गौ रक्षकों द्वारा लगातार की जा रही हिंसा और उसमे कई जान चले जाने के महीनो बाद प्रधानमंत्री ने हिंसा की आलोचना करने वाला बयान जारी किया। उससे पहले लगातार हो रही हिंसा पर पूरा देश उन्हें मुंह खोलने के लिए कहता रहा, लेकिन उनके मुंह से इसके खिलाफ एक शब्द नहीं निकला। इससे हिंसा करने वाले गौ रक्षकों में इस बात का स्पष्ट संकेत गया की सरकार की मंशा क्या है। प्रधानमंत्री का ये बयान संसद का सत्र शुरू होने के एक दिन पहले और सुप्रीम कोर्ट में इस पर होने वाली सुनवाई से तीन दिन पहले आया। जानकारों का स्पष्ट मानना है की ये संसद में विपक्ष के हमले से बचने और सुप्रीम कोर्ट में किसी सख्त टिप्पणी से बचने की कवायद भर है। वरना क्या कारण था की सुदूर साइबेरिया में होने वाली दुर्घटना में अगर कोई मौत हो जाती है तो हमारे प्रधानमंत्री का ट्वीट वहां के प्रधानमंत्री के बयान से भी पहले आ जाता है। इसलिए लोग मानते हैं की गौ रक्षकों की हिंसा को बीजेपी, आरएसएस और सरकार का समर्थन प्राप्त है।
प्रधानमंत्री ने जब गौ रक्षकों की हिंसा की आलोचना करने वाला बयान दिया तो वो भी एकदम सीधा और स्पष्ट होने की बजाय किन्तु और परन्तु वाला बयान है। इसमें उन्होंने देश की बहुसंख्या द्वारा गाय को माता मानने जैसे शब्दों को शामिल कर दिया जो गौ रक्षकों को इस बयान की गंभीरता की असलियत बता देते हैं। और यही कारण है की उसके बाद भी गौ रक्षकों की हिंसा कम नहीं हुई।
इस मामले में सरकार और संघ परिवार की मंशा एकदम साफ है। एक तरफ सरकार गौ रक्षकों की हिंसा रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालती है और दूसरी तरफ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले पशु व्यापार पर केंद्र की तरफ से नोटिफिकेशन जारी करती है। वहीं खुद उनकी पार्टी की राज्य सरकारें सारे सबूतों को अनदेखा करके हिंसा करने वाले गौ रक्षकों पर केस दर्ज करने की बजाय पीड़ितों पर की केस दायर करती हैं।
इसके साथ ही उस घटनाक्रम को भी देखना होगा जिसमे गुजरात चुनावों में इस बार बीजेपी की पतली हालत को देखते हुए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए " आलिया, मालिया, जमालिया " जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। लगभग सभी मोर्चों पर विफल बीजेपी सरकार अब लोगों के सवालों का जवाब देने की पोजीशन में नहीं है। इसलिए उसे अब केवल साम्प्रदायिक विभाजन का ही सहारा है। उसका विकास और भृष्टाचार विरोध का नकली प्रभामंडल ध्वस्त हो चूका है। इसलिए अब उसे इस विभाजन की जरूरत पहले किसी भी समय से ज्यादा है। इसलिए उसके हर कार्यक्रम और बयान में साम्प्रदायिक रुझान साफ नजर आता है। अब तो ये इतना स्पष्ट है की दूर विदेशों में बैठे लोगों को भी साफ साफ दिखाई दे रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट से लेकर दा इण्डिपेंडन्ट जैसे अख़बारों में छपने वाले लेख इसके गवाह हैं।
इसलिए लोगों को प्रधानमंत्री और उसकी ही तर्ज पर संसद में दिए गए अरुण जेटली के किन्तु परन्तु वाले बयानों पर भरोसा करने की बजाय साम्प्रदायिक विभाजन के विरोध की अपनी कोशिशों को और तेज करना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने जब गौ रक्षकों की हिंसा की आलोचना करने वाला बयान दिया तो वो भी एकदम सीधा और स्पष्ट होने की बजाय किन्तु और परन्तु वाला बयान है। इसमें उन्होंने देश की बहुसंख्या द्वारा गाय को माता मानने जैसे शब्दों को शामिल कर दिया जो गौ रक्षकों को इस बयान की गंभीरता की असलियत बता देते हैं। और यही कारण है की उसके बाद भी गौ रक्षकों की हिंसा कम नहीं हुई।
इस मामले में सरकार और संघ परिवार की मंशा एकदम साफ है। एक तरफ सरकार गौ रक्षकों की हिंसा रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालती है और दूसरी तरफ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले पशु व्यापार पर केंद्र की तरफ से नोटिफिकेशन जारी करती है। वहीं खुद उनकी पार्टी की राज्य सरकारें सारे सबूतों को अनदेखा करके हिंसा करने वाले गौ रक्षकों पर केस दर्ज करने की बजाय पीड़ितों पर की केस दायर करती हैं।
इसके साथ ही उस घटनाक्रम को भी देखना होगा जिसमे गुजरात चुनावों में इस बार बीजेपी की पतली हालत को देखते हुए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए " आलिया, मालिया, जमालिया " जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। लगभग सभी मोर्चों पर विफल बीजेपी सरकार अब लोगों के सवालों का जवाब देने की पोजीशन में नहीं है। इसलिए उसे अब केवल साम्प्रदायिक विभाजन का ही सहारा है। उसका विकास और भृष्टाचार विरोध का नकली प्रभामंडल ध्वस्त हो चूका है। इसलिए अब उसे इस विभाजन की जरूरत पहले किसी भी समय से ज्यादा है। इसलिए उसके हर कार्यक्रम और बयान में साम्प्रदायिक रुझान साफ नजर आता है। अब तो ये इतना स्पष्ट है की दूर विदेशों में बैठे लोगों को भी साफ साफ दिखाई दे रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट से लेकर दा इण्डिपेंडन्ट जैसे अख़बारों में छपने वाले लेख इसके गवाह हैं।
इसलिए लोगों को प्रधानमंत्री और उसकी ही तर्ज पर संसद में दिए गए अरुण जेटली के किन्तु परन्तु वाले बयानों पर भरोसा करने की बजाय साम्प्रदायिक विभाजन के विरोध की अपनी कोशिशों को और तेज करना चाहिए।
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