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Saturday, November 18, 2017

Moody.s की रेटिंग और उसके पीछे का सच।

        जबसे मूडीज ने भारत की रेटिंग बढ़ाई है, पूरी सरकार और उसके टीवी चैनल उस पर लगातार कार्यक्रम किये जा रहे हैं। मूडीज, एस&पी, और फिच जैसी संस्थाएं पूरी दुनिया में सरकारों और वित्तीय संस्थानों की रेटिंग जारी करती रहती हैं जिससे देशी विदेशी निवेशकों को वहां के माहौल की जानकारी मिल सके। लेकिन जब ये एजेंसियां किसी देश की रेटिंग कम करती हैं तो वहां की सरकार उस पर सवाल उठाती हैं, उनके रेटिंग के तरीके में दोष निकालती हैं। और जब रेटिंग बढ़ती है तो पुरे जोर शोर से उसका श्रेय लेती हैं। लेकिन क्या ये एजंसियां वाकई किसी देश की सही रेटिंग जारी करती हैं? या ये इसको manipulate भी करती हैं ?
            इसके बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमे इन एजेंसियों पर manipulation के आरोप लगे हैं। खुद Moody,s पर जर्मनी, UK और अमेरिका में manipulation के लिए भारी भरकम जुर्माने लगे हैं। Moody,s पर तो अमेरिका में ऐसी सिक्योरिटीज को अच्छी रेटिंग देने के आरोप लगे हैं जो असल में कोई कीमत ही नहीं रखती थी और उन्ही सिक्योर्टीज के कारण 2008 का संकट पैदा हुआ था, जिसके बाद Moody,s पर अमेरिका में केस चला और जिसे निपटाने के लिए Moody,s को लाखों डालर देकर उसे अदालत से बाहर निपटाना पड़ा।
              ये एजेंसियां रेटिंग तय करने की फ़ीस लेती हैं। इसलिए ये आरोप भी लगते रहे हैं और साबित भी होते रहे हैं की विश्व की कुछ वित्तीय संस्थाएं अपना घटिया मॉल ( बांड्स इत्यादी ) बेचने के लिए इन एजेंसियों का सहारा लेती हैं।
                लेकिन इससे अलग भी, अगर ये सही पैमानों का इस्तेमाल करके भी रेटिंग जारी करती हों तो उसका क्या मतलब होता है ये समझना बहुत जरूरी है। इनकी रेटिंग का अर्थ होता है की किसी देश के कानून और व्यवस्था वहां मुनाफाखोरी और वित्तीय संस्थाओं के प्रति कितने उदार हैं। अगर किसी देश में अन्य चीजों के साथ इन कंपनियों को मुनाफा कमाने और उसे लेजाने के अबाधित रास्ते उपलब्ध हैं तो उसकी रेटिंग ज्यादा ऊँची होगी। इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं -
१.  अगर किसी देश की सरकार किसानो को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी करती है और उसे सही तरीके से लागु करती है तो उसकी रेटिंग कम हो जाएगी क्योंकि ये एजंसियां उसे मुक्त व्यापार के रास्ते में रुकावट मानती हैं।
२.  इसी तरह अगर किसी देश में सख्त श्रम कानून हैं और सरकार सामाजिक सेवाओं पर ज्यादा पैसा खर्च करती है तो उसकी रेटिंग भी कम हो जाएगी। जैसे अगर सरकार स्कूलों और हस्पतालों पर पैसा खर्चना बंद करके उन्हें प्राइवेट कर दे तो उसकी रेटिंग बढ़ जाएगी।
३.  इसी तरह अगर सरकार कंपनियों को करों में छूट देती है और आम आदमी पर करों का बोझ बढ़ाती है तो उसकी रेटिंग ज्यादा रहेगी।
               इसलिए इन एजेंसियों की ऊँची रेटिंग किसी देश की जनता के जीवन स्तर को तय नहीं करती, अलबत्ता वहां मुनाफा कमाने की कितनी सहूलियत है इसको प्रतिबिम्बित करती है। इसलिए इन एजेंसियों की बढ़ती हुई रेटिंग पर खुश होने के लिए आम आदमी के पास कोई कारण नहीं होता है। 

Thursday, March 16, 2017

भारत में राजनैतिक सवालों पर कॉरपोरेट मीडिया का बदलता रुख।

                     अभी कुछ साल पहले की ही बात है की भारत का कॉरपोरेट मीडिया इस बात पर बहस करता था की चुनाव के बाद में बने हुए गठबंधन ( Post poll alliance ) अनैतिक होते हैं और की इस तरह के गठबंधन चुनाव से पहले ( Pre poll alliance)  होने चाहिए। तब भी वो कोई राजनीती में अनैतिकता के सवाल पर चिंतित नही था। उसकी तब की चिंता थी वामपंथ के समर्थन से बनने वाली UPA सरकारें। तब भारत का कॉरपोरेट क्षेत्र वामपंथ को अपने रस्ते की बड़ी रुकावट मानता था। इसलिए किसी भी तरह वो इस गठबंधन और समर्थन को अनैतिक सिद्ध करने पर लगा रहता था।
                     उसके बाद स्थिति बदली। बीजेपी की सरकारों का दौर शुरू हुआ।  कॉरपोरेट की पसन्दीदा सरकारें थी। इसलिए इनके सारे कारनामो को या तो मजबूरीवश लिए गए फैसले बताना शुरू किया, अगर ये सम्भव नही हुआ तो इतिहास से दूसरे अनैतिक उदाहरण ढूंढे गए और उन्हें सही सिद्ध किया जाने लगा। जब बीजेपी ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, तो राजनैतिक इतिहास के इस सबसे अवसरवादी फैसले को इस तरह पेश किया गया गोया इसके बिना तो देश बर्बाद हो जाता। उस दिन के बाद आपको कभी भी किसी भी न्यूज़ चेंनल पर Post Poll Alliance or Pre Poll Alliance पर कोई चर्चा नही मिलेगी।
                      उसके बाद महाराष्ट्र का उदाहरण सामने आया। किस तरह सत्ता में साझेदार दो पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलती हैं और मलाई में हिस्सेदार भी हैं। उसके बाद ये बहस भी मीडिया से समाप्त हो गयी की क्या एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली दो मुख्य पार्टियां आपस में मिलकर सरकार बना सकती हैं या नही।
                     और अब ताजा उदाहरण है गोवा चुनाव का। जिसमे सभी तरह की नैतिकता और संवैधानिक तरीकों को ताक पर रखकर बीजेपी ने सरकार बना ली। इस मामले पर मीडिया की कवरेज लाजवाब थी।  सारी चीजों को छोड़कर मीडिया बहस को यहां ले आया की गडकरी ज्यादा तेज थे या दिग्विजय सिंह। जैसे ये कोई जनमत और संवैधानिक सवाल न होकर गडकरी और दिग्विजय के बीच 100 मीटर की दौड़ का मामला हो। सारे सवाल खत्म। गडकरी ज्यादा तेज थे सो बीजेपी की सरकार बन गयी।
                      अब बीजेपी के समर्थन में मीडिया सारी बहसों को यहां ले आया की पहले जब ऐसा हुआ था तब कोई क्यों नही बोला ? मुझे तो ऐसा लग रहा है की अगर मीडिया का ऐसा ही रुख रहा ( जो की ऐसा ही रहने वाला है ) तो मान लो कभी मोदीजी को बहुमत नही मिले और वो सेना की मदद से सरकार पर कब्जा कर लें तो मीडिया कहेगा की जब बाबर सेना के बल पर देश पर कब्जा कर रहा था तब तुम कहाँ थे। या मान लो देश के चार पांच बड़े उद्योगपति देश का सारा पैसा लेकर विदेश भाग जाएँ तो मीडिया कहेगा की जब मोहम्मद गौरी और गजनी देश को लूट कर  ले गए थे तब तुम क्यों नही बोले।