Sunday, September 10, 2017

किसी तानाशाह की सनक नहीं है उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम।

     
           
   पिछले लम्बे समय से विश्व मीडिया का एक हिस्सा और भारत का इलेट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, उत्तर कोरिया के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम को एक तानाशाह की सनक के तौर पर प्रचारित करता रहा है। हालाँकि भारतीय टीवी मीडिया अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख खो चूका है और शेष दुनिया के लोग उसे केवल मनोरंजक चैनल के रूप में ही देखते हैं, लेकिन भारतीय दर्शकों का एक वर्ग अपनी कमजोर जानकारी के स्तर के कारण अब भी उससे प्रभावित होता है। हाल ही में किये गए हाइड्रोजन बम के परीक्षण के बाद हमारे चैनलों में इस तरह की रिपोर्टिंग की बाढ़ आ गयी है। लेकिन क्या ये सचमुच वैसा ही है ?
                      1950 के दशक में अमेरिका और कोरिया युद्ध के बाद, जब अमेरिका कोरिया को उत्तर और दक्षिण कोरिया के नाम से दो भागों में बाँटने में कामयाब हो गया, तब हारते हारते उसने उत्तर कोरिया के साथ युद्धविराम संधि कर ली। लेकिन उसका हमलावर और शत्रुतापूर्ण रुख जारी रहा। दक्षिण कोरिया को आधार बना कर उसने उत्तर कोरिया में किसी भी प्रकार से तख्तापलट की अपनी कोशिशें जारी रखी। इसी वजह से उत्तर कोरिया को ये समझ आ गया की अगर वो सैनिक तैयारिओं के मामले में कमजोर रहा तो अमेरिका कभी भी उसे बर्बाद कर सकता है। इसलिए उसने अपनी सैनिक ताकत को हरसम्भव इस स्तर पर रखा की युद्ध के दौरान कामयाब प्रतिरोध किया जा सके। इसी दौर में जब पूरी दुनिया मिसाईल कार्यक्रमों पर खर्चा कर रही थी तब उत्तर कोरिया की सरकार भी इसके लिए प्रयास कर रही थी।
                   लेकिन सयुंक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका के प्रभुत्व के कारण उत्तर कोरिया के लिए ये राह आसान नहीं रही। उस पर लगातार प्रतिबन्ध लगाए गए और उसे दुनिया से अलग थलग करने की कोशिशें की गयी। लेकिन अपनी इच्छाशक्ति और चीन जैसे कुछ देशों के समर्थन से अमेरिका अपने मकसद में कामयाब नहीं हुआ।
परमाणु अप्रसार की विश्व व्यवस्था --
                                                       अब सवाल आता है की उत्तर कोरिया परमाणु अप्रसार के लिए बनाई गयी विश्व व्यवस्था का उललंघन कर रहा है। सो सभी जानते  हैं की मौजूदा परमाणु अप्रसार संधि इकतरफा और पहले से परमाणु शक्तिसम्पन्न देशों के हित में है। इसलिए भारत सहित कई देशों ने इसी कारण से इस पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी देश एकतरफा रूप से बाकी देशों पर इसके नाम पर प्रतिबंध लगाते रहे हैं। भारत तो इसका भुक्तभोगी रहा है। जब अटल जी के समय भारत ने परमाणु विस्फोट किया था तब भारत ने कई सालों तक इस तरह के प्रतिबंधों को झेला था। तब भारतीय मीडिया अमेरिका की आलोचना करता था और भारत के पक्ष को सही ठहराता था, अब उत्तर कोरिया के मामले में वही मीडिया अमेरिका को सही ठहराता है।
                           दूसरी तरफ मौजूदा परमाणु अप्रसार संधि, (एनपीटी ) परमाणु प्रसार को रोकने में एकदम निष्फल रही।  दुनिया के पांच परमाणु शक्तिसम्पन्न देशों के अलावा कई देशो के पास घोषित रूप से परमाणु तकनीक और हथियार हैं जैसे भारत और पाकिस्तान। इसके अलावा भी अघोषित रूप से भी कई देशों के पास परमाणु तकनीक और हथियार होना माना जाता है जैसे इसराइल और ईरान इत्यादि। सो परमाणु अप्रसार पर सबके स्वीकार करने लायक व्यवस्था का निर्माण जरूरी है जो शेष विश्व के परमाणु तकनीक प्राप्त करने के अधिकार को भी स्वीकार करती हो।
इराक और लीबिया का उदाहरण --
                                                     अमेरिका किस प्रकार से परमाणु अप्रसार के नाम  पर  झूठे प्रचार का प्रयोग करके अपने हितों को साधता रहा है, ईराक और लीबिया इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। जब ईराक पर परमाणु और रासायनिक शस्त्र बनाने का आरोप अमेरिका ने लगाया तब ईराक ने सयुक्त राष्ट्र द्वारा सुझाये गए हर प्रस्ताव का पूरी तरह पालन किया। यहां तक की सयुक्त राष्ट्र की एजेन्सी तक के ये घोषित करने के बाद की ईराक के पास इस तरह के हथियार होने या उनका निर्माण किये जाने के कोई सबूत नहीं हैं, अमेरिका ने अपने सामरिक और व्यावसायिक हितों के लिए ईराक पर हमला किया और एक सम्पन्न देश को बर्बाद कर दिया। यही लीबिया के साथ हुआ। एक सार्वभौम और स्वतंत्र देश को नष्ट करके उसके शासक को बेइज्जत करके बेरहमी से कत्ल कर दिया गया और वो भी केवल उसके संसाधनों पर कब्जा करने के लिए। इसके बाद भी जो लोग अमेरिकी प्रचार को सच मान लेते हैं तो उनकी समझ पर तरस आने वाली बात है।
उत्तर कोरिया का पक्ष --
                                    उत्तर कोरिया इस बात को समझता है की सयुंक्त राष्ट्र इत्यादि कोई भी संस्था इतनी सक्षम नहीं है जो किसी देश की विदेशी हमले के मामले में रक्षा कर सके। वह लीबिया का उदाहरण देता है की
 किस तरह सयुंक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को तोड़ मरोड़ कर उसे बर्बाद किया गया। और अब तो सीरिया और यमन के मामले में तो  इस तरह के किसी प्रस्ताव का भी इंतजार नहीं किया गया। अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ मिलकर उत्तर कोरिया के तट पर लगातार उकसावेपूर्ण युद्ध अभ्यास करता रहा है। अमेरिका एक तरफ लगातार उत्तर कोरिया को डराने धमकाने का प्रयास करता है तो दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया का इस्तेमाल अपने सामरिक हितों के लिए सैनिक अड्डों के निर्माण के लिए करता है। उत्तर कोरियाई खतरे को बहाना बना कर वो लगातार इस क्षेत्र में अपने आधुनिक हथियारों की तैनाती करता रहा है। दक्षिण कोरिया की भौगोलिक स्थिति ऐसी है की वहां से रूस और चीन, दोनों की सीमाओं के समीप अपने हथियार तैनात किये जा सकते हैं। इसलिए उत्तर कोरिया बिना किसी धमकी के असर में आये लगातार अपनी सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से परमाणु और मिसाइल तकनीक पर काम करता रहा है।
खेल खत्म हो चुका है ---
                                  अमेरिका अब तक जिस धाक धमकी और प्रतिबंधों का इस्तेमाल करके उत्तर कोरिया को रोकने का प्रयास करता रहा है वो खेल अब समाप्त हो चूका है। अब उत्तर कोरिया ने न केवल अमेरिका तक पहुंच सकने वाली अंतरमहाद्वीपीय मिसाइल का सफल परीक्षण कर लिया है बल्कि इसके साथ ही उसने हाइड्रोजन बम के मिसाइल पर लगाए जाने वाले वॉर हैड को बनाने में भी सफलता प्राप्त कर ली है। इस मामले पर अमेरिकी नीति विफल हो चुकी है और उत्तर कोरिया को रोक कर रखने का खेल समाप्त हो चुका है।
कोरियाई उपमहाद्वीप  में हथियारों की नई दौड़ ----
                                                                           अब बदहवास अमेरिका को समझ में नहीं आ रहा है की वो इस चुनौती का मुकाबला कैसे करे। इसलिए उसने दक्षिण कोरिया में नए सिरे से अपने मिसाइल विरोधी सिस्टम थाड की तैनाती की घोषणा कर दी है। पर्यावरण पर इस सिस्टम के दुष्प्रभावों को देखते हुए खुद दक्षिण कोरिया में ही इसका भारी विरोध हो रहा है और इसके खिलाफ बहुत बड़े बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। दूसरी तरफ चीन और रूस ने इस पर गंभीर आपत्ति जताई है। रूस ने तो इसके खिलाफ अपने मिसाइल सिस्टम कैलिबर की तैनाती की घोषणा भी कर दी है। रूस का ये सिस्टम छोटी दुरी पर सटीक हमले की क्षमता रखता है और इसकी स्पीड को अब तक मात नहीं दी जा सकी है। दूसरी तरफ चीन से अब ये उम्मीद करना की वो उत्तर कोरिया के मामले में अमेरिका की कोई मदद करेगा, बेमानी ही है। जबकि चीन पहले ही ये साफ कर चूका है की कोरियाई समस्या का हल धमकी की बजाए बातचीत से ही सम्भव है और इसके लिए अमेरिका को उत्तर कोरिया के तट पर किये जाने वाले अपने युद्ध अभ्यासों पर रोक लगानी होगी। साथ ही उसने ये भी कहा है की ये उम्मीद करना की उत्तर कोरिया को डरा लिया जायेगा, असम्भव ही है।
                         इसलिए भारतीय मीडिया का जो हिस्सा उत्तर कोरिया के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम को एक तानाशाह की सनक कह कर प्रचारित कर रहा है, उसे समझ लेना चाहिए की ये एक संप्रभु और सार्वभौम देश का अपनी सुरक्षा तैयारियों से जुड़ा कार्यक्रम है। 

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