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Tuesday, April 19, 2016

व्यंग -- महत्त्वपूर्ण केसों की जाँच टीवी चैनलों को दे दो।

                कई सालों से हम सुनते आ रहे हैं की अदालतों पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। इसी तरह सीबीआई वगैरा जाँच एजंसियों पर भी बहुत बोझ बढ़ गया है। सरकार चिंतित है। सर्वोच्च न्यायालय चिंतित है। कभी कभी राजनैतिक पार्टियां भी चिंतित होती हैं खासकर जब विपक्ष में होती हैं। हालात कई बार ऐसी हो जाती है की जैसे सारा देश एक साथ चिंतित हो गया हो। पुराने केसों की तादाद लगभग 40 लाख हो गई है। इनका निपटारा कैसे हो इस पर मैराथन मीटिंगे होती हैं। बड़े बड़े सेमिनार होते हैं। न्यायाधीशों और सरकार की सयुंक्त मीटिंग होती हैं, बड़े बड़े विशेषज्ञ बैठते हैं की ऐसा क्या किया जाये की न्याय में देरी ना हो। बाद में वही तुच्छ कारण सामने आता है की जजों की संख्या कम है और इसे बढ़ाना चाहिए। इंतजार कर रहे लोगों के मुंह से निकलता है धत्त तेरी। ये तो किसी बच्चे से पूछ लेते तो वो भी बता देता। हम तो समझ रहे थे  दूसरा ऐसा मामला निकलेगा जो किसी के ध्यान में ही ना आया हो। उसके बाद मुख्य न्यायाधीश महोदय प्रधानमंत्री को पत्र लिखेंगे और प्रधानमंत्री मुख्य न्यायाधीश महोदय को पत्र लिखेंगे। हालाँकि मीटिंग में दोनों ही शामिल थे।
                     लेकिन मुझे अब इसका इलाज मिल गया है। इस इलाज से अदालतों का बोझ तो कम होगा ही होगा, जाँच एजंसियों का बोझ भी कम हो जायेगा। बाद में कोई अपील वगैरा का झंझट भी नहीं होगा। यानि एक तीर से पांच-छः निशाने लगाए जा सकते हैं। इसका इलाज ये है की देश में जो भी महत्त्वपूर्ण घटना घटे और जो भी केस महत्त्वपूर्ण लगे उसे जाँच एजेंसी को देने की बजाए टीवी चैनलों को सौंप दिया जाये। ज्यादा से ज्यादा दो या तीन दिन लगेंगे और केस खत्म हो जायेगा। जाँच भी हो जाएगी, मुकदमा भी हो जायेगा और फैसला भी हो जायेगा। इतना त्वरित परिणाम तो दुनिया की कोई भी एजेंसी नहीं दे सकती।
                      टीवी चैनलों को केस सौंपने के कई फायदे हो जायेंगे। पहला तो यही फायदा है की टीवी चैनल अब भी ऐसे केसों की समानांतर कार्यवाही तो चलाते ही हैं सो केवल उन्हें क़ानूनी दर्जा देने भर की जरूरत है। टीवी चैनल वो सारे सबूत दो या तीन दिन में ढूंढ लेते हैं जिन्हे ढूढ़ने में सीबीआई या NIA जैसी एजंसियों को सालों लग जाते हैं। जब तक अदालत तक कार्यवाही पहुंचती है उससे तो बहुत पहले टीवी चैनल अपना फैसला सुना चुके होते हैं। और देश का एक तबका उसे स्वीकार भी कर चुका होता है फिर चाहे अदालत का फैसला जो भी हो और जैसा भी हो।
                     इस तेजी का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। जाँच एजंसियां पहले सबूत ढूढ़ती हैं फिर उसे अदालत के सामने रखती हैं। फिर अदालत उनकी जाँच पड़ताल करती है और ज्यादातर उन सबूतों को ख़ारिज कर देती हैं। टीवी चैनल ऐसा नहीं करते। वो पहले ये तय करते हैं की दोषी किसे ठहराना है फिर ये तय होने के बाद वो उसके हिसाब से सबूत इकट्ठा करते हैं। उन सबूतों के लिए वो जी तोड़ मेहनत करते हैं। अगर ऐसे सबूत नहीं मिलते तो वो अपनी तकनीकी टीम की सहायता से फर्जी विडिओ वगैरा बनवा लेते हैं। फर्जी गवाहों के बयान जो की उनके अनुसार चस्मदीद होते हैं टीवी पर तब तक चलाते हैं जब तक लोगों को वो जुबानी याद नहीं हो जाते। फिर भी काम ना चले तो टीवी चैनल पर लोगों से पोल करवा लेते हैं। अब बताओ की उसके बाद क्या कमी रह सकती है।
                  इसमें सरकार को भी घबराने की कोई जरूरत नहीं है। जिस तरह सीबीआई, ED और NIA जैसी संस्थाएं सरकार के कहे अनुसार काम करती हैं उसी तरह कई टीवी चैनल भी सरकार के हिसाब से ही काम करते हैं। अफसरों को इसके लिए वेतन मिलता है और टीवी चैनलों को विज्ञापन। जो अधिकारी बहुत अच्छा काम करता है उसे तरक्की मिलती है, रिटायर होने के बाद दूसरे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति मिलती है तो टीवी चैनलों के मालिकों और पत्रकारों को राज्य सभा की सीट मिलती है और पदम पुरस्कार मिलते हैं। दोनों में होड़ लगी रहती है वफादारी की। मुझे ये नहीं पता की इनमे कोनसी नस्ल ज्यादा वफादार है। जीभ की लम्बाई तो एक जैसी ही है।
                    इसलिए देश की अदालतों पर बढ़ते हुए बोझ को कम करने के लिए सरकार को मेरे सुझाव पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए।