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Friday, January 17, 2020

हिटलर युग के किस्से

 सरकार बदलने के बाद एक मशहूर लेखिका ने सरकार के समर्थन में लिखने का व्यवसाय चुना। जो भी कोई सरकार की आलोचना करता तो वह अपने लेख में उसको झिड़क देती। एक समय लोगों ने कहा की तानाशाही बढ़ रही है और असहिष्णुता का वातावरण है तो उसने ऐसा कहने वालों को जोरदार फटकार लगाई और मौजूदा निजाम को इतिहास का सबसे सहनशील और लोकतान्त्रिक निजाम बताया। इस लेखिका का एक बेटा विदेश में रहता था। एक दिन उसने इस निजाम पर एक सख्त टिप्पणी कर दी। निजाम ने तुरंत उसकी नागरिकता वापिस ले ली और उसे दुश्मन देश का नागरिक घोषित कर दिया। घबराई हुई लेखिका ने उन सब लोगों को फोन करके मदद मांगी जो रोज उसे फोन करके उसके लेखों पर बधाई देते थे और तारीफ करते थे। लेकिन किसी ने भी उसका फोन नहीं उठाया।
                    जब उसने इसका कारण पता किया तो मालूम हुआ की जिस तरह उसने इस निजाम के समर्थन में लिखने का व्यवसाय चुना था उसी तरह उन लोगों ने भी सरकार के समर्थन में लिखने वालों की तारीफ करने का व्यवसाय चुना था।
                        ये किस्सा आप हिटलर युग के किस्सों पर छपी हुई किताब के अगले संस्करण में पढ़ सकते हैं। 

Saturday, January 11, 2020

नागरिकता कानून CAA पर कौन गुमराह कर रहा है ?

 सरकार के नागरिकता कानून संशोधन बिल पास करने के बाद पुरे देश में लाखों लोग सड़कों पर हैं। इसके खिलाफ बड़े बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों की अगुवाई देश के जाने माने विश्व विद्यालयों के छात्र कर रहे हैं। उनके समर्थन में प्रोफेसर और दूसरा बुद्धिजीवी तबका भी जुड़ रहा है। देश के गणमान्य व्यक्तियों , जिनमे कलाकार और वैज्ञानिक शामिल हैं इस कानून का विरोध किया है। देश की कई राज्य सरकारों और राजनैतिक पार्टियों ने इसे वापिस लेने की मांग की है। इन पार्टियों में केंद्र सरकार में शामिल घटक दल भी शामिल हैं। इसके साथ ही इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में साथ से ज्यादा अर्जियां दाखिल हुई हैं। इसलिए केवल ये कह देना की इसका विरोध करने वाले देश द्रोही हैं या उनको कोई जानकारी नहीं है बहुत ही हास्यास्पद होगा।
                    इसका विरोध करने वालों का मुख्य रूप से ये कहना है की ये कानून चूँकि कुछ धर्मों को इसमें शामिल करता है और एक धर्म को छोड़ देता है इसलिए ये संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ है जिसमे स्पष्ट रूप से कहा गया है की धर्म और जाती के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसका विरोध करने वालों में दूसरा तबका वो है जो इसे असम समझौते के खिलाफ मानता है। इसके अलावा भी एक बड़ा तबका इसका विरोध ये कहकर कर रहा है की इस कानून का उद्देश्य वो है ही नहीं जो सरकार कह रही है। बल्कि इसका उद्देश्य देश में साम्प्रदायिक धुर्वीकरण पैदा करके हिन्दू राष्ट्र बनाने के संघ परिवार के एजेंडे को पूरा करना हैं।
                     इस पर सरकार का बहुत जोर देकर ये कहना है की इसका मकसद पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है और इस कानून के द्वारा केवल नागरिकता देने का प्रावधान है और इससे किसी की भी नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है। सरकार और बीजेपी का ये भी आरोप है की विपक्षी पार्टियां इस कानून की गलत व्याख्या करके लोगों को गुमराह कर रही हैं। इसलिए इस कानून पर दोनों तरफ के दावों की सही से पड़ताल करना जरुरी है।
                      सबसे पहले सरकार का ये दावा की ये कानून बिना किसी दूसरे उद्देश्य के पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर सताये जाने वाले लोगों को सरक्षण प्रदान करना है, प्रथम दृष्टि से सही नहीं लगता। क्योंकि अगर सरकार इस कानून में कुछ धर्मो का उल्लेख किये बिना ये कानून बनाती तो भी वो लोग जिनके बारे में सरकार दावा कर रही है तो इसमें शामिल ही होते। उनको तब भी इसके आधार पर नागरिकता दी जा सकती थी। उस पर किसको विवाद था। ऐसा तो है नहीं की इसके बाद वो बाहर हो जाते। इस पर सरकार का तर्क है की तब इन देशों से आने वाले घुसपैठिये इसका फायदा उठा सकते थे। ये तर्क तो और भी गलत है। क्योंकि कोई भी कानून किसी को उसके आधार पर आवेदन का अधिकार देता है अपने आप नागरिकता नहीं देता। अगर कोई व्यक्ति इसका दुरूपयोग करने की कोशिश भी करे तो भी उसको अदालत में अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है और सरकारी एजेंसियों के पास उसके विरोध का पर्याप्त अवसर होता है। इसलिए तब भी इसके दुरूपयोग की कोई संभावना नहीं थी।
                        सरकार का दूसरा तर्क ये है की इससे किसी की नागरिकता छीनी नहीं जा सकती। इस तर्क को थोड़ा घुमाकर पेश किया जा रहा है। इसका विरोध करने वालों का तर्क है की इसको NRC के साथ जोड़कर पहले से देश में रह रहे मुस्लिमो को संदेहास्पद करार दिया जा सकता है और चूँकि मुस्लिम इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं सो उन्हें नागरिकता देने से इंकार किया जा सकता है। पहले से रह रहे मुस्लिमों को संदेहास्पद करार देकर उन्हें नागरिकता विहीन कर देना ही नागरिकता छीनना है। जाहिर है की ये तर्क की ये कानून नागरिकता छीनने के लिए नहीं है अपने आप में गुमराह करने वाला है। इस पर सरकार का ये तर्क की अभी तो NRC का कोई जिक्र ही नहीं है। लेकिन इसका जिक्र तो सरकार खुद संसद के अंदर और बाहर कई बार कर चुकी है और असम में कर भी चुकी है जहाँ उससे बाहर रह गए 19 लाख लोगों में से 5 लाख मुस्लिम इससे सीधे प्रभावित होंगे। उसके बाद विरोध करने वाले लोग सरकार से ये मांग कर रहे हैं की अगर इसको NRC के साथ नहीं जोड़ा जायेगा और सरकार की मंशा साफ है तो सरकार संसद का सत्र बुलाकर स्पष्ट घोषणा करके इस भरम को समाप्त कर सकती हैं। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही।
                        इसलिए इसका विरोध करने वालों का ये तर्क प्रभावी हो जाता है की सरकार की मंशा इससे किसी को नागरिकता देने की होती तो वो तो वो तब भी दे सकती थी जब इसमें धर्मों के नाम का उल्लेख न हो , और सरकार की असल मंशा एक धरम के लोगों की बड़ी संख्या को संदेहास्पद घोषित करके उन्हें नागरिकता विहीन कर देने और देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक धुर्वीकरण करके हिन्दू राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ने की है। 

Sunday, October 25, 2015

OPINION -- " मन की बात " केवल " मीठे प्रवचन " बन गयी है।

             हर महीने की तरह आज भी प्रधानमंत्री की मन की बात हुई। देश के सामने पिछले एक महीने में कई जलते हुए सवाल सामने आकर खड़े हो गए हैं। पुरे देश से प्रधानमंत्री से इस पर बोलने और कुछ बातों की स्पष्टता करने की मांग जोर से उठ रही है। लेकिन इस बार फिर मन की बात केवल " मीठे प्रवचन " ही साबित हुई। मैं हैरान हूँ की देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को एक भी सवाल पर बोलने की जरूरत महसूस नही हुई। प्रधानमंत्री ने कहा की भारत- दक्षिणी अफ्रीका मैच दिलचस्प दौर में पहुंच गया है। सुन कर वितृष्णा सी हुई। क्या देश ये बात सुनने के लिए इंतजार कर रहा था। एक बात बिलकुल साफ हो गयी की मन की बात के लिए जो लोग भी भाषण लिखते हैं, उन्हें ये निर्देश दिए गए हैं की देश की किसी भी प्रमुख समस्या का जिक्र भाषण में नही होना चाहिए। प्रधानमंत्री जनता के किसी भी सवाल का जवाब देना ना तो जरूरी समझते हैं और ना ही उपयोगी।
                 इस बात का आरोप लगता रहा है की हमारे प्रधानमंत्री बोलने में बहुत कुशल हैं और इस कुशलता का वो भरपूर फायदा भी उठाते हैं। लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है की ये सारी कुशलता वहां तक ही सिमित है जहां किसी की सवाल का जवाब नही देना हो। अपने बोलने की आदत को लेकर प्रधानमंत्री ने कुछ नई परम्पराएँ भी स्थापित की हैं। जैसे अब तक ये परम्परा रही थी की कोई भी प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर घरेलू मतभेदों की बात नही करते थे। पिछली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को वर्तमान सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता था। क्योंकि विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया है और किसी भी विदेशी सरकार को इस बात से कोई मतलब नही होता की कब किस पार्टी की सरकार रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी विदेशी यात्राओं में पिछली सरकार को नालायक, अक्षम और भृष्ट साबित करने की पूरी कोशिश की। पहले ऐसा कभी नही हुआ। अब विदेश नीति के मामले पर भी पार्टीगत लाइन लेने की शुरुआत कर दी गयी जो देश हित में नही है। क्योंकि ऐसा तो हो नही सकता की प्रधानमंत्री विदेश में ये कहें की आप आईये और हमारे देश में निवेश कीजिये और अब तक जो भृष्टाचार हमारे देश में होता था उसे हम बंद कर रहे हैं और इसके जवाब में कांग्रेस या पिछली सरकारों में रहे लोग ये कहें की हाँ, प्रधानमंत्री बिलकुल सच कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ये कहें की हम पिछली सरकारों द्वारा की गयी गलतियों को सुधार रहे हैं और कांग्रेस ये कहे की हाँ, ये सरकार हमारी गलतियां सुधार रही है।
                    दूसरी जो चीज सामने आई है वो ये है की प्रधानमंत्री की ये सारी मुखरता तभी सामने आती है जब सामने कोई जवाब देने वाला नही होता। जब भी ऐसा मौका आया है की सामने दूसरे लोग भी मौजूद हैं जो आपकी बात का जवाब भी देंगे और सवाल भी खड़े करेंगे वहां प्रधानमंत्री कन्नी काट जाते हैं। इसके कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। पहला ये की डेढ़ साल की सरकार के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकार वार्ता आयोजित नही की। जबकि ये परम्परा रही है की प्रधानमंत्री समय समय पर देश के प्रमुख संपादकों के साथ बातचीत का आयोजन करते हैं, उनके सवालों के जवाब देते हैं और सरकार के फैसलों के ओचित्य साबित करते हैं। लेकिन ऐसा एक बार भी नही हुआ। दूसरा उदाहरण संसद का है। पूरा का पूरा सत्र बेकार हो गया लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के उठाये किसी भी मामले पर चुप्पी नही तोड़ी। यहां तक की प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में आने से भी बचते रहे। संसद में चल रहे गतिरोध को दूर करने के प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी प्रयास नही हुए और सरकार द्वारा बुलाई गयी एकमात्र सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री नही आये। इसलिए ये बात अब जोर पकड़ने लगी है की प्रधानमंत्री वहीं बोलते हैं जहां कोई दूसरा नही होता। ऐसा तो लोकतंत्र की परम्परा नही है। फिर विपक्ष पर ये आरोप लगाना की वो सरकार का सहयोग नही कर रहा है एकदम उलटी ही बात है। संसद में लटके हुए कई बिलों पर जिनकी कॉर्पोरेट सैक्टर को बीजेपी से बहुत जल्दी पास करने की उम्मीद थी अब उसकी आशाएं और धर्य खत्म होता जा रहा है। अभी कॉर्पोरेट सैक्टर इस पर एतराज नही जताता लेकिन वह बहुत दिन इंतजार कर पायेगा इसमें शक है। राहुल बजाज और रतन टाटा जैसे लोग तो थोड़ा थोड़ा बोलना भी शुरू कर चुके हैं।
                 प्रधानमंत्री देश के नेता होते हैं। आज जब देश में जातीय और साम्प्रदायिक हमलों की बाढ़ सी आ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े हो रहे हैं और इन सब का आरोप उन्ही संगठनो पर लग रहा है जिस संगठन से खुद प्रधानमंत्री और उनके ज्यादातर मंत्री आते है, ऐसी हालत में लोग प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते हैं। और प्रधानमंत्री केवल प्रवचन दे रहे हैं। लोगों में ये बात घर कर रही है की संत-महंत और साधु साध्वियां सरकार चला रहे हैं और नेता प्रवचन कर रहे हैं।

Friday, September 18, 2015

Vyang -- " मन की बात " पर रोक क्यों लगाई जाये ?

खबरी -- चुनाव आयोग ने " मन की बात " पर रोक लगाने से इंकार कर दिया।

गप्पी -- असल में ये मांग ही गलत थी। चुनाव आयोग ने एकदम सही फैसला किया है। विपक्षी दलों का कहना था की प्रधानमंत्री की " मन की बात " से बिहार चुनाव में मतदाताओं पर असर पड़ेगा। लेकिन ये बात तथ्यों से परे है।
              मुझे नही लगता की " मन की बात " का कोई प्रभाव मतदाताओं पर पड़ता है। मतदाताओं पर केवल मुद्दे की बात का प्रभाव पड़ता है। और प्रधानमंत्रीजी का तो ये रिकार्ड रहा है की उन्होंने कभी मुद्दे की बात ही नही की। बल्कि अब तो ये भी साफ हो गया है की लोग जिन बातों को मुद्दे की बात समझ रहे थे वो भी मुद्दे की बात नही थी। अब इस बात का शक जताना की प्रधानमंत्री अपनी " मन की बात " में मुद्दे की बात कर सकते हैं ये विपक्षी दलों की गलत धारना है। इस बात के समर्थन में मैं और भी हजारों सबूत पेश कर सकता हूँ।
                जैसे संसद के पुरे सत्र के दौरान विपक्षी दलों ने अपनी सारी कोशिशें कर ली, लेकिन क्या वो प्रधानमंत्री से मुद्दे की बात पर एक शब्द बुलवा पाये। प्रधानमंत्री ने ना तो मुद्दे की बात की और ना ही मुद्दे पर बात की। फिर भी प्रधानमंत्री पर इस बात का शक करना तो चुनावी रणनीति ही माना जायेगा।
                   दूसरा चुनाव से पहले प्रधानमंत्रीजी ने जो जो बातें कहि थी आज इतने दिन के बाद भी उनमे से किसी में कोई मुद्दा निकला। सारे देश की जनता ने बारीक़ से बारीक़ छलनी लेकर सारी बातों को कई कई बार छान लिया की एकाध मुद्दा निकल ही जाये, लेकिन नही निकला।
                     एक और सबूत है जिसके बाद तो आपको मानना ही पड़ेगा की विपक्ष की मांग गलत थी। और यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। जिन मुद्दों पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी काम कर रही है क्या उनका जिक्र उन्होंने कभी किया। मैं तो कहता हूँ की पुरे विपक्ष ने उन पर वो बात कहने के लिए दबाव डाला, जो वो कर रहे हैं लेकिन उन्होंने नही माना। दूसरी बात ये है की प्रधानमंत्री जी जिस संगठन यानि आरएसएस से आये हैं, उसका तो इतिहास रहा है की उसने उन बातों को कभी नही माना जिनके लिए वो सारी जिंदगी काम करता रहा। और जिन बातों का जिक्र वो अपनी बातों में करते रहे हैं उनको कभी उस तरह लागु नही किया। जैसे वो बात राष्ट्रवाद और देशभक्ति की करेंगे और काम देश तोड़ने के करेंगे। एकता के नाम पर उनके द्वारा किये गए किसी भी काम में अगर कुछ नही था तो बस एकता ही नही थी। वो देश की सुरक्षा के लिए कार्यक्रम घोषित करेंगे और देश जलने लगेगा। प्रधानमंत्री लोकतंत्र और कांग्रेस मुक्त भारत दोनों की बात एक साथ करते हैं। वो सहकारी संघवाद ( Cooperative Federalism ) की बात और नीतीश मुक्त बिहार की बात एक साथ करेंगे। अब कोई ये तो नही कह सकता की प्रधानमंत्री को इन बातों के मायने नही मालूम होंगे, बाकी तो फिर नियत की बात ही बचती है।  

                       इसलिए चुनाव आयोग का फैसला एकदम सही है। और विपक्ष को इस बात पर प्रधानमंत्री पर आरोप लगाने बंद कर देने चाहियें।