नोटबन्दी के फैसले के बाद इसके जो लाभ गिनवाए गए थे वो एक एक करके छलावा साबित हो रहे हैं। अब इसके दुष्परिणाम एक एक करके सामने आने लगे हैं। उनमे से कुछ इतने बड़े, स्पष्ट और विनाशकारी हैं की आम आदमी को भी सामने दिखाई दे रहे हैं। इन्ही में से एक है बैंकिंग व्यवस्था से उठता हुआ विश्वास।
कोई आदमी जब अपना पैसा बैंक में रखता है तो उसके सामने दो उद्देश्य होते हैं। एक तो ये की उसका पैसा सुरक्षित है और डूबेगा नही। दूसरा ये की उसे जरूरत के समय तुरन्त पैसा मिल जायेगा। ब्याज की आमदनी इसमें कोई भूमिका नही रखती। क्योंकि बाहर मार्किट में ब्याज की दर बैंक से दुगनी तिगुनी होती है। लेकिन उसके साथ उपरोक्त दो जोखिम जुड़े होते हैं। बाहर मार्किट में पैसा ब्याज पर देने से एक तो उसके डूबने का डर रहता है जिसके लिए लोग बैंक का रुख करते हैं। लेकिन ऐसा भी नही है की बाहर ब्याज पर दिया हुआ सारा पैसा डूब ही जाता है। बाहर मार्किट में भी ऐसे लोग हैं जिनका भरोसा और साख बहुत बड़ी है। लेकिन कई बार वो भी जरूरत के समय तुरन्त पैसा नही लोटा पाते। वो महीना बीस दिन का समय लगा देते हैं। इसके लिए लोग एमरजेंसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए पैसा बैंक में रखते हैं ताकि जरूरत के समय तुरन्त मिल जाये।
नोटबन्दी के बाद बैंक की इसी विशेषता पर चोट पहुंची है। जिन लोगों का पैसा बैंक में था और उन्हें उसकी बहुत सख्त जरूरत थी, उन्हें भी वो पैसा नही मिला। लोगों को शादियां टाल देनी पड़ी, हस्पतालों में इलाज नही करवा पाए और गरीब लोगों को तो राशन तक की तकलीफ खड़ी हो गयी। लाखों रुपया बैंको में जमा होने के बाद भी लोगों की हालत भिखारियों जैसी हो गयी। इस पर भी सरकार ने इसका हल निकालने की बजाय उन्हें कैशलेस इकोनॉमी के चुटकले सुनाये। आज बैंक की लाइन में खड़ा हर आदमी इस मानसिक स्थिति में पहुंच गया है की कभी भी और किसी भी तरह एक बार उसका पैसा निकल जाये, फिर वो कभी बैंक का रुख नही करेगा। लोगों का बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठ गया।
इसके कुछ साफ और अंधे को भी दिखाई देने वाले सबूत हैं। बैंक ने एक महीने के दौरान लोगों को करीब ढाई लाख करोड़ के नए नोट बांटे हैं। लेकिन उनमे से एक भी नोट वापिस बैंक में जमा नही हुआ। ये बात SBI के अधिकारियों ने मीडिया के सामने कही है। ये लोगों के उठते हुए विश्वास का साफ संकेत हैं। इस तरह जो बैंक आज जमा हुए पैसे से छलक रहे हैं एक समय के बाद वो सूखे के शिकार हो जायेंगे। जैसे जैसे लोगों का पैसा निकलता जायेगा वो कभी वापिस नही आएगा। आयेगा भी तो बहुत कम। और ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घण्टी साबित होगा। बैंकिंग सिस्टम पर भरोसा किसी भी अर्थव्यवस्था की नींव होता है।
वैसे भी बैंको पर एक दूसरा संकट आने वाला है। वो है बड़े पैमाने पर NPA का संकट। अब तक बैंक केवल बड़े उद्योगों के NPA से जूझ रहे थे, अब लम्बी चलने वाली मन्दी के कारण आम लोगों द्वारा लिए गए लोन, चाहे वो घर के लिए हों, गाड़ी के लिए हों या पर्सनल लोन हो, कमाई की कमी के कारण उनका एक बड़ा हिस्सा डूबने वाला है। 2008 की मन्दी के बाद जिस तरह का संकट सामने आया था उसे एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। अब तक रिजर्व बैंक ने बैंको को नवम्बर और दिसम्बर की डिफाल्ट हुई किस्तो को NPA में नही दिखाने की छूट दे दी है, लेकिन उसके बाद, यानि जनवरी में क्या होगा ?
सरकार पता नही क्यों इस खतरे की तरफ से आँख मूंदे हुए है। सारा देश एक दिन में कैशलेस नही हो जाने वाला है। अर्थव्यवस्था के सामने खड़े इस संकट को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।
कोई आदमी जब अपना पैसा बैंक में रखता है तो उसके सामने दो उद्देश्य होते हैं। एक तो ये की उसका पैसा सुरक्षित है और डूबेगा नही। दूसरा ये की उसे जरूरत के समय तुरन्त पैसा मिल जायेगा। ब्याज की आमदनी इसमें कोई भूमिका नही रखती। क्योंकि बाहर मार्किट में ब्याज की दर बैंक से दुगनी तिगुनी होती है। लेकिन उसके साथ उपरोक्त दो जोखिम जुड़े होते हैं। बाहर मार्किट में पैसा ब्याज पर देने से एक तो उसके डूबने का डर रहता है जिसके लिए लोग बैंक का रुख करते हैं। लेकिन ऐसा भी नही है की बाहर ब्याज पर दिया हुआ सारा पैसा डूब ही जाता है। बाहर मार्किट में भी ऐसे लोग हैं जिनका भरोसा और साख बहुत बड़ी है। लेकिन कई बार वो भी जरूरत के समय तुरन्त पैसा नही लोटा पाते। वो महीना बीस दिन का समय लगा देते हैं। इसके लिए लोग एमरजेंसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए पैसा बैंक में रखते हैं ताकि जरूरत के समय तुरन्त मिल जाये।
नोटबन्दी के बाद बैंक की इसी विशेषता पर चोट पहुंची है। जिन लोगों का पैसा बैंक में था और उन्हें उसकी बहुत सख्त जरूरत थी, उन्हें भी वो पैसा नही मिला। लोगों को शादियां टाल देनी पड़ी, हस्पतालों में इलाज नही करवा पाए और गरीब लोगों को तो राशन तक की तकलीफ खड़ी हो गयी। लाखों रुपया बैंको में जमा होने के बाद भी लोगों की हालत भिखारियों जैसी हो गयी। इस पर भी सरकार ने इसका हल निकालने की बजाय उन्हें कैशलेस इकोनॉमी के चुटकले सुनाये। आज बैंक की लाइन में खड़ा हर आदमी इस मानसिक स्थिति में पहुंच गया है की कभी भी और किसी भी तरह एक बार उसका पैसा निकल जाये, फिर वो कभी बैंक का रुख नही करेगा। लोगों का बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठ गया।
इसके कुछ साफ और अंधे को भी दिखाई देने वाले सबूत हैं। बैंक ने एक महीने के दौरान लोगों को करीब ढाई लाख करोड़ के नए नोट बांटे हैं। लेकिन उनमे से एक भी नोट वापिस बैंक में जमा नही हुआ। ये बात SBI के अधिकारियों ने मीडिया के सामने कही है। ये लोगों के उठते हुए विश्वास का साफ संकेत हैं। इस तरह जो बैंक आज जमा हुए पैसे से छलक रहे हैं एक समय के बाद वो सूखे के शिकार हो जायेंगे। जैसे जैसे लोगों का पैसा निकलता जायेगा वो कभी वापिस नही आएगा। आयेगा भी तो बहुत कम। और ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घण्टी साबित होगा। बैंकिंग सिस्टम पर भरोसा किसी भी अर्थव्यवस्था की नींव होता है।
वैसे भी बैंको पर एक दूसरा संकट आने वाला है। वो है बड़े पैमाने पर NPA का संकट। अब तक बैंक केवल बड़े उद्योगों के NPA से जूझ रहे थे, अब लम्बी चलने वाली मन्दी के कारण आम लोगों द्वारा लिए गए लोन, चाहे वो घर के लिए हों, गाड़ी के लिए हों या पर्सनल लोन हो, कमाई की कमी के कारण उनका एक बड़ा हिस्सा डूबने वाला है। 2008 की मन्दी के बाद जिस तरह का संकट सामने आया था उसे एक बार फिर दोहराया जाने वाला है। अब तक रिजर्व बैंक ने बैंको को नवम्बर और दिसम्बर की डिफाल्ट हुई किस्तो को NPA में नही दिखाने की छूट दे दी है, लेकिन उसके बाद, यानि जनवरी में क्या होगा ?
सरकार पता नही क्यों इस खतरे की तरफ से आँख मूंदे हुए है। सारा देश एक दिन में कैशलेस नही हो जाने वाला है। अर्थव्यवस्था के सामने खड़े इस संकट को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-12-2016) को नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ; चर्चामंच 2551 पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'