सरकार के नागरिकता कानून संशोधन बिल पास करने के बाद पुरे देश में लाखों लोग सड़कों पर हैं। इसके खिलाफ बड़े बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों की अगुवाई देश के जाने माने विश्व विद्यालयों के छात्र कर रहे हैं। उनके समर्थन में प्रोफेसर और दूसरा बुद्धिजीवी तबका भी जुड़ रहा है। देश के गणमान्य व्यक्तियों , जिनमे कलाकार और वैज्ञानिक शामिल हैं इस कानून का विरोध किया है। देश की कई राज्य सरकारों और राजनैतिक पार्टियों ने इसे वापिस लेने की मांग की है। इन पार्टियों में केंद्र सरकार में शामिल घटक दल भी शामिल हैं। इसके साथ ही इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में साथ से ज्यादा अर्जियां दाखिल हुई हैं। इसलिए केवल ये कह देना की इसका विरोध करने वाले देश द्रोही हैं या उनको कोई जानकारी नहीं है बहुत ही हास्यास्पद होगा।
इसका विरोध करने वालों का मुख्य रूप से ये कहना है की ये कानून चूँकि कुछ धर्मों को इसमें शामिल करता है और एक धर्म को छोड़ देता है इसलिए ये संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ है जिसमे स्पष्ट रूप से कहा गया है की धर्म और जाती के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसका विरोध करने वालों में दूसरा तबका वो है जो इसे असम समझौते के खिलाफ मानता है। इसके अलावा भी एक बड़ा तबका इसका विरोध ये कहकर कर रहा है की इस कानून का उद्देश्य वो है ही नहीं जो सरकार कह रही है। बल्कि इसका उद्देश्य देश में साम्प्रदायिक धुर्वीकरण पैदा करके हिन्दू राष्ट्र बनाने के संघ परिवार के एजेंडे को पूरा करना हैं।
इस पर सरकार का बहुत जोर देकर ये कहना है की इसका मकसद पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है और इस कानून के द्वारा केवल नागरिकता देने का प्रावधान है और इससे किसी की भी नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है। सरकार और बीजेपी का ये भी आरोप है की विपक्षी पार्टियां इस कानून की गलत व्याख्या करके लोगों को गुमराह कर रही हैं। इसलिए इस कानून पर दोनों तरफ के दावों की सही से पड़ताल करना जरुरी है।
सबसे पहले सरकार का ये दावा की ये कानून बिना किसी दूसरे उद्देश्य के पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है, प्रथम दृष्टि से सही नहीं लगता। क्योंकि अगर सरकार इस कानून में कुछ धर्मो का उल्लेख किये बिना ये कानून बनाती तो भी वो लोग जिनके बारे में सरकार दावा कर रही है तो इसमें शामिल ही होते। उनको तब भी इसके आधार पर नागरिकता दी जा सकती थी। उस पर किसको विवाद था। ऐसा तो है नहीं की इसके बाद वो बाहर हो जाते। इस पर सरकार का तर्क है की तब इन देशों से आने वाले घुसपैठिये इसका फायदा उठा सकते थे। ये तर्क तो और भी गलत है। क्योंकि कोई भी कानून किसी को उसके आधार पर आवेदन का अधिकार देता है अपने आप नागरिकता नहीं देता। अगर कोई व्यक्ति इसका दुरूपयोग करने की कोशिश भी करे तो भी उसको अदालत में अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है और सरकारी एजेंसियों के पास उसके विरोध का पर्याप्त अवसर होता है। इसलिए तब भी इसके दुरूपयोग की कोई संभावना नहीं थी।
सरकार का दूसरा तर्क ये है की इससे किसी की नागरिकता छीनी नहीं जा सकती। इस तर्क को थोड़ा घुमाकर पेश किया जा रहा है। इसका विरोध करने वालों का तर्क है की इसको NRC के साथ जोड़कर पहले से देश में रह रहे मुस्लिमो को संदेहास्पद करार दिया जा सकता है और चूँकि मुस्लिम इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं सो उन्हें नागरिकता देने से इंकार किया जा सकता है। पहले से रह रहे मुस्लिमों को संदेहास्पद करार देकर उन्हें नागरिकता विहीन कर देना ही नागरिकता छीनना है। जाहिर है की ये तर्क की ये कानून नागरिकता छीनने के लिए नहीं है अपने आप में गुमराह करने वाला है। इस पर सरकार का ये तर्क की अभी तो NRC का कोई जिक्र ही नहीं है। लेकिन इसका जिक्र तो सरकार खुद संसद के अंदर और बाहर कई बार कर चुकी है और असम में कर भी चुकी है जहाँ उससे बाहर रह गए 19 लाख लोगों में से 5 लाख मुस्लिम इससे सीधे प्रभावित होंगे। उसके बाद विरोध करने वाले लोग सरकार से ये मांग कर रहे हैं की अगर इसको NRC के साथ नहीं जोड़ा जायेगा और सरकार की मंशा साफ है तो सरकार संसद का सत्र बुलाकर स्पष्ट घोषणा करके इस भरम को समाप्त कर सकती हैं। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही।
इसलिए इसका विरोध करने वालों का ये तर्क प्रभावी हो जाता है की सरकार की मंशा इससे किसी को नागरिकता देने की होती तो वो तो वो तब भी दे सकती थी जब इसमें धर्मों के नाम का उल्लेख न हो , और सरकार की असल मंशा एक धरम के लोगों की बड़ी संख्या को संदेहास्पद घोषित करके उन्हें नागरिकता विहीन कर देने और देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक धुर्वीकरण करके हिन्दू राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ने की है।
इसका विरोध करने वालों का मुख्य रूप से ये कहना है की ये कानून चूँकि कुछ धर्मों को इसमें शामिल करता है और एक धर्म को छोड़ देता है इसलिए ये संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ है जिसमे स्पष्ट रूप से कहा गया है की धर्म और जाती के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसका विरोध करने वालों में दूसरा तबका वो है जो इसे असम समझौते के खिलाफ मानता है। इसके अलावा भी एक बड़ा तबका इसका विरोध ये कहकर कर रहा है की इस कानून का उद्देश्य वो है ही नहीं जो सरकार कह रही है। बल्कि इसका उद्देश्य देश में साम्प्रदायिक धुर्वीकरण पैदा करके हिन्दू राष्ट्र बनाने के संघ परिवार के एजेंडे को पूरा करना हैं।
इस पर सरकार का बहुत जोर देकर ये कहना है की इसका मकसद पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है और इस कानून के द्वारा केवल नागरिकता देने का प्रावधान है और इससे किसी की भी नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है। सरकार और बीजेपी का ये भी आरोप है की विपक्षी पार्टियां इस कानून की गलत व्याख्या करके लोगों को गुमराह कर रही हैं। इसलिए इस कानून पर दोनों तरफ के दावों की सही से पड़ताल करना जरुरी है।
सबसे पहले सरकार का ये दावा की ये कानून बिना किसी दूसरे उद्देश्य के पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है, प्रथम दृष्टि से सही नहीं लगता। क्योंकि अगर सरकार इस कानून में कुछ धर्मो का उल्लेख किये बिना ये कानून बनाती तो भी वो लोग जिनके बारे में सरकार दावा कर रही है तो इसमें शामिल ही होते। उनको तब भी इसके आधार पर नागरिकता दी जा सकती थी। उस पर किसको विवाद था। ऐसा तो है नहीं की इसके बाद वो बाहर हो जाते। इस पर सरकार का तर्क है की तब इन देशों से आने वाले घुसपैठिये इसका फायदा उठा सकते थे। ये तर्क तो और भी गलत है। क्योंकि कोई भी कानून किसी को उसके आधार पर आवेदन का अधिकार देता है अपने आप नागरिकता नहीं देता। अगर कोई व्यक्ति इसका दुरूपयोग करने की कोशिश भी करे तो भी उसको अदालत में अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है और सरकारी एजेंसियों के पास उसके विरोध का पर्याप्त अवसर होता है। इसलिए तब भी इसके दुरूपयोग की कोई संभावना नहीं थी।
सरकार का दूसरा तर्क ये है की इससे किसी की नागरिकता छीनी नहीं जा सकती। इस तर्क को थोड़ा घुमाकर पेश किया जा रहा है। इसका विरोध करने वालों का तर्क है की इसको NRC के साथ जोड़कर पहले से देश में रह रहे मुस्लिमो को संदेहास्पद करार दिया जा सकता है और चूँकि मुस्लिम इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं सो उन्हें नागरिकता देने से इंकार किया जा सकता है। पहले से रह रहे मुस्लिमों को संदेहास्पद करार देकर उन्हें नागरिकता विहीन कर देना ही नागरिकता छीनना है। जाहिर है की ये तर्क की ये कानून नागरिकता छीनने के लिए नहीं है अपने आप में गुमराह करने वाला है। इस पर सरकार का ये तर्क की अभी तो NRC का कोई जिक्र ही नहीं है। लेकिन इसका जिक्र तो सरकार खुद संसद के अंदर और बाहर कई बार कर चुकी है और असम में कर भी चुकी है जहाँ उससे बाहर रह गए 19 लाख लोगों में से 5 लाख मुस्लिम इससे सीधे प्रभावित होंगे। उसके बाद विरोध करने वाले लोग सरकार से ये मांग कर रहे हैं की अगर इसको NRC के साथ नहीं जोड़ा जायेगा और सरकार की मंशा साफ है तो सरकार संसद का सत्र बुलाकर स्पष्ट घोषणा करके इस भरम को समाप्त कर सकती हैं। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही।
इसलिए इसका विरोध करने वालों का ये तर्क प्रभावी हो जाता है की सरकार की मंशा इससे किसी को नागरिकता देने की होती तो वो तो वो तब भी दे सकती थी जब इसमें धर्मों के नाम का उल्लेख न हो , और सरकार की असल मंशा एक धरम के लोगों की बड़ी संख्या को संदेहास्पद घोषित करके उन्हें नागरिकता विहीन कर देने और देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक धुर्वीकरण करके हिन्दू राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ने की है।
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