Showing posts with label Rohit Vemula. Show all posts
Showing posts with label Rohit Vemula. Show all posts

Monday, March 21, 2016

व्यंग -- लो, जिन्हे भगवान समझते थे वो तो भक्त निकले।

                   भक्त बहुत दुखी हैं। दुखी इसलिए की जिन्हे वो अब तक भगवान मानते थे उन्होंने खुद खड़े होकर कह दिया की नही, हम तो केवल भक्त हैं। जो भक्त अब तक भगवान के भक्त थे वो एक दर्जा नीचे आकर एक दूसरे भक्त के भक्त हो गए। डिमोसन हो गया। अभी कल की ही तो बात है जब वेंकैया जी ने उनको भगवान का वरदान और गरीबों का मसीहा बताया था। लेकिन  उन्होंने सबके दिल तोड़ते हुए घोषणा कर दी की वो तो केवल एक भक्त हैं।
                     भगवान कृष्ण ने गीता में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिन रास्तों यानि योग के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया है उनमे उन्होंने कहा है की जो सबसे उच्च श्रेणी के साधक हैं उनके लिए ज्ञान योग है। उन्होंने कहा की ज्ञान योग ही सबसे श्रेष्ठ योग है। विज्ञानं भी यही कहता है की मुक्ति के लिए ज्ञान जरूरी है। भगवान बुद्ध ने भी बुद्धि को गुरु मानने की सलाह दी थी। कृष्ण ने ये भी कहा की ज्ञान योग ही ऐसा योग है जिससे साधक एक पल में मुक्ति का अनुभव कर सकता है। अष्टावक्र ने इस बात की पुष्टि की है। लेकिन इसके साथ ही भगवान कृष्ण ने ये भी कहा है की ये केवल उच्चत्तम श्रेणी के साधकों के लिए है लेकिन आजकल भक्तों की एक श्रेणी ज्ञानयोग के साधको को देशद्रोही घोषित कर सकती है और ज्ञान के मंदिर को देशद्रोहियों का अड्डा बता सकती है।
                   जो उससे नीचे की श्रेणी के साधक हैं और जो सामान्य नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करते हैं उनके लिए गीता में कर्मयोग का प्रावधान है। भगवान कृष्ण ने कहा है की मनुष्य कर्म करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है अगर वो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित कर दे। लेकिन यहां तो ऐसे साधक हैं जो अपने कर्मो को भगवान को समर्पित करना तो दूर, दूसरे के कर्मों को भी अपने नाम पर चढ़ाने में लगे रहते हैं। इसलिए कर्मयोग उनके लिए नही है।
                   इसके बाद भगवान कृष्ण ने निम्नतम स्तर के साधक के लिए भक्ति योग का प्रावधान किया। ये सबसे निचले स्तर के साधक होते हैं। जो ना तो अपने कर्मो की जिम्मेदारी लेते हैं और ना दूसरों के कर्मो को मान्यता देते हैं। इस किस्म के साधक भक्ति योग अपना सकते हैं। इसमें कई सुविधाएँ रहती हैं। भक्त हमेशा ( जब उसका दिल चाहे ) भक्ति में डूबा रह सकता है। वह किसी के प्रति जवाबदेह नही होता। वह भगवान के गुण  दोष नही देखता इसलिए उम्मीद करता है की लोग उसके गुण  दोष भी ना देखें। जब भी जवाब देने का समय आता है वो मोन साध लेता है। जब मोन रहने का समय होता है वो प्रवचन देना शुरू करता है। गीता ने भक्तों के लिए कई प्रकार की सुविधाएँ जाहिर की हैं। भक्त के लिए ये कतई जरूरी नही होता की भगवान के दिखाए रस्ते पर चले। वो उससे बिलकुल उल्ट रास्ते पर भी चल सकता है। जैसे-
                   कोई अम्बेडकर का भक्त हो सकता है बिना इस बात की परवाह किये की उसके घर में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी है। जब दलित कुंए से पानी ना भरने देने की गुहार लगा रहे होते हैं तो बाबा साहब का भक्त उन्हें सयम रखने की सलाह दे सकता है। जब महिलाएं मंदिर में प्रवेश की मांग कर रही होती हैं तो वो मुंह फेर सकता है। जब अल्पसंख्यकों को पेड़ से लटकाया जा रहा होता है तो इस्लाम की परम्परा पर भाषण दे सकता है। जब रोहित वेमुला बनाया जा रहा हो तो वो उसे जातिवादी और देशद्रोही बता कर उस पर सहमति दे सकता है। बाबा साहब का भक्त एक ऐसे संगठन का सदस्य हो सकता है और गर्व से हो सकता है जिसका मुखिया ना दलित हो सकता है और ना महिला हो सकती है। भक्त उसकी मूर्ति पर माला चढ़ा सकता है जिसका उसने कल पुतला फूंका था। आज जिसकी हत्या पर मिठाई बांटी हैं कल उसके चरणो में मत्था टेक सकता है। भक्त के लिए सब माफ़ है। भगवान ने कहा है की वो निम्न दर्जे का साधक है। लेकिन चालक भक्त दिखावा भी कर सकता है। हो सकता है उसके दिल में कोई दूसरा देवता बैठा हो और वो माला किसी दूसरे देवता को पहना रहा हो। ऐसा भक्त बाजार का चलन देखकर बोली लगा सकता है। ऐसे भक्त से सावधान रहने की जरूरत है।

Friday, March 18, 2016

आरएसएस को " भारत विजय " के अभियान में एक-एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

                आरएसएस को कभी ऐसा लगता था की अगर केंद्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार आ जाये तो वो बहुत आसानी से " भारत विजय " कर सकता है। यहां भारत विजय से मतलब है देश के लोगों द्वारा देश, देशभक्ति, लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्र के बारे में जो संघ का विचार है उसे देश की जनता द्वारा स्वीकार कर लिया जाना है । इसलिए उसने सरकार के में  आते ही अपने एजेंडे को लागु करना शुरू कर दिया। जिन संस्थाओं और मूल्यों को लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है और जो संघ की समझदारी के खिलाफ बैठती हैं, उन सब पर उसने हमला किया। भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति, उसके बहुधर्मी समाज और अनेक भाषा भाषी होने की हकीकत संघ की राष्ट्र की  अवधारणा के खिलाफ होती है। इसलिए हमारी संस्थाओं की पूरी कार्यप्रणाली अब तक इसी विचार के तहत थी। इसमें सबसे बड़ा योगदान हमारे विश्वविद्यालयों का था जो ना केवल इस अवधारणा के साथ खड़े हैं, बल्कि इस पर निरंतर शोध के जरिये इसे और ज्यादा समृद्ध भी करते हैं। वहां पढ़ने वाले छात्र और पढ़ाने वाले प्रोफेसर इस पर लगातार काम कर रहे हैं। इसके साथ ही वो ऐसे समाजशास्त्री भी हैं जो राष्ट्र और समाज के बारे में संघ की समझ का तर्कपूर्ण तरीके से विरोध करते हैं। संघ को मालूम है की जब तक हमारे विश्विद्यालय संघ की विचारधारा को स्वीकार नही करते तब तक उसका भारत विजय सपना पूरा नही हो सकता।
                 इसलिए उसने सबसे पहला हमला यहीं से शुरू किया। हमारे सिनेमा और टीवी से जुड़े और विश्व में अपनी प्रतिष्ठा रखने वाला FTII उनका पहला निशाना बना। संघ को मालूम है की उसकी विचारधारा में ना तो इतनी शक्ति है और ना ही उसे किसी स्वीकार्य शोध का समर्थन प्राप्त है की वो बहस के स्तर पर उसका मुकाबला कर सके। इसलिए उसने उसे बौद्धिक चुनौती देने की बजाए उसे नष्ट करना ही  बेहतर ऑप्सन लगा। इसलिए उसने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के बदलाव  किये की निरंतर शोध की यह प्रक्रिया ही समाप्त हो जाये। उसने पीएचडी करने वाले छात्रों की स्कॉलरशिप समाप्त कर दी। उसने दूसरे विश्व स्तरीय संस्थानों की फ़ीस में इतनी बढ़ोतरी कर दी की दलितों, गरीबों और दूर दराज से आने वाले छात्र उसमे दाखिला ही ना ले सकें। साथ ही उसने विश्विद्यालयों के उपकुलपति से लेकर दूसरे तमाम महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर दूसरे दर्जे के लोगों की नियुक्तिया करनी शुरू कर दी जो सिर झुकाकर संघ के आदेशों का पालन करते रहें।
                 इसके साथ ही उसने दबाव में ना आने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों को डराने धमकाने और यहां तक की उन पर शारीरिक हमलों तक की शुरुआत कर दी। विरोधी बुद्धिजीवियों पर झूठे मुकदमे बनवाने शुरू कर दिए और उनके संगठनो पर पाबंदियां लगानी शुरू  कर दी। उनके लोगों ने इन कार्यों का विरोध करने वाले लोगों पर अदालतों तक में हमले किये और खुलेआम दुबारा ऐसा करने की धमकियां दी।
                   लेकिन क्या हुआ ? संघ को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा की लोगों ने डरकर समर्पण करने की बजाय उसके विरोध में खड़े होने और लड़ने का फैसला किया। FTII से लेकर चाहे वो JNU हो या इलाहबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या IIT मद्रास, हर जगह उनका पुरजोर विरोध हुआ। और जहां से उन्होंने लड़ाई शुरू की थी वो एक जगह से भी उसे जीत कर आगे नही बढ़ पाये। सरकार ने अपने सारे मुखौटे उतार फेंके लेकिन इस लड़ाई को जीत नही पाये। हाँ, इसका एक उल्टा असर जरूर हुआ। अब तक जो दलित छात्र संगठन दक्षिण की इक्का दुक्का संस्थानों में थी उसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया। वामपंथ, जो 2009 के चुनावों के बाद मीडिया में अपनी जगह खो चूका था उसे दुबारा हासिल करने में कामयाब रहा। और इन सब में जो सबसे बड़ी बात हुई वो ये की दलितों, वामपंथियों और अल्पसंख्यकों के बीच बड़े  पैमाने पर एक साझा समझ विकसित हुई। लोगों में साथी और विरोधी की तर्कपूर्ण पहचान करने की समझ बढ़ी।
                  इसलिए जो संघ अब तक ये समझता था की एक सिमित  हमले के बाद लोग समर्पण कर देंगे उसे एक एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उसे रस्ते में आने वाला हर सर कलम करना पड़ रहा है। उसके बावजूद अबतक तो उसे ये भी नही पता की वो आगे बढ़ा है या पीछे हटा है। पूरी सरकार की निष्पक्षता और सभी संस्थाओं की स्वायतत्ता को खोकर भी वो कुछ हासिल नही  पाया।

Monday, March 14, 2016

लोगों पर हमलों को दूर से देखते राजनितिक दल।

               पिछले कुछ समय से बीजेपी और आरएसएस ने लोगों के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमले तेज कर दिए हैं। इसका पहला शिकार लेखक, बुद्धिजीवी और छात्र हुए हैं। क्योंकि यही वो लोग हैं जो निर्णयों के दूरगामी परिणामो को समझ सकने की काबिलियत रखते हैं। इसके समर्थन में संघ ने ऐसे लोगों को मैदान में उतारा है जो दिमाग से पैदल हैं और आका के हुक्म पर अपने बाप को भी गाली दे सकते हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है की ये लोग जिस तबके से आते हैं वो खुद सरकार के हमलों का शिकार है। जैसे, छात्रों का एक छोटा तबका जो नकली देशभक्ति के नारों से प्रभावित है उसको ये दिखाई नही दे रहा है की जिस तरह के फेरबदल सरकार शिक्षा के क्षेत्र में कर रही है उससे गरीब छात्रों का बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हो जायेगा। और लड़ाई असल में उन्ही बदलावों के खिलाफ शुरू हुई थी चाहे हैदराबाद हो या JNU हो। दूसरी तरफ पर सैनिकों का एक तबका है, लेकिन वो इस बात को भूल गया की OROP के सवाल पर इस सरकार ने वेटरंस के साथ क्या सलूक किया था। और एक सैनिक जब रिटायर होता है तो या तो किसान बनता है , छोटा दुकानदार बनता है या फिर किसी निजी फर्म में नौकरी करता है। वो ये भूल जाता है की किसानो की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, छोटे व्यापार में विदेशी फर्मों को इजाजत देकर छोटे दुकानदारों को मुसीबत में डाला जा रहा है और कर्मचारियों के हित में बने सारे कानून बदले जा रहे हैं। देशभक्ति केवल नारों में नही होती। जब कोई आदमी सेना के किसी गलत काम के खिलाफ आवाज उठाता है तो वो सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहा होता है जो सेना का इस्तेमाल उस काम के लिए कर रही होती है। एक बहुत छोटा सा उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और नक्सलियों के खिलाफ सेना की मुहिम कोई विदेशी ताकत के खिलाफ मुहिम नही है। ये अपने ही गरीब आदिवासियों से जमीन खाली करवा कर उद्योगपतियों को देने की लड़ाई है। और इस लड़ाई में सैनिकों की हालत ये है की जितने सैनिक नक्सलियों के साथ लड़ाई में मारे गए हैं उनसे ज्यादा सैनिक वहां सुविधाओं के आभाव में बिमारियों और दूसरे कारणों से मारे गए हैं। ये सारे आंकड़े गूगल पर उपलब्ध हैं।
                 आजादी से पहले भी इस तरह के दौर आये हैं। उस समय भी देश का बहुत छोटा सा तबका ही था जो इन चीजों को समझता था और इनका विरोध करता था। अंग्रेज हमेशा आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए उसके नेताओं को बदनाम करती रही। राजा राममोहन राय और जगदीश चन्द्र बसु के समाज सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ कटटरपंथी हिन्दुओं का एक तबका परम्परा और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के नाम पर उनके खिलाफ खड़ा रहा। भगत सिंह और उनके साथियों को उस समय भी आतंकवादी कहने वालों की बड़ी संख्या थी।
                 जब आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में थी तब भी जो लोग अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे और जिन कारणों के लिए कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, ठीक उसके उल्ट उन्ही लोगों के साथ मिलकर सरकार बना रहे थे। हिन्दू महासभा, उस समय जिसके नेता वीर सावरकर और शयामा प्रशाद मुखर्जी थे, एक तरफ कांग्रेस पर विभाजन ना रोक पाने का आरोप लगा रही थी और दूसरी तरफ जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रही थी। सावरकर अपने लेखों में दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन भी कर रहे थे और कांग्रेस को भी कोस रहे थे।
                  ठीक यही स्थिति आज भी है। बीजेपी और आरएसएस एक तरफ लेखकों, बुद्धिजीविओं और छात्रों पर कश्मीर के सवाल पर केवल एक वैचारिक बहस को लेकर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं, हमले कर रहे हैं और दूसरी तरफ ठीक उसी विचार पर काम कर रही पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं। कश्मीर में बीजेपी के कोटे से मंत्री बने सज्जाद लोन ने कहा था की जब कोई भारतीय सैनिक मरता है तो उसे सकून मिलता है।
                   लेकिन सवाल दूसरा है। जब इस तरह के हमले हो रहे हों, देश का धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक अस्तित्त्व खतरे में हो तब कुछ राजनैतिक पार्टिया इस पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। आज भी इस सवाल पर वामपंथी दलों, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस को छोड़कर बाकि दल इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। लो लोग दलितों की राजनीती का दावा करते हैं वो रोहित वेमुला के सवाल पर चुप हैं। स्थिति ठीक वैसी ही है। आजादी की लड़ाई के गद्दार आज देशभक्ति का दावा कर रहे हैं। इसी तरह इस लड़ाई के बाद यही राजनैतिक दल नए दावों और नारों के साथ सामने आएंगे।
                     इसलिए हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को स्थिति की गंभीरता को समझकर फैसला लेना होगा। जो हमले आज उन्हें लगता है की दूसरों पर हो रहे हैं, दरअसल पिछले दरवाजे से उन्ही पर हो रहे हैं। ये हमले उन्ही लोगों पर हो रहे हैं जो आम जनता के दूसरे सवालों पर भी, जो उनकी रोज की जिंदगी और काम धंधे से जुड़े होते हैं, सवाल उठाते हैं।  सरकार के खिलाफ लड़ने वाले इन सब लोगों पर हमले का मतलब खुद लोगों पर हमला है। अगर समय से इसका विरोध नही किया गया तो एक लम्बी अँधेरी रात की शुरुआत हो सकती है।

Saturday, March 12, 2016

विजय माल्या, कांग्रेस के दिए हुए लोन और बीजेपी की जिम्मेदारी

             विजय माल्या चले गए। चले ही जाना चाहिए इस देश में और रखा भी क्या था। जितना उसके लिए रखा था वो तो ले ही लिया। अब जब लगा की वापिस देना पड़ सकता है तो चले गए। जो लोग, नेता और टीवी चैनल आमिर खान पर हफ्तों इस बात पर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे थे की उनकी पत्नी ने ऐसा क्यों कहा की क्या हमे देश छोड़ देना चाहिए, उनमे से किसी ने इस सचमुच देश छोड़ने वाले को गद्दार नही बताया। ना राजनाथ सिंह ने, ना आरएसएस ने, और ना सोशल मीडिया पर बैठे भाड़े के देश भक्तों ने। बताते भी कैसे ? विजय माल्या ने धमकी दी है की सबकी पोल खोल दूंगा दस्तावेजों के साथ।
               लेकिन इसके बाद दूसरा सवाल ये है की जब मामला उठा की उसे जाने कैसे दिया तो बीजेपी ने कहा की सारे लोन कांग्रेस के दिए हुए हैं। अब ये नया तरीका शुरू होगा की कांग्रेस के जमाने के दिए हुए लोन कांग्रेस वसूल करेगी और बीजेपी के जमाने के दिए हुए बीजेपी। तरीका तो सही है। लेकिन मुझे एक गड़बड़ लगती है। जो लोन विश्वनाथ प्रताप सिंह, मोरारजी देसाई या आई. के. गुजराल साहब के जमाने में दिए थे उनको कौन वसूल करेगा। साथ ही अब मुझे लगता है की बैंकों का NPA इसी लिए बढ़ रहा है की वो सारे लोन कांग्रेस के जमाने में दिए गए थे तो बीजेपी सरकार क्यों वसूल करे। देश के उन सारे उद्योगपतियों को अब उस लोन का कोई पैसा चुकाने की जरूरत नही है जो कांग्रेस के जमाने में लिए थे। कभी दुबारा कांग्रेस की सरकार आएगी तो देखेंगे, वरना माले गनीमत समझ कर हजम कर लो।
             दूसरी जो चीज मुझे समझ में आई वो ये की, जो बीजेपी कहती रही है की कांग्रेस मुक्त भारत बनाएगी तो उद्योगपति उसका समर्थन क्यों करते थे। अरे भई, इसका दूसरा मतलब ये भी तो हुआ की कांग्रेस मुक्त भारत और कर्ज मुक्त उद्योगपति। जाहिर है की जो लोन कांग्रेस के जमाने में दिए गए थे उनको वसूल करने की जिम्मेदारी बीजेपी की तो है नही। इसलिए सभी उद्योगपतियों को कर्जमुक्त घोषित कर दिया जाये। और मुझे पूरा विश्वास है की बहुत जल्दी ये कर दिया जायेगा।
               मुझे इसमें कोई बुराई भी नजर नही आती। आखिर किसी दूसरे का दिया हुआ कर्जा कोई दूसरा क्यों वसूल करे। बस मुझे एक ही बात और कहनी है। यही बात बीजेपी सरकार वर्ल्ड बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और दूसरे कर्ज देने वाली संस्थाओं को भी कह दे की तुम्हारे से कर्जा कांग्रेस के जमाने में लिया गया था इसलिए हमसे तो उम्मीद मत रखना। आखिर कांग्रेस के जमाने में लिया हुआ कर्जा बीजेपी क्यों भरे।  जब वसूली की जिम्मेदारी नही है तो देने की जिम्मेदारी भी नही है।
               अब आगे से सारे काम इसी हिसाब से होंगे। स्मृति ईरानी कहती हैं की जिन अधिकारीयों ने रोहित वेमुला को बर्खास्त किया उनकी नियुक्ति कांग्रेस के जमाने में हुई थी हमने नही की। सरकार कहती है की जो एफिडेविट सीबीआई ने बदला उसका जवाब कांग्रेस देगी अधिकारी नही। जिन लोगों पर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, वो सभी अधिकारी कह रहे हैं की ये काम हमने कांग्रेस के एक नेता के दबाव में किया था। और ये वो बड़े गर्व से टीवी चैनल पर कह रहे हैं और मौजूदा सरकार उस तालियां पीट रही है की देखो, हम ना कहते थे।
                मुझे केवल एक बात का डर है। कल कोई युद्ध हो जाये और हमारी पिटाई हो जाये तो बीजेपी ये ना कह दे की इन सारे सैनिकों और अधिकारीयों की नियुक्ति कांग्रेस के जमाने में हुई थी। इसलिए मैं कहता हूँ की देश के सारे कर्मचारियों और अधिकारीयों को बर्खास्त करके नई भर्ती की जाये। सारे बैंकों को बंद करके नए बैंक खोले जाएँ। जिनका पैसा जमा है वो कांग्रेस से मांगे। जिनको देना है वो भूल जाये और नया लोन ले। उसके बाद देश में होने वाली घटनाओं की जिम्मेदारी मौजूदा सरकार की होगी। 

Friday, February 26, 2016

क्या ये दूसरा शम्बूक वध ( हत्या ) है ?

            
  हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की संस्थाकीय हत्या के बाद JNU की घटनाओं पर बीजेपी और आरएसएस का रुख ठीक उसी तरह है जिस तरह शम्बूक नामक शूद्र की ज्ञान प्राप्ति से घबराये हुए अयोध्या के ब्राह्मणो का था। रामायण में इस बात का जिक्र है की शम्बूक की ज्ञान प्राप्ति को रोकने के लिए उस समय अयोध्या के ब्राह्मणो के पास कोई उचित तर्क नही था। इसलिए उन्होंने एक ब्राह्मण के बालक की असामयिक मृत्यु को उसके साथ जोड़ दिया। और उस समय के राजा राम को उस नितान्त असंगत आधार पर भी शम्बूक की हत्या करने में कोई हिचक नही हुई। समाज में ऊपरी पायदान पर बैठा वर्ग हमेशा अपनी स्थिति के खो जाने की आशंका से भयभीत रहता है। और वो हमेशा इस स्थिति को बनाये रखने में कुतर्को और षड्यंत्रों का सहारा लेता रहा है। चाहे द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा काटने की घटना हो या मौजूदा समय में उच्च शिक्षा में दलितों के प्रवेश को रोकने के लिए की गयी तिकड़में हों।
                JNU में छात्रवृति बंद करने के पीछे भी यही कारण था। उच्च शिक्षा से छात्रवृति बंद करना सीधे सीधे गरीब छात्रों को उच्च शिक्षा से वंचित किये जाने का मामला है जिनमे से बड़ा हिस्सा दलितों से आता है। इस निर्णय के विरोध में JNU छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया के नेतृत्व में छात्रों का संघर्ष और OCCUPAI  UGC  जैसे प्रोग्राम सामने आये। इन सब पर सरकार ने जो दमन चक्र चलाया उसके बाद सरकार इस  स्थिति में ही नही है की वो इससे इंकार कर सके।
                 उसके बाद संसद में और टीवी चैनलों पर बीजेपी और आरएसएस के प्रवक्ता इस बहस को दुर्गा और महिसासुर तक ले गए। इसे यहां तक लेकर जाना आरएसएस और बीजेपी के उस प्लान का ही हिस्सा है जो देश में एक साम्प्रदायिक और जातीय विभाजन खड़ा करने की कोशिश करता हैं। संसद की ये परम्परा रही है की किसी भी वर्ग समूह द्वारा किसी भी देवी देवता और ऐतिहासिक महापुरुषों के बारे में की गयी आपत्तिजनक टिप्पणी का मुद्दा यदि उठाया जाता है तो उन शब्दों का प्रयोग ज्यों का त्यों नही किया जाता जिन पर आपत्ति होती है। क्योंकि इससे किसी दूसरे समुदाय की भावनाएं आहत हो सकती हैं। लेकिन बीजेपी ने स्मृति ईरानी के नेतृत्त्व में ठीक उन्ही शब्दों का प्रयोग किया और पहले घटी हुई किसी घटना जिसमे बीजेपी के  मौजूदा सांसद उदित राज मुख्य वक्ता थे, उसके लिए राहुल गांधी को जवाब देने के लिए कहा। बीजेपी एक बार अपने सांसद उदित राज से तो पूछ लेती की उसका इस बारे में क्या विचार है। लेकिन उसने इसका राजनैतिक प्रयोग किया।
                 भारतीय समाज में देवी देवताओं और पूजा पध्दतियों के बारे में इतनी विविधतायें हैं जिनको आरएसएस और बीजेपी एक रूप देने की विफल कोशिश करती रही हैं। कुछ समुदाय महिसासुर और रावण की पूजा करते हैं। बिहार में जरासंध का जन्मदिन मनाया जाता है और उसमे बीजेपी के नेता शामिल होते हैं। धर्म की मान्यताएं हमेशा अकादमिक बहस का मुद्दा रही हैं। जिन्हे हम समाज सुधारक कहते है उन्होंने क्या किया था ? पहले चली आ रही मान्यताओं पर हमला करके उनके जन विरोधी चरित्र को उजागर किया था और उन्हें बदलने के लिए लोगों को तैयार किया था। इस तरह तो सबको देशद्रोही घोषित किया जा सकता है। बीजेपी के प्रवक्ता का ये कहना की हमे महिसासुर की पूजा से एतराज नही है बल्कि दुर्गा के चित्रण में प्रयोग शब्दों पर आपत्ति है। लेकिन ये आपत्ति तो कुछ लोगों द्वारा महिसासुर और रावण के चित्रण में प्रयोग शब्दों पर भी हो सकती है। क्या संबित पात्रा इस बात की गारंटी लेंगे की की आगे से चाहे रामलीला हो या कोई दूसरा प्रवचन, उसमे इनके लिए उस तरह का चित्रण नही किया जायेगा। इसलिए लोगों और विभिन्न समूहों द्वारा सदियों से अपनाये गए रीती रिवाजों पर अकादमिक बहस तो हो सकती है, लेकिन इनका राजनैतिक इस्तेमाल देश को बहुत महंगा पड़ सकता है।
                अब आते हैं रोहित वेमुला की मौत पर। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं की ABVP के कहने पर बीजेपी सरकार के मंत्रियों ने उन पर कार्यवाही के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया और उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर निकलवाया। हो सकता है ये चीजें अदालत में साबित ना हों। अदालत में बहुत सी चीजें साबित नही होती, इसका मतलब ये नही होता की सच्चाई बदल जाएगी। रोहित एक होनहार रिसर्च स्कालर था और उस वर्ग से आता था जो रामराज से आज तक शिक्षा का अधिकारी स्वीकार नही किया गया है। ये साफ तोर पर दूसरी बार शम्बूक की हत्या है।

Monday, February 22, 2016

रोहित वेमुला केस में दलित पार्टियों की ख़ामोशी

             कल 23 फ़रवरी है। कल ही हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने रोहित वेमुला की संस्थाकीय हत्या मामले में न्याय की मांग करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया है। इस नारे पर कल दिल्ली में एक बड़ा छात्र प्रदर्शन होने की उम्मीद है। बीजेपी के छात्र संगठन ABVP के रोहित का विरोध करने के बाद केंद्र सरकार के दो मंत्रियों बंडारु दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी ने रोहित की गतिविधियों को राष्ट्र विरोधी बताते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन को उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर करने को मजबूर किया, जिसके चलते रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली। इसलिए पुरे देश के छात्र इसे संस्थाकीय हत्या कह रहे हैं।
             लेकिन इसमें एक बहुत ही अजीब सी लगने वाली चीज भी सामने आई है। दलितों के नाम पर राजनीती करने वाली पार्टियां इस पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं। जो पार्टियां बहुत ही छोटी छोटी बातों को भी दलित उत्पीड़न का मामला बता कर राजनीती करती रही हैं, वो इस सवाल पर चुप्पी साध गयी। आखिर इसका क्या कारण है ?
             रोहित वेमुला पहले वामपंथी छात्र संगठन SFI के साथ जुड़ा हुआ था और बाद में उसने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन ज्वाइन कर ली। रोहित विश्वविद्यालय की राजनीती में दलित छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के साथ बहुत ही बुनियादी सवाल उठा रहा था जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए थे। ये वो सवाल थे जिनसेदलित राजनीती का स्वरूप बदल सकता था। वह परिवारों के नाम पर या खोखले नारों के नाम पर बनी राजनितिक पार्टियों का विरोध करता था और दलितों के लिए बुनियादी सुधारों की मांग करता था। वह अम्बेडकर की राजनितिक लाइन को समझता था और इसे केवल जातिवादी नारों से वोट बटोरने तक घटाने का विरोधी था। इसीलिए एक तरफ जहां ABVP जैसे साम्प्रदायिक छात्र संगठन उससे डरते थे तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के नाम पर सत्ता की मलाई खाने वालों को भी उससे परेशानी होती थी। रोहित वेमुला छात्र राजनीती में और दलित राजनीती में एक क्रन्तिकारी लेकिन कम पहचानी हुई धारा की अगुवाई कर रहा था। जिस तरह भगत सिंह आजादी की लड़ाई में एक छोटी लेकिन समानान्तर विचारधारात्मक लड़ाई का नेतृत्त्व करते थे। जिस तरह भगत सिंह की शहादत ने देश के नौजवानो को उन विचारों को जानने और समझने के लिए प्रेरित किया था, उसी तरह रोहित वेमुला की शहादत ने भी दलित छात्रों और नौजवानो को उस बुनियादी लड़ाई को समझने के लिए प्रेरित किया है। और यही कारण है की दलित राजनैतिक पार्टियां उससे खतरा महसूस करती हैं। उन्हें लगता है की अगर ये बुनियादी सवाल उठाये गए तो इनमे से एक का भी जवाब उनके पास नही है।
             लेकिन क्या ये ख़ामोशी रोहित के विचारों को छात्रों और नौजवानो तक पहुंचने से रोक पायेगी। क्योंकि पुरे हिंदुस्तान में सदियों से इस उत्पीड़न के शिकार दलित और अल्पसंख्यक नौजवान प्रगतिशील वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर एक मोर्चा बना रहे हैं। पूरी खलबली और JNU जैसे हमले इसी मोर्चे से घबराहट का नतीजा हैं। रोहित के साथ भी वही होने वाला है जो अफ़्रीकी नेता लुमुम्बा की हत्या  जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में है। उन्होंने  कहा था की ," एक मरा हुआ लुमुम्बा, एक जिन्दा लुमुम्बा से ज्यादा खतरनाक होता है। "

Friday, February 5, 2016

Vyang -- जूलियन असांजे, मानवाधिकार और पश्चिम

खबरी --  सयुंक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार पैनल ने अपनी जाँच के बाद कहा है की विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे की " मनमानी कैद " को न केवल खत्म किया जाना चाहिए बल्कि अब तक इसे बनाये रखने के लिए उसे मुआवजा भी दिया जाना चाहिए।

गप्पी -- मुझे लगता है की सयुंक्त राष्ट्र ने एक बार फिर अपने अधिकार क्षेत्र का उलंघ्घन किया है। सयुंक्त राष्ट्र को इसलिए नही बनाया गया था की वो पश्चिमी देशों के खिलाफ प्रस्ताव पास करे। उसकी स्थापना इसलिए की गयी थी की जब भी जरूरत पड़े, वो पश्चिम की दादागिरी को विश्व शांति के लिए अनिवार्य घोषित करे। उसके हमलों को पूरी दुनिया द्वारा किया गया हमला करार दे। अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों के खिलाफ बोलने वाले देशों को मानवाधिकारों के दुश्मन घोषित करे। लेकिन उसने फिर एकबार बिना सोचे समझे काम किया है।
          जहां तक मानवाधिकारों का सवाल है, अमेरिका और पश्चिमी देशों के रिकार्ड पर कभी सवाल नही उठाया जा सकता। अगर ब्रिटेन जलियांवाला बाग़ करे तब भी वो सभ्य राष्ट्र रहेगा और इराक अपनी सम्प्रभुता की बात करे तब भी दुनिया के लिए खतरा रहेगा। अब सीरिया या यमन में किसकी सरकार हो ये तय करने का अधिकार अगर सयुंक्त राष्ट्र वहां की जनता का घोषित कर दे तो उसे कोई मान थोड़ा ना लेगा। कहां किसकी सरकार होगी ये तय करने का अधिकार तो केवल अमेरिका और पश्चिम को ही है। पिछले सालों में अमेरिका, पश्चिम और सयुंक्त राष्ट्र ने इसे बार बार साबित किया है। इसलिए पश्चिमी देशों के मानवाधिकारों पर सवाल उठाना तो सूरज को दिया दिखाने के बराबर हुआ। अमेरिका भले ही ग्वांटेमाओ जैसी जेल रखे इससे उसके मानवाधिकारों के रिकार्ड पर क्या फर्क पड़ता है। जब अमेरिका ने अपने मूल निवासियों यानि रेड इंडियन्स का सफाया किया तब भी किसी ने उसके मानवाधिकारों पर सवाल उठाने की बजाए उससे प्रेरणा ही ली। आज पूरी दुनिया की पूंजीवादी सरकारें अपने अपने देश के आदिवासियों का उसी तरह सफाया कर रही हैं और मजाल है उसकी कोई चर्चा कर दे। हमारे यहां तो यहां तक सुविधा है की आदिवासियों का सवाल उठाने वालों को आराम से नक्सली घोषित कर दो और उसके साथ फिर जैसा चाहो वैसा सलूक करो, मानवाधिकार गया भाड़ में। और अगर कोई भूल से इस पर सवाल उठा भी दे तो उस पर ये कहकर टूट पड़ो की उस समय आप कहां थे जब --------
               इस रिपोर्ट में जो नाम पहले आता है वो है स्वीडन। आप दुनिया की किसी भी संस्था की रिपोर्ट उठा कर देख लीजिये, मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों के मामले में उसका नंबर ऊपर से पहला या दूसरा होता है। अब अगर वो अमेरिका के किसी दुश्मन को घेरने के लिए प्रयास करता है तो केवल इस बात से उसका रिकार्ड खराब थोड़ा ना हो जायेगा। ये तो सनातन परम्परा है। भगवान राम अगर सीता का त्याग कर दें तो क्या तुम उन्हें महिला विरोधी थोड़ा ना साबित कर दोगे। इस दुनिया को चलाने के लिए ये अति आवश्यक है की एकलव्य बिना कोई सवाल उठाये अपना अँगूठा द्रोणाचार्य को भेंट करता रहे। इसके लिए उसे महान गुरु भक्त और दूसरे अलंकारों से नवाजा जायेगा। लेकिन अगर वो इस पर सवाल उठाता है तो उसे रोहित वेमुला बना दिया जायेगा।
                इसलिए मेरा मानना है की सयुंक्त राष्ट्र को अपनी ये रिपोर्ट वापिस ले लेनी चाहिए और जूलियन असांजे को दुनिया और सभ्यता का दुश्मन कर देना चाहिए। आखिर उसके कामों ने महान अमेरिकी शासन पर ऐसा कलंक लगाया है जिसे उसका पूरा प्रचार तंत्र, सारी सैन्य शक्ति और विश्व संस्थाएं मिल कर भी साफ नही कर पा रही हैं।

Friday, January 22, 2016

रोहित वेमुला की मौत पर

मैंने
सदियों से तुम्हे
अपने पैरों के नीचे रक्खा,
लेकिन
तुम झांक लेते थे
मेरे अंदर
और
बक देते थे सबकुछ बाहर ,
मुझे तुमसे डर लगता था
इसलिए
मैंने तुम्हे मारने के षड्यंत्र रचे,
और एक दिन
तुम मर गए
बिना मुझ पर आरोप लगाये ,
लेकिन
मेरा डर कम होने की बजाय
बढ़ गया ,
मैं अब सभाओं में आंसू बहा रहा हूँ,
तुम्हारे लिए
लेकिन डर है की कम होने का नाम ही नही ले रहा,
मैं क्या करूँ ?
इसलिए
मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ
की तुम मर जाओ
ताकि
सदियों से छुपा
मेरा सच बाहर ना आ सके।
वादा करो रोहित वेमुला
की तुम मरोगे,
उस संस्कृति की रक्षा के लिए
जो सदियों से महान है।