केजरीवाल की सरकार आने के बाद दिल्ली में भृष्टाचार में कमी आयी है ये बात तो उसके दुश्मन भी स्वीकार करते हैं। यहां तक की अभी अभी आये ताजा आंकड़े जो एक तरफ केंद्र में भृष्टाचार की शिकायतों में बढ़ोतरी दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ दिल्ली में इन शिकायतों में तीन चौथाई की कमी दिखा रहे हैं। उसके बावजूद दिल्ली विधानसभा के उपचुनाव में AAP की इतनी बुरी हार हुई।
उसके बाद मेरी दिल्ली के कई लोगों से बात हुई। उनमे से कई लोग पहले केजरीवाल के साथ थे और अब उनसे बहुत नाराज हैं। जब उनकी नाराजगी के कारण जानने की कोशिश की तो बहुत ही अजीब सी बात सामने आयी। हर आदमी ने कहा की केजरीवाल ने अपने वायदे पुरे नहीं किये। जब उनसे पूछा गया की कोनसा वायदा, तो वो केवल फ्री वाई फाई के अलावा कुछ नहीं बता पाए। मैंने जब उनसे सरकारी स्कूलों पर किये गए कामो के बारे में पूछा तो उनमे से कईयों का जवाब था, हाँ काम हुआ है और बहुत काम हुआ है, लेकिन हमे क्या फायदा? हम तो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते नहीं। जब मैंने मोहल्ला क्लिनिक इत्यादि के बारे में पूछा तो भी उनका वही जवाब था, हाँ काम हुआ है लेकिन हम तो कभी इनमे जाते नहीं। मैं हैरान था। अजीब तर्क हैं। मैंने उनसे भृष्टाचार के बारे में पूछा तो उन्होंने जो बताया वो इस प्रकार है ," हाँ भृष्टाचार कम हो गया है। और इसकी वजह से परेशानी बढ़ गयी है। कोई अधिकारी न पैसे लेने को तैयार है और न पहले काम करने को तैयार है। अब लाइन में लगने की फुरसत किसके पास है ? पहले पैसे देते थे और काम हो जाता था। "
लेकिन केजरीवाल तो भृष्टाचार के मुद्दे को ही लेकर आया था। तब तुमने उसका समर्थन क्यों किया था ? मैंने पूछा तो उनका जवाब था की हमे थोड़ा न पता था की इस तरह का झंझट खड़ा हो जायेगा।
अब मुझे लगता है की भृष्टाचार का कम होना ही केजरीवाल की हार का कारण बन जायेगा। केजरीवाल के पास कोई भावनात्मक मुद्दा तो है नहीं। और अपनी वर्गीय खासियत के कारण मध्यम वर्ग एक नंबर का अवसरवादी होता है। उसे न तो पूर्णराज्य के दर्जे से कुछ लेना देना है और न ही गरीब लोगों के लिए किये कार्यों से कुछ लेना देना है। उसे केवल इस बात से मतलब है की उसकी जेब में क्या आ रहा है। या फिर वो चालाक खिलाडियों के भावनात्मक मुद्दों के साथ चल सकता है। ये दोनों चीजें न तो केजरीवाल के पास हैं और न कम्युनिस्टों के पास, इसलिए दोनों हार गए।
उसके बाद मेरी दिल्ली के कई लोगों से बात हुई। उनमे से कई लोग पहले केजरीवाल के साथ थे और अब उनसे बहुत नाराज हैं। जब उनकी नाराजगी के कारण जानने की कोशिश की तो बहुत ही अजीब सी बात सामने आयी। हर आदमी ने कहा की केजरीवाल ने अपने वायदे पुरे नहीं किये। जब उनसे पूछा गया की कोनसा वायदा, तो वो केवल फ्री वाई फाई के अलावा कुछ नहीं बता पाए। मैंने जब उनसे सरकारी स्कूलों पर किये गए कामो के बारे में पूछा तो उनमे से कईयों का जवाब था, हाँ काम हुआ है और बहुत काम हुआ है, लेकिन हमे क्या फायदा? हम तो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते नहीं। जब मैंने मोहल्ला क्लिनिक इत्यादि के बारे में पूछा तो भी उनका वही जवाब था, हाँ काम हुआ है लेकिन हम तो कभी इनमे जाते नहीं। मैं हैरान था। अजीब तर्क हैं। मैंने उनसे भृष्टाचार के बारे में पूछा तो उन्होंने जो बताया वो इस प्रकार है ," हाँ भृष्टाचार कम हो गया है। और इसकी वजह से परेशानी बढ़ गयी है। कोई अधिकारी न पैसे लेने को तैयार है और न पहले काम करने को तैयार है। अब लाइन में लगने की फुरसत किसके पास है ? पहले पैसे देते थे और काम हो जाता था। "
लेकिन केजरीवाल तो भृष्टाचार के मुद्दे को ही लेकर आया था। तब तुमने उसका समर्थन क्यों किया था ? मैंने पूछा तो उनका जवाब था की हमे थोड़ा न पता था की इस तरह का झंझट खड़ा हो जायेगा।
अब मुझे लगता है की भृष्टाचार का कम होना ही केजरीवाल की हार का कारण बन जायेगा। केजरीवाल के पास कोई भावनात्मक मुद्दा तो है नहीं। और अपनी वर्गीय खासियत के कारण मध्यम वर्ग एक नंबर का अवसरवादी होता है। उसे न तो पूर्णराज्य के दर्जे से कुछ लेना देना है और न ही गरीब लोगों के लिए किये कार्यों से कुछ लेना देना है। उसे केवल इस बात से मतलब है की उसकी जेब में क्या आ रहा है। या फिर वो चालाक खिलाडियों के भावनात्मक मुद्दों के साथ चल सकता है। ये दोनों चीजें न तो केजरीवाल के पास हैं और न कम्युनिस्टों के पास, इसलिए दोनों हार गए।
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