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Monday, July 31, 2017

बिहार, भाजपा और राष्ट्रवादी भृष्टाचार

                      बिहार में सरकार बदलते ही कई नई चीजें और परिभाषाएँ सामने आयी। जैसे बिहार के पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी ने नितीश कुमार के घोटालों की एक लम्बी लिस्ट जारी की थी। जिसमे करीब 23 घोटाले शामिल थे। जैसे ही नितीश ने बीजेपी के पाले में जाकर सरकार बनाई, मोदीजी ने उसके स्वागत में ट्वीट करते हुए कहा की भृष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में नितीश का स्वागत है। इसका एक तो मतलब ये हुआ की भृष्टाचार का घोटालों से कोई लेना देना नहीं है। भृष्टाचार का लेना देना केवल इस बात से है की आदमी अपनी पार्टी में है या विपक्ष का है। जैसे अभी गुजरात में है। जो जो विधायक बीजेपी में शामिल हो जायेंगे वो भृष्टाचारी नहीं रहेंगे और जो नहीं होंगे वो भृष्टाचारी रहेंगे। बीजेपी में भृष्टाचार की यह परिभाषा सुखराम के जमाने से चली आ रही है।
                     मैं अभी अभी अपने मुहल्ले की किराने की दुकान के सामने से गुजरा तो दुकानदार ने मुझे आवाज लगाई की भाई साहब देखो बिहार में फिर से सुशासन आ गया है। मैंने पूछा की नितीश तो वही है, फिर ये सुशासन कौन है क्या सुशील मोदी का नाम है सुशासन ?
                      देखिये भाई साहब, नितीश जब तक लालू के साथ थे तभी तक भृष्ट थे वरना बिहार में तो लोग उनको सुशासन बाबू के नाम से पुकारते हैं। उन्होंने तेजस्वी यादव से पीछा छुड़ा लिया है। उस पर 120 बी का मुकदमा था।
                     120 बी का मुकदमा तो सुशील मोदी पर भी है। उल्टा दो चार धाराएं ज्यादा ही हैं। फिर बदला क्या ? मैंने पूछा।
                      वो 120 बी दूसरी तरह का है। राजनैतिक बदले की भावना से लगाया हुआ है। उसने कहा।
                     ठीक यही राजनैतिक बदले की बात तो तेजस्वी भी कह रहा है। चलो छोडो। ये बताओ की देश से भृष्टाचार दूर करने के लिए सरकार क्या कर रही है ? मैंने पूछा।
                     बहुत काम कर रही है। अभी अभी लालू यादव पर केस दर्ज किया है।
                      भृष्टाचार के बहुत से केस सीबीआई के पास पेंडिंग हैं। सीबीआई क्या कर रही है ?
                     सीबीआई बहुत काम कर रही है। अभी अभी उसने लालू यादव के कितने ठिकानो पर रेड की है। उसने जवाब दिया।
                       आर्थिक भृष्टाचार के बहुत से मामले ED के पास भी पेंडिंग हैं। ED क्या कर रही है। मैंने पूछा।
                        अभी दो दिन पहले ही ED ने लालू यादव के खिलाफ केस दर्ज किया है। आपने पढ़ा नहीं ? उसने मुझसे पूछा।
                     थोड़े दिन पहले प्रधानमंत्री ने चार्टर्ड अकाउंटेंटस के सम्मेलन में चेतावनी दी थी की जो भी CA किसी को गलत तरिके से टैक्स बचाने में मदद करेगा, उसके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। क्या हुआ ? मैंने पूछा।
                      लगता आपने अख़बार पढ़ना छोड़ दिया है। अभी अभी लालू यादव की लड़की मीसा भारती  के CA के यहां रेड हुई है  आपको पता होना चाहिए। उसने जवाब दिया।
                       इससे तो ऐसा लगता है की अगर लालू यादव और उसका परिवार देश छोड़ दे तो भारत से भृष्टाचार का खात्मा हो सकता है ? मैंने पूछा।
                         नहीं, नहीं, भाई साहब, देश छोड़ देने से भृष्टाचार थोड़ा न खत्म हो सकता है। उसके लिए तो लालू यादव को राष्ट्रवादी होना पड़ेगा। उसने कहा।
                         उसके लिए क्या करना होगा ? मैंने पूछा।
                          बीजेपी में शामिल होना पड़ेगा। उसने कहा और अपने काम में लग गया।
 

Tuesday, April 19, 2016

व्यंग -- महत्त्वपूर्ण केसों की जाँच टीवी चैनलों को दे दो।

                कई सालों से हम सुनते आ रहे हैं की अदालतों पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। इसी तरह सीबीआई वगैरा जाँच एजंसियों पर भी बहुत बोझ बढ़ गया है। सरकार चिंतित है। सर्वोच्च न्यायालय चिंतित है। कभी कभी राजनैतिक पार्टियां भी चिंतित होती हैं खासकर जब विपक्ष में होती हैं। हालात कई बार ऐसी हो जाती है की जैसे सारा देश एक साथ चिंतित हो गया हो। पुराने केसों की तादाद लगभग 40 लाख हो गई है। इनका निपटारा कैसे हो इस पर मैराथन मीटिंगे होती हैं। बड़े बड़े सेमिनार होते हैं। न्यायाधीशों और सरकार की सयुंक्त मीटिंग होती हैं, बड़े बड़े विशेषज्ञ बैठते हैं की ऐसा क्या किया जाये की न्याय में देरी ना हो। बाद में वही तुच्छ कारण सामने आता है की जजों की संख्या कम है और इसे बढ़ाना चाहिए। इंतजार कर रहे लोगों के मुंह से निकलता है धत्त तेरी। ये तो किसी बच्चे से पूछ लेते तो वो भी बता देता। हम तो समझ रहे थे  दूसरा ऐसा मामला निकलेगा जो किसी के ध्यान में ही ना आया हो। उसके बाद मुख्य न्यायाधीश महोदय प्रधानमंत्री को पत्र लिखेंगे और प्रधानमंत्री मुख्य न्यायाधीश महोदय को पत्र लिखेंगे। हालाँकि मीटिंग में दोनों ही शामिल थे।
                     लेकिन मुझे अब इसका इलाज मिल गया है। इस इलाज से अदालतों का बोझ तो कम होगा ही होगा, जाँच एजंसियों का बोझ भी कम हो जायेगा। बाद में कोई अपील वगैरा का झंझट भी नहीं होगा। यानि एक तीर से पांच-छः निशाने लगाए जा सकते हैं। इसका इलाज ये है की देश में जो भी महत्त्वपूर्ण घटना घटे और जो भी केस महत्त्वपूर्ण लगे उसे जाँच एजेंसी को देने की बजाए टीवी चैनलों को सौंप दिया जाये। ज्यादा से ज्यादा दो या तीन दिन लगेंगे और केस खत्म हो जायेगा। जाँच भी हो जाएगी, मुकदमा भी हो जायेगा और फैसला भी हो जायेगा। इतना त्वरित परिणाम तो दुनिया की कोई भी एजेंसी नहीं दे सकती।
                      टीवी चैनलों को केस सौंपने के कई फायदे हो जायेंगे। पहला तो यही फायदा है की टीवी चैनल अब भी ऐसे केसों की समानांतर कार्यवाही तो चलाते ही हैं सो केवल उन्हें क़ानूनी दर्जा देने भर की जरूरत है। टीवी चैनल वो सारे सबूत दो या तीन दिन में ढूंढ लेते हैं जिन्हे ढूढ़ने में सीबीआई या NIA जैसी एजंसियों को सालों लग जाते हैं। जब तक अदालत तक कार्यवाही पहुंचती है उससे तो बहुत पहले टीवी चैनल अपना फैसला सुना चुके होते हैं। और देश का एक तबका उसे स्वीकार भी कर चुका होता है फिर चाहे अदालत का फैसला जो भी हो और जैसा भी हो।
                     इस तेजी का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। जाँच एजंसियां पहले सबूत ढूढ़ती हैं फिर उसे अदालत के सामने रखती हैं। फिर अदालत उनकी जाँच पड़ताल करती है और ज्यादातर उन सबूतों को ख़ारिज कर देती हैं। टीवी चैनल ऐसा नहीं करते। वो पहले ये तय करते हैं की दोषी किसे ठहराना है फिर ये तय होने के बाद वो उसके हिसाब से सबूत इकट्ठा करते हैं। उन सबूतों के लिए वो जी तोड़ मेहनत करते हैं। अगर ऐसे सबूत नहीं मिलते तो वो अपनी तकनीकी टीम की सहायता से फर्जी विडिओ वगैरा बनवा लेते हैं। फर्जी गवाहों के बयान जो की उनके अनुसार चस्मदीद होते हैं टीवी पर तब तक चलाते हैं जब तक लोगों को वो जुबानी याद नहीं हो जाते। फिर भी काम ना चले तो टीवी चैनल पर लोगों से पोल करवा लेते हैं। अब बताओ की उसके बाद क्या कमी रह सकती है।
                  इसमें सरकार को भी घबराने की कोई जरूरत नहीं है। जिस तरह सीबीआई, ED और NIA जैसी संस्थाएं सरकार के कहे अनुसार काम करती हैं उसी तरह कई टीवी चैनल भी सरकार के हिसाब से ही काम करते हैं। अफसरों को इसके लिए वेतन मिलता है और टीवी चैनलों को विज्ञापन। जो अधिकारी बहुत अच्छा काम करता है उसे तरक्की मिलती है, रिटायर होने के बाद दूसरे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति मिलती है तो टीवी चैनलों के मालिकों और पत्रकारों को राज्य सभा की सीट मिलती है और पदम पुरस्कार मिलते हैं। दोनों में होड़ लगी रहती है वफादारी की। मुझे ये नहीं पता की इनमे कोनसी नस्ल ज्यादा वफादार है। जीभ की लम्बाई तो एक जैसी ही है।
                    इसलिए देश की अदालतों पर बढ़ते हुए बोझ को कम करने के लिए सरकार को मेरे सुझाव पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए।