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Tuesday, October 1, 2019

डरावने आंकड़े आ रहे हैं अर्थ व्यवस्था के।

            पिछले कई क़्वार्टर से अर्थ व्यवस्था बैक गियर में जा रही है। अब ये स्पष्ट हो चूका है की ये गिरावट किसी क़्वार्टर की किसी खास वजह से नहीं है बल्कि एक लगातार जारी ढलान की तरफ और ढांचागत कारणों से है। अब तो इसको लगभग सरकार ने भी मान लिया है भले ही दबी जुबान में सही। लेकिन सरकार और उसके कुछ खास लोगों को अब भी उम्मीद है की ये अपने आप ठीक हो जाएगी। इसके लिए सरकार ने कुछ कदमो की घोषणा भी की लेकिन जानकारों का मानना है की सरकार के कदमो से कॉरपोरेट सैक्टर को आर्थिक लाभ तो मिलेगा लेकिन इन कदमो से बाजार में मांग पैदा नहीं होगी और लिहाजा अर्थ व्यवस्था में कोई सुधार नहीं होगा।
              जानकारों का मानना है की अर्थ व्यवस्था में मंदी लोगों की क्रय शक्ति कम होने के चलते मांग में आयी गिरावट की वजह से है और जिस पर इन कदमो का कोई असर होने वाला नहीं है। फिर भी एक आशावादी तबके को सुधार की उम्मीद है और वो इसका इंतजार कर रहे हैं।
                 लेकिन जब भी अर्थ व्यवस्था से संबंधित कोई भी आंकड़ा सामने आता है तो उसमे बीमारी के बढ़ने के संकेत हैं न की घटने के। अब इस क्रम में जो ताज़ा आंकड़े आये हैं वो तो बहुत ही डरावने हैं। 30 सितम्बर 2019 को जारी आंकड़ों के अनुसार अर्थ व्यवस्था की हालत निम्न अनुसार है।

१. देश का फिस्कल डेफिसिट 5538.40 B  डॉलर हो गया जो पिछले महीने से करीब 62 B डॉलर ज्यादा है।

२. भारत का चालू खाता घाटा -14.30 B डॉलर हो गया जो  पहले -4.60  B  डॉलर था।

३.  भारत का चालू खाता घाटा जीडीपी के -2.00 % हो गया जो पहले -0.70 % था।

४.  भारत का भुगतान संतुलन -46.20  B  डॉलर हो गया जो पिछली अवधी में। 35.20  B  डॉलर था।

५.  सबसे भयानक बात ये की भारत का इंफ्रास्ट्रक्चर आउटपुट -0.5 % हो गया जो 52 महीने का निचला स्तर है और जो पिछली अवधि में 2.7 % था।

            इसका सीधा सा मतलब ये है की औद्योगिक उत्पादन तेजी से गिर रहा है , भुगतान संतुलन बिगड़ रहा है और घाटा बढ़ रहा है। इसका सीधा असर ये होता है की सरकार इ हस्तक्षेप करने की क्षमता घट जाती है और सुधार की उम्मीद फीकी होती चली जाती है। 

Thursday, September 21, 2017

अर्थव्यवस्था को सम्भालने के बहुत कम विकल्प बचे हैं सरकार के पास।

                   पिछले क्वार्टर के जीडीपी के आंकड़े 5 . 7 % आने के बाद भले ही अमित शाह इसको टेक्निकल कारण बता रहे हों, लेकिन सरकार को मालूम है की स्थिति वाकई गंभीर है। ये लगातार छठी तिमाही है जिसमे जीडीपी की दर लगातार गिरी है। लेकिन अब तक सरकार इसके लिए अपनी नीतियों को जिम्मेदारी देने के लिए तैयार नहीं है। जबकि सारी दुनिया के अर्थशास्त्री मानते हैं की सरकार द्वारा लिए गए लगातार गलत फैसलों की वजह से ही जीडीपी गिर रही है।
                    सबसे पहले नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी। नोटबंदी का सबसे ज्यादा नुकशान गांवों और दूरदराज के इलाकों पर हुआ। नगदी की कमी के कारण असंगठित क्षेत्र के रोजगार समाप्त हो गए। उसके कारण सब्जियों और दूसरे कृषि उत्पादों की कीमतें एकदम गिर गयी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही ये कमी 25 % से ज्यादा है। इसके कारण दो साल से लगातार सूखे की मार झेल रहे किसानो की हालत बद से बदतर हो गयी। दूसरी तरफ सरकारी और गैरसरकारी नौकरियों के अवसर लगभग समाप्त हो गए जिससे ग्रामीण क्षेत्र को जो सहारा मिलता था वो भी खत्म हो गया। उसके साथ ही खेती के बाद इस क्षेत्र में दूसरी जो चीज बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाती है वो है पशुपालन। सरकार के पशुओं के खरीद बिक्री के नियमो में किये गए फेरफार ने सीमांत किसानो के लिए ये भी घाटे का सौदा बन गया। थोड़ी बहुत जो कसर बाकी बची थी वो गोरक्षकों के नाम पर जारी गुंडागर्दी ने पूरी कर दी। इसका सीधा असर चमड़े के उत्पादन और व्यापार पर पड़ा। जिससे समाज के बिलकुल निचले तबके के गरीब लोगों के रोजगार समाप्त हो गए। और आज हालत ये है की ग्रामीण क्षेत्र, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका रखता है भारी मंदी का शिकार हो गया।
                  उसके बाद जो क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है, चाहे रोजगार देने का मामला हो या उत्पादन का, वो है लघु उद्योग और रिटेल व्यापार। ये दोनों मिलकर देश में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया करवाते हैं। लेकिन सरकार के GST लागु करने के फैसले और उसके बाद इसे लागु करने के तरीके ने इन दोनों क्षेत्रों की कमर तोड़ दी। इस तरह जहां जहां भी विकास की गुंजाइश थी हर तरफ हमला किया गया। लोग पहले हमले से सम्भल भी नहीं पाते की तुरंत दूसरा हमला हो जाता। और सबसे बड़ी बात ये की सरकार में कोई भी ये मानने को तैयार नहीं की कोई समस्या है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने तो अर्थव्यवस्था के नकारात्मक आंकड़ों को टेक्निकल कारणों की वजह से आया बता दिया।
                    लेकिन अब वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान के बाद लगता है की सरकार को कम से कम इतना तो पता है अर्थव्यवस्था में सचमुच कोई गिरावट है। लेकिन सवाल यह है की सरकार के पास इस स्थिति में हस्तक्षेप करने की कितनी गुंजाइश और दिशा मौजूद है।
                    साल की तीसरी तिमाही के एडवांस टैक्स के आंकड़े उम्मीद से कम हैं। GST के बाद टैक्स क्लैक्शन के जो आंकड़े पहले बताये जा रहे थे अब उन पर सवाल उठ रहे हैं। कुल 95000 करोड़ की क्लैक्शन के सामने 65000 करोड़ इनपुट टैक्स क्रेडिट का क्लेम है और बड़ी कंपनियों ने अब तक क्लेम का दावा भी पेश नहीं किया है। इसके बाद सरकार की नींद उड़ी हुई है। सरकार के बड़े अधिकारीयों के ऑफ़ दा रिकार्ड बयान आ चुके हैं की कम कलेक्सन के कारण खर्च में कटौती करनी पड़ सकती है। CAD एक झटके में बढ़कर २. ६ % हो गया है और साल के अंत तक इसके 3. 6 %  पहुंचने आसार है। सरकार का बजट  में घोषित खर्च अपनी 94 % के स्तर पर पहुंच चूका है।
                     इन हालात को देखते हुए सरकार के पास बहुत सीमित विकल्प मौजूद हैं। और जो विकल्प मौजूद हैं तो क्या सरकार उन्हें अपनाने का साहस दिखाएगी। पिछले तीन साल से अर्थव्यवस्था सरकारी इन्वैस्टमैंट पर ही चल रही थी। प्राइवेट सेक्टर पहले ही अपनी क्षमता से कम पर चल रहा था सो उसमे किसी नई इन्वैस्टमैंट की उम्मीद ही नहीं थी। अब प्राइवेट सेक्टर की क्षमता और घटकर 70 % पर आ गयी है इसलिए एकमात्र सहारा सरकारी निवेश का ही बचा है। दूसरी तरफ लोगों को सहायता की तुरंत जरूरत है। लेकिन जिस तरह उच्चस्तरीय बैठक के तुरंत बाद वित्तमंत्री ने बयान दिया है की तेल की कीमतों में कोई कटौती नहीं होगी, उसे देखते हुए लगता नहीं है की सरकार लोगों को कोई राहत देगी। उल्टा कुछ लोगों को शक है की सामाजिक योजनाओं में कटौती हो सकती है। मनरेगा जैसी योजनाओं में कटौती हो सकती है, और नौकरियों पर बैन को बढ़ाया जा सकता है। अगर सचमुच में ऐसा होता है तो ये इलाज भी बीमारी से भयानक हो सकता है। अगर लोगों के पास खरीद शक्ति नहीं होगी तो मंदी के सर्कल से बाहर निकलना असम्भव हो जायेगा। 

Wednesday, October 12, 2016

राष्ट्रवाद के नारों के बीच डूब रहा है अर्थव्यवस्था का जहाज

           चारों तरफ मारो-काटो और बदला लेने के राष्ट्रवादी नारों का शोर मचा हुआ है। पीठ थपथपाई जा रही हैं, अभिनन्दन समारोह आयोजित किये जा रहे हैं। चारों तरफ एक उन्माद का वातावरण है। और इस वातावरण के बीच एक खतरनाक स्थिति का निर्माण हो रहा है। जिस स्थिति की तरफ सरकार के समर्थक देखना नही चाहते, सरकार जवाब नही देना चाहती और शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपाकर आनन्द मनाया जा रहा है।
              ये स्थिति है हमारी अर्थव्यवस्था के बारे में। पिछले कुछ दिनों से खुद सरकार की तरफ से जो आकंड़े जारी किये गए हैं, वो बहुत ही डरावने हैं। निराशाजनक शब्द  उनके लिए छोटा पड़ने लगा है। सरकार के मंत्री और मीडिया भले ही इसके बारे में भरमपूर्ण जानकारियां दे, लेकिन आंकड़े बिलकुल दूसरी ही तस्वीर पेश कर रहे हैं।
IIP के ताजा आंकड़े --
                                  दो दिन पहले ही औद्योगिक उत्पादन के ताजा आंकड़े जाहिर किये गए हैं। उनके अनुसार औद्योगिक उत्पादन में 0 . 8 % की गिरावट दर्ज की गयी है। ये लगातार दूसरा महीना है जिसमे मैनुफक्चरींग की दर गिर रही है। मौजूद आंकड़े पिछले एक दशक में सबसे खराब स्तर पर हैं। इस पर उद्योग जगत भी चिंता जाहिर कर रहा है। ( IIP आंकड़ों के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। http://economictimes.indiatimes.com/topic/IIP-data  ) उद्योग जगत के लोग भी अब अर्थव्यवस्था में किसी रिवाईवल को मुश्किल मन रहे हैं। एसोचेम के महासचिव रावत ने भी इस पर निराश प्रकट की है। देखिये http://economictimes.indiatimes.com/news/economy/policy/iip-data-shows-revival-a-major-challenge-india-inc/articleshow/52693325.cms    

विदेशी कर्ज का फन्दा --
                                    किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे खराब स्थिति वह होती है जब उसे अपने पुराने कर्जों का ब्याज चुकाने के लिए नया कर्ज लेना पड़े। आजकल हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं। हमे अपने कर्जों और ब्याज के भुगतान के लिए नया कर्ज लेना पड़ रहा है। Sunday guardian के लिए लिखते हुए Jehangir Pocha ने इस स्थिति को काफी खतरनाक बताया है। ( देखिये लिंक http://www.sunday-guardian.com/analysis/in-the-end-india-will-still-be-trapped-in-debt )  

वितीय घाटे की स्थिति --
                                   ये सरकार अब तक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि वितीय घाटे को बजट की सीमा के अंदर रखने को बताती थी। इस बार बजट में सरकार ने वितीय घाटे की सीमा 3 . 5 % निर्धारित की थी जिसे एक सकारात्मक कदम माना गया था। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी इसके लिए सरकार की पीठ थपथपाई थी। लेकिन अब स्थिति ये है की अप्रैल से जून के प्रथम क्वार्टर में ही कुल टारगेट का 61 % खत्म हो चूका है। अब इसको पूरा करने के लिए सरकार पब्लिक सैक्टर के कारखानों को बेचने जैसे कदम उठाएगी। अपने वितीय घाटे को पूरा करने के लिए राष्ट्र की सम्पत्तियां बेचना वैसा ही है जैसे कोई घर का खर्च चलाने के लिए जेवर बेचे। इसका ब्यौरा आप यहां देख सकते हैं। http://www.thehindu.com/business/Economy/indias-gross-fiscal-deficit-to-exceed-target/article8429683.ece   और   http://www.business-standard.com/article/economy-policy/apr-jun-fiscal-deficit-at-61-of-fy17-target-116072901314_1.html

घटते हुए रोजगार --
                                इस मोर्चे पर सबसे खराब खबर ये है की बेरोजगारी के स्तर में रिकार्ड बढ़ोतरी हुई है। सरकार के श्रम विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार इस समय बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है। लेबर ब्यूरो के अनुसार बेरोजगारी पिछले पञ्च साल के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इसके बावजूद की सरकार मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमो की सफलता का दावा कर रही है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस पर विस्तार से ब्यौरा दिया है। देखें -http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/unemployment-india-paints-grim-picture-highest-in-5-years-in-2015-16-3056290/     

                इस तरह ये आंकड़े बता रहे हैं की अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार असफल हो रही है। इसका बोझ आने वाले दिनों में आम जनता के कन्धों पर डाला जाना है। लोगों की जरूरी मदों में कटौती के साथ साथ नए नए करों की शुरुआत हो सकती है। और इससे ध्यान हटाने के लिए राष्ट्रवाद की शराब पिलाई जा रही है।
 

Saturday, May 28, 2016

भारत की जीडीपी ( GDP ) ग्रोथ के आंकड़े विश्वसनीय क्यों नहीं हैं ?

                जब से सरकार ने जीडीपी को मापने का तरीका बदला है तब से भारत की जीडीपी में एकदम उछाल आ गया है। सरकार तब से तेजी से विकास की रट लगाए हुए है और दावा कर रही है की भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था है। और जाहिर है की इसका श्रेय नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को  दिया जा रहा है। लेकिन दुनिया का कोई भी जाना माना अर्थशास्त्री इसे स्वीकार नहीं कर रहा है। पूरी दुनिया की रेटिंग एजेंसियां, अर्थशास्त्री और निवेशक भारत सरकार द्वारा जारी किये गए आंकड़ों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं।  यहां तक की अर्थशास्त्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी इस पर सवाल उठा चुके हैं। सबका मानना है की जीडीपी के आंकड़े जमीनी हकीकत से  मेल नहीं खाते। इसको  दूसरे तरिके से समझें तो बात कुछ ऐसी है।
                मान लो आपका कोई जान पहचान वाला ये दावा करें की उसकी आय में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। और आप देखते हैं की उसने कार की जगह स्कूटर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, बच्चों को महंगे स्कुल से उठाकर सस्ते स्कूल में दाखिल कर दिया है , पूरे साल में उसने नए कपड़े नहीं बनवाए हैं  खर्चा चलाने के लिए बैंक से पैसा निकाला है तो आप उसके दावे पर कैसे भरोसा करोगे। वही हालत हमारी सरकार की है। उसके द्वारा उठाये गए कदम और जीडीपी से संबंधित दूसरे आंकड़े सरकार की जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों से मेल नहीं खाते।
               पिछला बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में भारी कटौतियां की हैं। इसके साथ ही दूसरी सामाजिक योजनाओं में भी जैसे मनरेगा हो या बच्चों के मिड डे मील का बजट हो, उनमे भी भारी कमी की गई है। अगर सरकार की हालत अच्छी है तो इन मदो में इजाफा होना चाहिए था। इसके अलावा जो दूसरे इंडेक्स हैं वो भी जीडीपी के आंकड़ों से मेल नहीं खाते।
                सरकार ने 2015 -16 के लिए जीडीपी की वृद्धि दर 7. 6 % घोषित की थी जिसे अब घटाकर 7. 5 % कर दिया गया है। पिछले तरीके के हिसाब से ये वृद्धि दर करीब 5. 5 % बैठती है। दोनों तरीकों में करीब 2 % का फर्क है। अर्थशास्त्रियों का मानना है की तरीका भले ही जो हो, वृद्धि दर तो समान ही आनी चाहिए। इसकी विवेचना करते हुए वो दूसरे आंकड़ों पर नजर डालते हैं। जीडीपी में कई चीजें शामिल होती हैं जैसे औद्योगिक उत्पादन, कृषि उत्पादन, सेवा क्षेत्र और अन्य चीजें। साथ ही जब जीडीपी दर बढ़ती है तो उससे रोजगार में बढ़ोतरी होती है, बचत की दर बढ़ती है और निवेश की मांग में बढ़ोतरी होती है। लेकिन उनके आंकड़े भी कुछ और ही कहानी कहते हैं। जैसे - 2015 -16 की औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर केवल 2.4 % रही है।
            कृषि विकास दर --
                                      2015 -16 के लिए कृषि विकास दर भी केवल 1. 1 % ही रही है जो 2013 -14 में 4.2 %
और 2014 -15 में -0. 2 % थी।
            निर्यात वृद्धि दर --
                                       2013 -14 के दौरान निर्यात वृद्धि दर 4. 7 % थी जो 2014 -15 के दौरान घटकर -1.3 % रह गई थी जो और घटकर 2015 -16 में -17. 6 % रह गई। जो पूरा साल के दौरान हर महीने घटकर रिकार्ड हुई है।
            पूंजी निर्माण (बचत दर ) --
                                                    भारत में बचत की दरें हमेशा बाकी दुनिया के मुकाबले ज्यादा ही रहती है। लेकिन वो भी लगातार घटते हुए 2013 -14 में 31 . 6 % और 2014 -15 में 30 . 8 % और 2015 -16 में 29. 4 % रह गई। लेकिन इसके साथ ही बैंकों से कर्ज की मांग की  वृद्धि दर भी 2013 -14 के 13 . 9 % से घटकर 2015 -16 में केवल 11. 3 % रह गई।
                      इस तरह मौजूदा जीडीपी को मापने के तरीके  को लेकर लोगों में भारी संदेह है। सबसे बड़ी बात ये है की जीडीपी के आंकड़े केवल सरकार की वाहवाही के लिए नहीं होते बल्कि उनके हिसाब से योजनाएं बनाने के लिए होते हैं। अगर आंकड़े ही गलत हैं तो सही योजनाएं कैसे बनेंगी।
 

Tuesday, January 12, 2016

November IIP DATA -- पटरी से उत्तर रही है विकास की गाड़ी।

          ये सरकार जिस एक चीज का नाम लेकर सत्ता में आई थी वो थी विकास। इस सरकार ने चुनावों के दौरान विकास के बड़े बड़े वायदे किये थे। पुरे देश में मोदीजी ने विकास के गुजरात मॉडल को सभी समस्याओं का हल बताया था। जिन लोगों ने गुजरात को देखा नही था या फिर बीजेपी की नजर से देखा था, वो बहुत उत्साहित थे। मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया था जैसे बीजेपी और नरेंद्र मोदी के आते ही विकास की गाड़ी सरपट दौड़ने लगेगी। कॉर्पोरेट सैक्टर भी कोल् और 2G के सारे अहसान और लूट को भूलकर जो कांग्रेस ने उसको खुली छूट देकर लूटने दिया था, नरेंद्र मोदी के पीछे लामबंद हो गया। लेकिन इस देश की विशेषताओं को समझते हुए कोई सही विकास का मॉडल उसके पास नही था। उसने UPA से जिस अवस्था में गाड़ी संभाली थी उसे वो एक इंच भी आगे नही बढ़ा पाई। आशंका तो ये जाहिर की जा रही हैं की अगर सरकार इन्ही नीतियों पर चलती रही तो देश की गाड़ी गड्ढे में उतर जाएगी।
           आज नवंबर महीने के IIP के आंकड़े घोषित हुए हैं। उनके अनुसार IIP की दर -3. 2 % है। पिछले महीने यही दर जब 9 . 8 % आई थी तो इस सरकार के मंत्रियों ने बहुत जोर जोर से अपनी पीठ थपथपाई थी। इसी ब्लॉग में मैंने तब भी लिखा था की त्योहारों के महीने के आंकड़ों से विकास  अंदाजा नही लगाया जाना चाहिए और कम से कम तीन लगातार महीनो के आंकड़े आने तक इंतजार करना चाहिए। उस समय का विश्लेषण
करते हुए हमने उसको उदाहरण ना मानने के कारण बताये थे। अब नवंबर के आंकड़े उसके आसपास तो दूर, नकारात्मक स्थिति में आ गए हैं। हालाँकि जिस तरह त्योहारों के महीने में अतिरिक्त उत्पादन होता है उसी तरह उसके तुरंत बाद के महीने में उत्पादन में एकदम कमी भी आती है। लेकिन इन आंकड़ों में सबसे ज्यादा चिंता का आंकड़ा है कैपिटल गुड्स में जो -25 % है। किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था में इस मद में एक अच्छी वृद्धि की उम्मीद की जाती है।
                दूसरी चिंता की बात ये है की उपभोक्ता महंगाई की दर बढ़ रही है। जिसमे खाद्य पदार्थों के मामले में ये 6 . 4 % हो गयी है जो वांछित दर से ज्यादा है। इसलिए रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज कम करने की संभावना खत्म हो जाती है।
                   कुल मिलाकर देश के विकास की गाड़ी पटरी से उतर रही है। और दूसरी तरफ इस सरकार का ध्यान लोगों की खरीद शक्ति बढ़ाने के उपाय करने की बजाय बुलेट ट्रेन जैसे अव्यवहारिक प्रोजेक्टों पर है। जिनसे केवल देश पर ब्याज और भुगतान का दबाव ही पैदा होगा।

Friday, December 11, 2015

ओक्टुबर IIP के आंकड़े 9. 8 % और उनका विश्लेषण

ओक्टुबर IIP के आंकड़े 9. 8 % आये और उस पर इकोनॉमी में तेजी का दावा किया जा रहा है। लेकिन अगर इस आंकड़े को ठीक से देखा जाये तो पता चलता है की इसमें सारी बढ़ोतरी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स के उत्पादन में बढ़ोतरी की वजह से हुई है। पिछले साल अक्टूबर में कंज्यूमर ड्यूरेबल का आंकड़ा -4.6 % था और इस बार ये आंकड़ा 42.2  % पर है।
                    इसका एक मुख्य कारण ये है की इस साल दिवाली नवंबर के महीने में थी और दिवाली पर होने वाली कंज्यूमर ड्यूरेबल्स का उत्पादन अक्टूबर के महीने में हुआ है। और उसकी तुलना पिछले साल के अक्टूबर से की जा रही है।
                     कुछ दिन पहले आये कोर-सेक्टर के आंकड़े कमजोर थे और किसी भी अर्थव्यवस्था में सुधार के असली संकेत कोर- सेक्टर यानि बिजली, स्टील और खान जैसी आधारभूत क्षेत्रों में सुधार से मिलते हैं। इसलिए अक्टूबर IIP  आंकड़ों से कोई स्थाई नतीजा निकालने से पहले अगले तीन-चार महीनो के आंकड़ों पर ध्यान रखने की जरूरत है।