पिछले क्वार्टर के जीडीपी के आंकड़े 5 . 7 % आने के बाद भले ही अमित शाह इसको टेक्निकल कारण बता रहे हों, लेकिन सरकार को मालूम है की स्थिति वाकई गंभीर है। ये लगातार छठी तिमाही है जिसमे जीडीपी की दर लगातार गिरी है। लेकिन अब तक सरकार इसके लिए अपनी नीतियों को जिम्मेदारी देने के लिए तैयार नहीं है। जबकि सारी दुनिया के अर्थशास्त्री मानते हैं की सरकार द्वारा लिए गए लगातार गलत फैसलों की वजह से ही जीडीपी गिर रही है।
सबसे पहले नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी। नोटबंदी का सबसे ज्यादा नुकशान गांवों और दूरदराज के इलाकों पर हुआ। नगदी की कमी के कारण असंगठित क्षेत्र के रोजगार समाप्त हो गए। उसके कारण सब्जियों और दूसरे कृषि उत्पादों की कीमतें एकदम गिर गयी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही ये कमी 25 % से ज्यादा है। इसके कारण दो साल से लगातार सूखे की मार झेल रहे किसानो की हालत बद से बदतर हो गयी। दूसरी तरफ सरकारी और गैरसरकारी नौकरियों के अवसर लगभग समाप्त हो गए जिससे ग्रामीण क्षेत्र को जो सहारा मिलता था वो भी खत्म हो गया। उसके साथ ही खेती के बाद इस क्षेत्र में दूसरी जो चीज बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाती है वो है पशुपालन। सरकार के पशुओं के खरीद बिक्री के नियमो में किये गए फेरफार ने सीमांत किसानो के लिए ये भी घाटे का सौदा बन गया। थोड़ी बहुत जो कसर बाकी बची थी वो गोरक्षकों के नाम पर जारी गुंडागर्दी ने पूरी कर दी। इसका सीधा असर चमड़े के उत्पादन और व्यापार पर पड़ा। जिससे समाज के बिलकुल निचले तबके के गरीब लोगों के रोजगार समाप्त हो गए। और आज हालत ये है की ग्रामीण क्षेत्र, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका रखता है भारी मंदी का शिकार हो गया।
उसके बाद जो क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है, चाहे रोजगार देने का मामला हो या उत्पादन का, वो है लघु उद्योग और रिटेल व्यापार। ये दोनों मिलकर देश में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया करवाते हैं। लेकिन सरकार के GST लागु करने के फैसले और उसके बाद इसे लागु करने के तरीके ने इन दोनों क्षेत्रों की कमर तोड़ दी। इस तरह जहां जहां भी विकास की गुंजाइश थी हर तरफ हमला किया गया। लोग पहले हमले से सम्भल भी नहीं पाते की तुरंत दूसरा हमला हो जाता। और सबसे बड़ी बात ये की सरकार में कोई भी ये मानने को तैयार नहीं की कोई समस्या है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने तो अर्थव्यवस्था के नकारात्मक आंकड़ों को टेक्निकल कारणों की वजह से आया बता दिया।
लेकिन अब वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान के बाद लगता है की सरकार को कम से कम इतना तो पता है अर्थव्यवस्था में सचमुच कोई गिरावट है। लेकिन सवाल यह है की सरकार के पास इस स्थिति में हस्तक्षेप करने की कितनी गुंजाइश और दिशा मौजूद है।
साल की तीसरी तिमाही के एडवांस टैक्स के आंकड़े उम्मीद से कम हैं। GST के बाद टैक्स क्लैक्शन के जो आंकड़े पहले बताये जा रहे थे अब उन पर सवाल उठ रहे हैं। कुल 95000 करोड़ की क्लैक्शन के सामने 65000 करोड़ इनपुट टैक्स क्रेडिट का क्लेम है और बड़ी कंपनियों ने अब तक क्लेम का दावा भी पेश नहीं किया है। इसके बाद सरकार की नींद उड़ी हुई है। सरकार के बड़े अधिकारीयों के ऑफ़ दा रिकार्ड बयान आ चुके हैं की कम कलेक्सन के कारण खर्च में कटौती करनी पड़ सकती है। CAD एक झटके में बढ़कर २. ६ % हो गया है और साल के अंत तक इसके 3. 6 % पहुंचने आसार है। सरकार का बजट में घोषित खर्च अपनी 94 % के स्तर पर पहुंच चूका है।
इन हालात को देखते हुए सरकार के पास बहुत सीमित विकल्प मौजूद हैं। और जो विकल्प मौजूद हैं तो क्या सरकार उन्हें अपनाने का साहस दिखाएगी। पिछले तीन साल से अर्थव्यवस्था सरकारी इन्वैस्टमैंट पर ही चल रही थी। प्राइवेट सेक्टर पहले ही अपनी क्षमता से कम पर चल रहा था सो उसमे किसी नई इन्वैस्टमैंट की उम्मीद ही नहीं थी। अब प्राइवेट सेक्टर की क्षमता और घटकर 70 % पर आ गयी है इसलिए एकमात्र सहारा सरकारी निवेश का ही बचा है। दूसरी तरफ लोगों को सहायता की तुरंत जरूरत है। लेकिन जिस तरह उच्चस्तरीय बैठक के तुरंत बाद वित्तमंत्री ने बयान दिया है की तेल की कीमतों में कोई कटौती नहीं होगी, उसे देखते हुए लगता नहीं है की सरकार लोगों को कोई राहत देगी। उल्टा कुछ लोगों को शक है की सामाजिक योजनाओं में कटौती हो सकती है। मनरेगा जैसी योजनाओं में कटौती हो सकती है, और नौकरियों पर बैन को बढ़ाया जा सकता है। अगर सचमुच में ऐसा होता है तो ये इलाज भी बीमारी से भयानक हो सकता है। अगर लोगों के पास खरीद शक्ति नहीं होगी तो मंदी के सर्कल से बाहर निकलना असम्भव हो जायेगा।
सबसे पहले नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी। नोटबंदी का सबसे ज्यादा नुकशान गांवों और दूरदराज के इलाकों पर हुआ। नगदी की कमी के कारण असंगठित क्षेत्र के रोजगार समाप्त हो गए। उसके कारण सब्जियों और दूसरे कृषि उत्पादों की कीमतें एकदम गिर गयी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही ये कमी 25 % से ज्यादा है। इसके कारण दो साल से लगातार सूखे की मार झेल रहे किसानो की हालत बद से बदतर हो गयी। दूसरी तरफ सरकारी और गैरसरकारी नौकरियों के अवसर लगभग समाप्त हो गए जिससे ग्रामीण क्षेत्र को जो सहारा मिलता था वो भी खत्म हो गया। उसके साथ ही खेती के बाद इस क्षेत्र में दूसरी जो चीज बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाती है वो है पशुपालन। सरकार के पशुओं के खरीद बिक्री के नियमो में किये गए फेरफार ने सीमांत किसानो के लिए ये भी घाटे का सौदा बन गया। थोड़ी बहुत जो कसर बाकी बची थी वो गोरक्षकों के नाम पर जारी गुंडागर्दी ने पूरी कर दी। इसका सीधा असर चमड़े के उत्पादन और व्यापार पर पड़ा। जिससे समाज के बिलकुल निचले तबके के गरीब लोगों के रोजगार समाप्त हो गए। और आज हालत ये है की ग्रामीण क्षेत्र, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका रखता है भारी मंदी का शिकार हो गया।
उसके बाद जो क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है, चाहे रोजगार देने का मामला हो या उत्पादन का, वो है लघु उद्योग और रिटेल व्यापार। ये दोनों मिलकर देश में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया करवाते हैं। लेकिन सरकार के GST लागु करने के फैसले और उसके बाद इसे लागु करने के तरीके ने इन दोनों क्षेत्रों की कमर तोड़ दी। इस तरह जहां जहां भी विकास की गुंजाइश थी हर तरफ हमला किया गया। लोग पहले हमले से सम्भल भी नहीं पाते की तुरंत दूसरा हमला हो जाता। और सबसे बड़ी बात ये की सरकार में कोई भी ये मानने को तैयार नहीं की कोई समस्या है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने तो अर्थव्यवस्था के नकारात्मक आंकड़ों को टेक्निकल कारणों की वजह से आया बता दिया।
लेकिन अब वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान के बाद लगता है की सरकार को कम से कम इतना तो पता है अर्थव्यवस्था में सचमुच कोई गिरावट है। लेकिन सवाल यह है की सरकार के पास इस स्थिति में हस्तक्षेप करने की कितनी गुंजाइश और दिशा मौजूद है।
साल की तीसरी तिमाही के एडवांस टैक्स के आंकड़े उम्मीद से कम हैं। GST के बाद टैक्स क्लैक्शन के जो आंकड़े पहले बताये जा रहे थे अब उन पर सवाल उठ रहे हैं। कुल 95000 करोड़ की क्लैक्शन के सामने 65000 करोड़ इनपुट टैक्स क्रेडिट का क्लेम है और बड़ी कंपनियों ने अब तक क्लेम का दावा भी पेश नहीं किया है। इसके बाद सरकार की नींद उड़ी हुई है। सरकार के बड़े अधिकारीयों के ऑफ़ दा रिकार्ड बयान आ चुके हैं की कम कलेक्सन के कारण खर्च में कटौती करनी पड़ सकती है। CAD एक झटके में बढ़कर २. ६ % हो गया है और साल के अंत तक इसके 3. 6 % पहुंचने आसार है। सरकार का बजट में घोषित खर्च अपनी 94 % के स्तर पर पहुंच चूका है।
इन हालात को देखते हुए सरकार के पास बहुत सीमित विकल्प मौजूद हैं। और जो विकल्प मौजूद हैं तो क्या सरकार उन्हें अपनाने का साहस दिखाएगी। पिछले तीन साल से अर्थव्यवस्था सरकारी इन्वैस्टमैंट पर ही चल रही थी। प्राइवेट सेक्टर पहले ही अपनी क्षमता से कम पर चल रहा था सो उसमे किसी नई इन्वैस्टमैंट की उम्मीद ही नहीं थी। अब प्राइवेट सेक्टर की क्षमता और घटकर 70 % पर आ गयी है इसलिए एकमात्र सहारा सरकारी निवेश का ही बचा है। दूसरी तरफ लोगों को सहायता की तुरंत जरूरत है। लेकिन जिस तरह उच्चस्तरीय बैठक के तुरंत बाद वित्तमंत्री ने बयान दिया है की तेल की कीमतों में कोई कटौती नहीं होगी, उसे देखते हुए लगता नहीं है की सरकार लोगों को कोई राहत देगी। उल्टा कुछ लोगों को शक है की सामाजिक योजनाओं में कटौती हो सकती है। मनरेगा जैसी योजनाओं में कटौती हो सकती है, और नौकरियों पर बैन को बढ़ाया जा सकता है। अगर सचमुच में ऐसा होता है तो ये इलाज भी बीमारी से भयानक हो सकता है। अगर लोगों के पास खरीद शक्ति नहीं होगी तो मंदी के सर्कल से बाहर निकलना असम्भव हो जायेगा।
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