Sunday, August 30, 2015

आरक्षण विरोधियों के दिल से फिर गरीबों के लिए खून टपक रहा है !

peoples gathering

आरक्षण विरोधियों के दिल से फिर गरीबों के लिए खून टपक रहा है। जब जब आरक्षण की बात होती है तब तब आरक्षण विरोधियों के दिल से खून टपकने लगता है, कभी टेलेंट के नाम पर और कभी गरीबों के नाम पर। अपर क्लास के कुछ लोगों को कभी भी आरक्षण हजम नही हुआ। जहां भी उन्हें लगता है की उनका सामाजिक और आर्थिक आधिपत्य प्रभावित हो रहा है, उनके दिल से खून टपकने लगता है। मंडल आयोग ने जब OBC के लिए 27 % आरक्षण की सिफारिश की थी तब इसके विरोध में इन लोगों ने बहुत बड़े पैमाने पर उत्पात मचाया था। तब ये आरक्षण का विरोध कर रहे थे। और उस समय बहाना था मेरिट का। उस समय तरह तरह के कुतर्क सुनाई देते थे, जैसे 40 % नंबरों से दाखिला लेने वाले किसी डाक्टर से कौन अपना आपरेशन करवाना चाहेगा। क्या किसी ऐसे विमान चालक पर भरोसा किया जा सकता है जिसे कम नंबरों के बावजूद आरक्षण के कारण दाखिला मिला हो। इस तरह के बहुत से उदाहरण दिए जाते थे।
                        उसके बाद जब ये उस आरक्षण को लागु होने से नही रोक पाये तो उसे निष्प्रभावी करने का दूसरा तरीका निकाला। अब उन्होंने अपनी अपनी जातियों को आरक्षण की सूचि में डालने की मांग करनी शुरू कर दी। अब की बार उन्होंने गरीबी का बहाना बनाया। अब वो दोनों तरह के तर्क दे रहे हैं। जैसे या तो आरक्षण को खत्म कर दो, या फिर हमे भी दे दो। अगर हमे आरक्षण दे देते हो तो आरक्षण सही है वरना गलत है। अब उन्हें देश में आरक्षण मिली हुई जातियों में कोई अछूत और गरीब नजर नही आता।
                          
mass protest rally
लेकिन ये जो लोग सबको समानता की बात कर रहे हैं और कभी मेरिट तो कभी गरीबी का मुद्दा उठा रहे हैं उनमे कौन कौन लोग हैं ? इनमे बड़ी तादाद में वो लोग हैं जिनके नालायक बच्चे 40 % नंबर लेकर डोनेशन वाली सीटों पर डाक्टरी कर रहे हैं। इनमे से बहुत ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों की तो छोडो अपनी जाती के गरीबों का इलाज किफायती रेट पर करने को तैयार नही हैं। इनमे बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के लिए जिम्मेदार हैं। अभी मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की जो खबरें आ रही हैं उनमे इन्ही लोगों के बच्चों की बड़ी तादाद है। ये लोग प्राइवेट स्कुल चलाते हैं और बिना डोनेशन के किसी को दाखिला नही देते, लेकिन जब आरक्षण की बात आती है तो इनके दिल से गरीबों के लिए खून टपकने लगता है।
                          जो लोग सबको समानता की बात करते हैं उन्होंने एकबार भी नही कहा की सारी प्राइवेट सीटों को सरकार अपने कोटे में शामिल करे। इन्होने कभी नही कहा की सभी सरकारी स्कूलों की सीटें दुगनी की जाएँ। सभी प्राइवेट स्कुल कालेजों को सरकारी सहायता देकर भारी फ़ीस से मुक्ति दिलाई जाये। इन्होने कभी नही कहा की चार-चार हजार की फिक्स पगार पर भर्तियां बंद हों। हमारे देश में तो प्राइवेट संस्थाओं में आरक्षण नही है। इन्होने कभी नही कहा की उनमे काम के हालत सुधार कर उन्हें सरकारी नौकरियों के जैसा ही आकर्षक बनाया जाये। ये ऐसा कभी नही कहेंगे क्योंकि ये सारे निजी संस्थान यही लोग तो चलाते हैं और अपनी जाति  के गरीब मजदूरों को न्यूनतम वेतन तक नही देते।
                       
  वैसे जो लोग सही में ऐसा समझते हैं की अब छुआछूत की कोई समस्या देश में बची नही है और सामाजिक तौर पर बराबरी आ गयी है, उनको इन जातियों में शादियां करनी चाहियें। हमारे देश में कानून है की किसी दलित और स्वर्ण की शादी होने के बाद उनके बच्चे किसी का भी उपनाम प्रयोग कर सकते हैं। इस तरह उन्हें अनुसूचित जाती के आरक्षण का लाभ अपने आप मिलने लगेगा और देश से जाति  प्रथा भी दूर हो जाएगी। लेकिन वो ऐसा तो कभी नही कर सकते।
                         
  असल समस्या कहीं और है। जो काम सरकारों को करना चाहिए था उन्होंने नही किया। जो लोग सबकी समानता की बात करते हैं उन्हें सबके लिए शिक्षा और रोजगार की मांग करनी चाहिए थी। सरकारी स्कूलों और कालेजों में सीटें बढ़ाने की मांग करनी चाहिए थी। सरकार में खाली पड़े पदों को भरने की मांग करनी चाहिए। परन्तु चूँकि ये सारे काम ऊँचे स्थान पर बैठे लोगों को रास नही आते इसलिए इनकी मांग भी नही होती। इसके साथ ही ऊँची जातियों में जो गरीब लोग हैं वो अपने आप को उपेक्षित महसूस ना करें इसलिए उनके लिए 10 % आरक्षण की मांग की जा सकती है। इस पर शायद ही समाज का कोई वर्ग या जाति  विरोध करे। जरूरत पड़े तो इसके लिए कानून में बदलाव भी किया जा सकता है। क्योंकि इस मांग पर लगभग आम सहमति है। परन्तु फिर वही बात आती है। जो लोग आरक्षण के आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं उन्हें इसका कोई फायदा नही होगा। इसलिए ये मांग नही उठाई जाएगी। उन लोगों का तो अंतिम मकसद पूरे आरक्षण की प्रणाली को ही निष्प्रभावी बनाना है।

हिन्दी न्यूज़ चैनल और इन्द्राणी मुखर्जी

indrani mukherji photo with drink

हिन्दी न्यूज़ चैनलों का पिछले कई दिन से बुरा हाल है। जबसे ये शीना हत्याकांड यानी  इन्द्राणी मुखर्जी का मामला सामने आया है हिंदी न्यूज़ चैनलों ने इस पर इतनी खोज की हैं जितने में दूसरा अमेरिका खोजा जा सकता था। रोज हर चैनल पर कोई न कोई सनसनीखेज खबर होती है। इन  सनसनीखेज ख़बरों का अंदाज भी उतना ही सनसनीखेज होता है। 
                   एक चैनल सुबह से एक प्रोग्राम की जानकारी दे रहा था। आज दोपहर 12 बजे से एक बजे तक देखिये इन्द्राणी मुखर्जी के बारे में एक सनसनीखेज खुलासा। जिसे देख कर आपको पसीना आ जायेगा। आप दांतों तले ऊँगली दबा लेंगे। लोग बेसब्री से कार्यक्रम का इन्जार कर रहे थे। ठीक समय पर दो एंकर हाजिर हुए एक सिरे पे एक महिला और दूसरे सिरे पर एक पुरुष। उन्होंने शीना हत्याकांड और  इन्द्राणी मुखर्जी पर बोलना शुरू किया। लोग खुलासे का इन्जार करते रहेऔर वो उन सारी  बातों को दोहराते रहे जो वो पिछले पांच दिन से कह रहे थे। खुलासे का जिक्र केवल ब्रेक से पहले आता की ब्रेक के बाद देखिये वो सनसनीखेज खुलासा।
इस तरह 55 मिनट गुजर गए। अब एंकर खुलासे पर आये। उसने कहा की आज मुंबई पुलिस के खास सूत्रों के हवाले से सबसे पहले हमारे चैनल को ये खबर दी गयी है  की जब  इन्द्राणी मुखर्जी ने तीसरी शादी की उससे पहले उसकी दो शादियां हो चुकी थी। 
                       एक रिक्शा वाला जो सवारी ढोना छोड़ कर एक घंटे से टीवी के सामने खड़ा था उसके मुंह से एक भद्दी गाली निकली। 
                     एक दूसरे चैनल का दिनभर का प्रोग्राम इस प्रकार था। 
सुबह 9 से 10 तक देखिये शीना हत्याकांड पर विशेष रिपोर्ट। 
सुबह 10 से 11 बजे तक देखिये कैसे इन्द्राणी मुखर्जी ने तीन तीन शादियां की। 
सुबह 11 बजे से 12 बजे तक इस बात पर खास चर्चा की इन्द्राणी मुखर्जी का पति  ही उसकी बेटी का सगा बाप था। 
दोपहर 12 बजे से 1 बजे तक देखिये हमारा विशेष कार्यक्रम जिसमे हम उस होटल वाले का एक इंटरव्यू दिखाएंगे जिसकी दुकान का बना हुआ सैंडविच इन्द्राणी मुखर्जी ने आज खाया। 
दोपहर 1 बजे से 2 बजे तक इस बात पर चर्चा की जाएगी की इस मामले की जाँच ACP  प्रद्युम्न को दे दी जानी चहिए। 
दोपहर 2 बजे से 3 बजे तक इस बात पर चर्चा होगी की शीना की मौत एक हत्या है। 
दोपहर ३बजे से ४ बजे तक हमारे खास मेहमान होंगे डा. भोसले, जो इस बात की जानकारी देंगे की लम्बे समय तक जोर से गला दबाने पर आदमी मर जाता है। 
दोपहर बाद 4 बजे से 5 बजे तक इस खुलासे पर चर्चा होगी जिसमे इन्द्राणी मुखर्जी के बाप ने कहा था की वो  इन्द्राणी मुखर्जी की बेटी का नाना लगता है। 
शाम 5 बजे से 6 बजे तक  मिलवायेंगे उस ब्यूटी पार्लर की मालकिन से जहां इन्द्राणी मुखर्जी रेगुलर जाती थी। 
और अंत में शाम 6 बजे से सात बजे तक आपको दिखाएंगे एक चर्चा की कैसे मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्बा है।
                

Friday, August 28, 2015

क्या ये भारतीय मजदूर आंदोलन का सक्रांति-काल है।


bannar of all india strike sfi-dyfi photo of a procession
2 सितंबर को होने वाली अखिल भारतीय हड़ताल की जिस तरह से तैयारियां हो रही हैं और जो खबरें आ रही हैं, उससे ये साफ हो गया है की ये भारत की अब तक की सबसे व्यापक हड़ताल होगी। इस तरह की व्यापक एकता इससे पहले भारतीय मजदूर आंदोलन में इससे पहले कभी नही देखी गयी। असल बात तो ये है की पिछले 25 सालों से भारत का मजदूर आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था जिससे आगे बढ़ने का रास्ता मिलना तो दूर की बात, अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहा था।
                1980 के दशक में जब भारी आर्थिक संकट के बाद विकासशील देशों को IMF और विश्व बैंक के पास सहायता के लिए जाना पड़ा तो उस सहायता पैकेज के साथ कुछ शर्तें भी नत्थी हो कर आई। इन शर्तों में निजीकरण की शर्त प्रमुख रूप से शामिल थी। सभी सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के निजीकरण का सिलसिला शुरू किया। इसके साथ ही श्रम कानूनो में छूट दी जाने लगी।
      
man holding play card saying imf-trapping countries in debt
   उसके बाद 1991 में आर्थिक सुधारों का दौर आया। इसमें निजीकरण के साथ ही वैश्वीकरण और उदारीकरण भी शामिल था। सरकार ने आर्थिक पुनर्संगठन के साथ ही SAP ( Structural Adjustment Programme ) शुरू किया। इसमें सभी तरह के उद्योगों के मैनेजमेंट बोर्ड में निजी क्षेत्र के लोगों को भरा जाने लगा। इस प्रोग्राम ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी में बढ़ौतरी की। साथ की रोजगार के क्षेत्र में स्थाई श्रमिकों की जगह ठेकेदारी प्रथा, अस्थाई मजदूर और पार्ट टाइम मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। बड़े पैमाने पर काम का आउटसोर्सिंग किया जाने लगा। इससे पब्लिक सैक्टर के उद्योगों में ट्रेड यूनियनों पर अस्तित्व का संकट आकर खड़ा हो गया।
                   इसके बाद उद्योगों में ट्रेड यूनियनों की बारगेनिंग पावर ( मोलभाव की ताकत ) घटने लगी। इसका प्रभाव ये हुआ की मजदूरों का विश्वास ट्रेड यूनियनों पर कम होने लगा। दूसरी तरफ उदारीकरण के समर्थक देश के नौजवानो  सब्जबाग दिखा रहे थे। उन्हें विकास के झूठे माडल दिखाए  जाने लगे। एक दौर ऐसा भी था जब आईटी क्षेत्र और मार्केटिंग के क्षेत्र में नौजवानो को काम भी मिला। इन क्षेत्रों में भले ही कोई श्रम कानून लागु नही थे लेकिन वेतन का स्तर ऊँचा था। नई पीढ़ी को उसमे ही रास्ता नजर आने लगा। लेकिन इसका बहुत जल्दी ही अंत दिखाई देने लगा। जिस बड़े पैमाने पर नए बेरोजगार कतारों में शामिल हो रहे थे, और जिस बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां जा रही थी उससे संकट बढ़ने लगा।
                 
wemans procession of citu
उससे निपटने के लिए वामपन्थी ट्रेड यूनियनों की पहल पर NCC ( National Compagain Committee ) की स्थापना हुई। लेकिन सभी बड़ी ट्रेड यूनियनों के इस साझा मंच से भारतीय मजदूर संघ और इंटुक अलग रह गयी। उन्हें अभी तक सरकारों के आश्वासन पर भरोसा था। साथ ही शासन में रहने वाली दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी का उन पर सांगठनिक प्रभाव भी था। इस दौरान उदारीकरण की नीतियों के विरोध में कई हड़तालें और आंदोलन हुए। लेकिन हर बार कभी इंटुक और कभी भारतीय मजदूर संघ उससे अलग रहे। वामपन्थी ट्रेड यूनियनें इस अभियान को जारी रखे रही। एक समय ऐसा आया की इंटुक और भारतीय मजदूर संघ से संबंधित यूनियनों के मजदूरों ने अपनी एफिलिएशन से अलग जाकर वामपंथी आंदोलनों में शिरकत की। उसके बाद इन यूनियन के नेताओं में पुनर्विचार का दौर शुरू हुआ। साथ ही अब तक सरकार के सभी आश्वासनों और दावों की हवा निकल चुकी थी। पितृ पार्टियों से मजदूर संगठनो के मतभेद गहराने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा और भारतीय मजदूर संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगडी का विवाद सबको मालूम है।
                 
dharna of labour at railway track
  अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग एक महागठबंधन का निर्माण कर चुके थे। इस गठबंधन में भारतीय मजदूर संघ और इंटुक दोनों से संबंधित यूनियन भी शामिल थी। इस महागठबंधन की कार्यवाहियां कई जगह विजयी हस्तक्षेप करने में कामयाब रही। अब मजदूर संगठनो ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की लामबंदी शुरू की। कई ऐसे क्षेत्र जिनमे आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाओं से लेकर निर्माण मजदूरों तक,  बड़ी संख्या में मजदूर लामबंद हुए। संगठित क्षेत्र में यूनियनों को जो नुकशान उठाना पड़ा था उसकी भरपाई इससे हो गयी। मजदूर संगठनो की कतारें बढ़ने लगी और उनका प्रतिरोध भी बढ़ने लगा।   एकता के कारण मजदूरों का विश्वास इन संगठनो पर बढ़ा और उनमे नए होंसले का संचार हुआ।
                     
communist party logo of hansiya and hatouda
  इसके बाद आई ये 2 सितंबर की अखिल भारतीय हड़ताल। केन्द्रीय मजदूर संगठनो की भागीदारी के मामले में इस हड़ताल को अब तक के सबसे व्यापक संगठनो का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही विभिन्न छात्र और नौजवान संगठनो से लेकर, किसानो और महिलाओं के संगठनो तक ने इस हड़ताल में शामिल होने की घोषणाएँ की हैं। संगठनो के मामले में इतना व्यापक समर्थन इससे पहले कभी देखने को नही मिला। जाहिर है की ये शायद अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हो। इस हड़ताल को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अलावा सभी पब्लिक सैक्टर के उद्योगों के संगठनो के साथ साथ बीमा और बैंक जैसे वित्तीय क्षेत्रों की सभी यूनियन भी शामिल हैं। इस हड़ताल को राज्य सरकारों की बिजली और यातायात जैसी लगभग सभी यूनियनों का समर्थन भी प्राप्त है।
                   
            इसलिए हो सकता है की ये हड़ताल भारतीय मजदूर आंदोलन का नया सक्रांति-काल साबित हो।
                             

Thursday, August 27, 2015

अगर सबकुछ सही है तो प्रॉपर्टी क्यों बेच रही है सरकार ?


विकास के नेहरू मॉडल और मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में हमारे देश में पब्लिक सेक्टर की स्थापना हुई। लेकिन ये क्षेत्र कुछ लोगों की आँखों में खटकता रहा। लेकिन हैसियत ना होने के कारण वो दिल पर पत्थर रखे रहे। आहिस्ता आहिस्ता जब हैसियत बढ़ी तो उन्होंने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। जैसे जैसे उनकी हैसियत बढ़ती रही उनके सवाल भी मुखर होते रहे। सरकार केभृष्टाचार और भाई भतीजावाद के चलते पब्लिक सेक्टर के कुछ उद्योग घाटे में चलने लगे तो उनका हो-हल्ला और बढ़ गया। उन्होंने पुरे पब्लिक सेक्टर को सफेद हाथी बताना शुरू कर दिया। सरकार पर पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को ओने-पौने दामो में बेचने का दबाव बनाया जाने लगा। इसके लिए मुख्य तौर पर दो तर्क दिए जाने लगे।
१.  सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सामाजिक सुरक्षा देना और कानून व्यवस्था बनाये रखना होता है।
२. घटे में चलने वाले पब्लिक सेक्टर के उद्योग सरकार और जनता पर बोझ हैं, इस बोझ से जितना जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाये उतना ही बेहतर होगा।

               उसके बाद शुरू हुआ पब्लिक सैक्टर के उद्योगों का बेचना। ये उद्योग किसी भी सरकार और देश की जनता की पूंजी होते हैं उन्हें बोझ की तरह निपटाया जाने लगा। सरकार ने पहले देशी पूंजीपतियों और फिर विदेशी पूंजीपतियों को ये उद्योग लूटा दिए। इसके लिए सरकार ने एक फार्मूला बनाया जिसे कुछ लोग देश बेचने का फार्मूला भी कहते हैं। 26 -49 -74 -100 का फार्मूला।
               जब भी किसी क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के हवाले करना होता तो सरकार कहती की केवल 26 % हिस्सेदारी बेचीं जा रही है। और वो भी पूंजी की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए। 26 % हिस्सेदारी खरीद कर कोई विदेशी कम्पनी हमारा क्या बिगाड़ लेगी।
                 उसके बाद 49 % हिस्सेदारी बेचने का फैसला कर लिया जाता। अबकी बार तर्क दिया जाता की हमारे पास 51 % हिस्सेदारी रहेगी। इसलिए मैनेजमेंट तो हमारी ही होगी। सो देश को चिंता करने की कोई जरूरत नही है।
                   तीसरा दौर 74 % का आता। इस पर पूंजी की कमी का रोना रोया जाता। बाहर से उन्नत तकनीक और बेहतर मैनेजमेंट आने की दुहाई दी जाती और ये भी कहा जाता की चूँकि हमारी हिस्सेदारी इसमें रहेगी इसलिए विदेशी कम्पनी मनमाने फैसले नही कर पायेगी।
                    अब अंतिम दौर आता 100 % हिस्सेदारी का यानि मुकम्मल तौर पर बेच देने का। अब कहा जाता की सारे फैसले तो व्ही कम्पनी ले रही है। सरकार को कोई फायदा नही हो रहा है इसलिए इसे बेच देते हैं और इस पैसे को दूसरे पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को मजबूत करने में लगा  देते हैं। इससे दूसरे उद्योग अच्छा काम कर पाएंगे। लोगों को सांत्वना दी जाती। और इस फार्मूले के तहत आधा देश बेच दिया।

                     सरकार तर्क देती की गरीबों के लिए काम करने को पैसा चाहिए। ये पैसा गरीबी दूर करने की योजनाओं में लगाया जायेगा। सरकार का काम लोगों को सामाजिक सुरक्षा और आधारभूत सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है और सरकार अब उन पर ध्यान देगी।
                                   लेकिन हुआ क्या ?
                   सरकार ने पहले सड़कों को बनाने का काम निजी क्षेत्र को दे दिया। लो भाई, सड़क बनाओ और टोल टैक्स वसूल करो। बहाना बनाया की सरकार के पास इतना पैसा नही है। उसके बाद स्कूलों को निजी हाथों में दिया जाने लगा। कोई नया स्कुल और कालेज बनाना सरकार ने बंद कर दिया। निजी कालेजों और युनिवर्सिटियों को बढ़ आ गयी। सरकारी हस्पतालों को प्राइवेट किया जाने लगा। एक एक करके जितनी भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली वस्तुएं थी सबसे सरकार ने अपना हाथ खिंच लिया। जो लोग कभी ये कहते थे की सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है, अब कहने लगे की प्रयोग करने वाले को पैसा देना ही चाहिए ,यूजर्स पे का नारा कब आया मालूम ही नही चला।

                     दो दिन पहले सरकार ने इंडियन ऑइल का 10 % हिस्सा बेचने को बाजार में रख दिया। इंडियन ऑइल देश की नवरतन कम्पनी है और भारी मुनाफे में चलती है। सरकार का अनुमान है की इससे सरकार को करीब 9000 करोड़ रुपया मिल जायेगा। ये लोगों की प्रॉपर्टी है। सरकार को ऐसी क्या मजबूरी है जो उसे अपनी प्रॉपर्टी बेचनी पद रही है। और वो भी तब जब सरकार दावा कर रही है की उसने 2G की बोली लगाकर 2 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। और उसने कोयला खदानों की बोली लगाकर 3 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। दूसरे सारे टैक्स तो अपनी जगह हैं ही। एक तरफ प्रधानमंत्री बिहार के लिए एक लाख पैसंठ हजार करोड़ का पैकेज इस तरह घोषित कर रहे हैं जैसे किसी की लड़की की शादी में 100 रुपया कन्यादान डाल रहे हों। दूसरी तरफ नौ हजार करोड़ इकट्ठा करने के लिए नवरत्न कम्पनी का हिस्सा बेचा जा रहा है।
                   1990के बाद जो LPG का दौर ( Liberalization-Privatization-Globalization ) आया उसके बाद पूंजीवाद अपने असली रूप में सामने है। उसे अब कल्याणकारी राज्य के मुखौटे की जरूरत नही है। वो किसी के पास कुछ भी नही छोड़ देना चाहता। उसने लोगों के सपने छीन कर सेल लगा दी। अब बेहतर जिंदगी का सपना देखने की कीमत चुकानी पड़ती है। उसने राष्ट्रों की संप्रभुता छीन ली। अब उसे अपने लोगों के लिए फैसले लेने से पहले विश्व बैंक की अनुमति लेनी पड़ती है। उसने मजदूरों से इन्सान होने केवल हक ही नही अहसास भी छीन लिया। वो किसानो से उनकी जमीन छीन रहा है। वो राज्यों से असहमति का हक छीन रहा है। उसने लोगों की सारी सम्पत्ति चाहे वो सामूहिक रूप से राष्ट्र के पास हो या व्यक्तिगत हो छीन लेनी है। आज का पूंजीवाद पहले से ज्यादा नंगे रूप में सामने है। 

सिद्धान्त रूप से सहमत है सरकार

2 सितंबर को होने वाली अखिल भारतीय मजदूर हड़ताल को टालने के लिए, मजदूर यूनियनों के प्रतिनिधियों से हुई बातचीत में सरकार ने कहा की वो यूनियनों के 12 मांगों के मांग पत्र में से 8 मांगों पर सिद्धान्त रूप से सहमत है इसलिए मजदूर यूनियनों को हड़ताल वापिस ले लेनी चाहिए। जाहिर है की यूनियन के प्रतिनिधियों ने इससे इंकार कर दिया। यूनियनों के प्रतिनिधियों ने कहा की " सैद्धांतिक सहमति " का क्या मतलब होता है। सरकार ने तो ये नही बताया लेकिन मैं बता देता हूँ। निचे वो मुद्दे दिए गए हैं जिन पर सरकार सिद्धांत रूप में सहमत है। 
१. देश में भृष्टाचार नही होना चाहिए। और अगर किसी मंत्री पर भृष्टाचार का आरोप लगता है तो उसे इस्तीफा देकर जाँच का सामना करना चाहिए। 
२. देश में वन रैंक - वन पेंशन का नियम लागु होना चाहिए। 
३. महंगाई नही बढ़नी चाहिए। 
४. कला धन वापिस लाना चाहिए और विदेशों में पैसा जमा करवाने वाले खता धारकों के नाम सार्वजनिक कर देने चाहियें। 
५. विकास की योजनाओं में राज्य सरकारों की सलाह का आदर करना चाहिए। 
६. दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। 
७. पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहिए। 
८. श्रम का सम्मान होना चाहिए। 
९. सभी युवाओं को रोजगार मिलना चाहिए। 

                      क्यों भाइयो होना चाहिए की नही होना चाहिए ?

Wednesday, August 26, 2015

क्या ये देश गुलामों की मण्डी है ?

 
Slave auction in virginia

गप्पी --  जैसे कोई ठेले पर आलू बेचता है उसी तरह बहुत दिन से हमारी सरकार एक रट लगाए हुए है। पूरी दुनिया में घूम घूम कर हमारे प्रधानमंत्री कह रहे हैं सस्ती लेबर ले लो, जवान लेबर ले लो। बिना किसी कानून के ले लो। भाईओ इतनी सस्ती लेबर आपको दुनिया में कहीं नही मिलेगी। हमारी लेबर एकदम जवान लेबर है। आपको पूरी दुनिया में इतनी जवान और इतनी बड़ी संख्या में लेबर कहीं नही मिलेगी। आप हमारे यहां आइये। यहां अपना कारखाना लगाइये और हमारी सस्ती और जवान लेबर का फायदा उठाइये।
                   अगर आपको फिर भी कोई तकलीफ है तो हमे बताइये। यहां आकर बताइये या वहीं बता दीजिये, मैं तो आपके यहां ही रहता हूँ। ऐसा नही है हमे आपकी तकलीफें मालूम नहीं हैं। हमे सब मालूम हैं। आपको सारी लेबर ठेके पर चाहिए।  कोई बात नही हम अपने कानून बदल देंगे। आप जितनी चाहिए उतनी लेबर ठेके पर रख सकते हैं। आपको उनका कोई रिकार्ड नही रखना है? मत रखिए, आपको किसने कहा है ? हम कानून बदल रहे हैं जिसमे रिकार्ड रखने की जरूरत ही नही रहेगी। और बताइये, आपको अप्रेन्टिस के नाम पर और कम वेतन में मजदूर चाहियें, कोई बात नही। हम कानून को बदल कर अप्रेन्टिस रखने की सीमा और समय बढ़ाकर अनिश्चित काल कर देते हैं। आपको यूनियन नही चाहिए, उसका भी हल है। हम जो नया कानून बना रहे हैं उसके बाद कोई यूनियन बनाना तो दूर, कोई यूनियन का नाम भी नही ले पायेगा। और बताइये, आपको 12 घंटे काम करवाना है तो हम ओवरटाइम का कानून बदल देते हैं। आप कितनी  ही देर काम करवाइये।
                   हमे आपकी सारी समस्याएं मालूम हैं। आपको लड़कियों से रात को काम करवाना पड़  सकता है, हम आपके कहने से पहले ही कानून में लड़कियों की रात की शिफ्ट पर लगी पाबंदी हटा देते हैं। जिन लोगों को उनकी सुरक्षा की चिंता है उनके लिए हम बेटी बचाओ अभियान चला रहे हैं। अब तो आपको हम भरोसा हुआ या नही। हम लेबर को सस्ता रखने के लिए मनरेगा जैसे कार्यक्रम बंद कर देने वाले हैं। आप यहां अपने मित्रों से पूछ सकते हैं की हमने इस पर काम भी शुरू कर दिया है। और घबराइये मत, इसका कोई दोष आप पर नही आएगा। हम ये सारे काम श्रम सुधारों के नाम पर कर रहे हैं। हमने अब तक जिन चीजों का भी सत्यानाश किया है सुधार का नाम लेकर ही किया है। इसलिए आप आइये और हमारे जवान और सस्ते मजदूर ले लीजिये।
                   मुझे लगा की मैं पुराने बसरे के बाजार में खड़ा हूँ। जहां गुलामों की बोलियाँ लग रही हैं। लीजिये साहब ये लीजिये एकदम मजबूत और जवान गुलाम जो पहाड़ भी तोड़ सकता है और एकदम कम कीमत पर। फिर दूसरी तरफ से आवाज आती है ये लीजिये मेहरबान एकदम सख्तजान गुलाम, आप इसको काट कर भी देख सकते हैं। इसकी रगों में लहू नही लोहा बहता है। और एकदम मुफ्त के भाव पर। काबुल, बसरा और बगदाद की मंडियां दिखाई दे रही हैं। मुझे दिखाई देता है की समुद्री जहाज भर भर कर गिरमिटिया मजदूर विदेश ले जाए जा रहे हैं। मुझे पसीना आता है
                  पहले के समय में जब तक गुलाम को कोई खरीद नही लेता था तब तक उसे जिन्दा रखने और खिलाने पिलाने की जिम्मेदारी उसके मालिक की होती थी। लेकिन आज के  गुलाम को तो ये जिम्मेदारी भी खुद ही उठानी पड़ती है। जब मार्क्स ने इसे उजरती गुलामी कहा था तब बहुत हो-हल्ला मचा था। लेकिन आज इस बात का कोई जवाब नही है। एक मजदूर के पास केवल एक ही आजादी थी, की वह किसकी गुलामी करना चाहेगा लेकिन अब तो उसके अवसर भी नही बचे। सरकार चार-चार हजार के फिक्स वेतन पर भर्तियां कर रही है और प्रधानमंत्री लालकिले से श्रम के सम्मान की बात करते हैं। क्या हमारा नौजवान इतना भी नही समझता ? मैंने बहुत पहले एक कवि की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी थी जो मुझे पसंद नही आई थी। एक मजदूर के घर बच्चे के पैदा होने पर वो कहता है ,--
                         ये नन्हा,
                         जो भोला-भाला है। 
                          कुछ नही है,
                          सरमाये का निवाला है। 
                          बड़ा होगा तो,
                          कारखाने के काम आएगा। 
                          मुनाफे की भट्टी में,
                          झौंक दिया जायेगा। 
        ये तो मनुष्य के गरिमापूर्ण जीवन की गाथा नही है। जिस तरह की बोलियाँ लगाई जा रही हैं, वो तो उनके मानव होने के अधिकार पर ही प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। बहुत ही सहज तरीके से इस देश को गुलामों की मण्डी में बदला जा रहा है। इसे कौन स्वीकार करेगा। 

खबरी -- उन्हें फैज अहमद फैज के इन शब्दों को भी याद रखना चाहिए,--
                          यूँ ही उलझती रही है हमेशा जुल्म से खल्क ,
                          न  उनकी  रस्म नई है  न अपनी  रीत नई। 
                          यूँ  ही  खिलाये  हैं  हमने आग  में   फूल ,
                           न उनकी हार नई है   न अपनी जीत नई।

Tuesday, August 25, 2015

धर्म आधारित जनसंख्या के आंकड़े - संघ का झूठ बेनकाब

             आरएसएस लम्बे समय से ये प्रचार करता रहा है की जिस तेजी से मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ रही है उसके कारण बहुत जल्दी देश में हिन्दू अल्पसंख्यक हो जायेंगे। कम पढ़े लिखे और संघ पर भरोसा करने वाले बहुत से लोग भी इस पर विश्वास करने लगे थे। अपने इस तर्क के पीछे संघ मुस्लिमों की चार शादियां करने की छूट को भी तर्क के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। अब 2011 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़े जारी कर दिए गए हैं। आदत के अनुसार संघ के लोग इनकी व्याख्या भी अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर कर रहे हैं। लेकिन चिल्ला चिल्ला कर आवाज देती हुई सच्चाई को छिपाना मुश्किल हो रहा है। कुछ समाचर पत्रों ने भी इस खबर को छापते वक्त ये हेडलाइन लगाई है की देश की जनसंख्या में मुस्लिमो हा हिस्सा बढ़ा है। खबर को इस तरह पेश करना अर्धसत्य होता है और अर्धसत्य बहुत बार झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। 2011 की जनगणना के जो आंकड़े सामने आये हैं और उनसे जो तथ्य उभर कर आये हैं वो इस प्रकार हैं। 
ये आंकड़े तीन तथ्यों पर देखे जाने चाहियें। 

                                                           हिन्दू                      मुस्लिम 
1991      कुल जनसंख्या                   --------------           --------------

2001                       ''                         85. 29     Cr.           14 . 20  Cr.

2011                       ''                         96 . 63     Cr.           17 . 22  Cr.

2001     जनसंख्या में हिस्सेदारी      80 . 5     %               13 . 4  %

2011                            ''                     79 . 8     %              14 . 2   %

1991     जनसंख्या वृद्धिदर                25 . 1     %              34 . 5   %

2001                          ''                       20 . 3     %              29 . 5   %

2011                          ''                       16 . 8     %              24 . 5    %

             उपरोक्त आंकड़ों से दो बातें साफ होती हैं। पहली ये की 2001 से 2011 के बीच हिन्दुओं की जनसंख्या में कुल मिलकर 11 करोड़ 34 लाख की बढ़ौतरी हुई। और मुस्लिमों की जनसंख्या में 3 करोड़ 2 लाख की बढ़ौतरी हुई। 
          दूसरी बात जो इसमें सामने आई वो ये है की 1991 से 2001 के बीच हिन्दुओं की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर में 4.8 % और 2001 से 2011 के बीच 3.5 % की गिरावट आई। लेकिन मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर में यही गिरावट 1991 से 2001 के दौरान 5 % और 2001 से 2011 के बीच में भी 5 % की दर से आई। इसका मतलब ये होता है की मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर में गिरावट हिन्दुओं की अपेक्षा ज्यादा तेजी से आई है। 
            तीसरी महत्त्वपूर्ण बात ये है की जिन समुदायों का हिस्सा 80 -17 हो तो छोटा समुदाय कभी भी बहुसंख्यक नहीं हो सकता है। क्योंकि उनकी कुल जनसंख्या बढ़ौतरी असल में 11 करोड़ 34 लाख और 3 करोड़ 2 लाख ही होगी। अगर इसमें कुछ फर्क भी आता है तो भी हिंदुओं जी जनसंख्या बढ़ौतरी मुस्लिमों से करीब 8 करोड़ प्रति दशक ज्यादा ही रहेगी। 
                इसलिए मेरी लोगों से गुजारिश है की दूसरों के बहकावे में आने की बजाए आंकड़ों का विश्लेषण करना सीखें।

अवसर - जो हमने खो दिया। ( The opportunity that we have lost.)

आर्थिक क्षेत्र में हर राष्ट्र और समुदाय के सामने कुछ अवसर आते हैं। इन अवसरों का निर्माण कब और किन कारणों से होता है ये उस समय की परिस्थितियों पर निभर करता है। हमारा देश पिछले कुछ समय में एक सर्विस इकोनॉमी बनकर उभरा है। इसके पीछे जो प्रमुख कारण माना जाता है वो हमारे देश की जवान जनसंख्या को माना जाता है। कहा जाता है की इतनी बड़ी तादाद में नौजवान लेबर दुनिया में किसी देश के पास उपलब्ध नही है। कुछ लोगों को ये शर्म की बात लगती है तो कुछ लोगों को ये अवसर लगता है। पिछले कुछ सालों में कम्प्यूटर के क्षेत्र में जो हमारे युवा इंजीनियर बाजार में आये और हमारी कम्प्यूटर सेवा उपलब्ध करवाने वाली कम्पनियों ने पूरी दुनिया में इस कारोबार पर जो कब्जा करने की कोशिश की और उसके बाद विश्व की बड़ी कम्पनियों ने इस क्षेत्र में हमारे अपेक्षाकृत सस्ते श्रम का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया, उससे इस क्षेत्र में हमे नंबर एक पर मान लिया गया। लेकिन सर्विस इकोनॉमी आधारभूत रूप से एक परजीवी इकोनॉमी की तरह होती है। इसकी बढ़ौतरी उत्पादन के क्षेत्र की कम्पनियों की बढ़ौतरी पर सीधे रूप में निर्भर करती है। जैसे ही विकसित देशों में मंदी का दौर आया, हमे ये समझ में आ गया की केवल सर्विस बेचने के सहारे काम चलने वाला नही है। फिर हमारा ध्यान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की तरफ गया। पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र पर चीन का दबदबा है। उसके सस्ते उत्पादों का मुकाबला दुनिया का कोई भी देश नही कर पा रहा है। लेकिन उसमे भी अब मंदी के लक्षण दिखाई दे रहे हैं।
                   उत्पादन क्षेत्र की मंदी ने पूरी दुनिया में धातु बाजार में मांग ना होने के चलते भारी गिरावट पैदा की। उसके साथ ही उसने सबसे ज्यादा मंदी कच्चे तेल की कीमतों में पैदा की। कभी 140 $ बैरल के भाव से बिकने वाला तेल कुल 40 $ प्रति बैरल से भी नीचे आ गया। इन दोनों क्षेत्रो में हम भारी मात्रा में आयात करते हैं। हमारा आयात बिल एकदम नीचे आ गया। हमारी अर्थव्यवस्था को मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए ये हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर था। किसी भी देश के उत्पादन को दूसरे देशों के मुकाबले सस्ता बनाने के लिए उसमे खर्च के जो जो कारक होते हैं उनमे मुख्य तौर पर एक होता है सस्ती श्रम शक्ति, और दूसरा होता है सस्ती ऊर्जा। विश्व बाजार में गिरते हुए तेल के दामों ने हमे ये अवसर उपलब्ध करवाया था। पूरी दुनिया में तेल की मांग कम होने के कारण तेल कंपनियां दबाव में हैं। अब उनके साथ कम कीमत पर लम्बी अवधि के करार करना पहले से ज्यादा आसान हैं। हमारी सरकार उनके साथ कम कीमत के करार करके और घरेलू बाजार में तेल की कीमतें आधी करके उद्योगों की उत्पादन लागत घटा सकती थी। इसके साथ ही वो उद्योगों को भी लम्बी अवधि तक कम कीमतों का भरोसा दे सकती थी। उससे जो उद्योग अभी कोयले या बिजली का उपयोग ईंधन के रूप में करते हैं, वो तेल या गैस पर शिफ्ट हो सकते थे। इससे हमारे उद्योगों का ऊर्जा बिल तो कम होता ही, माल ढुलाई के क्षेत्र में भी क्रांति हो सकती थी। रेल का माल ढुलाई भाड़ा कम हो सकता था। सड़क परिवहन का माल भाड़ा कम हो सकता था। गैस आधारित बिजली कारखानों का खर्च कम होने से बिजली के रेट कम हो सकते थे। और हमारी सस्ती शर्म शक्ति के साथ मिलकर ये हमारे उत्पादन की लागत को इतना कम कर सकते थे की हमारा माल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक चुनौती बनकर उभर सकता था। 
                स्टील उत्पादन जैसे क्षेत्र में, जिसमे हम पहले ही बहुत आगे तो हैं लेकिन कीमतों के मामले में चीन की चुनौती का मुकाबला नही कर पा रहे हैं। चीन हमारे यहां से कच्चा लोहा आयात करता है। अगर ऊर्जा की कीमतें कम होती, जो स्टील उत्पादन में बहुत बड़ा कारक होती है, तो कच्चे माल की उपलब्धता और हमारी सस्ती लेबर के साथ मिलकर इस क्षेत्र में हमे चुनौती विहीन बना सकते थे। 
                   लेकिन अफ़सोस, हमारी सरका ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती हुई कीमतों का उपयोग अपनी टैक्स कलेक्शन बढ़ाने के लिए किया। और मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र को केवल " मेक इन इंडिया " जैसी घोषणाओं के भरोसे छोड़ दिया। हमारी सरकार पूरी दुनिया के उद्योगपतियों को हमारे यहां उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित कर रही है, वो भी केवल सस्ती लेबर का नारा देकर। इसके लिए हम सभी तरह के श्रम कानूनों में छूट देने, या यों कहें की खत्म करने को तैयार हैं। अगर हमारे लोगों के पास पैसे ही नही होंगे तो उनकी खरीदने की शक्ति भी नही होगी। इससे उद्योगों का माल नही बिकेगा। और मंदी का एक साईकिल शुरू हो जायेगा। केवल निर्यात पर निर्भरता हमे आज के चीन जैसी स्थिति में पहुंचा सकते हैं। 
                  ये वो अवसर था जो हमारे देश की कायापलट कर सकता था और लेकिन हमारी सरकार ने उसे तात्कालिक टैक्स कलेक्शन के लिए इस्तेमाल करके बर्बाद कर दिया।
                   

Monday, August 24, 2015

कॉर्पोरेट का इरादा केवल लूट करने का है।

            एक बात बहुत ही हास्यास्पद लगती है, और इसका कोई दूसरा लॉजिक कभी भी मेरी समझ में नही आया। प्राईवेट कंपनियां और कॉर्पोरेट जगत हमेशा पब्लिक सेक्टर के उद्योगों के निजीकरण की मांग करता है। इसके लिए वो तरह तरह के तर्क-कुतर्क करता है। परन्तु क्या हमारे देश में नए उद्योग लगाने पर पाबंदी है। जब कोई भी उद्योगपति नया उद्योग लगा सकता है तो उसे पब्लिक सेक्टर के उद्योग ही क्यों चाहिए ?
             लेकिन उसे पब्लिक सेक्टर के उद्योग ही चाहियें। क्योंकि ये उद्योग उसे कोडियों के भाव चाहियें। जनता के पैसे से बनाई गयी और जनता के पसीने से सींची गयी कंपनियां चाहियें मुफ्त के भाव। जब भी किसी सरकारी उद्योग का निजीकरण किया जाता है तो उसकी सही कीमत निकालने का नाटक किया जाता है। उसके लिए विशेषज्ञों की टीम बनाई जाती है। इस टीम में निजी रेटिंग एजेंसियों के लोग होते हैं जो उसकी कीमत इतनी कम लगाते हैं की वो उसकी सही कीमत के आसपास भी नही बैठती। इस सारे फर्जीवाड़े को बड़े शानदार ढंग से अंजाम दे दिया जाता है। सरकार और कम्पनी खरीदने वालों के बयान आते हैं की पूरी कीमत दी गयी है। अब साबित करते रहो की कीमत पूरी नही है। जब सरकार खुद चोर के साथ मिली हुई हो तो चोरी साबित करना बहुत मुश्किल होता है। सेंटूर होटल जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं। 
                दूसरा कारण जो पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों को खरीदने के लिए होता है वो है उस क्षेत्र से सरकारी प्रतियोगिता का समाप्त हो जाना और एकाधिकार कायम करना। पहले हमारे देश में एक MRTP एक्ट होता था जो किसी भी क्षेत्र में एकाधिकार को रोकने के लिए कदम उठाता था। अब उसे भी खत्म कर दिया गया। रेशा बनाने वाली इकलोती पब्लिक सेक्टर की कम्पनी IPCL को उसके ही प्रतिद्वंदी रिलायंस को बेच दिया गया। अब इस क्षेत्र में रिलायंस का लगभग एकाधिकार है। जो दूसरे छोटे खिलाडी हैं भी तो उन्हें हर मामले में रिलायंस का अनुकरण करना पड़ता है। 
                भारतीय कॉर्पोरेट सेक्टर लगभग हमेशा ही करों में हेराफेरी और कानून कायदों के दुरूपयोग के भरोसे रहा है। वह ईमानदारी से कोई उद्यम स्थापित करने और चलाने के बजाय सरकारी सम्पत्ति के लूट पर नजरें गड़ाए रहता है। इस निजी क्षेत्र को पब्लिक सेक्टर से ज्यादा कुशल और ज्यादा योग्य माना जाता है। लेकिन आज यही सेक्टर है जो थोड़ी सी प्रतिकूल बाजार अवस्था होते ही बैंकों के लोन की पेमेंट नही कर रहा है। लाखों के टैक्स बाकि के केसों को अदालती प्रावधानों का दुरूपयोग करके लटकाए हुए है। और इसमें उसे सरकार का पूरा सहयोग हासिल है। करीब 250000 कारखाने बंद कर चूका है और अब भी ज्यादा कुशल कहलाता है। अगर ये सेक्टर इतना ही कुशल है और पूरी कीमत देकर पब्लिक प्रॉपर्टी को खरीदना चाहता है तो उसे नए उद्योग लगाने चाहियें, इससे देश में निवेश भी बढ़ेगा और रोजगार और उत्पादन भी बढ़ेगा।

Sunday, August 23, 2015

पेमेंट बैंकों ( Payment Banks ) की स्थापना और उसके असर

                भारतीय रिजर्व बैंक ने पेमेन्ट बैंकों की स्थापना के लिए कई निजी कम्पनियों के आवेदनो को मंजूरी दे दी है। इसके साथ ही देश में इस तरह के बैंकों का या यों कह सकते हैं की एक अलग प्रकार के बैंकों का यह पहला प्रयोग होगा। इसके साथ ही इस पर इसके दूसरे बैंकों , हमारी अर्थव्यवस्था , और पुरे सिस्टम पर होने वाले असर को लेकर बहस भी शुरू हो गयी है। समाज और उद्योग के कई हलकों ने इसका स्वागत किया है तो बैंक कर्मचारियों की यूनियन ने इसका कड़ा विरोध किया है। इसलिए ये जानना जरूरी हो गया है की इसकी कार्यप्रणाली क्या होगी और ये क्या काम करेगा।
                 रिजर्व बैंक ने इसको जारी किये जाने के उद्देश्य स्पष्ट किये हैं। जिसमे रिजर्व बैंक ने जो मुख्य कारण दिए हैं वो इस प्रकार हैं। ---
१. ये बैंक शुरुआती दौर में एक लाख तक की जमाराशि प्रत्येक खाताधारक से जमा कर सकते हैं, जिसे बाद में बैंक के कामकाज को देखकर रिजर्व बैंक द्वारा बढ़ाया जा सकता है।
२. ये बैंक एटीएम कार्ड और डेबिट कार्ड जारी कर सकते हैं। लेकिन क्रेडिट कार्ड जारी नही कर सकते।
३. ये बैंक अलग अलग सेवाओं के भुगतान करने की सुविधा दे सकते हैं जो इसका मुख्य उद्देश्य है।
४. ये बैंक म्युचुअल फंड और बीमा के उत्पाद बेच सकते हैं।
५. इन बैंको की स्थापना  गावों में रहने वाले छोटे छोटे जमाकर्ताओं, दूसरी जगह जाकर काम करने वाले मजदूरों और छोटे दुकानदारों, कम आय वाले परिवारों और छोटे बचत खातों की बैंक सुविधा प्रदान करवाने के लिए की जा रही है।
                           जो काम ये बैंक नही कर सकते। 
१. ये बैंक उधार देने का काम नही कर सकते।
२. ये बैंक अपना जमा पैसा केवल सरकारी सिक्यॉरिटियों और बांड में रख सकते हैं।
       ये सारे नियम और दूसरी जानकारियां भारतीय रिजर्व बैंक की प्रेस स्टेटमेंट में देखे जा सकते हैं उसके लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं।
        ये सारी सुविधाएँ ये बैंक उच्च तकनीक का उपयोग करके मोबाईल फोन जैसे उपकरणों से उपलब्ध करवाएंगे। और इसके लिए किसी बैंक की शाखा में जाना नही पड़ेगा। और इन सेवाओं के बदले ये बैंक ग्राहक से चार्ज वसूल करेंगे। इससे दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करने वाले लोगों के लिए घर पर पैसे भेजना आसान हो जायेगा।
                       इन सारी बातों को देखने पर किसी भी आदमी को इसमें कोई खराब चीज नजर नही आएगी। फिर इसका विरोध क्यों हो रहा है। इसका विरोध करने वालों में मुख्य संस्था बैंक कर्मचारियों की यूनियन है। बैंक कर्मचारियों की सबसे बड़ी यूनियन AIBEA ने एक प्रेस स्टेटमेंट जारी करके ना केवल इसका विरोध किया है बल्कि विरोध के कारणों को भी स्पष्ट किया है। जो इस प्रकार हैं।
            ( ये प्रेस स्टेटमेंट बिजनस स्टैंडर्ड में आप यहाँ  क्लिक करके देख सकते हैं.)
१. यूनियन का कहना है की ये बैंक लाइसेंस उन्ही निजी क्षेत्र की कम्पनियों को दिए गए हैं जो सरकारी बैंकों का लगभग छह लाख करोड़ रुपया डुबा कर बैठे हैं।
२. 2008 में जब पूरी दुनिया में निजी बैंकों का दिवाला निकला था तब भारतीय अर्थव्यवस्था को सरकारी बैंकों ने इसलिए बैठने से बचा लिया था क्योंकि वो रिजर्व बैंक के सख्त नियमों के अनुसार काम करते हैं। अगर दुबारा कोई ऐसी स्थिति आती है तो इन निजी बैंकों के भरोसे अर्थव्यवस्था को नही बचाया जा सकेगा।
३. छोटी छोटी बचतें भारतीय सरकारी बैंकों की रीढ़ हैं, और इन निजी पेमेंट बैंकों के आने के बाद सरकारी बैंकों में उनका स्तर गिरेगा और सरकारी बैंक भारी दबाव में आ जायेंगे।
४. छोटी बचतों के ना मिलने के कारण बैंकों का जमा राशियों पर खर्च बढ़ जायेगा जिससे सभी तरह के लोन महंगे हो जायेंगे।
५. इस तरह ये बैंक सरकारी बैंको की व्यवस्था के विरोधी साबित होंगे और आखिर में जनविरोधी साबित होंगे।
              इस पर जो दूसरे लोग भी एतराज कर रहे हैं उनमे मुख्य इस प्रकार हैं।
१. ये बैंक उच्च तकनीकी व्यवस्था पर आधारित होंगे जो की इनकी पहली शर्त है, इसलिए बिना बैंक शाखाओं के ये रोजगार विहीन विकास का नमूना होंगे जिसकी मार हमारा देश पहले ही झेल रहा है।
२. बिना उच्च मापदंडों के ये बैंक ऐसे खाते बड़ी संख्या में खोलेंगे जिनमे कालाधन जमा किया जा सकेगा। अब तक रिजर्व बैंक बड़े निजी बैंकों में भी KYC को सही ढंग से लागु नही करवा पाया है।
३. कम तकनीकी जानकारी के कारण गरीब ग्राहक बिना वजह धोखाधड़ी के शिकार होंगे, जिसे रोकने की अब तक कोई व्यवस्था नही है।
४. इसके बाद रिजर्व बैंक छोटे बैंकों के लिए लाइसेंस जारी करने जा रहा है। इस तरह ये  कुल मिलाकर बैंको के सरकारीकरण की प्रकिर्या को ही उलटने का काम होगा जो हमारे जैसे देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी।
                   इस तरह इन बैंकों की स्थापना पर कई तरह के सवाल हैं। लोगों का एक तबका मानता है की निजी कम्पनियों को लाइसेंस देने की बजाए भारतीय डाक विभाग जैसे सरकार नियंत्रित संस्थाओं को ही इसका लाइसेंस देना चाहिए था। वैसे भी भरतीय डाक विभाग की देश के ग्रामीण क्षेत्र में 139000 शाखाएँ हैं, जबकि सारे बैंको की कुल मिलकर 44700 शाखाएं ही हैं। गरीब लोगों के पैसे को निजी हाथों में देना सुरक्षा के हिसाब से बहुत अच्छा नही माना जाता।


Vyang -- अब बिल्ली करेगी आपके दूध की रखवाली।

खबरी -- ये " पेमेन्ट बैंक " क्या बला है ?

गप्पी -- पिछले दिनों की कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण खबरों पर एक नजर डालिये। एक खबर आई की देश के टैक्स का दो लाख सत्रह हजार करोड़ रुपया केवल सत्रह लोगों पर बकाया है। धन्य हो। ऐसे लोगों की तो पूजा होनी चाहिए। हालाँकि सरकार ऐसे लोगों की पूजा कर भी रही है। इनमे से कई लोग प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में सम्मानित प्रतिनिधियों की तरह शामिल रहते हैं। उनका सम्मान होता है और उनकी अय्यासी का खर्चा इस देश की गरीब जनता उठाती है। 
                       दूसरी महत्त्वपूर्ण खबर ये आई की देश के सरकारी बैंको का छः लाख करोड़ रुपया लगभग डूब गया है। ये लगभग शब्द जो है उसकी खोज जोर का धक्का आहिस्ता से लगने के लिए की गयी थी। वरना लगभग का कोई मतलब नही है। असली खबर ये है की छः लाख करोड़ रुपया डूब चूका है। ये कौन बेचारे भाई हैं जो बैंको से लोन लेकर उसे चूका नही पाये। इनमे कई तो ऊपर वाले सत्रह लोगों में ही हैं। जो बाकि बचे वो इनके भाई बंधु , घर परिवार वाले और इन जैसे ही कुछ दूसरे महानुभाव हैं। बेचारा आम आदमी तो बैंक का सौ रुपया नही चुका पाये तो उसके खिलाफ FIR हो जाती है। बैंक की उगाही करने वाली जीप उनका खेतों तक पीछा करती है। और तब तक करती रहती है जब तक या तो वो पैसा दे दे या आत्महत्या कर ले। 
                       ऊपर के दोनों कुकर्मों के लिए हमारा निजी क्षेत्र जिम्मेदार है। जिसके सम्मान में सारा देश दुहरा हुआ रहता है। जिससे कोई सवाल नही पूछता। जिस का अपना मीडिया है, अपने एक्सपर्ट हैं, अपनी सरकार है और अपने नासमझ समर्थक हैं। ये व्ही निजी क्षेत्र है जिसे सारी आर्थिक बिमारियों का इलाज बताया जाता है। अब इसके लिए सरकार ने एक बहुत ही बढ़िया स्कीम बनाई है। 
                        हमारे रिजर्व बैंक ने इन्हे "पेमेंट बैंक" के नाम से बैंक खोलने की अनुमति दे दी है। ये बेचारे कुछ दिनों से बहुत परेशानी में थे। उद्योगों में मंदी का माहौल चल रहा है। बैंकों का जो पैसा खाया जा सकता था खा चुके हैं। टैक्स का जो पैसा हजम हो सकता था कर चुके हैं। बैंकों से नया लोन लेने के लिए भी कोई बहाना चाहिए भले ही कितना ही कमजोर क्यों न हो। अब इस बेचारे निजी क्षेत्र का विकास रुक गया। इसके बच्चे दो लाख रूपये रोज के किराये की होटलों में कैसे रुकेंगे। पत्नी की सालगिरह पर हवाईजहाज कैसे गिफ्ट में दिया जायेगा ? हजार-हजार करोड़ के मकान कैसे बनेंगे। उनकी इस परेशानी को देखते हुए सरकार ने इन्हे ही सीधे सीधे बैंक खोलने का परोक्ष अधिकार दे दिया। लो भाई, खुद पैसा इकट्ठा करो और खुद हजम करो। किस्से पैसा इकट्ठा करो ? अरे भई आम लोगों से, जो दूर के गांव में रहते हैं, दूसरी जगहों पर जाकर मजदूरी करते हैं और जहां कोई बैंक अपनी शाखा नही खोलना चाहता। ये सारा काम आपके मोबाईल पर कर देंगे। आपको ना बैंक जाने की जरूरत पड़ेगी और ना खाता खुलवाने के लिए सबूत देने की जरूरत पड़ेगी। अपनी छोटी छोटी  बचतों को इन बिल्लियों की रखवाली में रखिये और मलाई आने का इंतजार कीजिये। 
                         देश के ये बेचारे गरीब उद्योगपति हर रोज पैसा मांगने बैंक में जाएँ ये इनके सम्मान के खिलाफ है। बैंको में जो पैसा होता है वो भी जनता का ही होता है। ये बैंकों का पैसा खाते  रहते हैं फिर सरकार जनता के बजट में से पूंजी के नाम पर और पैसा डालती रहती है ये फिर खा लेते हैं। अब इस झंझट से छुटकारा मिल जायेगा सरकार को भी और इन बेचारी कम्पनियों को भी। आम जनता का पैसा ही खाना है तो भाई सीधे खाओ ना, सरकार को बीच में क्यों डालते हो।

Friday, August 21, 2015

Vyang -- बातचीत से ही रास्ता निकलेगा।


गप्पी -- कुछ लोगों का ये उम्दा ख्याल है की हर तनाव का रास्ता बातचीत से ही निकलता है। जो जो लोग इस बात में यकीन करते हैं उन्हें अब अपने विचार बदल लेने चाहियें। मेरा मतलब भारत - पाक बातचीत से है। जितना तनाव बातचीत होने को लेकर पैदा हो गया है उतना तो तब भी नही था जब बातचीत नही हो रही थी। लोग इस बात का जोड़-घटा कर रहे हैं की ये बातचीत तनाव कम करने के लिए है या बढ़ाने के लिए।
                 भारत-पाक वार्ता पर पहले बीजेपी का ये मत था की गोलीबारी और बातचीत दोनों साथ-साथ नही चल सकती। उस समय लोग कह रहे थे की गोलीबारी बंद करने को लेकर भी तो बातचीत ही करनी पड़ेगी। लेकिन बीजेपी नही मानी। उसने साफ कह दिया की जब तक पाक आतंकवाद को समर्थन करता रहेगा तब तक उसके साथ कोई बातचीत नही हो सकती। उसने किसी शरारती बच्चे की तरह कूद-कूद कर आसमान सिर पर उठा लिया। लोगों ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन बीजेपी नही मानी। एक बार तो ऐसा समय आ गया की अगर कोई पाकिस्तान से बातचीत करने के बारे में एक शब्द भी मुंह से निकाल दे उसे गद्दार घोषित कर दिया जाता। हमारे देश में देशभक्ति का केवल एक ही मापदण्ड बाकि बचा, वो था पाकिस्तान को गालियां देना। हमारे आसपास में ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी हो गयी थी जो ये कहते थे की एकबार नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाएँ, उसके बाद पाकिस्तान एक गोली नही चला सकता। बाद में 56 इंच के सीने और इस तरह की दूसरी कहावतों को भी पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया।
                    समय ने पलटी मारी। वही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हो गए। उन्होंने पहले ही दिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुला लिया।
              भक्तों ने बहुत वाह-वाह की। देखा  इसको कहते हैं असली विदेश नीति।
           फिर सीमा पर गोलियों का सिलसिला चला। बीजेपी ने कहा की हम पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब दे रहे हैं। पहले नही दिया जाता था।
                 भक्तों ने फिर वाह-वाह की। देखो हमारी ताकत।
            फिर भारत पाक के सुरक्षा सलाहकारों की मीटिंग तय हुई। हर बार की तरह पाकिस्तान ने कश्मीरी हुरियत के नेताओं को बातचीत के लिए बुला लिया।
                  भारत सरकार ने ये कहते हुए बातचीत रद्द कर दी की हुरियत से बातचीत हमे मंजूर नही।
                   भक्तों ने फिर वाह-वाह की। देखा मजबूत विदेश नीति। पहले ये कहां थी।
             भारत सरकार ने स्पष्ट घोषणा कर दी की जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को समर्थन करता रहेगा उससे कोई बात नही होगी।
              उसके बाद कई मौके आये जिसमे हमारे प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शामिल रहे लेकिन इस तरह जैसे कोई जानपहचान ही नही हो।
                   भक्त खुश थे।
              अचानक खबर आई की उफ़ा में दोनों देशों के प्रधानमंत्री बातचीत करेंगे। पाकिस्तान ने कहा की बातचीत का न्योता भारत की तरफ से आया है। भारत सरकार ने इसका खंडन नही किया।
                भक्तों को थोड़ी परेशानी हुई।
              दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत का दिन तय हो गया। कई लोगों ने कहा की अंतरराष्ट्रीय दबाव है। भक्तों को फिर थोड़ी सी परेशानी हुई।
               उसके बाद इस सरकार आने के बाद के सबसे बड़े आतंकवादी हमले हुए। सीमापर गोलियों की रफ़्तार तेज हो गयी। पाकिस्तान ने फिर हुरियत को बातचीत के लिए बुला लिया। लेकिन भारत सरकार ने कहा की बातचीत तय समय पर होगी।
                 अब भक्तों को जवाब नही सूझ रहा था। नरेंद्र मोदी की सरकार और अंतरराष्ट्रीय दबाव ! ये कैसे हो सकता है। अब तक तो हम नेहरू पर अंतरराष्ट्रीय दबाव में आने के आरोप लगाते रहे थे। अब वही ----
                 अब लोगों ने कहा की बातचीत रद्द कर दो। इन हालात में कोई सार्थक बातचीत सम्भव नही है, लेकिन सरकार ने कहा की आतंकवाद पर ही तो बातचीत होगी। और पाकिस्तान हुरियत से बातचीत के बाद मिल ले, बस पहले ना मिले।
                     पर पाकिस्तान अड़ गया की पहले मिलेगा। सरकार ने बातचीत रद्द करने की घोषणा नही की।
                  अब भक्त दूसरे रस्ते से जाने लगे।
               अब सरकार ने कहा की पाकिस्तान को पुख्ता सबूत देंगे। लोगों ने कहा की पहले भी दिए हैं। पाकिस्तान कह रहा है की जब तुम अपनी अदालतों में आतंकवादी कार्यवाहियों के जो सबूत दे रहे हो उन्हें अदालतें नही मान रही और समझौता एक्सप्रेस से लेकर मालेगांव धमाकों तक सभी आरोपियों की जमानत हो रही है तो हमारे लिए पुख्ता सबूत कहाँ से लाओगे।
                       सरकार कह रही है की ये हमारा अंदरुनी मामला है। और हमारी अदालतें स्वतंत्र हैं वो कानून के हिसाब से फैसला करती हैं। पाकिस्तान कहता है की हमारी अदालतें भी स्वतंत्र हैं। बहस है की चल रही है। बातचीत नही हो रही लेकिन बहस हो रही है। कुछ लोगों का मत है की दोनों देशों की मंशा केवल बहस की है और बातचीत कोई नही चाहता।
                        मैंने एक भक्त से इस बारे में पूछना चाहा तो उसने कहा की छोडो ना यार, अपने को क्या मतलब है। 
खबरी -- जब मुखौटे चेहरों से ज्यादा प्रभावशाली हो जाएँ तो कोई बातचीत काम नही करती।

Thursday, August 20, 2015

Vyang -- एक दूरदर्शी नेता के अति-दूरदर्शी भाषण

गप्पी -- स्वतन्त्रता दिवस की पूर्ण संध्या पर महामहिम राष्ट्रपति ने देश को सम्बोधित किया। उनके भाषण के तुरंत बाद मोदीजी ने ट्वीट करके कह दिया की भाषण दूरदर्शी नही था। मोदीजी को मालूम था की ये एक भाषण था, अभिभाषण नही था। अभिभाषण वो होता है जो सरकार लिख कर देती है और राष्ट्रपति महोदय केवल पढ़ देते हैं। जैसे संसद सत्र के शुरू में होता है। सो मोदीजी ने इसे अदूरदर्शी करार दे दिया।
                       वैसे मुझे भी ये दूरदर्शी नही लगा। कारण एकदम साफ है। राष्ट्रपति भवन से संसद भवन की दूरी है ही कितनी। राष्ट्रपति महोदय राष्ट्रपति भवन में खड़े होकर संसद भवन की तरफ देख रहे थे। उन्हें संसद में बना हुआ अखाडा  दिखाई दे रहा था। जो इतने निकट की चीज देखता हो उसे दूरदर्शी कैसे मान लिया जाये।
                        अगले दिन लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण था। मेरे एक पड़ौसी सुबह सुबह नहा-धोकर मेरे पास आकर बैठ गए। सबकी तरह उन्हें और मुझे भी प्रधानमंत्री के दूरदर्शी भाषण का इंतजार था। भाषण शुरू हुआ। उसमे प्रधानमंत्री ने एक सचमुच दूरदर्शी भाषण दिया। उन्होंने अपने भाषण में कहा की जातिवाद और साम्प्रदायिकता को बर्दाश्त नही किया जा सकता। तब भी प्रधानमंत्री ने अपने आसपास बैठे बाबाओं और साध्विओं को नही देखा जो लगातार जहर उगल रहे हैं। इनमे उनके साथी सांसद भी शामिल हैं। लेकिन वो लोग इतने निकट हैं की दूरदर्शी प्रधानमंत्री को दिखाई नही दिए। ठीक उसी तरह जैसे उन्हें संसद नही दिखाई दे रही थी और UAE दिखाई दे रहा था।
                          कई लोग उनसे वन रैंक-वन पेंशन पर किसी घोषणा की उम्मीद कर रहे थे। उनके नजदीक में ही कई दिनों से पूर्व सैनिक प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन पूर्व सैनिकों से यही गलती हो गयी। उन्हें दूरदर्शी प्रधानमंत्री के इतने नजदीक प्रदर्शन नही करना चाहिए था। इतनी नजदीक की चीजें उन्हें कहां दिखाई देती हैं। हमारे यहां एक पुरानी कहावत है की पहाड़ पर जलती हुई आग तो दिखाई देती है पर पैरों के नीचे जलती हुई आग दिखाई नही देती। इसलिए मेरा एक छोटा सा सुझाव है पूर्व सैनिकों को की यदि वो चाहते हैं की प्रधानमंत्री को उनकी समस्या दिखाई दे तो उनको अमेरिका के मैडिसन स्कवेयर में प्रदर्शन करना चाहिए। वो उन्हें जरूर दिखाई देगा।
                        उसके बाद प्रधानमंत्री सीधे भृष्टाचार पर आये। उन्होंने कहा की पंद्रह महीने के शासन में उनकी सरकार पर एक पैसे के भृष्टाचार का आरोप नही है। मेरे पड़ौसी को तो ये सुनते की हंसी का ऐसा दौरा पड़ा की वो पेट पकड़ कर सोफे से नीचे लुढ़क गए। हमने बड़ी मुश्किल से उन्हें इसी हालत में घर पहुंचाया। वहां भी वो बिस्तर पर पेट पकड़ कर दोहरे हुए जा रहे थे। उनकी हालत में जब कोई सुधार नही हुआ तो मैं उन्हें वैसे ही छोड़कर वापिस आ गया। मुझे समझ नही आया की इसमें प्रधानमंत्री ने कौनसी गलत बात कह दी। उन्हें अगर शुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे नही दिखाई दे रहे थे तो इसमें उनका क्या कसूर है। उन्हें नजदीक की चीजें कहां दिखाई देती हैं। एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री को तो केवल दूर की चीजें ही दिखाई देंगी न।
                       उसके बाद प्रधानमंत्री अपने वायदों पर आ गए। उन्होंने कहा की हमने अपने सभी वायदे पूरे कर दिए। मैंने सोचा की अच्छा हुआ मेरे पड़ौसी पहले ही चले गए वरना पड़ोस में उलाहना हो जाता। ये बात सुनकर उनका जो हाल हुआ होता उसके बाद मैं उसके घर वालों को क्या जवाब देता। अब प्रधानमंत्री ने जो भी वायदे किये थे वो केवल पंद्रह महीने पहले ही तो किये थे। इतने नजदीक के वायदे उन्हें कैसे दिखाई देते। लोग है की इस तकनीकी समस्या को समझ ही नही पा रहे हैं। एक इतने दूरदर्शी नेता जिन्हे पंद्रह महीनो में अपना देश ही नही दिखाई दिया और बाकि दुनिया के नक्शे पर जितने देश हैं सब दिखाई दे रहे हैं उनसे इतने नजदीक के वायदों को देखने की उम्मीद करना कहां तक सही है। उन्हें दस दिन पहले पीडीपी के बारे में क्या कहा था और बाद में क्या कहा, दस दिन पहले एनसीपी के बारे में क्या कहा था और सीटें कम पड़ते ही क्या कहने लगे, और तो और वो हररोज परिवार वाद को कोसते हैं लेकिन अपने पास बैठे प्रकाश सिंह बादल, उद्धव ठाकरे, रामबिलास पासवान, रमन सिंह इत्यादि का परिवारवाद कभी दिखाई दिया। नही ना। तो इसमें उनका कोई दोष नही है। वो इतने दूरदर्शी हैं की उनको नजदीक की चीजें दिखाई नही देती। 
                       शाम को मैं अपने पड़ौसी का हालचाल जानने उसके घर गया। पहले तो वो मुझे देखते ही बहुत देर तक हँसा फिर थोड़ा संयत होकर बोला भाई साब क्या मोदीजी ने कोई और चुलकुला सुनाया। मुझे तो मालूम ही नही था की मोदीजी की सेंस ऑफ ह्यूमर इतनी अच्छी है। अब मैं क्या जवाब देता। 
खबरी -- ये बात तो ठीक है लेकिन जब लोग आपके भाषणो को चुटकुला समझना शुरू कर दें तो आपको सावधान हो जाना चाहिए।

Wednesday, August 19, 2015

GST बिल अलोकतांत्रिक,संघीय प्रणाली के खिलाफ और अमीरों और बड़ी कम्पनियों के फायदे में है।

मैंने GST बिल पर कुछ दिन पहले लिखे अपने लेख में इस बिल के महंगाई बढ़ाने वाले और लघु उद्योग पर इस बिल के दुष्प्रभावों पर रौशनी डालने का प्रयास किया था। मेरा ये लेख इसी ब्लॉग में "GST बिल घोर जनविरोधी, भयंकर महंगाई बढ़ाने वाला और लघु उद्योगों की मौत का फरमान है" 
के नाम से उपलब्ध है। इस लेख में मैंने इस बिल के कुछ व्यवहारिक पहलुओं पर लिखने की कोशिश की थी। उसी दिन शाम को NDTV पर एक टीवी बहस में देश के जाने माने अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार ने उन सवालों की पुष्टि की। उसके बाद GST के सवाल पर कई तरह की टीवी बहसें भी हुई और कुछ राजनितिक पार्टियों के बयान भी आये। इसी क्रम में एक बहुत ही जानकारी पूर्ण लेख पीपुल्स डेमोक्रेसी में छपा है। ये लेख भी देश के जाने माने अर्थशास्त्री और केरल योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे श्री प्रभात पटनायक ने लिखा है। ये लेख "The Debate on GST" के नाम से छपा है। इस लेख में आदरणीय प्रभात पटनायक साहब ने इस बिल के सैद्धांतिक पहलुओं को उजागर किया है। इस लेख से मेरे द्वारा उठाये गए कुछ सवलों की पुष्टि भी होती है। इस लेख में मुख्य तौर पर दो सवालों को उठाया गया है। 

१. अलोकतांत्रिक प्रणाली लाने की कोशिश 

           अपने लेख में उन्होंने ये महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है की इस बिल के बाद जो टैक्स प्रणाली लागु होगी वो लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों को और उनकी  चुनाव करने के विकल्पों को सिमित करेगा। इसको ठीक तरह से इस प्रकार समझा जा सकता है। अब तक लोगों के पास अलग राजनैतिक और आर्थिक विचारधारा वाली पार्टियों को चुनने का विकल्प है। इस प्रणाली के बाद राज्य में सरकार में आने वाली किसी भी पार्टी के लिए ये असम्भव हो जायेगा की वो किसी भी जरूरत मंद तबके को किसी भी तरह की टैक्स छूट देकर राहत दे सके। अब तक राज्य सरकारें अपनी आर्थिक  और राजनैतिक नीतियों के अनुसार टैक्स की दरें तय करती हैं। जिनमे जीवन के लिए जरूरी वस्तुओं पर ये दर कम रखी जाती है और कुछ विलासिता की वस्तुओं पर टैक्स लगाकर उस नुकशान की भरपाई कर ली जाती है। GST की प्रणाली लागु होने के बाद सभी वस्तुओं पर सभी राज्यों में एक समान कर होगा और राज्य सरकार चाहे भी तो इसमें कोई बदलाव नही कर सकती। एक तरफ ये रोक राज्य सरकार के अधिकारों को बाधित करता है तो दूसरी तरफ लोगों के अपनी मर्जी का विकल्प चुनने के अधिकार को भी बाधित करता है। लोग चाहें किसी को भी चुने टैक्स की दर में कोई परिवर्तन नही हो सकता। 

२. अमीरों को राहत देने की प्रणाली 

           दूसरा महत्त्व पूर्ण सवाल जो इसमें उठाया गया है वो ये है की GST लागु होने के बाद टैक्स की दरों में एक समानता (uniformity ) आ जाएगी। जिससे अमीरों द्वारा खरीदे जाने वाले विलासिता के  सामान पर टैक्स की दर जो अभी ज्यादा हैं वो कम हो जाएगी, और गरीबों के जीवन जरूरत की चीजों पर अभी जो कम दर है वो बढ़ जाएगी। इसलिए ये बिल गरीबों के हितों के खिलाफ और अमीरों के हितों के अनुसार होगा। इस तरह की (uniformity ) अंतिम तौर पर गरीबों के खिलाफ ही होगी। 
                         इस लेख में कुछ दूसरी महत्त्वपूर्ण बातें भी हैं। लेकिन मैं केवल उन्ही पहलुओं को उठा रहा हूँ जो इस लेख के लिए जरूरी हैं। 

लघु उद्योगों के खिलाफ और बड़ी कम्पनियों के फायदे में ---

                    जिस  (uniformity ) का जिक्र श्री प्रभात पटनायक साहब जरूरत और विलासिता की वस्तुओं के संदर्भ में कर रहे हैं उसी (uniformity ) की बात मैं लघु उद्योग और बड़े उद्योगों के संदर्भ में कर रहा हूँ। GST की नई टैक्स प्रणाली लागु होने के बाद लघु उद्योगों को मिलने वाली छूट केवल कागजों में रह जाएगी और उसका कोई व्यवहारिक मतलब नही रह जायेगा। इसकी पूरी तफ्सील मैंने अपने पिछले लेख में दी है। ये बिल लघु उद्योग को बर्बाद करने के बड़े उद्योग के षड्यंत्र का हिस्सा है जिसे समझने की जरूरत है। 
            

Tuesday, August 18, 2015

Vyang -- क्या ये जिन्दा कौम के लक्षण हैं ?

गप्पी -- डा. राममनोहर लोहिया की ये बात लाखों बार दोहराई गयी है की जिन्दा कौमे पांच साल इंतजार नही करती। किस चीज का इंतजार, ये लोहिया जी ने भी खुल कर नही बताया सो में भी क्यों बताऊँ। वैसे कुछ लोगों का विचार है की ये राजनितिक बदलाव और चुनाव के इंतजार के बारे में कहि गयी थी। मुझे ऐसा लगता है की ये राशन या रेलवे बुकिंग की लाइन देखकर भी कहि हो सकती है। लेकिन मेरे पड़ौसी ने इस पर एतराज करते हुए कहा की लोहिया जी ने जिन्दा कौम की बात की है और जिन्दा कौमें कभी लाइन में लगती हैं ? वे अपने सारे काम लाइन तोड़कर कर लेते हैं। फिर भी ना हो तो पिछले दरवाजे से कर लेते हैं। पिछला दरवाजा जिन्दा कौमों के लिए ही बनाया गया है। बाकि कोई तो वहां झांक भी नही सकता।
                   लेकिन हम पिछले 68 साल से इंतजार कर रहे हैं और खुद को जिन्दा भी मानते हैं। ये हमारी संस्कृति है। लोग ये भी कहते हैं की हमारी 5000 साल पुरानी संस्कृति छुआछूत खत्म होने का इंतजार कर रही है और जिन्दा भी है । जहां तक हमारा सवाल है हम 68 साल से इंतजार कर रहे हैं की अब तो आजादी हम तक पहुंचे थोड़ी तो रौशनी हमारे दिमागों तक भी पहुंचे। और हम जिन्दा भी हैं, जबकि लोहियाजी पांच साल इंतजार करने वालों को भी जिन्दा नही मानते थे।
                         हमारे घर के खली कमरे में स्कुल के कुछ बच्चे कभी कभी पढ़ने आ जाते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा की अँकल ये बताइये, अगर हमारे देश के लोग भगत सिंह को  फांसी देने के इतने ही खिलाफ थे तो उन्होंने उन्हें फांसी क्यों देने दी ? मैंने कहा की लोग विरोध कर रहे थे इसलिए अंग्रेजों ने उसे और उसके साथियों राजगुरु और सुखदेव को एक दिन पहले ही फांसी दे दी। उन्होंने कहा, लेकिन वो तो बहुत दिन से जेल में बंद थे और फांसी का दिन भी तय किया हुआ था तब हमारे लोगों ने क्यों नही कहा की नही हम फांसी नही देने देंगे। मैंने कहा लोग विरोध तो कर रहे थे पर अंग्रेज ऐसे क्यों मानने लगे। मानते क्यों नही ? सारे लोग इकट्ठे होकर कह देते तो मानना ही पड़ता वरना सब कुछ बंद हो जाता। सारी दुकाने, रेल, बस, सड़क, गांव, शहर, स्कुल, कालेज, दफ्तर, कचहरी आदि सब कुछ। फिर क्या करते अंग्रेज ? लोग अंग्रेजों को कह देते की तुम जाओ हमे तुम पसन्द नही हो। अँकल, जरूर सारे लोगों ने जोर देकर नही कहा होगा। मेरे पास कोई जवाब नही था। मैं सोच रहा था की अगर सारे इकट्ठे होकर कहें तो हिमालय रास्ता छोड़ दे, अंग्रेजों की क्या ओकात थी। लेकिन ताज्जुब की बात है की हम तब भी जिन्दा कौम थे और अब भी जिन्दा कौम हैं। जी हाँ. मैं अब की बात कर रहा हूँ। जब भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो हम ही थे जो उनको बचा रहे थे, उनके केस लड़ रहे थे। उस दुर्घटना की दोषी यूनियन कार्बाइड का सारा माल वैसे ही बिकता रहा। हमारे नेता उसे दूसरे नाम से चलने की इजाजत देते रहे और उनकी सभी तरह की मदद करके फिर सत्ता पर कब्जा करते रहे, चुनाव जीतते रहे। वो कम्पनी तो अब भी करोड़ों कमा रही है और भोपाल गैस हादसे के पीड़ित उनके अपने ही देश में मुआवजे का इंतजार करते करते स्वर्ग सिधार गए और हम अब भी जिन्दा कौम हैं।
                      मुझे नरसिम्हाराव की सरकार याद है। उस समय उसे इतिहास की सबसे भृष्ट सरकार कहा जाता था। उच्चतम न्यायालय में कई केस थे। लोग चबूतरों पर बैठकर घंटों बहस करते और जोर देकर कहते की उच्चतम न्यायालय को सबको फांसी दे देनी चाहिए। कभी किसी की जमानत होने की खबर आ जाती तो लोग न्यायालय को कोसते। पुरे देश में उन मंत्रियों और सरकार के खिलाफ माहौल था। चुनाव हुए, कल्पनाथ राय समेत सभी आरोपी मंत्री चुनाव जीत गए। जो लोग उन्हें फांसी देने की मांग कर रहे थे उनके खिलाफ वोट नही दे पाये। उस समय भी हम जिन्दा कौम थे।
                        कोई आदमी नर संहारों का आरोपी है। बच्चो और महिलाओं तक की हत्या के आरोप हैं उस पर। लेकिन हम उसके समर्थन में रैली निकाल सकते हैं केवल इसलिए की वो हमारी जाति  का है। हजार साल पहले किसी ने हमारे पूर्वजों पर जुल्म किये थे। उसके बदले में हम आज अपने पड़ौसी और उसके परिवार की हत्या कर देते हैं महज इसलिए की उनका धर्म एक है। मरने वाला उसका नाम भी ठीक से नही जानता, लेकिन हम फिर भी जिन्दा कौम होने का दावा करते हैं।
                        जिस दिन कोई नेता कहेगा उस दिन हम सेना के नाम पर गीत गाएंगे, जिस दिन सरकार चाहेगी अमर जवान ज्योति पर फूल चढ़ाएगी, और जिस दिन सरकार चाहेगी पूर्व सैनिकों पर लाठियां बरसाएगी और हम उसका समर्थन करते रहेंगे। अगर आज डा. लोहिया होते तो मैं उनसे जरूर पूछता की जिन्दा कौम के क्या लक्षण होते हैं, जरा खुलासा कर दीजिये वरना बहुत मुश्किल होने वाली है। लेकिन वो नही हैं और इसका फायदा लोग उठा रहे हैं। ऐसे ऐसे लोग जिन्दा होने का दावा करने लगे हैं जो पैदा होने से पहले ही मर चुके थे।
खबरी -- हमारी पूरी कौम में चन्द लोग ही जिन्दा हैं।

Monday, August 17, 2015

Vyang -- जो सुरक्षा कारणों से खदेड़ दिए गए।


गुप्पी -- स्वतन्त्रता दिवस समारोह की पूर्व संध्या। जंतर मंतर पर बैठे भूतपूर्व सैनिकों को दिल्ली पुलिस ने खदेड़ दिया। इसका जो कारण बताया गया वो ये था की स्वतन्त्रता दिवस समारोह के लिए सुरक्षा पट्टी बनाई गयी है। बहुत खूब, दिल खुश हो गया। प्रधानमंत्री के पंद्रह अगस्त के भाषण के बाद सोशल मीडिया पर एक फोटो वाइरल हुआ जिसमे प्रधानमंत्री बिना बुलेट प्रुफ कांच के भाषण दे रहे थे। पर ये किसी ने नही बताया की उनकी सुरक्षा के लिए जंतर मंतर से पूर्व सैनिकों को खदेड़ा गया था।
                         ये लोग कौन थे ? ये वो लोग थे जिन्होंने तीन बार पाकिस्तान की सेना को खदेड़ा था। आज उनको दिल्ली पुलिस ने खदेड़ दिया। जिन लोगों को देश के पहरेदार माना जाता है और जिनके भरोसे देश की सीमाएं हैं वो अचानक सुरक्षा को खतरा हो गए। जिन लोगों ने सीमा पर खरोंच नही आने दी वो फ़टे कपड़ों और टपकते खून के साथ खदेड़ दिए गए। जिस भारत माता की तस्वीर को बीजेपी अपने राष्ट्रवाद को साबित करने के लिए बगल में लिए घूमती है अगर एक बार उसकी तरफ देख लेती तो शायद उसके आँसू दिखाई दे जाते।
                  मुझे अच्छी तरह याद है बीजेपी के चुनाव प्रचार को शुरू करने वाली पहली रैली जो रेवाड़ी में हुई थी और जिसे अब के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सम्बोधित किया था। उस रैली को पूर्व सैनिकों का सम्मेलन कहा गया था और जनरल वी के सिंह इसी रैली में भाजपा में शामिल हुए थे। उस समय स्टेज पर देश भक्ति के गीत गाने वाला एक गवैया जोश में दुहरा हुआ जा रहा था। पूरा माहौल देशभक्ति से सराबोर था। उसमे मोदी जी ने अपने सारे वायदे जो बीजेपी पूर्व सैनिकों के लिए करती रही है, एक बार फिर दुहराये थे। मुझे नही पता की वो रैली मोदीजी को याद है या नही। मुझे नही पता की वो रैली जनरल वी के सिंह को भी याद है की नही, लेकिन मुझे एक बात की उम्मीद थी की पूर्व सैनिकों के साथ जंतर मंतर की घटना के बाद शायद जनरल वी के सिंह या सेना से आये हुए राज्य वर्धन सिंह राठौर जैसे दूसरे कुछ लोग इस्तीफा दे दें। लेकिन गलत उम्मीद और गलत लोगों से की गयी उम्मीद का जो हांल होना चाहिए वो इस उम्मीद का भी हो गया।
                   मुझे ये तो नही मालूम की वन रैंक वन पैन्शन के वायदे की हाल में क्या पोज़िशन है और उससे कितना लाभ हानि होगी लेकिन जो व्यवहार पूर्व सैनिकों के साथ हुआ उसे ना तो भुलाया जा सकता है और ना ही बर्दास्त किया जा सकता है। जो भाजपा राष्ट्रवादी साबित होने की कोशिश में हमेशा सेना के प्रतीकों का इस्तेमाल करती रही है उससे हमेशा ये सवाल पूछा जाता रहेगा। ये सवाल वन रैंक वन पैन्शन के लागु होने से खत्म नही हो जायेगा।

Sunday, August 16, 2015

Vyang -- भाई साब की छोटी होती प्रतिमा की कहानी

गप्पी -- दूसरे हजारों लाखों घरों की तरह हमारा घर भी एक किसान परिवार की सभी परेशानियों को अपने में समेटे था। कम जमीन, बढ़ता कर्ज, जवान बच्चों की बेरोजगारी और दिन रात काम करती कुपोषण की शिकार महिलाएं। इस सब का साइड इफेक्ट भी था, झगड़ा, अवसाद और बेबसी में एक दूसरे पर दोषारोपण। ऐसे में अचानक बड़े भाई साब ने घोषणा कर दी की अगर घर का लेनदेन उन्हें सौंप दिया जाये तो सारी समस्या हल हो सकती है। उन्होंने सारी समस्या की जड़ पिताजी की मिस-मैनेजमेंट को ठहरा दिया। साथ ही उन्होंने ये भी कहा की वो ये कामकाज तभी संभालेंगे जब उन्हें इसके लिए पूरा सम्मान मिले। परेशान घर वालों ने लेनदेन भाई साब को दे देने का फैसला कर लिया। उनके सम्मान के लिए घर वालों ने तय किया की भाई साब के रहते ही उनकी एक सात फुट की प्रतिमा घर के आँगन में स्थापित कर दी जाये। प्रतिमा सात फुट की इसलिए रखी गयी क्योंकि भाई साब को हमेशा अपना कद सात फुट का लगता था। हमारे घर में किसी का भी कद साढ़े पांच फुट से ज्यादा नही था, भाई साब का भी नही। लेकिन भाई साब को आदत थी बात बात पर ये कहने की, " है कोई माई का लाल गांव में मेरे जैसा सात फुट का जवान " . शुरू शुरू में घर वालों ने भाई साब को समझाने की कोशिश भी की थी उनके कद के बारे में, लेकिन भाई साब नही माने। अब घरवालों को भी आदत हो गयी थी। सो घर वालों ने लेनदेन भाई साब को सौंप दिया और आँगन में भाई साब की सात फुट की प्रतिमा स्थापित कर दी। प्रतिमा की प्रतिष्ठा और भाई साब के स्वभाव को देखते हुए उसे अच्छा कुरता पाजामा, बढ़िया जैकेट और रंगीन साफा भी पहना दिया।
                             भाई साब सारे कामकाज की निगरानी करते। अबकी बार अच्छी फसल होने की उम्मीद थी। भाई साब फसल का सारा श्रेय खुद को दे रहे थे और एक दिन आंधी और बरसात ने फसल बरबाद कर दी। लेनदारों का दबाव बढ़ गया। तो भाई साब ने घर पर रहना कम कर दिया। बेरोजगार बच्चों की नौकरी अब भी दूर की बात थी। घर में आशा का वातावरण फिर तनाव में बदलने लगा। अब भाई साब ने घरवालों के सवालों का जवाब देना बंद कर दिया। एक दिन घरवालों ने देखा की आँगन में खड़ी भाई साब की प्रतिमा का कद साढ़े पांच फुट का हो गया है ठीक भाई साब के ओरिजिनल कद के बराबर।
                           अब भाई साब ने शहर में कमरा लेकर रहना शुरू कर दिया अकेले। घर वाले पूछते तो जवाब मिलता की सब घर की हालत सुधारने के लिए ही कर रहे हैं। लेकिन घर की हालत ज्यों की त्यों थी। भाभी का आधा दिन काम में और आधा रोने में जाता। इसी तरह अम्मा का आधा दिन काम में और आधा भाभी को चुप कराने में जाता। घर वालों ने एक दो बार शहर जाकर भाई साब को मिलने की कोशिश की। लेकिन वहाँ भाई साब ने फुटकर काम के लिए जिस आदमी को रखा हुआ था व्ही मिलता। एक दिन उसने चिढ़कर घरवालों को कह दिया की उसने इतना निर्लज्ज परिवार नही देखा। उसके अनुसार भाई साब सुबह चार बजे से रात को बारह बजे तक घर की हालत सुधारने के लिए काम करते हैं। क्या करते हैं ये वो भी नही बता पाया। वापिस आकर घर वालों ने देखा की भाई साब की प्रतिमा और छोटी हो कर पांच फुट की रह गयी है।
                          लेनदारों का दबाव बढ़ा तो एक दिन पिताजी ने गले में रस्सा डाल लिया। वो तो एक पड़ौसी ने एन वक्त पर देख लिया और अनहोनी होने से बच गयी। पिताजी देश के दूसरे किसानो से ज्यादा भाग्यशाली निकले। भाई साब को पता चला तो बहुत चिल्लाये। उन्होंने कहा की ये तो कायरता की हद है। भाई साब ने इस बात पर भी शक जाहिर किया की पिताजी ने लेनदारों से परेशान होकर आत्महत्या की कोशिश की थी। उन्होंने कहा की जरूर अम्मा से झगड़ा हुआ होगा।
                           अब भाई साब की प्रतिमा केवल दो फुट की रह गयी थी। भाई साब हररोज बड़े लड़के की नौकरी तुरंत लगने की बात कर रहे थे लेकिन कुछ हो नही रहा था। अब भाई साब से इस पर पूछा जाता तो वो चिल्ला कर जवाब देने लगे। अब वो अपने कामो के बारे में जवाब नही देते थे। जब भी उनसे कोई सवाल पूछा जाता तो वो उसके उत्तर में कहते की पिताजी ने क्या कर लिया था। आहिस्ता आहिस्ता घर वालों ने उनसे पूछना बंद कर दिया। एक दिन घर वाले अंदर बैठ कर हालात पर विचार कर रहे थे की बहन का सात साल का लड़का दौड़ता हुआ घर में घुसा और अम्मा से बोला नानी-नानी मैं इस गुड्डे से खेल लूँ ? घर वालों ने देखा कि उसके हाथ में भाई साब की प्रतिमा थी जो छोटी होकर छः इंच की रह गयी थी।
 

Saturday, August 15, 2015

Vyang -- लोकतन्त्र बचाने के लिए " शट अप इंडिया " कार्यक्रम

गप्पी -- शोर मच रहा है की भारत का लोकतन्त्र खतरे में है। पहले भी एक बार ये शोर मचा था 1975 में। उसके बाद रह रह कर आवाजें आती रहती हैं की लोकतंत्र खतरे में है। लेकिन इस बार सचमुच खतरे में है। कारण ये है की जब सत्ता पक्ष चिल्लाना शुरू कर दे की लोकतंत्र खतरे में है तो लोगों को समझ जाना चाहिए  लोकतंत्र सचमुच खतरे में है।
               मेरे पड़ौसी कह रहे थे की भाई पुरानी कहावत है की जब चोर का पीछा करती हुई भीड़ चोर-चोर चिल्लाती हुई भाग रही हो तो चालक चोर खुद भी चिल्लाना शुरू कर देता है चोर-चोर। इससे क्या होता है की रस्ते में मिलने वाले लोग उसे भी पकड़ने वालों में मान लेते हैं। और सरकार वही कर रही है। सरकार के कामों पर जब देश ये चिल्लाना शुरू करता है की लोकतंत्र खतरे में है तो चालक सरकार भी चिल्लाना शुरू कर देती है की लोकतंत्र खतरे में है। इससे लोगों को ये अंदेशा तो होता है की लोकतंत्र को खतरा है पर वो ये नही समझ पाते की खतरा किससे है।
                 लोकतंत्र में दो पक्ष होते हैं , एक सत्ता पक्ष और दूसरा विपक्ष। जहां लोकतंत्र नही होता वहां भी दो पक्ष होते हैं एक राज करने वाला और दूसरा आम जनता। जो सत्ता पक्ष होता है जाहिर है की सारे अधिकार और काम करने की जिम्मेदारी उसी की होती है। जो विपक्ष होता है उसका काम सरकार के कामों पर निगाह रखना और अगर कोई काम सही नही लगे तो उसका विरोध करना होता है। जब सरकार विपक्ष के विरोध को नजरअंदाज करके काम करना शुरू करती है और बातचीत की प्रकिर्या को एकतरफा बना देती है तो विपक्ष चिल्लाता है की लोकतंत्र खतरे में है।
                    लेकिन ज्यादा गंभीर मामला तब होता है जब सरकार खुद ये चिल्लाना शुरू कर देती है की लोकतंत्र खतरे में है। इसका मतलब होता है शट -अप। सरकार विपक्ष को और विरोध करने वाले लोगों को कहती है शट-अप। यानि अगर तुम्हे बोलना है तो केवल समर्थन में बोलो वरना चुप रहो। जब सरकार विपक्ष के खिलाफ प्रदर्शन करती है तो उसका मतलब भी शट-अप होता है। जब सरकार विपक्ष को और विरोध करने वाले लोगों को शट-अप कहना शुरू कर दे तब मान लेना चाहिए की लोकतंत्र सचमुच खतरे में है। जब सरकार विपक्ष पर राज्य सभा में बहुमत के प्रयोग को दुरूपयोग का आरोप लगाती है और धमकी देती है की वो सयुंक्त सत्र बुला कर बिल पास करवा लेगी तो ये तो निश्चित रूप से बहुमत का दुरूपयोग है।
                   हमारे प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के भाषण में देश के लिए दो प्रोग्रामो की घोषणा की, एक  "स्टार्ट-अप इंडिया " और एक "स्टैंड-अप इंडिया " . उससे पहले दिन उन्होंने NDA की मीटिंग में एक और प्रोग्राम की घोषणा की "शट-अप इंडिया " . जब प्रधानमंत्री विपक्ष के साथ मीटिंग करके मामलों का हल निकालने की बजाय, विपक्ष के सवालों का उत्तर दिए बिना, संसद में ना आकर सरकारी पक्ष को ये आदेश देते हैं की पुरे देश में जाकर लोगों से कहो की वो विपक्ष को चुप रहने के लिए कहे वरना देश के  "उद्योगपतियों " का विकास नही होगा तो हमे सचमुच मान लेना चाहिए की लोकतंत्र खतरे में है।
                   अब NDA और बीजेपी के सारे लोग विपक्ष के लोगों के संसदीय क्षेत्र में जाकर लोगों से कहेंगे, बेवकूफो, तुमने ये संसद में किसको भेज दिया। जिसको ये भी मालूम नही की विपक्ष का काम सरकार का समर्थन करना होता है। तुम लोगों में इतनी भी अक्ल नही है। चलो, अब अपने सांसद को बोलो की वो जुबान बंद रखे वरना लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। उसके बाद लोग उस सांसद से जाकर कहेंगे की भैया काहे ऐसा कर रहे हो ? लोकतंत्र को खतरे में काहे डाल रहे हो। ऐसा करो की या तो संसद में ही मत जाओ या मुंह पर पट्टी बांध कर जाओ। लोकतंत्र की रक्षा के लिए ये जरूरी है की विपक्ष संसद में मुंह पर पट्टी बांध कर बैठे।

लोक सभा द्वारा पास किया गया GST बिल की पूरी कॉपी

अगर आप लोकसभा द्वारा पास किये गए GST बिल की पूरी कॉपी देखना, पढ़ना या प्राप्त करना चाहते हैं तो आप निचे दिए गए लिंक से प्राप्त कर सकते हैं। ये कॉपी पीडीएफ प्रारूप में है

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Friday, August 14, 2015

Vyang -- संसद की कार्यवाही कैसी होनी चाहिए ?

गप्पी -- हमारे देश में इस समय एक बड़ी बहस चल रही है। ये बहस है संसद की कार्यवाही को लेकर। इस बहस में पूरा देश शामिल है। जिस आदमी को ये नही मालूम की सोसायटी में रस्ते पर कूड़ा नही डालना चाहिए वो भी इस पर सुझाव दे रहा है की संसद की कार्यवाही कैसी होनी चाहिए। वो लोग जिन्हे ये नही समझ में आता की बाइक पर हेलमेट लगाना क्यों जरूरी है बता रहे हैं की देश की बहुत बदनामी हो गयी। हालत हास्यास्पद हो गयी है। मैं एक ट्रैन में जा रहा था जिसमे पंद्रह-बीस नौजवान भी यात्रा कर रहे थे। सबके सब पीछे कमर पर बैग लटकाये हुए थे और मोबाईल पर गेम खेल रहे थे। लेकिन सबके सब संसद की कार्यवाही ना चलने पर दुखी भी थे और गुस्से में भी थे। वो पुरे विपक्ष को कोस रहे थे। कार्पोरेट मीडिया का तिलस्मी प्रभाव पूरे जोर पर था। बहस बहुत देर चलती रही। अचानक एक जवान ने कहा " यार ये जो राज्य सभा है ये कौनसे राज्य की है। सारी  प्रॉब्लम तो इसी में है। "
         " पता नही यार। रोज तो एक राज्य बनता है। परन्तु मेरे ख्याल से तेलंगाना की होगी, वो ही बना है लास्ट में। " दूसरे ने कहा
        " लेकिन कुछ भी हो, मैं तो कहता हूँ की ये होनी ही नही चाहिए। " दूसरे ने कहा।
        " मैं तो कहता हूँ की ऐसा कानून बना देना चाहिए की कम से कम बीस बिल तो पास करना जरूरी होगा। वरना किसी भी सांसद को कोई वेतन नही मिलेगा। " दूसरे ने जोर देकर कहा।
         " बिलकुल सही बात है। काम नही तो वेतन नही। " लगभग सभी सहमत थे।
         " मैं बताता हूँ इसका परमानेंट इलाज। संसद में ठेका सिस्टम लागु कर देना चाहिए। एक बिल पास करने का दस हजार। वरना कोई पैसा नही। फिर देखो कैसे पास नही होते बिल। " एक नौजवान ने अतिरिक्त उत्साह से कहा। बाकि सबने इस पर तालियाँ बजाई।
           हमारे देश का भविष्य लोकतंत्र को ठेके पर देने पर विचार कर रहा था।
          मैं ट्रेन से उतर कर आगे गया तो रस्ते में एक मिल के खण्डहर आते हैं। ये मिल सालों पहले बंद हो चुकी है यहां शहर के कुछ आवारा लड़के जुआ इत्यादि खेलते हैं। आज वो सब बैठे हुए थे। खेल नही रहे थे। मैं वहां से गुजरा तो उनमे से एक ने मुझे आवाज दी। मैं रुका।
          " अंकल ये संसद क्यों नही चल रही ? इस तरह तो देश का सत्यानाश हो जायेगा। " एक लड़के ने कहा।
          मैं आश्वस्त हो गया भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के प्रति। अब कोई खतरा नही है। पहले हम इस लोकतंत्र की रक्षा की उम्मीद छात्रों, बुद्धिजीवियों, मजदूरों , किसानो और जनसंगठनों से करते थे। अब इसकी जिम्मेदारी जुआरियों ने उठा ली है।
             घर आया तो टीवी पर खबर चल रही थी की देश के उद्योगपतियों ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर सांसदों से संसद की कार्यवाही चलने देने की मांग की है। मैं पुछना चाहता था की क्या इनमे वो उद्योगपति भी शामिल हैं जो बैंको का चार लाख करोड़ रुपया खा कर बैठे हैं। या वो उद्योगपति जो उन पर बकाया लाखों करोड़ रुपया टैक्स बाप का माल समझ कर हड़प कर गए।  वो भी शामिल हैं क्या, जो लोग देश के बैंको को फेल होने के कगार पर पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं। उनको  देशभक्ति का दौरा पड़ा है।
            आगे खबर आई की मशहूर रेल इंजीनियर श्रीधरन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका देर करके मांग की है की उच्चतम न्यायालय संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए हस्तक्षेप करे। मुझे लगा की श्रीधरन संसद और मेट्रो रेल में फर्क नही कर पा रहे हैं। उन्हें पहले भरतीय रेल को सुचारू रूप से चलाने पर ध्यान देना चाहिए और संसद को सांसदों के भरोसे छोड़ देना चाहिए।
              मुझे लगा की देश का कॉर्पोरेट मीडिया और उसके विशेषज्ञ जैसी कार्यवाही चाहते हैं वो इस तरह की होगी।
                सदन के अध्यक्ष सदन में प्रवेश करते हैं। सभी सांसद खड़े हो जाते हैं। अध्यक्ष बैठ जाते हैं तो सभी बैठ जाते हैं। अध्यक्ष पिछले दिन हुई दुर्घटना के मृतकों को श्रद्धांजलि का प्रस्ताव पढ़ते हैं फिर पूरा सदन खड़े होकर मौन धारण करता है। उसके बाद विपक्ष के चार पांच सदस्य खड़े होकर कहते हैं की उन्होंने कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया है। अध्यक्ष कहते हैं की उन्हें नोटिस मिले हैं लेकिन वो उनको ख़ारिज करते हैं। विपक्ष के सदस्य अध्यक्ष का धन्यवाद करके वापिस बैठ जाते हैं। फिर संसदीय कार्य मंत्री खड़े होकर कहते हैं की सरकार का विचार है की कई दिन से विपक्ष के सदस्यों को बोलने का मौका नही दिया गया इसलिए आज का प्रस्ताव मान लिया जाये।
               अध्यक्ष प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं।
                विपक्ष के नेता कहते हैं की अख़बारों में खबर छपी है की सरकार द्वारा विदेशी कम्पनी को दिए गए ठेके में भृष्टाचार हुआ है। और उसमे सत्ताधारी पार्टी के एक राज्य के मुख्यमंत्री का बेटा और वित्तमंत्री की बेटी दोनों शामिल हैं।
                  अध्यक्ष कहते हैं की अख़बार में छपी खबर के हिसाब से आरोप नही लगाये जा सकते।
                  विपक्ष के नेता माफ़ी मांगते हैं और कहते हैं की अगर जाँच हो जाये तो क्या हर्ज है ?
                  अध्यक्ष कहते हैं की सदन में किसी मुख्यमंत्री का नाम नही लिया जा सकता।
                  विपक्ष के नेता फिर माफ़ी मांगते हैं और कहते हैं की वित्तमंत्री की बेटी उसी कम्पनी में काम करती है जिस कम्पनी को ठेका दिया गया है।
                  वित्त मंत्री खड़े होकर कहते हैं की जिन लोगों ने ठेके के कागज पर दस्तखत किये हैं उनमे उनकी बेटी शामिल नही है इसलिए सरकार सारे आरोपों को ख़ारिज करती है। सत्तापक्ष के लोग जोर जोर से मेज थपथपाते हैं। सरकार जाँच करवाने के लिए भी तैयार है लेकिन विपक्ष उसके लिए वो सारे सबूत लेकर आये। अगर विपक्ष सबूत लेकर आता है तो सरकार उन सबूतों की जाँच करवाने के लिए तैयार है। चर्चा समाप्त हो जाती है।
                    उसके बाद सरकार ताजमहल को बेचने का बिल पेश करती है
                    विपक्ष के लोग कहते हैं की ताजमहल नही बेचा जा सकता।
                    मंत्री कहते हैं की सरकार कुछ भी कर सकती है। और कि तुम चुनाव हार गए हो इसलिए तुम्हे बोलने का कोई अधिकार नही है।
                      बिल पास हो जाता है।
 कॉर्पोरेट मीडिया खबर देता है की आज सदन में 105 % काम हुआ। और जो खर्च संसद पर हुआ उसका पूरा उपयोग हुआ।
                           पूरा देश इस पर संतोष व्यक्त करता है।

Wednesday, August 12, 2015

Vyang -- अल्बर्ट पिन्टो को रोना क्यों आता है ?

गप्पी -- अब अल्बर्ट पिन्टो को गुस्सा नही आता , रोना आता है। बेचारगी में किसी को गुस्सा नही आता रोना ही आता है। अल्बर्ट पिन्टो 30 साल का नौजवान है। उसने बी-टेक किया है कम्प्यूटर साइंस में। कभी उसे इस बात का गर्व होता था अब मलाल होता है। आदमी को जिंदगी में बहुत सी चीजों पर मलाल होता है। परन्तु दिक्क्त ये है की जब तक उसे पता चलता है की अमुक चीज पर उसे मलाल होने वाला है और कुछ होने का समय ही नही होता। जब उसे बी-टेक पर मलाल होने का पता लगा, वो बी-टेक कर चूका था। और बी-टेक करने के जुर्माने के रूप में एक लाख का कर्जा भी हो चुका था। उसने बहुत दिन इंतजार किया की ये मलाल मिट जाये, यानि उसे कोई नौकरी मिल जाये परन्तु इस देश के बहुमत के नौजवानो की तरह उसका मलाल मिट नही पाया। दो तीन साल गुजर जाने के बाद पता चला की अब तो कर्जे का ब्याज चुकाने के लिए भी कुछ नही बचा है तो उसने कॉल सेंटर में नौकरी कर ली। 10000 की फिक्स पगार। कुल मिलाकर 120  लोग। जिंदगी मलाल के साथ साथ आगे बढ़ने लगी।
                         कुछ दिन पहले ही ये खबर आई की सरकार श्रम कानूनो में सुधार कर रही है। उसे आशा बंधी, अब कुछ होगा। ये सरकार और प्रधानमंत्री उसके और उस जैसे नौजवानो के लिए कुछ जरूर करेंगे। उन्होंने वादा किया था। और चाहे कुछ भी हो ये "आदमी" अपने वादे का पक्का है। उसने भी चुनाव के दौरान रैलियों में उसके लिए नारे लगाये थे। सोशल मीडिया पर विपक्षियों को गलियां दी थी। अब जाकर उसका दिन आया है। अब सरकार श्रम कानूनो में सुधार करने जा रही है। सरकार का कहना है की इससे रोजगार बढ़ेगा। मजदूरों की कमाई बढ़ेगी। उसे उम्मीद है।
                        लेकिन ये क्या हो रहा है। उसके कॉल सेंटर के मालिक भी खुश हैं और इसका समर्थन कर रहे हैं। उनको तो घबराना चाहिए। लेकिन वो तो मांग कर रहे हैं की इसे जल्दी लागु किया जाये। विपक्ष की पार्टियां और मजदूरों के संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उसे कुछ समझ में नही आ रहा है। सब कुछ उलझा उलझा लग रहा है।
                        आज प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर टीवी में कुछ कहने वाले हैं। बिलकुल "मन की बात" की तरह। टीवी पर आने वाले कार्यक्रम से आधा घंटा पहले ही वह सोफे पर बैठ गया है। घर वाले सीरियल देखना चाहते हैं लेकिन वो सबको डांट देता है। सही समय पर प्रधानमंत्री टीवी पर रूबरू होते हैं। मित्रो, हम इस देश में अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे कुछ श्रम कानूनो में बदलाव करना चाहते हैं। हम चाहते हैं की इस देश में श्रम के बाजार में बढ़ौतरी हो। सब नौजवानो को काम मिले जिससे वो अपने और अपने माँ-बाप के सपनो को पूरा कर सकें। हम ओवर टाइम के कानूनो में बदलाव करना चाहते हैं। दुगना ओवर-टाइम की शर्त गलत शर्त है। क्या किसी मजदूर को इसका हक नही है की वो अपने मालिक के सामने खड़ा होकर अपनी मजदूरी तय कर सके। मैं कहता हूँ की उसको इसका पूरा हक है। क्या उसे हक नही है की वो ये कह सके की वो कितनी देर तक ओवर-टाइम करना चाहता है। मैं कहता हूँ की पूरा हक है। हर मजदूर, हर नौजवान को इस बात का हक है की नही की वो मालिक की आँखों में आँखे डालकर कह सके की वो इतनी देर ओवर-टाइम करेगा और उसके लिए इतनी मजदूरी लेगा। अगर वो नौकरी छोड़ना चाहता है तो उसे इसका पूरा हक है। वो किसी का बंधुआ मजदूर नही है। फिर उस पर एक महीने के नोटिस का प्रतिबंध क्यों है। हम इस प्रतिबंध को समाप्त कर रहे हैं। ये कानून पास होने के बाद हर नौजवान गर्व से अपने नौकरी दाताओं को कह सकेगा की उसे क्या चाहिए।
            उसे शरीर में झुरझुरी महसूस हुई। उसे एक नए माहौल का अहसास हुआ। आत्म सम्मान के अतिरेक में उसे रात को देर से नींद आई।
             टीवी पर संसद का सीधा प्रसारण हो रहा था। सरकार बिल पेश करने की कोशिश कर रही थी। परन्तु विपक्ष उसे हंगामा करके रोक रहा था। उसके मन में जितनी गलियां याद थी वो सारी की सारी विपक्ष को दे चूका था। आखिर सरकार बिल को पेश करने और बिना बहस के पास कराने में कामयाब हो गयी। उसने चैन की साँस ली। एक अजीब सा संतोष उसके चेहरे पर झलक रहा था।
             अगले दिन ड्यूटी के दौरान उसका आत्म विश्वास बढ़ा हुआ था। शाम को ड्यूटी खत्म होने के समय उसे मैनेजर के कार्यालय में बुलाया गया। वहां बाकि के 25-30 लोग भी मौजूद थे। मैनेजर ने कहा की कल से ड्यूटी 12 घंटे की होगी। और ओवर-टाइम भी सिंगल रेट से दिया जायेगा।
                  उसने आगे बढ़कर कहा की पहले दुगना ओवर-टाइम मिलता था। हम तो अब उस पर भी काम करने को तैयार नही हैं। आपको हमारे साथ बात करके रेट तय करना होगा। मैनेजर और उसके साथ बैठे दो-तीन लोग जोर से हँसे। " लगता है भाषण सुन कर आया है समझ कर नही। "
                     " ठीक है, अब दुगने ओवर-टाइम का कानून तो है नही। अब हम सिंगल से ज्यादा नही देंगे। जिसको मंजूर नही हो वो कैश काउन्टर पर जाकर अपना हिसाब ले ले। "
                       आप इस तरह बिना नोटिस दिए अचानक कैसे नौकरी से निकाल सकते हो। उसने अधिकार से कहा।
                        " तुम्हे मालूम नही की एक महीने का नोटिस पीरियड खत्म कर दिया गया है। " मैनेजर ने मुस्कुराते हुए कहा।
                       वह बाहर निकल आया। उसे प्रधानमंत्री का भाषण याद आ रहा था, " क्या किसी नौजवान को हक नही की -----------" और उसे रोना आ गया।