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Tuesday, August 23, 2016

व्यंग -- अब तुम अकेले हो धनञ्जय।

                     हाँ धनञ्जय, इस प्रतियोगिता में तुम अकेले हो। ये तो तुम्हे मालूम ही होगा की ये द्धापर युग नही है बल्कि कलियुग है। जो सुविधाएँ तुम्हे द्धापर युग में हासिल थी वो अब नही हैं। उस समय तो पूरी सत्ता, पूरा समाज और यहां तक की खुद भगवान भी तुम्हारी जीत के लिए प्रयासरत रहते थे। दूसरे प्रतियोगियों को इसका मलाल भी रहता था और एतराज भी। लेकिन वो कुछ कर नही सकते थे। अब तुम कर्ण को ही लो। जितनी बार भी उससे तुम्हारी प्रतियोगिता हुई, पूरी दुनिया उसे हराने और तुम्हे जिताने लग जाती। कोई भी प्रतियोगिता कभी भी बराबरी पर नही हुई। उसके पास तुम्हारे जैसे सरकारी कोच भी नही थे और सरकारी साधन भी नही थे। उसके बावजूद उसने जब भी तुम्हे ललकारा, तुम्हारे लोगों ने नियम बदल दिए। द्रोपदी का स्वयम्बर तो तुम्हे याद  होगा ? उसे अवसर दिए बिना ही बाहर कर दिया गया। वरना शायद ये देश महाभारत के युद्ध से बच जाता। उसे लायक होने के बावजूद सरकारी विद्यालयों में शिक्षा नही मिली। क्योंकि उस समय क्षत्रियों के लिए 100 % आरक्षण का प्रावधान था। उसने जब ब्राह्मण ऋषि परसुराम से अपनी जाति  छुपाकर शिक्षा प्राप्त की तब परसुराम ने भी उसे श्राप दे दिया। उसके बावजूद तुम उसे युद्ध में हरा नही पाए। तुमने उसे धोखे से मारा और तुम्हारे मित्र कृष्ण ने तुम्हारी इज्जत बचाने के लिए उसे नियमानुसार सिद्ध कर दिया। लेकिन आम लोग इस बात को भूले नही। आज भी आम जन में कर्ण का सम्मान तुमसे ज्यादा है।
                       इस प्रतियोगिता में पितामह भीष्म भी नही हैं जो महिलाओं को प्रतियोगिता से बाहर कर दें। हालाँकि भीष्म के नए अवतार मोहन भागवत ने महिलाओं को हर तरह की प्रतियोगिता से बाहर रखने को जरूर कहा, लेकिन लोग केवल हँस कर रह गए। अब तो लोग कहते हैं की अगर मोहन भगवत की बात मान ली जाती तो भारत को उतने ही मैडल मिलते जितनी संख्या का आविष्कार आर्यभट्ट ने किया था।
                      इस प्रतियोगिता में एकलव्य का अंगूठा काटने की भी मनाही है और कृष्ण को भी कह दिया गया है की बहुत सक्षम हो तो खुद ही उतर जाओ प्रतियोगिता में। बाहर बैठे तुम्हारे लोग हे नरसिंह, हे योगेश्वर, चिल्लाते रहेंगे लेकिन जीतना तो तुम्हे अपनी ताकत पर ही पड़ेगा। यहां कृष्ण खुद हारने पर जरासंध के सामने भीम को नही उतार सकते।
                    सो हे पार्थ, जरा ध्यान रखना। ये कलियुग है और तुम्हे कोई आरक्षण प्राप्त नही है। यहां तुम निपट अकेले हो।

Monday, March 21, 2016

व्यंग -- लो, जिन्हे भगवान समझते थे वो तो भक्त निकले।

                   भक्त बहुत दुखी हैं। दुखी इसलिए की जिन्हे वो अब तक भगवान मानते थे उन्होंने खुद खड़े होकर कह दिया की नही, हम तो केवल भक्त हैं। जो भक्त अब तक भगवान के भक्त थे वो एक दर्जा नीचे आकर एक दूसरे भक्त के भक्त हो गए। डिमोसन हो गया। अभी कल की ही तो बात है जब वेंकैया जी ने उनको भगवान का वरदान और गरीबों का मसीहा बताया था। लेकिन  उन्होंने सबके दिल तोड़ते हुए घोषणा कर दी की वो तो केवल एक भक्त हैं।
                     भगवान कृष्ण ने गीता में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिन रास्तों यानि योग के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया है उनमे उन्होंने कहा है की जो सबसे उच्च श्रेणी के साधक हैं उनके लिए ज्ञान योग है। उन्होंने कहा की ज्ञान योग ही सबसे श्रेष्ठ योग है। विज्ञानं भी यही कहता है की मुक्ति के लिए ज्ञान जरूरी है। भगवान बुद्ध ने भी बुद्धि को गुरु मानने की सलाह दी थी। कृष्ण ने ये भी कहा की ज्ञान योग ही ऐसा योग है जिससे साधक एक पल में मुक्ति का अनुभव कर सकता है। अष्टावक्र ने इस बात की पुष्टि की है। लेकिन इसके साथ ही भगवान कृष्ण ने ये भी कहा है की ये केवल उच्चत्तम श्रेणी के साधकों के लिए है लेकिन आजकल भक्तों की एक श्रेणी ज्ञानयोग के साधको को देशद्रोही घोषित कर सकती है और ज्ञान के मंदिर को देशद्रोहियों का अड्डा बता सकती है।
                   जो उससे नीचे की श्रेणी के साधक हैं और जो सामान्य नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करते हैं उनके लिए गीता में कर्मयोग का प्रावधान है। भगवान कृष्ण ने कहा है की मनुष्य कर्म करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है अगर वो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित कर दे। लेकिन यहां तो ऐसे साधक हैं जो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित करना तो दूर, दूसरे के कर्मों को भी अपने नाम पर चढ़ाने में लगे रहते हैं। इसलिए कर्मयोग उनके लिए नही है।
                   इसके बाद भगवान कृष्ण ने निम्नतम स्तर के साधक के लिए भक्ति योग का प्रावधान किया। ये सबसे निचले स्तर के साधक होते हैं। जो ना तो अपने कर्मो की जिम्मेदारी लेते हैं और ना दूसरों के कर्मो को मान्यता देते हैं। इस किस्म के साधक भक्ति योग अपना सकते हैं। इसमें कई सुविधाएँ रहती हैं। भक्त हमेशा ( जब उसका दिल चाहे ) भक्ति में डूबा रह सकता है। वह किसी के प्रति जवाबदेह नही होता। वह भगवान के गुण  दोष नही देखता इसलिए उम्मीद करता है की लोग उसके गुण  दोष भी ना देखें। जब भी जवाब देने का समय आता है वो मोन साध लेता है। जब मोन रहने का समय होता है वो प्रवचन देना शुरू करता है। गीता ने भक्तों के लिए कई प्रकार की सुविधाएँ जाहिर की हैं। भक्त के लिए ये कतई जरूरी नही होता की भगवान के दिखाए रस्ते पर चले। वो उससे बिलकुल उल्ट रास्ते पर भी चल सकता है। जैसे-
                   कोई अम्बेडकर का भक्त हो सकता है बिना इस बात की परवाह किये की उसके घर में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी है। जब दलित कुंए से पानी ना भरने देने की गुहार लगा रहे होते हैं तो बाबा साहब का भक्त उन्हें सयम रखने की सलाह दे सकता है। जब महिलाएं मंदिर में प्रवेश की मांग कर रही होती हैं तो वो मुंह फेर सकता है। जब अल्पसंख्यकों को पेड़ से लटकाया जा रहा होता है तो इस्लाम की परम्परा पर भाषण दे सकता है। जब रोहित वेमुला बनाया जा रहा हो तो वो उसे जातिवादी और देशद्रोही बता कर उस पर सहमति दे सकता है। बाबा साहब का भक्त एक ऐसे संगठन का सदस्य हो सकता है और गर्व से हो सकता है जिसका मुखिया ना दलित हो सकता है और ना महिला हो सकती है। भक्त उसकी मूर्ति पर माला चढ़ा सकता है जिसका उसने कल पुतला फूंका था। आज जिसकी हत्या पर मिठाई बांटी हैं कल उसके चरणो में मत्था टेक सकता है। भक्त के लिए सब माफ़ है। भगवान ने कहा है की वो निम्न दर्जे का साधक है। लेकिन चालक भक्त दिखावा भी कर सकता है। हो सकता है उसके दिल में कोई दूसरा देवता बैठा हो और वो माला किसी दूसरे देवता को पहना रहा हो। ऐसा भक्त बाजार का चलन देखकर बोली लगा सकता है। ऐसे भक्त से सावधान रहने की जरूरत है।