8 नवम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबन्दी की घोषणा करते हुए इसके चार उद्देश्य बताये थे। उसके बाद हर दिन गुजरने के साथ उन्हें और उनकी सरकार को ये अहसास होने लगा की इन उद्देश्यों में से कोई भी पूरा नही होने जा रहा है। इसके बाद हर रोज वो और उनकी पार्टी इस पर अपना स्टैंड बदलने लगी। इसी क्रम में भृष्टाचार और कालेधन से होती हुई कैशलेस इंडिया की बातें करने लगी। लोगों को डिज़िटल लेनदेन करने के लिए मजबूर करने के तमाम उपाय किये गए। और कैशलेस होने का सबसे बड़ा फायदा ये बताया गया की एक तो इससे टैक्स चोरी रुकेगी, दूसरा बैंको के पास बड़ी मात्रा में कैश उपलब्ध होने के कारण लोगों को सस्ता कर्ज मिलेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी। सरकार के सारे मंत्री लोगों को सस्ते कर्ज के फायदे गिनवाने लगे। नोटबन्दी की विफलता को छुपाने की ये सरकार की आखिरी कोशिश थी। लेकिन पिछले तीन दिन में ये कोशिश भी दम तोड़ गयी।
रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने मुद्रा पालिसी पर विचार करते हुए ये कह कर ब्याज दर घटाने से इंकार कर दिया की खुदरा महंगाई दर अपनी जगह चिपकी हुई है और कच्चे तेल और धातुओं के मूल्य में होने वाली बढ़ोतरी और रूपये की घटती हुई कीमत के कारण इसके बढ़ने का खतरा मौजूद है। इसलिए रेपो रेट में कोई भी बदलाव सम्भव नही है। इसके साथ की रिजर्व बैंक ने ब्याज दर कम होने के सायकिल के समाप्त होने की घोषणा करके भविष्य में ब्याज कम होने की सम्भावना पर भी पूर्णविराम लगा दिया। RBI के निर्णय की घोषणा होते ही सभी बैंको के अध्यक्षों घोषणा कर दी की और ब्याज कम करने के लिए अब बैंकों के पास कोई जगह ( रूम ) नही है। यानि ब्याज कम होने का आखरी बहाना भी समाप्त हो गया। अब सरकार के पास नोटबन्दी से हासिल फायदा गिनाने के लिए कुछ नही बचा है। नोटबन्दी का फैसला एक आपराधिक और गैरजिम्मेदाराना फैसला था जिसने देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर और स्थाई नुकशान पहुंचाया है।
आज बजट पर चर्चा के दौरान राज्य सभा में बोलते हुए पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने जिस तरह आंकड़ों के साथ सरकार के इस निर्णय की आलोचना की, उसका कोई भी जवाब बीजेपी के पास नही था। उसके नेता केवल कांग्रेस के 44 सीटों पर आ जाने जैसे घिसेपिटे जुमले ही दोहराते रहे। उन्होंने चिदम्बरम की एक भी बात का जवाब नही दिया।
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