खड़े होकर कह सकें। अगर हमने ऐसा  दुस्साहस किया तो लोग हमारी हंसी उड़ा सकते हैं। इसलिए हमेशा कुतर्क पर भरोसा करो। इसके साथ ही दूसरा नियम ये है सामने वाले की बात सुनो ही मत। वो क्या कह रहा है, क्या पूछ रहा है इसका कोई मतलब नही होता। केवल अपनी कहते रहो। जो बात तुम कह रहे हो उसका कोई भी संबंध बहस की विषय वस्तु के साथ होना कतई जरूरी नही होता। अगर बहस टीवी चैनल में हो रही है तो उसका पहला नियम ये है की विरोधी के बोलने के समय को भी अपना समझो। जब तक विरोधी बोलता रहे तुम भी बोलते रहो। उससे ऊँची आवाज में बोलते रहो ताकि उसकी बात कोई सुन ना पाये। वैसे तो कई टीवी चैनल और उनके एंकर अपने ही लोग हैं जो तुम्हारी सहायता करेंगे, लेकिन अगर ऐसा नही  है तो एंकर पर पक्षपात का आरोप लगाना शुरू  कर दो। इससे बहस में सहायता मिलती है। क्योंकि आधा समय पक्षपात पर बहस में निकल जाता है। बाद में ये कहकर बात समाप्त कर दो की मेरा मतलब किसी पर आरोप लगाना नही था। " क्लास में सन्नाटा छाया हुआ था। उन लोगों ने इतना प्रेरणादायक और विद्वता पूर्ण भाषण पहले कभी नही सुना था।
               " श्रीमान, इसका कोई प्रक्टिकल उदाहरण देकर समझाइये। " एक छात्र ने कहा।
                " देखिये, वैसे तो तुम मेरा कोई भी टीवी बहस का कार्यक्रम देख सकते हो। फिर भी तुम मुझसे सवाल करो मैं उत्तर दूंगा। "
                " श्री मान, कन्हैया और JNU पर आपका क्या कहना है ?"  छात्र ने शुरुआत की।
                " तुमने कन्हैया को श्रीमान कैसे कहा ?" अध्यापक बोखलाए।
                " मैंने आपको श्रीमान कहा। " छात्र ने सफाई दी।
                " कन्हैया देशद्रोही है। उसने भारत की बर्बादी के नारे लगाये। पूरा JNU देशद्रोहियों का गढ़ बन चूका है। "
               " लेकिन श्रीमान अब तो पुलिस से लेकर यूनिवर्सिटी तक सभी मान चुके हैं की कन्हैया ने नारे नही लगाये। " छात्र ने सवाल किया।
               " JNU और वामपंथियों की सच्चाई देश के सामने आ चुकी है और देश इन देशद्रोहियों को बर्दाश्त नही करेगा। "
                  "  लेकिन श्रीमान उन्होंने देशद्रोही  नारे नही लगाये ये साबित हो चूका है। " छात्र ने कहा।
                  " मैं  पूछना चाहता हूँ की भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी ये नारा देशद्रोही है  या नही। अब इन वामपंथियों की पोल खुल चुकी है और देश ये बर्दाश्त नही करेगा। "
                  " लेकिन श्रीमान ये नारा तो कुछ बाहर वालों ने लगाया था ऐसी रिपोर्ट आ चुकी है। " छात्र ने फिर कहा।
                 " देखिये हमारे जो सैनिक  सीमा पर जान दे रहे हैं उनके परिवार वाले जब पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे सुनते हैं तो उन पर क्या बीतती है। क्या उन सैनिकों के बलिदान का कोई मोल नही है। इसलिए  राहुल गांधी को इसका जवाब देना होगा। "
                 " लेकिन वहां पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा नही लगा। "  छात्र ने जोर देकर कहा।
                 " जो लोग इस देश का नमक खाकर पाकिस्तान का नारा लगाते हैं वो गद्दार है। और जो गद्दारों के साथ है वो भी गद्दार है। इसका जवाब राहुल गांधी को देना होगा। सोनिया को अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए। "
                      अब छात्र के होंसले जवाब दे चुके थे। अध्यापक मुस्कुराये। क्लास में जोर से तालियां बजी। छात्र बधाई दे रहे थे। मान गए सर, क्या खिंचाई की है। पूरी JNU और कन्हैया को बेनकाब कर दिया। और साथ में कांग्रेस को भी।
                              अब अगली क्लास कल।
               

Sunday, March 20, 2016

व्यंग -- वोट मांगने का नया तरीका, भारत माता के नाम पर दे दे बाबा

                    बीजेपी राष्ट्रिय कार्यकारिणी की मीटिंग के बाद अरुण जेटली ने और कार्यकारिणी के अंदर प्रधानमंत्री ने कहा, और उनके कहने के बाद वेंकैया नायडू ने जो कहा, उसके बाद हालाँकि किसी और के कहने के लिए कुछ ज्यादा बचता नही है लेकिन फिर भी मैंने सोचा की मैं भी कुछ कह दूँ।
                     अरुण जेटली ने कहा की पहले की सरकारें दिशाहीन थी और ये सरकार सही दिशा में है। इसके दो मतलब होते हैं। एक तो ये की ये सरकार एक ही दिशा में है। पहले की सरकारें इसलिए दिशाहीन थी क्योंकि वो कुछ थोड़ा सा काम किसानो के लिए करती थी, थोड़ा सा मजदूरों के लिए करती थी, थोड़ा सा कर्मचारियों के लिए करती थी और बहुत सा उद्योगपतियों के लिए करती थी। इससे दिशा भरम की स्थिति उतपन्न होती थी। अब जो सरकार है वो केवल एक ही दिशा में काम करती है। बाकि लोगों की तरफ उसने देखना बंद कर दिया है ताकि दिशा भरम ना हो।
                      अंदर प्रधानमंत्री ने कहा की हम सकारात्मक हैं। मुझे लगता है श्री श्री के जलसे का असर अब तक बाकि है। विपक्ष देश को पीछे खिंच रहा है। सरकार विपक्ष के सुझाओं पर अम्ल करने को तैयार है। और उसका उदाहरण ये है की आधार बिल पर पुरे दिन राज्य सभा ने विचार करके जो चार संशोधन सुझाये थे उन्हें सरकार ने लोकसभा में पांच ही मिनट में ख़ारिज कर दिया। इससे ज्यादा सकारात्मक सरकार का उदाहरण और क्या हो सकता है। प्रधानमंत्री ने ये भी कहा की सरकार अपने रास्ते पर चलती रहेगी। किसी की नही सुनेगी। जो लोग सरकार के कहे पर भिन्न मत रखते हैं वो देशद्रोही हैं। जो सरकार से समझ में अलगाव रखते हैं वो अलगाववादी हैं।
                       उसके बाद बीजेपी ने और प्रधानमंत्री ने चुनाव के लिए एक नया मंत्र दिया। उसने कहा की अब विकास के नाम पर वोट मांगने का जमाना गया। क्योंकि ऐसी चीजों पर वोट मिलने की उम्मीद अब नही है। इसलिए अब भारत माता के नाम पर वोट मांगिये। ठीक उसी तरह जैसे अल्लाह के नाम पर लोग कुछ भी मांग लेते हैं। या भगवान के नाम पर मांग लेते हैं। अब इस बात की प्रैक्टिस करो, भारत माता के नाम पर देदे , भारत माता के नाम पर दे दे। और इसके लिए जो सबसे सही जगहें हैं जैसे मंदिरों के बाहर, बाबाओं के प्रोग्रामो के बाहर, सतसंगों के कार्यक्रमों के बाहर। वहां अपनी चटाई बिछा लीजिये और भारत माता के नाम पर मांगिये। इसके लिए ये जरूरी है की इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहियें। अगर नही होते हैं तो सरकार से अनुदान दे कर करवाइये। किसी भी नाम पर करवाइये लेकिन करवाइये जरूर ताकि अपनी कुछ चटाइयां उसके बाहर बिछाई जा सकें।
                     उसके बाद माननीय वेंकैया नायडू जी आये। उन्होंने कहा की मोदीजी देश को भगवान का तोहफा है। राजनीती में चाटुकारिता और बेशर्मी का नया अध्याय शुरू हो चूका है। अब व्यक्ति पूजा को लोकतंत्र का नया आयाम साबित किया जायेगा। पहले भी बरुआ ने कोशिश की थी इंदिरा जी के नाम पर। अब उसका नया संस्करण लाये हैं श्रीमान नायडू जी। वैसे ये भी हो सकता है की भारत माता के नाम पर वोट मांगने वालों को चटाइयों पर सिंदूर लगा कर रखने के लिए कोई मूर्ती चाहिए होगी। इसलिए उस मूर्ती की तैयारी हो रही है। भक्तो एक नया नजारा पेश होने वाला है। लोग मंदिरों के बाहर एक फोटो पर सिंदूर लगा कर आवाज लगाएंगे की भारत माता के नाम पर दे दे बाबा।

Saturday, March 19, 2016

व्यंग -- मेरे मुहल्ले के गुंडे और भारत माता की जय।

                  सुबह सुबह घर से निकला तो नुक्क्ड़ की पान की दुकान पर चार पांच लड़के खड़े थे। ये सब आवारा किस्म के और गुंडा टाइप लड़के थे जिनसे माँ बाप ने भी उम्मीद छोड़ दी थी। ये लोग मुहल्ले में लड़कियों पर कॉमेंट करने , रस्ते के बीचों बीच बाइक खड़ी करने और देर रात को जोर जोर से हॉर्न बजाने जैसे काम लगातार करते थे। इस बात पर कई बार मुहल्ले के एकाध आदमी के साथ उनका झगड़ा भी हो चूका था। बाकि लोग इनके मुंह लगने से डरते थे। आम आदमी की इसी कमजोरी का ये लोग फायदा उठाते थे। इनके साथ मेरा भी कई बार झगड़ा हो चूका था। मामला बेसक दूसरे का था लेकिन मैं ये ज्यादती बर्दाश्त नही कर पाया। और मेरे कारण एक बार मामला पुलिस तक पहुंच चूका था। ये लड़के मेरे से घबराते थे क्योंकि उनको मालूम था की मैं उनसे डरता नही हूँ और उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकता हूँ। दूसरा कारण ये था की पूरा मुहल्ला उन्हें पहचानता था और उन्हें किसी का भी समर्थन प्राप्त नही था।
                आज सुबह सुबह उन्हें खड़ा देखकर मूड खराब हो गया। वो मुझे देखकर मेरी तरफ बढ़े। मैं थोड़ा सावधान हो गया। वो मेरे सामने आकर खड़े हो गए। उनमे से एक लड़का, जो आमतौर पर उनका गैंग लीडर होता था मुझसे बोला, " अंकल जी, भारत माता की जय। "
                 " भारत माता की जय। " मैंने जवाब में कहा।
                " ऐसे नही अंकल, जरा जोर लगाकर बोलिए की भारत माता की जय। " वो गुस्ताखी से बोला।
                 " क्यों कोई जबरदस्ती है ? " मैंने प्रतिवाद किया।
                " जबरदस्ती की क्या बात है। लेकिन आपको भारत माता की जय बोलने में क्या आपत्ति है। " वो बोला।
                 " हाँ, मुझे आपत्ति है। मैं तुम्हारे कहने से भारत माता की जय क्यों बोलूं। तुम होते कोण हो ?" मुझे गुस्सा आने लगा।
                " आपको भारत माता की जय तो बोलना ही होगा। वरना तुम्हे इस देश में रहने का कोई अधिकार नही है। " वो आप से तुम पर आ चूका था। और उसकी आवाज तेज होती जा रही थी। तेज आवाज सुनकर चार पांच दूसरे लोग भी आकर खड़े हो गए।
               " किस बात का झगड़ा है सुबह सुबह ? " एक आदमी ने पूछा।
               " ये आदमी कह रहा है की मैं भारत माता की जय नही बोलूंगा। अब आप ही बताइये अंकल की इसको भारत में रहकर भारत माता की जय बोलने से क्या एतराज है। " उसने कहा।
                उस आदमी ने मेरी तरफ देखा और बोला की भाई साहब आपको भारत माता की जय बोलने में क्या एतराज है ?
                 मुझे आश्चर्य हुआ की जिन बदमाशों को पूरा मोहल्ला जानता है उसके कहने पर वो मुझसे जवाब तलब कर रहे हैं। मैंने कहा की मुझे भारत माता की जय बोलने में कोई एतराज नही है लेकिन मैं इनके कहने से क्यों बोलूं ?
                 " सवाल किसके कहने का नही है। सवाल ये है की कहा क्या जा रहा है। हमने इनको भारत माता की जय बोलने को कहा तो इन्होने तो साफ मना कर दिया। अब इस देश का नमक खाने वाला कोई आदमी भारत माता की जय नही बोलेगा तो वो तो गद्दार ही हुआ। " वो लड़का फिर बोला।
                " तुम कोण होते हो मुझे गद्दार कहने वाले ? जाओ नही बोलता, कर लो क्या करोगे। " मेरा सयम जवाब दे गया।
                 " भारत माता की जय तो तुमको बोलना ही होगा। और तुम क्या, तुम जैसे जितने भी गद्दार हैं सबको बोलना होगा। " वो अब हावी होने लगा। तब तक वहां 15 -20 लोगों की भीड़ जमा हो गयी। दो तीन आदमी बीच बचाव करने के लिए आगे आये। वो मुझसे बोले " भाई साहब, क्यों खामख्वाह झगड़ा बढ़ा रहे हो। भारत माता की जय कोई गलत बात तो है नही। एक बार बोल दो और चले जाओ। "
                    " मैं झगड़ा बढ़ा रहा हूँ ? तुम लोग इनकी तरफदारी कर रहे हो। " मुझे उनकी समझ पर अचरज हुआ। आखिर बहुत देर तक झगड़ा चलता रहा। मैं लोगों की समझ पर हैरान था। सभी लोग यही कह रहे थे की भारत माता की जय बोलने में मुझे एतराज क्यों है।
                   अगले दिन सुबह फिर वहां भीड़ लगी हुई थी। जो आदमी कल मुझसे पूछ रहा था की मुझे भारत माता की जय बोलने में क्या एतराज है वो खड़ा उन्ही लड़कों के साथ जोर जोर से बहस कर रहा था। वहां भीड़ जमा थी। मैं भी वहां पहुंचा। मैंने उससे पूछा की क्या बात हुई ? तो उसने बताया की आज उन लड़कों ने उसकी लड़की को घेर लिया और उससे भारत माता की जय बोलने को कहने लगे। मैंने कहा लेकिन उसे भारत माता की जय बोलने में क्या एतराज था ?
                    वो आदमी मुंह फाडे मेरी तरफ देख रहा था।

Friday, March 18, 2016

आरएसएस को " भारत विजय " के अभियान में एक-एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

                आरएसएस को कभी ऐसा लगता था की अगर केंद्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार आ जाये तो वो बहुत आसानी से " भारत विजय " कर सकता है। यहां भारत विजय से मतलब है देश के लोगों द्वारा देश, देशभक्ति, लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्र के बारे में जो संघ का विचार है उसे देश की जनता द्वारा स्वीकार कर लिया जाना है । इसलिए उसने सरकार के में  आते ही अपने एजेंडे को लागु करना शुरू कर दिया। जिन संस्थाओं और मूल्यों को लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है और जो संघ की समझदारी के खिलाफ बैठती हैं, उन सब पर उसने हमला किया। भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति, उसके बहुधर्मी समाज और अनेक भाषा भाषी होने की हकीकत संघ की राष्ट्र की  अवधारणा के खिलाफ होती है। इसलिए हमारी संस्थाओं की पूरी कार्यप्रणाली अब तक इसी विचार के तहत थी। इसमें सबसे बड़ा योगदान हमारे विश्वविद्यालयों का था जो ना केवल इस अवधारणा के साथ खड़े हैं, बल्कि इस पर निरंतर शोध के जरिये इसे और ज्यादा समृद्ध भी करते हैं। वहां पढ़ने वाले छात्र और पढ़ाने वाले प्रोफेसर इस पर लगातार काम कर रहे हैं। इसके साथ ही वो ऐसे समाजशास्त्री भी हैं जो राष्ट्र और समाज के बारे में संघ की समझ का तर्कपूर्ण तरीके से विरोध करते हैं। संघ को मालूम है की जब तक हमारे विश्विद्यालय संघ की विचारधारा को स्वीकार नही करते तब तक उसका भारत विजय सपना पूरा नही हो सकता।
                 इसलिए उसने सबसे पहला हमला यहीं से शुरू किया। हमारे सिनेमा और टीवी से जुड़े और विश्व में अपनी प्रतिष्ठा रखने वाला FTII उनका पहला निशाना बना। संघ को मालूम है की उसकी विचारधारा में ना तो इतनी शक्ति है और ना ही उसे किसी स्वीकार्य शोध का समर्थन प्राप्त है की वो बहस के स्तर पर उसका मुकाबला कर सके। इसलिए उसने उसे बौद्धिक चुनौती देने की बजाए उसे नष्ट करना ही  बेहतर ऑप्सन लगा। इसलिए उसने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के बदलाव  किये की निरंतर शोध की यह प्रक्रिया ही समाप्त हो जाये। उसने पीएचडी करने वाले छात्रों की स्कॉलरशिप समाप्त कर दी। उसने दूसरे विश्व स्तरीय संस्थानों की फ़ीस में इतनी बढ़ोतरी कर दी की दलितों, गरीबों और दूर दराज से आने वाले छात्र उसमे दाखिला ही ना ले सकें। साथ ही उसने विश्विद्यालयों के उपकुलपति से लेकर दूसरे तमाम महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर दूसरे दर्जे के लोगों की नियुक्तिया करनी शुरू कर दी जो सिर झुकाकर संघ के आदेशों का पालन करते रहें।
                 इसके साथ ही उसने दबाव में ना आने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों को डराने धमकाने और यहां तक की उन पर शारीरिक हमलों तक की शुरुआत कर दी। विरोधी बुद्धिजीवियों पर झूठे मुकदमे बनवाने शुरू कर दिए और उनके संगठनो पर पाबंदियां लगानी शुरू  कर दी। उनके लोगों ने इन कार्यों का विरोध करने वाले लोगों पर अदालतों तक में हमले किये और खुलेआम दुबारा ऐसा करने की धमकियां दी।
                   लेकिन क्या हुआ ? संघ को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा की लोगों ने डरकर समर्पण करने की बजाय उसके विरोध में खड़े होने और लड़ने का फैसला किया। FTII से लेकर चाहे वो JNU हो या इलाहबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या IIT मद्रास, हर जगह उनका पुरजोर विरोध हुआ। और जहां से उन्होंने लड़ाई शुरू की थी वो एक जगह से भी उसे जीत कर आगे नही बढ़ पाये। सरकार ने अपने सारे मुखौटे उतार फेंके लेकिन इस लड़ाई को जीत नही पाये। हाँ, इसका एक उल्टा असर जरूर हुआ। अब तक जो दलित छात्र संगठन दक्षिण की इक्का दुक्का संस्थानों में थी उसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया। वामपंथ, जो 2009 के चुनावों के बाद मीडिया में अपनी जगह खो चूका था उसे दुबारा हासिल करने में कामयाब रहा। और इन सब में जो सबसे बड़ी बात हुई वो ये की दलितों, वामपंथियों और अल्पसंख्यकों के बीच बड़े  पैमाने पर एक साझा समझ विकसित हुई। लोगों में साथी और विरोधी की तर्कपूर्ण पहचान करने की समझ बढ़ी।
                  इसलिए जो संघ अब तक ये समझता था की एक सिमित  हमले के बाद लोग समर्पण कर देंगे उसे एक एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उसे रस्ते में आने वाला हर सर कलम करना पड़ रहा है। उसके बावजूद अबतक तो उसे ये भी नही पता की वो आगे बढ़ा है या पीछे हटा है। पूरी सरकार की निष्पक्षता और सभी संस्थाओं की स्वायतत्ता को खोकर भी वो कुछ हासिल नही  पाया।

Thursday, March 17, 2016

Vyang -- राजनीती का दूसरा पाठ -- गंगा गए तो गंगाराम, जमना गए तो जमनादास।

                 भक्तो- आज राजनीती का दूसरा पाठ सिखाया जायेगा। वैसे तो तुम इतने काबिल हो की बिना सिखाये भी तुम ऐसा ही करते हो। वरना संघ की पाठशाला में दाखिला ही नही मिलता। भक्तो, राजनीती में कभी भी अपनी जबान पर स्थिर नही होना चाहिए। ये मुहावरा याद रखो की जुबान तो होती ही पलटी मारने के लिए है। जो व्यक्ति जुबान नही बदल सकता वह राजनीती के काबिल नही है। और बाकि किसी राजनीती के काबिल हो या ना हो, संघ की राजनीती के तो बिलकुल काबिल नही है। इसलिए हमेशा एक बात याद रखो की गंगा गए तो गंगाराम और जमना गए तो जमनादास। जगह और लोग देखकर अपने सुर बदल दो। जैसे-
                 अभी केंद्र में हमारी सरकार है , पंजाब में भी हमारी सरकार है और हरियाणा में भी हमारी सरकार है। हरियाणा और पंजाब का पानी पर विवाद है। लेकिन एक अच्छे नेता की तरह जब हम पंजाब में जाते हैं तो कहते हैं की हरियाणा को एक बून्द पानी नही देंगे। जब हम हरियाणा में जाते हैं तो कहते हैं की पानी पर हरियाणा का हक है और लेकर रहेंगे। हमने पंजाब के लोगों को दिखाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास करवा दिया और अब हरियाणा की हमारी सरकार को कहा है की वो कोर्ट में जाये। मामला केंद्र में पहुंचेगा तो हम कहेंगे की ये संवेदनशील मुद्दा है और इस पर दोनों पक्षों को सयम बरतना चाहिए। साथ ही ये भी कहेंगे की ये विवाद कांग्रेस की देंन है। अगर उसने ये विवाद पहले ही निपटा दिया होता तो हमे ये झंझट नही झेलना पड़ता।
              दूसरा उदाहरण देखो। हमने हरियाणा में जाटों को आरक्षण देने का वायदा किया। उसके बाद हमेशा की तरह मुंहढ़ँककर सो गए। जब वहां आंदोलन शुरू हुआ तो सारे प्रशासन और पुलिस  लेकर गंगास्नान को निकल गए। पीछे से हमारे नेता  कार्यकर्ता जाटों को सहयोग करते रहे आरक्षण के लिए। और दूसरे नेता कार्यकर्ता गैर जाटों को भड़काते रहे आरक्षण के खिलाफ। जब हालात ज्यादा खराब हो गए तो इसे विपक्ष की साजिश करार दे दिया। अब भी हम जाटों को पुरे आरक्षण का वादा कर रहे हैं और गैर जाटों को पूरा मुआवजा देने का वादा कर रहे हैं। आहिस्ता आहिस्ता दोनों हमे अपने अपने पक्ष में समझेंगे।
                इसलिए मौका देखकर रंग बदलने की आदत डालो। इसके लिए गिरगिट के मांस के लड्डू खाए जा सकते हैं उससे रंग बदलने की गति बढ़ेगी।
                 इस पर एक छात्र ने पूछा , " गुरूजी, गिरगिट तो जहां जाता है, वहां जाकर रंग बदलता है। लेकिन हमे तो जहां जाना होता है वहां रंग बदलकर जाना होता है। "
                  " अति उत्तम ! वत्स, क्या काम करते हो। " गुरूजी प्रभावित हुए।
                  " जी गुरूजी , मेरी चाय की दुकान है। " शिष्य ने कहा।
                  " तुम में प्रधानमंत्री के पद तक जाने की योग्यता दिखाई दे रही है। " इसी तरह मेहनत करते रहो।
                 अब मैं इस बात को और सरल करूंगा ताकि मंदबुद्धि विद्यार्थी भी इसे समझ सकें। हम JNU में जिन चीजों को देशद्रोह बता रहे हैं उन्हें कश्मीर में नही बता रहे। बल्कि वहां तो हम उन्हें देशहित में बता रहे हैं। जिन चीजों को हम विपक्ष में रहते हुए लोकतंत्र का हिस्सा बताते थे उन्हें सरकार में आने के बाद देश और विकास विरोधी बता रहे हैं। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं। तेजस्वी विद्यार्थी उन्हें देख पाएंगे।
                     ये राजनीती का बेशकीमती गुण है। इसे पहले बताये गए वायदा करके भूल जाने के गुण के साथ  मिलाकर प्रयोग किया जाये तो ये रामबाण है। दुनिया का कोई भी मतदाता इसके प्रहार से बच नही सकता। ये जी जनता होती है, ये बड़ी ही वाहियात किस्म की चीज होती है। इस पर बिलकुल भरोसा मत करो। उसे हमेशा उसके अनुरूप रंग दिखलाते रहो। यही एक कामयाब राजनेता की पहचान है। ऐसा कोनसा काम ( पाप ) है जिसका हम विपक्ष में रहते विरोध करते थे और सत्ता में आने के बाद हमने नही किया ? कुछ लोग इसे धोखाधड़ी और वादा खिलाफी कहते हैं लेकिन हम इसे राजनीती कहते हैं।
                             अगला पाठ  कल।

Wednesday, March 16, 2016

मदर टेरेसा को सन्त का दर्जा।

खबरी -- सुना है चर्च ने मदर टेरेसा को सन्त का दर्जा देने का फैसला कर लिया है।

गप्पी -- मुझे नही मालूम की चर्च के नियमो के अनुसार सन्त किसे कहा जाता है। लेकिन मैं और मेरे जैसे करोड़ों लोग सालों से मदर टेरेसा को सन्त मानते रहे हैं। मैं उन्हें उनके चमत्कारों के लिए नही बल्कि उनके कार्यों के लिए उन्हें सन्त मानता हूँ। मदर टेरेसा को सन्त मानने के लिए चमत्कारों की पुष्टि का इंतजार उनके द्वारा किये गए कार्यों का अपमान है। वो हमेशा से सन्त थी, चर्च की मान्यता के बिना भी।

Tuesday, March 15, 2016

प. बंगाल में तृणमूल की जमीन खिसक रही है

                 प. बंगाल में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है। इसके साथ ही वहां चुनाव में जीत हार की सम्भावनाओ का विश्लेषण भी होने लगा है। वैसे तो मुख्य तौर पर मीडिया वाम विरोधी ही रहा है। और हर बार वामपंथ के हारने की भविष्यवाणियां करता है। कुछ सालों से ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के जिस तरह के रिजल्ट आये हैं उससे अब कोई गंभीर आदमी इन पर भरोसा नही करता। हाँ, एक मनोरंजक कार्यक्रम की तरह इन्हे देख जरूर लेता है। जब वो इसे देख लेता है तो चैनल की TRP बढ़ती है। और एकाध चैनल को छोड़ दें तो उनके लिए TRP ज्यादा मायने रखती है और विश्वसनीयता कम मायने रखती है।
                 लेकिन इस दौरान कुछ गंभीर और तठस्थ लेखक और पत्रकार भी इस मामले पर लिखते हैं। वो अपने हिसाब से चीजों का विश्लेषण करते हैं। इस तरह के लेख और विश्लेषण अख़बारों में आने शुरू भी हो गए हैं। इनके साथ ही कुछ आंकड़े भी छपते हैं और उनकी विवेचना भी होती है। इन्ही आंकड़ों के आधार पर मैं भी अपनी बात कहना चाहता हूँ। मैंने इस लेख के शीर्षक में ही ये कहा है की तृणमूल कांग्रेस हार रही है। उसका कारण निम्न है। -
                  1 . पिछले चुनाव में तृणमूल कांग्रेस मोदीजी की ही तरह बहुत बड़े बड़े वायदे करके सत्ता में आई थी। उसमे बंगाल में परिवर्तन का वायदा प्रमुख था। उसमे सबसे बड़ा वायदा युवाओं को रोजगार देने का था। साथ ही साफ सुथरा प्रशासन देने का वायदा भी था। लेकिन आज एक भी उपलब्धि ममता सरकार के पास नही है जिसको लेकर वो मतदाताओं के सामने जा सके। बल्कि लोगों ने भृष्टाचार का एक बहुत ही भयावह रूप देखा है जो अब तक बंगाल के लिए दूर की बात थी। वाममोर्चा सरकार के मंत्रियों पर कोई भी आरोप नही था इस बात को उसके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। इसलिए एक प्रगतिशील परिवर्तन के वायदे का भरम टूट चूका है।
                   2 . पिछले दिनों केंद्र सरकार की तरफ से जिस तरह से आरएसएस की विचारधारा को लागु करने की कोशिश की जा रही है और उसके कारण छात्रों, लेखकों और बुद्धिजीवियों में इसके प्रति जो विरोध बढ़ रहा है और उसके कारण उन्हें जिस तरह के हमलों का सामना करना पड़ रहा है उस पर तृणमूल कांग्रेस एकदम चुप ही रही है। उसका एक कारण ये भी है की उसको लगता है की ये वामपंथ पर हमला है सो अच्छा ही है। लेकिन अब बात उससे कहीं आगे निकल चुकी है। ये हमला वामपंथियों से आगे बढ़कर अब लगभग हर लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले व्यक्ति और संस्थाओं को अपने लपेटे में ले चूका है। और इस मामले में प. बंगाल की एक शानदार परम्परा रही है। इससे इस तबके का तृणमूल से मोहभंग हो चूका है।
                   3 . ममता सरकार ने इस दौरान जिस तरह से माहोल को साम्प्रदायिक करने की कोशिश की है उसे बंगाल के लोगों ने पसंद नही किया है। बंगाल की संस्कृति में इस तरह के विभाजन की परम्परा नही रही है। इसलिए बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा ये मानता है की ये तृणमूल और बीजेपी की मिलीजुली साजिश है ताकि वोटों का धुर्वीकरण करके वोट हांसिल किये जा सकें।
                    4.   अब सवाल है आंकड़ों का। पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को लगभग 39 % वोट मिले थे और वाम मोर्चा को लगभग 40 % वोट मिले थे। लेकिन ज्यादा वोट शेयर होने के बावजूद वो चुनाव हार गए थे। इसके साथ ही कांग्रेस को 10 % वोट मिले थे और बीजेपी को लगभग 6 %  थे। जब लोकसभा चुनाव हुए तो उस समय मोदी लहर सारे देश में काम कर रही थी। उस समय तृणमूल कांग्रेस को 39 % और कांग्रेस को फिर लगभग 10 % वोट मिले। लेकिन वाममोर्चा के वोट घटकर लगभग 29 % रह गए और बीजेपी के वोट बढ़कर लगभग 17 % हो गए। लेकिन ये एक वक्ती शिफ्ट थी। उसके बाद किसी भी चुनाव में बीजेपी अपना वोट शेयर बनाये नही रख पाई। अब भी राजनैतिक विश्लेषकों का अनुमान है की बीजेपी का वोट शेयर घटकर वापिस 6 % पर आ जाने वाला है और जो लोग वाममोर्चा से बीजेपी की तरफ गए थे वो वापिस लोट आये हैं। अब चूँकि ये विधानसभा चुनाव है और बीजेपी इसमें मुकाबले में नही है सो उसे वोट नही मिलेंगे। अब वाममोर्चा के 40 % वोट और कांग्रेस के 10 % वोट को मिला लिया जाये तो ये लगभग 50 % होता है। ये भी मान लिया जाये की किसी भी पार्टी का पूरा वोट शेयर शिफ्ट नही होता है तो भी इन दोनों पार्टियों को लगभग 45 % वोट मिलने का अनुमान है। दूसरी तरफ अगर तृणमूल अपने वोट शेयर को पूरा बचाये भी रखती है तो उसको 39 % वोट मिलने वाला है। 6 % का फर्क सीधे मुकाबले में बहुत निर्णायक होता है और बिहार की तरह शायद तृणमूल 80 सीट का आंकड़ा पार ना कर पाये।
                   5 . राजनीती में इस बात का बहुत महत्त्व है की कौन सा दल सेंटर स्टेज पर है। आज वाममोर्चा राजनीती के सेंटर स्टेज पर है भले ही हमलों के कारण क्यों ना हो। इसलिए इस बात के स्पष्ट संकेत हैं की तृणमूल कांग्रेस हारने जा रही है।
 

Monday, March 14, 2016

लोगों पर हमलों को दूर से देखते राजनितिक दल।

               पिछले कुछ समय से बीजेपी और आरएसएस ने लोगों के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमले तेज कर दिए हैं। इसका पहला शिकार लेखक, बुद्धिजीवी और छात्र हुए हैं। क्योंकि यही वो लोग हैं जो निर्णयों के दूरगामी परिणामो को समझ सकने की काबिलियत रखते हैं। इसके समर्थन में संघ ने ऐसे लोगों को मैदान में उतारा है जो दिमाग से पैदल हैं और आका के हुक्म पर अपने बाप को भी गाली दे सकते हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है की ये लोग जिस तबके से आते हैं वो खुद सरकार के हमलों का शिकार है। जैसे, छात्रों का एक छोटा तबका जो नकली देशभक्ति के नारों से प्रभावित है उसको ये दिखाई नही दे रहा है की जिस तरह के फेरबदल सरकार शिक्षा के क्षेत्र में कर रही है उससे गरीब छात्रों का बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हो जायेगा। और लड़ाई असल में उन्ही बदलावों के खिलाफ शुरू हुई थी चाहे हैदराबाद हो या JNU हो। दूसरी तरफ पर सैनिकों का एक तबका है, लेकिन वो इस बात को भूल गया की OROP के सवाल पर इस सरकार ने वेटरंस के साथ क्या सलूक किया था। और एक सैनिक जब रिटायर होता है तो या तो किसान बनता है , छोटा दुकानदार बनता है या फिर किसी निजी फर्म में नौकरी करता है। वो ये भूल जाता है की किसानो की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, छोटे व्यापार में विदेशी फर्मों को इजाजत देकर छोटे दुकानदारों को मुसीबत में डाला जा रहा है और कर्मचारियों के हित में बने सारे कानून बदले जा रहे हैं। देशभक्ति केवल नारों में नही होती। जब कोई आदमी सेना के किसी गलत काम के खिलाफ आवाज उठाता है तो वो सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहा होता है जो सेना का इस्तेमाल उस काम के लिए कर रही होती है। एक बहुत छोटा सा उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और नक्सलियों के खिलाफ सेना की मुहिम कोई विदेशी ताकत के खिलाफ मुहिम नही है। ये अपने ही गरीब आदिवासियों से जमीन खाली करवा कर उद्योगपतियों को देने की लड़ाई है। और इस लड़ाई में सैनिकों की हालत ये है की जितने सैनिक नक्सलियों के साथ लड़ाई में मारे गए हैं उनसे ज्यादा सैनिक वहां सुविधाओं के आभाव में बिमारियों और दूसरे कारणों से मारे गए हैं। ये सारे आंकड़े गूगल पर उपलब्ध हैं।
                 आजादी से पहले भी इस तरह के दौर आये हैं। उस समय भी देश का बहुत छोटा सा तबका ही था जो इन चीजों को समझता था और इनका विरोध करता था। अंग्रेज हमेशा आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए उसके नेताओं को बदनाम करती रही। राजा राममोहन राय और जगदीश चन्द्र बसु के समाज सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ कटटरपंथी हिन्दुओं का एक तबका परम्परा और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के नाम पर उनके खिलाफ खड़ा रहा। भगत सिंह और उनके साथियों को उस समय भी आतंकवादी कहने वालों की बड़ी संख्या थी।
                 जब आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में थी तब भी जो लोग अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे और जिन कारणों के लिए कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, ठीक उसके उल्ट उन्ही लोगों के साथ मिलकर सरकार बना रहे थे। हिन्दू महासभा, उस समय जिसके नेता वीर सावरकर और शयामा प्रशाद मुखर्जी थे, एक तरफ कांग्रेस पर विभाजन ना रोक पाने का आरोप लगा रही थी और दूसरी तरफ जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रही थी। सावरकर अपने लेखों में दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन भी कर रहे थे और कांग्रेस को भी कोस रहे थे।
                  ठीक यही स्थिति आज भी है। बीजेपी और आरएसएस एक तरफ लेखकों, बुद्धिजीविओं और छात्रों पर कश्मीर के सवाल पर केवल एक वैचारिक बहस को लेकर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं, हमले कर रहे हैं और दूसरी तरफ ठीक उसी विचार पर काम कर रही पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं। कश्मीर में बीजेपी के कोटे से मंत्री बने सज्जाद लोन ने कहा था की जब कोई भारतीय सैनिक मरता है तो उसे सकून मिलता है।
                   लेकिन सवाल दूसरा है। जब इस तरह के हमले हो रहे हों, देश का धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक अस्तित्त्व खतरे में हो तब कुछ राजनैतिक पार्टिया इस पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। आज भी इस सवाल पर वामपंथी दलों, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस को छोड़कर बाकि दल इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। लो लोग दलितों की राजनीती का दावा करते हैं वो रोहित वेमुला के सवाल पर चुप हैं। स्थिति ठीक वैसी ही है। आजादी की लड़ाई के गद्दार आज देशभक्ति का दावा कर रहे हैं। इसी तरह इस लड़ाई के बाद यही राजनैतिक दल नए दावों और नारों के साथ सामने आएंगे।
                     इसलिए हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को स्थिति की गंभीरता को समझकर फैसला लेना होगा। जो हमले आज उन्हें लगता है की दूसरों पर हो रहे हैं, दरअसल पिछले दरवाजे से उन्ही पर हो रहे हैं। ये हमले उन्ही लोगों पर हो रहे हैं जो आम जनता के दूसरे सवालों पर भी, जो उनकी रोज की जिंदगी और काम धंधे से जुड़े होते हैं, सवाल उठाते हैं।  सरकार के खिलाफ लड़ने वाले इन सब लोगों पर हमले का मतलब खुद लोगों पर हमला है। अगर समय से इसका विरोध नही किया गया तो एक लम्बी अँधेरी रात की शुरुआत हो सकती है।

Vyang -- शर्म उन्हें मगर नही आती।

                 भक्तो, याद करो कुछ डायलॉग। जिन पर तुम पीटते थे तालियां। बेसुमार। आँखों में चमक लिए। तुम्हारा चेहरा खिल उठता था। याद करो।
                 भाइयो और बहनो ,
                 हमारे देश के दो मछुआरों का खून करके इटली के दो सैनिक अपने देश वापिस चले गए।
                 क्या हमारे मछुआरों के खून की कोई कीमत नही।
                 इटली किसका मायका है ?
                 किसने उन्हें इटली भेजा।
                 क्या उन्हें वापिस  जाना चाहिए ?
                 क्या उन्हें सजा नही मिलनी चाहिए ?
                         ( अब वो दोनों कहां हैं ? और किसके कारण हैं ? )
                 भाइओ और बहनो ,
                ये जो चोर लुटेरों का धन जो विदेशी बैंको में जमा है वो वापिस आना चाहिए की नही ?
                 ये धन देश के विकास में लगना चाहिए की नही ?
                 अगर ये धन में आ जाता है तो हर गरीब आदमी को बैठे बिठाये 15 -20 लाख रूपये तो वैसे ही मिल जाएंगे बिना कुछ किये।
                 अगर मेरी सरकार बनती है तो 100 दिन में अगर ये काला धन वापिस ना आ जाये तो आप मुझे फांसी पर लटका देना।
                         ( क्या कालाधन आया ? क्या कोई फांसी चढ़ा ? )
                 भाइयो , बहनो -
                 ये जो पाकिस्तान हर रोज सीमा पर गोलीबारी कर रहा है वो इसलिए की हमारी सरकार कमजोर है। जरूरत है उससे आँख से आँख मिलाकर बात करने की।
                  मैं लवलेटर लिखने में विश्वास नही रखता।
                          ( बंद हो गयी गोलीबारी ? )
                  भाइयो, और बहनो,
                 ये जो हमारे देश का नौजवान है उसको काम मिलना चाहिए की नही ?
                 ये जो नौजवान पढ़ लिख कर बेकार घूम रहे हैं इनको नौकरी मिलनी चाहिए की नही ?
                   मेरी सरकार आती है तो हर साल दो करोड़ नोजवानो को नौकरियां दी जाएँगी।
                           ( कितने नोजवानो को नौकरियां मिली ? )
                 भाइयो, बहनो,
                   हमारे देश का किसान आत्महत्या कर रहा है उसका कारण है उनको फसलों का सही दाम  नही मिलना। अगर हमारी सरकार आती है तो हम  सुनिश्चित करेंगे की किसान को उसकी लागत से 50 % ज्यादा दाम मिलें। इसके बिना किसानो की हालत नही सुधर सकती।
                            ( फसलों की MSP कितनी बढ़ी ? )
               

Saturday, March 12, 2016

विजय माल्या, कांग्रेस के दिए हुए लोन और बीजेपी की जिम्मेदारी

             विजय माल्या चले गए। चले ही जाना चाहिए इस देश में और रखा भी क्या था। जितना उसके लिए रखा था वो तो ले ही लिया। अब जब लगा की वापिस देना पड़ सकता है तो चले गए। जो लोग, नेता और टीवी चैनल आमिर खान पर हफ्तों इस बात पर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे थे की उनकी पत्नी ने ऐसा क्यों कहा की क्या हमे देश छोड़ देना चाहिए, उनमे से किसी ने इस सचमुच देश छोड़ने वाले को गद्दार नही बताया। ना राजनाथ सिंह ने, ना आरएसएस ने, और ना सोशल मीडिया पर बैठे भाड़े के देश भक्तों ने। बताते भी कैसे ? विजय माल्या ने धमकी दी है की सबकी पोल खोल दूंगा दस्तावेजों के साथ।
               लेकिन इसके बाद दूसरा सवाल ये है की जब मामला उठा की उसे जाने कैसे दिया तो बीजेपी ने कहा की सारे लोन कांग्रेस के दिए हुए हैं। अब ये नया तरीका शुरू होगा की कांग्रेस के जमाने के दिए हुए लोन कांग्रेस वसूल करेगी और बीजेपी के जमाने के दिए हुए बीजेपी। तरीका तो सही है। लेकिन मुझे एक गड़बड़ लगती है। जो लोन विश्वनाथ प्रताप सिंह, मोरारजी देसाई या आई. के. गुजराल साहब के जमाने में दिए थे उनको कौन वसूल करेगा। साथ ही अब मुझे लगता है की बैंकों का NPA इसी लिए बढ़ रहा है की वो सारे लोन कांग्रेस के जमाने में दिए गए थे तो बीजेपी सरकार क्यों वसूल करे। देश के उन सारे उद्योगपतियों को अब उस लोन का कोई पैसा चुकाने की जरूरत नही है जो कांग्रेस के जमाने में लिए थे। कभी दुबारा कांग्रेस की सरकार आएगी तो देखेंगे, वरना माले गनीमत समझ कर हजम कर लो।
             दूसरी जो चीज मुझे समझ में आई वो ये की, जो बीजेपी कहती रही है की कांग्रेस मुक्त भारत बनाएगी तो उद्योगपति उसका समर्थन क्यों करते थे। अरे भई, इसका दूसरा मतलब ये भी तो हुआ की कांग्रेस मुक्त भारत और कर्ज मुक्त उद्योगपति। जाहिर है की जो लोन कांग्रेस के जमाने में दिए गए थे उनको वसूल करने की जिम्मेदारी बीजेपी की तो है नही। इसलिए सभी उद्योगपतियों को कर्जमुक्त घोषित कर दिया जाये। और मुझे पूरा विश्वास है की बहुत जल्दी ये कर दिया जायेगा।
               मुझे इसमें कोई बुराई भी नजर नही आती। आखिर किसी दूसरे का दिया हुआ कर्जा कोई दूसरा क्यों वसूल करे। बस मुझे एक ही बात और कहनी है। यही बात बीजेपी सरकार वर्ल्ड बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और दूसरे कर्ज देने वाली संस्थाओं को भी कह दे की तुम्हारे से कर्जा कांग्रेस के जमाने में लिया गया था इसलिए हमसे तो उम्मीद मत रखना। आखिर कांग्रेस के जमाने में लिया हुआ कर्जा बीजेपी क्यों भरे।  जब वसूली की जिम्मेदारी नही है तो देने की जिम्मेदारी भी नही है।
               अब आगे से सारे काम इसी हिसाब से होंगे। स्मृति ईरानी कहती हैं की जिन अधिकारीयों ने रोहित वेमुला को बर्खास्त किया उनकी नियुक्ति कांग्रेस के जमाने में हुई थी हमने नही की। सरकार कहती है की जो एफिडेविट सीबीआई ने बदला उसका जवाब कांग्रेस देगी अधिकारी नही। जिन लोगों पर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, वो सभी अधिकारी कह रहे हैं की ये काम हमने कांग्रेस के एक नेता के दबाव में किया था। और ये वो बड़े गर्व से टीवी चैनल पर कह रहे हैं और मौजूदा सरकार उस तालियां पीट रही है की देखो, हम ना कहते थे।
                मुझे केवल एक बात का डर है। कल कोई युद्ध हो जाये और हमारी पिटाई हो जाये तो बीजेपी ये ना कह दे की इन सारे सैनिकों और अधिकारीयों की नियुक्ति कांग्रेस के जमाने में हुई थी। इसलिए मैं कहता हूँ की देश के सारे कर्मचारियों और अधिकारीयों को बर्खास्त करके नई भर्ती की जाये। सारे बैंकों को बंद करके नए बैंक खोले जाएँ। जिनका पैसा जमा है वो कांग्रेस से मांगे। जिनको देना है वो भूल जाये और नया लोन ले। उसके बाद देश में होने वाली घटनाओं की जिम्मेदारी मौजूदा सरकार की होगी। 

Friday, March 11, 2016

अनुपम खेर इरादतन झूठा है।

                  जब भी कोई साम्प्रदायिक अथवा जातीय इत्यादि संगठन अपने अनुयायिओं से सम्बोधित होता है तो उसकी थीम ये होती है की हमारे साथ अन्याय हो रहा है। इसी तरह इनके नेता भी व्यक्तिगत रूप से अन्याय का शिकार होने का राग अलापते हैं। वो जो उदाहरण देते हैं वो पहली नजर में उनकी बातों कि तस्दीक करते हैं लेकिन उनके असल कारण दूसरे होते हैं। उनके अनुयायिओं का एक तबका हमेशा उनकी इस साजिश का शिकार रहता है।
                   अनुपम खेर इस बात का बहुत ही चतुराई से उपयोग करते हैं। वो बहुत पहले से बीजेपी समर्थक कश्मीरी संगठन से जुड़े रहे हैं। लेकिन वो हमेशा  अपने आप को तठस्थ दिखाने की कोशिश करते हैं। वो इस बात को भी छिपा लेते हैं की उनकी पत्नी बीजेपी की सांसद हैं।
                    पिछले कुछ दिनों से वो बीजेपी और संघ की तरफ से इस सरकार पर सवाल उठाने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों और छात्रों के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। जाहिर है जब ये लेखक, बुद्धिजीवी या छात्र सत्ता द्वारा भेदभाव जैसे मुद्दे उठाते हैं तो उनको काउन्टर करने के लिए उनके विरोधी भी ठीक वैसे ही मुद्दे उनके सामने खड़े करने की कोशिश करते हैं। इसी क्रम में उन्हें झूठ का सहारा लेना पड़ता है।
                    अनुपम खेर ने इसी शृंखला में पहले ये आरोप लगाया था की पाकिस्तान सरकार ने उन्हें साहित्य सम्मेलन में भाग लेने के लिए वीजा नही दिया। वो दिखाना चाहते थे की देखो मैं भी मोदीजी की तरह भेदभाव का शिकार हूँ और साथ में महत्त्वपूर्ण आदमी भी हूँ। बाद में जब पाकिस्तान उच्चायुक्त ने  ये बताया की अनुपम खेर ने वीजा के लिए आवेदन ही नही किया है तो वो चुप रह गए। इसी क्रम में अब उन्होंने JNU पर ये आरोप लगाया है की JNU ने उनकी फिल्म दिखने से इंकार कर दिया और वो असहनशीलता के शिकार हैं। अब उस पर JNU से बयान आया है की अनुपम खेर झूठ बोल रहे हैं। और चूँकि मौजूदा सैमेस्टर की बुकिंग पूरी हो चुकी थी और उसने अगले सैमेस्टर के लिए आवेदन ही नही किया।
                 ये सारी घटनाएँ ये दिखाती हैं की अनुपम खेर कोई गलती से तथ्यों को नही तोड़ मरोड़ रहे हैं बल्कि वो इरादतन ऐसा कर रहे हैं ताकि अपनी सरकार और संस्थाओं के पापों को काउन्टर किया जा सके।

जाट आरक्षण आंदोलन पर राजनाथ सिंह के जवाब के मायने।

               हरियाणा में पिछले दिनों भड़के जाट आरक्षण आंदोलन ने जो तबाही मचाई उसकी  गूँज दूर दूर तक गयी। इस आंदोलन के पीछे अलग अलग पार्टियों और उनके नेताओं का हाथ होने का आरोप है। जिसमे सच और झूठ का फैसला निष्पक्ष जाँच से ही सम्भव है। लेकिन इसमें हुए नुकशान का अंदाजा सम्पत्ति के रूप में लगभग 35000 करोड़ का है। इसमें लगभग 30 लोगों की जान गयी है। इसके अलावा हरियाणा के सामाजिक तानेबाने को जो नुकशान पहुंचा है उसका अंदाजा तो लगाया ही नही जा सकता। पुरे हरियाणा में जाट और गैर जाट जातियों के बीच एक तीखी विभाजन रेखा खिंच गयी है। और अब 35  बनाम 1 के नारे के तहत इस विभाजन को पुख्ता रूप देने की कोशिशे चल रही हैं। जाहिर है की कोई भी राजनितिक दल इसकी जिम्मेदारी लेने को तो तैयार नही होगा, हालाँकि इससे फायदा उठाने की कोशिश जरूर करेगा।
                लेकिन हमारा मुद्दा दूसरा है। एक बात ऐसी भी है जिस पर सब सहमत हैं और जिस पर मतभेद नही है, वो है आंदोलन के समय सरकार और प्रशासन की गैर हाजरी। हरियाणा का हर नागरिक ये मानता है की पुरे आंदोलन के दौरान सरकार गैर हाजिर थी। तो  सवाल भी उठेंगे। लोगों के जानमाल की रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। अगर आंदोलन के पीछे विपक्ष का भी हाथ हो तो भी सरकार की जिम्मेदारी खत्म नही हो जाती। ये सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है जिसे निभाने में सरकार असफल रही है। इस पर मामला जब संसद में उठा तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उसका ये जवाब दिया, " सरकार से किसी भी किस्म की कोई चूक नही हुई। "
                   इसका मतलब क्या है ? अगर सरकार के रहते इस तरह की लूटपाट होती है और जो पहले भी कई जगह हुई है, तो सरकार अब तक उसे अफसरों पर डाल कर निकल जाती थी। लेकिन इस बार राजनाथ सिंह ने चूक होने से ही इंकार कर दिया। फिर इसका क्या मतलब है। अगर सरकार से कोई चूक नही हुई और इस बड़े पैमाने पर तबाही हुई तो उसके केवल दो ही कारण हो सकते हैं।
                    पहला ये की सबकुछ सरकार के इशारे पर हुआ। या उसको इस तरह भी कह सकते हैं की इसे सरकार का समर्थन प्राप्त था। जैसे गुजरात दंगों पर उस समय की सरकार पर आरोप था।
                  दूसरा ये की सरकार की उसको रोकने की हैसियत नही थी। यानि सरकार नालायक थी। अगर सरकार से कोई चूक नही हुई और इतनी हिंसा हुई तो इसके अलावा क्या कारण हो सकता है।
                  दोनों ही कारण ऐसे हैं जिसके बाद किसी भी सरकार को अपने पद पर बने रहने का कोई नैतिक और क़ानूनी अधिकार नही है। क्या राजनाथ सिंह हरियाणा सरकार को इस्तीफा देने को कहेंगे। वरना आगे भी ऐसी सरकार के भरोसे जो कुछ कर  पाने की हैसियत में नही है, लोगों के जान मॉल की रक्षा नही कर सकती है उसे सत्ता पर क्यों रहना चाहिए। इस तरह तो हरियाणा असुरक्षा से हमेशा संकट ग्रस्त रहेगा।

Thursday, March 10, 2016

Vyang -- ( पहला पाठ )-- राजनीती का ब्रह्मास्त्र होता है वायदा।

                 कल हमने जिस आरएसएस राजनैतिक विश्वविद्यालय के बारे में बताया था उसमे अब क्लास शुरू हो गयी हैं। हम आपको इन क्लासों का सीधा प्रसारण बताएंगे। उसकी पहली क़िस्त -
                 अध्यापक ने क्लास में आकर पहला पाठ शुरू किया। जिसका विषय था। वायदे।
                उसने बोलना शुरू किया , " वायदा राजनीती का ब्रह्मास्त्र होता है। सभी विजेता इसी ब्रह्मास्त्र से जनता को पराजित करते हैं। विरोधी तो अपने आप परास्त हो जाते हैं। असली निशाना होती है जनता। चुनाव का पूरा तानाबाना इसी जनता के खिलाफ बुना जाता है। इसमें वायदा सबसे बड़ा अस्त्र है।
                 वायदा करने में किसी भी प्रकार का संकोच नही करना चाहिए। वायदा करने से पहले ये सोचना की उसे पूरा किया जा सकता है या नही, ये मूर्खों का काम है। वायदे का इस बात से कोई संबंध नही होता की उसे पूरा करना है। चुनाव में किये गए वायदों को पूरा करने की बात तो जनता भी नही सोचती फिर नेता को इतना सोचने की क्या जरूरत है। जनता को मालूम होता है की नेता बेवकूफ बना रहा है लेकिन उसके पास कोई ऑप्सन नही होता। अच्छे से अच्छा समझदार व्यक्ति भी वायदे के चककर में फंस जाता है। ये मालूम होते हुए भी की ये चुनाव का वायदा है वो अंदर ही अंदर उस पर विश्वास करता है। उसके मन में एक इच्छा होती है की शायद ये वायदा पूरा हो जाये। ये मनुष्य का स्वभाव है। और इसी बात का फायदा नेता को उठाना चाहिए। अब आप रोज देखते हैं की टीवी पर विज्ञापन आते हैं। लोगों को मालूम होता है की ये विज्ञापन है। इसमें कहि गयी बातों का वस्तु से दूर दूर तक भी संबंध नही होता। हर आदमी इस बात को समझता है। लेकिन जब वो दुकान पर सामान लेने जाता है तो वही वस्तु खरीदता है। उसके मन के किसी कोने में हल्की सी उम्मीद होती है की शायद विज्ञापन में कहि गयी बात का थोड़ा सा ही हिस्सा क्यों न हो लेकिन सच हो सकता है।
                  ठीक यही बात चुनाव में किये जाने वाले वायदों पर लागु होती है। लोग हर बात को समझते हुए भी अपने मन के किसी कोने में ये हल्की सी इच्छा पाल लेते हैं की शायद इसमें कुछ सच हो।
                   इसलिए वायदा करते वक्त कभी भी उसके सम्भव होने या ना होने पर विचार नही करना चाहिए। एक सफल नेता के लिए ये जरूरी है की वो बड़े बड़े वायदे करे।
                   दूसरी बात ये है की आप एक साथ दो विरोधी वायदे भी कर सकते हैं। आप पंजाब में कह सकते हैं की चण्डीगढ़ पंजाब को मिलना चाहिए और उसी दिन हरियाणा में कह सकते हैं की हरियाणा को मिलना चाहिए। इसमें कोई धर्मसंकट नही है। जिस तरह भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की उसके भक्त को कभी भी संशय का शिकार नही होना चाहिए। उसे अपने सारे कर्म भगवान को अर्पण कर देने चाहियें , ठीक उसी तरह चुनाव में उतरे हुए योद्धा के लिए भी ये जरूरी है की वो इस तरह के संशय से दूर रहे। नेता का काम है चुनाव लड़ना और उसे किसी भी तरह जीतना। इसलिए वायदों का ऐसा चक्रव्यूह रचो की मतदाता उसमे प्रवेश तो कर जाये लेकिन बाहर ना निकल पाये। यही असली योद्धा की पहचान है। " ग़ालिब ने भी कहा है --
                            तेरे वादे पे जिए हम, ये जान की झूठ जाना,
                            के ख़ुशी से मर ना जाते, जो एतबार होता।
                                                       शेष कल।

Vyang -- संघ संचालित राजनीती की पाठशाला

               जब से JNU का विवाद हुआ है संघ की परेशानी बढ़ गयी है। वहां के छात्र ऐसे  ऐसे सवाल पूछते हैं की संघ  के प्रवक्ताओं ने टीवी कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया है। इस पर संघ के सभी नेताओं ने बौद्धिक किया और तय  किया की संघ भी राजनीती शास्त्र की एक यूनिवर्सिटी खोलेगा। सबसे पहले इसके लिए एक पाठ्यक्रम तय किया गया जो इस प्रकार है।
१.  गोलवलकर सिद्धांत कौमुदिनी
२.  गोयबल्स सार संग्रह
३.  राष्ट्रवादी आतंकवाद
४.  गाय के राजनैतिक उपयोग
५.  देशोत्थान में गणवेश का महत्तव
६.   गुंडों और उठाईगिरों का सामाजिक सुरक्षा में उपयोग।
७.  मनुस्मृति केवल पीएचडी करने वाले छात्रों के लिए रिजर्व रहेगी।
            ये कुछ मुद्दे तय कर लिए गए और शेष भविष्य की जरूरतों के अनुसार तय करने का निर्णय हुआ। उसके बाद विश्वविद्यालय के दूसरे नियमों का निर्धारण किया गया। जो निम्न प्रकार से होंगे।
              १. विद्यालय में महिलाओं को प्रवेश नही दिया जायेगा। इससे राष्ट्र के भावी कर्णधारों के बिगड़ने का खतरा रहता है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व विद्यालय के मुख्यद्वार पर लगी हुई सरस्वती की प्रतिमा करेगी। साथ ही विद्यालय के  इस पर एक पूरा पैराग्राफ लिखा जायेगा जिसमे भारत में महिलाओं की पूजा होने के शास्त्रों में उल्लेख होने का हवाला दिया जायेगा। साथ ही ये भी स्पष्ट किया जायेगा की विद्यालय महिला विरोधी नही है।
             २. दलितों को विद्यालय में प्रवेश की अनुमति होगी। वरना वहां साफ सफाई की समस्या पैदा हो सकती है। लेकिन वर्ण व्यवस्था के अनुसार उनके लिए अलग वर्ग बनाये जायेंगे। अध्यापकों को ये छूट होगी की वो उन वर्गों में पढ़ाना चाहें तो पढ़ा सकते हैं। लेकिन गुरु दक्षिणा पढ़ाई पूरा होने से पहले ही ले ली जाएगी क्योंकि शास्त्रों में ऐसा ही प्रावधान है।
               ३. इस विश्विद्यालय से पढ़े हुए छात्रों को बाल भारती इत्यादि संघ के स्कूलों में नौकरी दी जाएगी। ये छात्र किसी भी दूसरी जगह नौकरी के लिए आवेदन नही करेंगे वरना भेद खुलने का डर रहेगा। सरकार में ऊपर के स्तर की नौकरियां इनके लिए आरक्षित की जाएँगी और उसके लिए मध्य प्रदेश सरकार के व्यापम के अनुभवों से फायदा उठाया जायेगा।
              ४. विश्वविद्यालय के किसी भी छात्र का शैक्षिणक और बौद्धिक स्तर देश के शिक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री से ज्यादा नही होगा ताकि शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया जाये।
             ५. देश की शिक्षा मंत्री के व्यापक अनुभव व कार्यक्षमता को देखते हुए उन्हें विश्वविद्यालय का आजीवन कुलपति नियुक्त किया जायेगा।
                   इसके आगे के कर्यक्रम और क्लास कल ------------- 

Wednesday, March 9, 2016

मिलीभगत और धोखाधड़ी को देख रही है जनता।

                क्या आपने फेवीक्विक का वो विज्ञापन देखा है जिसमे एक गरीब लारी वाले से एक महंगी कार की लाइट टूट जाती है। कार वाला बाहर निकल कर चिल्लाता है और बेचारा लारी वाला बुरी तरह डर जाता है। तभी कार वाला उससे कहता है निकाल पांच रूपये।
                 मुझे ये विज्ञापन आज NGT के उस फैसले के बाद याद आया जिसमे उसने श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम पर अपना फैसला सुनाते हुए लगभग उसी तरह की मांग कर दी।
                  सबसे बड़ी बात ये है की देश में ऐसा कौनसा आदमी था जिसको इस फैसले की पहले से उम्मीद ना रही हो। श्री श्री रविशंकर और उनकी संस्था तो आश्वस्त ही थी इसलिए उसकी तैयारियां अपने कार्यक्रम अनुसार चल रही थी। उसे तो रत्ती भर संदेह नही था। दूसरी तरफ सरकार थी जिसने उस को अघोषित अनुमति दे रखी थी और अनुमति ही नही दे रखी थी बल्कि पूरी सेना और पुलिस को भी इसकी तैयारियों में झोंक रखा था। पूरी बीजेपी अपने सहयोगी श्री श्री रविशंकर के साथ  खड़ी थी। संसद में मंत्री कह रहे थे की सभी अनुमतियाँ ली गयी हैं और कोर्ट में सभी सरकारी विभाग कह रहे थे की किसी अनुमति की जरूरत ही नही है। दूसरी देश की जनता है जिसे इस तरह के हर मामले में होने वाले हर निर्णय का पहले से ही अनुमान होता है। हर बार की तरह इस बार भी वही हुआ। एक दो डांट फटकार और फिर देरी का रोना रोकर अनुमति। हमारे लिए ये कोई नई बात नही है। हम ये सब एनरॉन के मामले में देख चुके हैं। जब अदालत शुरू में इस तरह के कार्यक्रम पर रोक नही लगाती तभी उसके अंतिम फैसले का अनुमान हो जाता है। और ये कोई अलग कार्यक्रम नही है भाई, वहां प्रधानमंत्री के लिए अलग मंच बन रहा है।
                   लेकिन सवाल ये है की न्याय के नाम पर इस तरह की मिलीभगत और धोखाधड़ी आखिर कब तक चलेगी। जब कोई गरीब सामने होता है तो हर संस्था को दो दो हाथ लम्बे दांत उग जाते हैं। जब 15 साल पुरानी टैक्सी पर प्रतिबंध लगाने की बात होती है और सामने गरीब टैक्सी वाले होते हैं तो यही NGT इस तरह व्यवहार करता है जैसे बब्बर शेर हो और जब मामला बड़े लोगों का होता है तो उसकी बेबसी देखते ही बनती है। तुम लाख अभिनय करो लेकिन सच्चाई लोगों को दिखाई देती है। केवल कुछ भक्तों और कुछ बुद्धिविहीन लोगों को छोड़ दिया जाये तो। मेरी कई आम लोगों से बात हुई तो उन्हें इस पर कोई आश्चर्य नही हुआ, उल्टा मेरी समझ पर आश्चर्य हुआ।
                     लेकिन मैं एक बात कहना चाहता हूँ। पर्यावरण को होने वाले नुकसान से क्या केवल गरीब लोग ही प्रभावित होंगे। जब आपने कारखानो और दूसरे जिम्मेदार लोगों को इसकी छूट दी थी तो इसका नतीजा ये हुआ की आज आपको सम-विसम फार्मूला अपनाना पड  रहा है। कल ये कार्यक्रम करके श्री श्री रविशंकर चले जायेंगे, प्रधानमंत्री को एक बड़ी भीड़ के सामने भाषण देने का मौका मिल चूका होगा लेकिन उसके बाद ? पहले से ज्यादा मैली यमुना तुम्हारे सामने होगी। और उसके साथ पर्यावरण से जुड़े वो सारे खतरे कुछ और भयावह रूप में सामने होंगे। जो लोग ये समझते हैं की इससे उन्हें कोई फर्क नही पड़ता उनके लिए जनाब राहत इन्दोरी साहब की एक गजल की एक लाइन सुना रहा हूँ हालाँकि इसे उन्होंने दूसरे संदर्भ में लिखा था।
                         लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,
                                              यहां केवल हमारा मकान थोड़ी है।

Tuesday, March 8, 2016

Vyang -- भक्तो, चलो टैक्स पे करना बंद करें ?

                  कई दिनों से देश एक अजीब संकट का शिकार हो गया है। अचानक देश के एक बहुत बड़े हिस्से को लगने लगा है की टैक्स पेअर के पैसे का नाजायज इस्तेमाल हो रहा है। मुझे तो बहुत पहले से ऐसा लगता था लेकिन मेरी कोई सुन ही नही रहा था। अब जाकर देश को लगा है की टैक्स पेअर का पैसा बर्बाद हो गया। खासकर जब से JNU का विवाद हुआ है और लोगों को पता चला है की वहां पढ़ाई का ज्यादातर खर्चा सरकार उठाती है तब से तो बहुत से लोगों का खून खौल रहा है। 90 साल के बूढ़े से लेकर 15 साल की लड़की तक को टैक्स पेअर के पैसे की चिंता सताने लगी है। आज सुबह सुबह मेरे पड़ौसी घर में घुस आये और मेरे मुंह धोने से पहले ही मुझे लगे लताड़ने, " तुम लोगों को शर्म नही आती जो टैक्स पेअर के पैसे पर मौज करते हो और देश विरोधी नारे लगाते हो। "
             मैंने घरवाली की तरफ देखा। शायद उसने लगाया हो। लेकिन उसने इंकार में सिर हिला दिया। बच्चे सहम गए। मैंने पड़ौसी से कहा ," लगता है आपको कोई गलतफहमी हुई है। मैं तो----. "
             " कोई गलतफहमी नही है। टीवी पर सब दिखाया जा रहा है। तुम लोग देश के टैक्स पेअर के पैसे का इस तरह नाजायज इस्तेमाल कैसे कर सकते हो। " उसने मुझे बात भी पूरी नही करने दी। उसने टीवी का नाम लिया तब मेरी समझ में आया। मेरे ये पड़ोसी हमेशा उत्तर कोरिया के अणुबम्ब परीक्षण से लेकर आजम खान की भैस के खोने तक का जिम्मेदार हमेशा मुझे ही मानते हैं। उसके बाद जैसे धड़धड़ाते हुए आये थे वैसे ही धड़धड़ाते हुए चले गए।
                मैं तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला तो गली के नुक्क्ड़ पर करियाने की दुकान वाले ने रोक लिया। " क्यों भईये, ऐसे कैसे पतली गली से निकल रहे हो। जब जवाब देने का समय आया तो मुंह छुपा रहे हो। टैक्स पेअर का पैसा हराम का थोड़े ही है। "
                 एक घंटा होते होते मुझे इतनी गालियां मिल चुकी थी जितनी कन्हैया को भी नही मिली होंगी। अब मैंने फैसला किया की इन तथाकथित टैक्स पेअर को जवाब देना चाहिए।
                  जब तक मैं दुकान पर पहुंचा तो दो पड़ोसी दुकानदार घुस आये। आते ही बोले की क्या तुम्हे नही लगता की टैक्स पेअर  के पैसे का दुरूपयोग बंद होना चाहिए। JNU को बंद कर दिया जाये तो कैसा रहेगा ?
               केवल JNU ही क्यों, मैं तो चाहता हूँ की टैक्स पेअर के पैसे से चलने वाले सभी स्कुल कालेज ही बंद कर देने चाहियें। वैसे भी अब बचे ही कितने हैं। मैंने जवाब दिया। और मैं तो कहता हूँ की एक एक चीज को बंद करने से क्या होगा ? हमे टैक्स ही देना बंद कर देना चाहिए। ना रहेगा टैक्स और ना होगा दुरूपयोग। मैंने आगे जोड़ा।
               अब दोनों को कुछ समझ में नही आया। क्योंकि टीवी चैनलों पर इस पर तो कोई बहस हुई नही थी और हमारे ये भाई अपनी कोई निजी राय रखने की हैसियत नही रखते, देश के अधिकतर लोगों की तरह। थोड़ी देर बाद एक बोला ," अगर हम बिलकुल टैक्स देना बंद कर देंगे तो सेना का खर्च कैसे निकलेगा ? "  दूसरे ने तुरंत समर्थन में सिर हिलाया।
                " हमे सेना रखकर कोनसी प्रॉपर्टी की रक्षा करवानी है। जिनको तकलीफ होगी वो अपने पैसे से आदमी रक्खेंगे। " मैंने आराम से कहा।
                 दोनों ने एक दूसरे का मुंह देखा, फिर एक बोला, " सेना के अलावा भी बस हैं, रेल हैं, हवाई जहाज हैं और दूसरे सरकारी कर्मचारियों का वेतन है वो सब कहां से निकलेगा ? "
                 " भाई मुझे तो कोई जरूरत लगती नही है। बस और रेल सरकार की नही होंगी तो कोई प्राइवेट आदमी चलाएगा। आज भी पैसे देकर बैठते हैं तब भी पैसे देकर बैठेंगे। जहाँ तक हवाई जहाज की बात है तो जिसको जरूरत होगी वो उसका खर्चा देगा। सरकारी कर्मचारी जिसका काम करेंगे उससे पैसे लेंगे जो आज भी लेते हैं। "
                    " और, और पुलिस ? "
                  " पुलिस कोनसा हमारे जैसे आदमी का काम कभी करती है। कभी गए हो पुलिस स्टेशन ? कोई चोरी की रिपोर्ट कभी लिखवाई हो और माल मिल गया हो ऐसा कोई उदाहरण है। हमे पुलिस की कोई जरूरत नही है। " मैंने कहा।
                  दोनों को कोई तर्क नही सूझ रहा था। मैंने बोलना जारी रखा। " किसी महंगी गाड़ी वाले को चिकनी सड़कें चाहियेगी तो बनवायेगा अपने खर्चे से। किसी नेता को या चमचे को Z श्रेणी की सुरक्षा चाहिए तो अपने खर्चे पर रखेगा। मुझे तो लगता है की हम तो अब भी अपने खर्चों का पैसा दे रहे हैं। जो लोग देश के मालिक बने बैठे हैं केवल वही लोग अपने हिस्से का पैसा नही दे रहे हैं। अगर हम सब टैक्स देना बंद कर देते हैं तो उनको अपना पैसा खुद देना पड़ेगा। "
                             दोनों को कुछ समझ नही आ रहा था।  मैंने धीरे से फुसफुसा कर कहा ," ये टैक्स पेअर की बात करना बंद दो, कहीं ऐसा ना हो गरीब जनता को ये हिसाब समझ में आ जाये। "

Sunday, March 6, 2016

आरएसएस और बीजेपी के देशविरोधी षड्यंत्र

            
  आम लोग कई चीजों पर एकदम निर्णायक नतीजे पर नही पहुंच सकते और इस पर पहुंचने के लिए वो मीडिया द्वारा फैलाई गयी अफवाहों के शिकार हो जाते हैं। पिछले दो साल में जब से ये सरकार सत्ता में आई है इस पर आरएसएस का एजेंडा लागु करने के आरोप लगते रहे हैं। इस दौरान कुछ बड़ी घटनाएँ भी हुई हैं जिनके बारे में भी एक पक्ष का आरोप है की वो कोई अकस्मात घटी हुई घटनाएँ नही हैं, बल्कि एक सोची समझी साजिश के तहत बाकायदा प्लान करके की गयी वारदातें हैं। इन घटनाओं की प्लानिंग का आरोप बीजेपी और आरएसएस के लोगों पर है और मीडिया के एक हिस्से की इसमें साझेदारी है। बीजेपी हमेशा इससे इंकार तो करती रही है लेकिन उसने उन सवालों का जवाब कभी नही दिया जो उस पर उठाये गए। इन घटनाओं में से कुछ का विश्लेषण इस प्रकार है। --
 १.       बिहार चुनाव से पहले दादरी की घटना हुई। इसमें गाय मारने के आरोप में एक व्यक्ति अख़लाक़ की हत्या कर दी गयी। इस घटना में मुख्य आरोपी बीजेपी नेता के पुत्र निकले। असल बात ये है की जिस गाय को मारने के आरोप में भीड़ को भड़का कर ये घटना अंजाम दी गयी वो गाय मरने जैसी कोई घटना वहां हुई ही नही थी। एक झूठी कहानी गढ़कर एक समुदाय के खिलाफ भावनाएं भड़काई  गयी। फिर उसके बाद क्या हुआ ? बीजेपी और आरएसएस के सारे नेता पूरी बहस को इस मुद्दे पर ले आये की गाय को मारना सही है या गलत। पूरी बहस उस चीज पर हो रही थी जो असल में घटनास्थल पर मौजूद ही नही थी। मीडिया का एक हिस्सा पुरे जोर शोर से इसका प्रचार कर रहा था। सोशल मीडिआ में बैठे भाड़े के लोग इसे हवा दे रहे थे। और बीजेपी के सबसे बड़े नेता इस पर चुप्पी साधे  हुए थे यानि उनका मौन समर्थन इस पूरी मुहीम को हासिल था।
२.         अब JNU की घटना को देखिये। छात्रों का एक समूह एक प्रोग्राम का आयोजन करता है जिसका कोई संबंध ना वहां की चुनी हुई स्टूडेंट यूनियन से था  और ना  उसके वामपंथी अध्यक्ष से था। बीजेपी का छात्र संगठन ABVP उस प्रोग्राम से ठीक 15 मिनट पहले वाइस चांसलर से मिलकर उसकी अनुमति रद्द करवा देता है। ABVP के नेता पहले से ही इसकी तैयारी के तहत एक बदनाम न्यूज चैनल के लोगों को वहां बिना अनुमति के बुला कर रखते हैं। उसके बाद प्रोग्राम करने वाले छात्रों और ABVP के सदस्यों में झगड़ा होता है। छात्रसंघ अध्यक्ष उसमे बीच बचाव की कोशिश करता है। इतने में मुंह पर कपड़ा बांधे हुए कुछ लोग देश विरोधी नारे लगाते हैं और निकल भी जाते हैं। बात खत्म हो जाती है। उसके बाद पूरी घटना के विडिओ को छेड़छाड़ करके उसमे बाहर से नारे डाले  जाते हैं। इस काम का आरोप HRD मंत्री स्मृति ईरानी की सहयोगी शिल्पी तिवारी पर आता है। उसके बाद वही न्यूज चैनल उस बदले गए विडिओ को पूरा दिन टीवी पर दिखाता है और पूरी JNU को देशद्रोह के अड्डे में तब्दील कर देता है। उसके बाद बीजेपी के सांसद महेश गिरी देशद्रोह का मामला दर्ज करवाते हैं और पुलिस सरकार के इशारे पर छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लेते हैं। उसके बाद पूरी बीजेपी और आरएसएस लगातार वामपंथ पर देशद्रोह में शामिल होने का राग अलापते हैं। इसके बाद जो चीजें सामने आई वो इस प्रकार हैं।
                १. मीडिया के कुछ चैनलों द्वारा दिखाए गए विडिओ फर्जी थे।
                २. कन्हैया ने इस तरह का कोई नारा नही लगाया इसका कोई विडिओ सबूत पुलिस के पास नही    है।
                ३. मुंह ढंककर नारे लगाने वाला एक भी आदमी पकड़ा नही गया। और शायद ही कभी पकड़ा जाये।
         लेकिन हो क्या रहा है। इस पूरी घटना को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे बीजेपी को छोड़कर सभी विपक्षी पार्टियां, चाहे वो कांग्रेस हो, वामपंथी हों या जनता दल हो सब देशद्रोही हैं। अभी अभी बीजेपी के नेता अरुण झुठली ने भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यक्रम में कहा की कन्हैया भारत के टुकड़े करने के नारे लगा रहे थे और दूसरी तरफ इनकी पुलिस अदालत में कह रही है की उसके पास कोई इसकी कोई विडिओ फुटेज नही है। ये व्ही अरुण झुठली हैं जो दिल्ली चुनाव में एक हाथ में माइक पकड़कर कह रहे थे की आम आदमी पार्टी रंगे हाथ पकड़ी गयी और दूसरे हाथ से उच्च न्यायालय के उस एफिडेविट पर साइन कर रहे थे जिसमे लिखा था की आम आदमी पार्टी के खातों में कोई गड़बड़ी नही पाई गयी।
               अब दूसरा सवाल ये उठता है की क्या ये कोई अलग अलग घटी हुई आकस्मिक घटनाएँ हैं। नही ये बाकायदा एक विचारधारा के आधार पर देश में एक साम्प्रदायिक विभाजन पैदा करने और उसे बनाये रखने की सोची समझी रणनीति है। इस रणनीति में मीडिया का एक हिस्सा जिसके मालिक बीजेपी के नजदीकी उद्योगपति हैं उसकी मदद करता है। इसमें सोशल मीडिया में बैठा एक भाड़े का तबका और कुछ लम्पट किस्म के लोग योगदान करते रहते हैं। देश में ऐसे लोग जिनकी सोचने और समझने की शक्ति कमजोर है वो इस बहाव में बह जाते हैं।

Vyang -- सशक्त महिलाएं और अशक्त उद्योगपति

             पिछले दो सालों में, जब से यह सरकार आई है तब से किसी ने महिला आरक्षण बिल का नाम भी नही सुना। जब बीजेपी की सरकार नही थी तो सुषमा स्वराज बाकि विपक्षी महिला सांसदों के हाथ में हाथ डालकर फोटो उतरवाती थी और महिलाओं के लिए जोशीले भाषण देती थी। लेकिन जब से उनकी सरकार आई है तब से उनकी महिला सांसदों के साथ बोलचाल बंद है। हम लगातार संसद को रोकने के लिए विपक्ष को कोसते देखते हैं और अटके हुए बिलों की सूचि अख़बारों में छपती है। लेकिन उसमे महिला आरक्षण मिल का नाम नही होता। क्योंकि वो बिल राज्य सभा में, जहां विपक्ष का बहुमत है वहां अटका हुआ नही है बल्कि लोकसभा में जहां सरकार के पास पूर्ण बहुमत है वहां अटका हुआ है। और चूँकि बीजेपी इसे पास नही कराना चाहती इसलिए इसका जिक्र नही होता। पहले हम इसे बीजेपी का दोगलापन समझते थे। लेकिन अब हमे महिलाओं  के सम्मेलन में प्रधानमंत्री का भाषण सुनकर ये मालूम हुआ की महिलाएं तो पहले ही सशक्त हैं। उसके बाद से हमे भी ज्ञानबोध हुआ। बीजेपी को ये ज्ञानबोध 18 महीने पहले हो चूका था।
             इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री के ज्ञानपूर्ण भाषण में और भी कई बातें थी जैसे हमे ये भी मालूम पड़ा की महिलाएं घर को बहुत अच्छी तरह चलाती हैं। अब तक हमे और देश को इसका पता नही था। प्रधानमंत्री अपनी पूरी भाषण कला उड़ेल रहे थे और लगातार तालियों का इंतजार कर रहे थे। माननीय सुमित्रा महाजन और माननीय नजमा हेपतुल्ला के चेहरे पर संतोष के भाव थे। इसी भाषण में प्रधानमंत्री ने एक नया रहस्योद्घाटन भी किया। उन्होंने कहा की व्यवस्था परिवर्तन से कुछ नही होता, बल्कि असल जरूरत है की महिलाएं खुद को बदलें। क्या करें ? आप कह रहे हैं की वो सशक्त हैं, अच्छा घर चलाती हैं और टेक्नोलॉजी का प्रयोग बेहतर ढंग से करती हैं। फिर किस बदलाव की जरूरत है ? महिलाएं अशक्त हो जाएँ या अच्छा घर चलाना बंद कर दें या तकनीक को भूल जाएँ। खैर इस पर ABVP के छात्र शोध करेंगे। लेकिन हमे ये मालूम हो गया की महिला आरक्षण बिल क्यों नही आ रहा। क्योंकि उसकी जरूरत ही नही है। अब भी जो लोग उसका इंतजार या उम्मीद करेंगे उनको तो पागल ही कहा जा सकता है।
              फिर इस देश में अशक्त कौन हैं भाई जिनके लिए काम करने की जरूरत है। वो हैं बेचारे उद्योगपति। ये निरीह किस्म के प्राणी आजकल बहुत मुश्किल में हैं। क्या आपको इनकी दुर्दशा के आंकड़े मालूम हैं। नही ना। मैं बताता हूँ। देश का ये तबका जिसमे कुल मिलाकर एक प्रतिशत लोग शामिल हैं वो देश की कुल सम्पत्ति के 50 प्रतिशत के मालिक हैं। केवल 50 प्रतिशत के। कितनी शर्म की बात है।  देश की पूरी आधी सम्पत्ति के मालिक ये गए गुजरे 99 प्रतिशत लोग हैं। अगर देश की आधी सम्पत्ति देश का ये गरीब गुरबा दबा कर रखेगा तो हो चूका विकास। इसलिए सरकार का पहला कर्तव्य है इस बेशकीमती सम्पत्ति को इनके कब्जे से मुक्त करवाना ताकि देश का विकास हो सके और इन बेचारे निरीह उद्योगपतियों को कुछ राहत मिल सके। इसके लिए सरकार ने प्रोविडेंट फंड पर टैक्स लगाने का प्रस्ताव रखा तो उसका विरोध हो गया, इन उद्योगपतियों ने मजबूरी में कुछ बैंकों का कर्ज नही लौटाया तो उस पर सवाल उठ रहे हैं, सरकार इनके लिए भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आई तो उसको पास नही होने दिया और अब GST बिल को लटका कर बैठे हैं। सारा देश ही देशद्रोही हो गया है किसी को देश के विकास की चिंता ही नही है। बेचारी सरकार अकेली क्या करे ?