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Friday, March 11, 2016

जाट आरक्षण आंदोलन पर राजनाथ सिंह के जवाब के मायने।

               हरियाणा में पिछले दिनों भड़के जाट आरक्षण आंदोलन ने जो तबाही मचाई उसकी  गूँज दूर दूर तक गयी। इस आंदोलन के पीछे अलग अलग पार्टियों और उनके नेताओं का हाथ होने का आरोप है। जिसमे सच और झूठ का फैसला निष्पक्ष जाँच से ही सम्भव है। लेकिन इसमें हुए नुकशान का अंदाजा सम्पत्ति के रूप में लगभग 35000 करोड़ का है। इसमें लगभग 30 लोगों की जान गयी है। इसके अलावा हरियाणा के सामाजिक तानेबाने को जो नुकशान पहुंचा है उसका अंदाजा तो लगाया ही नही जा सकता। पुरे हरियाणा में जाट और गैर जाट जातियों के बीच एक तीखी विभाजन रेखा खिंच गयी है। और अब 35  बनाम 1 के नारे के तहत इस विभाजन को पुख्ता रूप देने की कोशिशे चल रही हैं। जाहिर है की कोई भी राजनितिक दल इसकी जिम्मेदारी लेने को तो तैयार नही होगा, हालाँकि इससे फायदा उठाने की कोशिश जरूर करेगा।
                लेकिन हमारा मुद्दा दूसरा है। एक बात ऐसी भी है जिस पर सब सहमत हैं और जिस पर मतभेद नही है, वो है आंदोलन के समय सरकार और प्रशासन की गैर हाजरी। हरियाणा का हर नागरिक ये मानता है की पुरे आंदोलन के दौरान सरकार गैर हाजिर थी। तो  सवाल भी उठेंगे। लोगों के जानमाल की रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। अगर आंदोलन के पीछे विपक्ष का भी हाथ हो तो भी सरकार की जिम्मेदारी खत्म नही हो जाती। ये सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है जिसे निभाने में सरकार असफल रही है। इस पर मामला जब संसद में उठा तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उसका ये जवाब दिया, " सरकार से किसी भी किस्म की कोई चूक नही हुई। "
                   इसका मतलब क्या है ? अगर सरकार के रहते इस तरह की लूटपाट होती है और जो पहले भी कई जगह हुई है, तो सरकार अब तक उसे अफसरों पर डाल कर निकल जाती थी। लेकिन इस बार राजनाथ सिंह ने चूक होने से ही इंकार कर दिया। फिर इसका क्या मतलब है। अगर सरकार से कोई चूक नही हुई और इस बड़े पैमाने पर तबाही हुई तो उसके केवल दो ही कारण हो सकते हैं।
                    पहला ये की सबकुछ सरकार के इशारे पर हुआ। या उसको इस तरह भी कह सकते हैं की इसे सरकार का समर्थन प्राप्त था। जैसे गुजरात दंगों पर उस समय की सरकार पर आरोप था।
                  दूसरा ये की सरकार की उसको रोकने की हैसियत नही थी। यानि सरकार नालायक थी। अगर सरकार से कोई चूक नही हुई और इतनी हिंसा हुई तो इसके अलावा क्या कारण हो सकता है।
                  दोनों ही कारण ऐसे हैं जिसके बाद किसी भी सरकार को अपने पद पर बने रहने का कोई नैतिक और क़ानूनी अधिकार नही है। क्या राजनाथ सिंह हरियाणा सरकार को इस्तीफा देने को कहेंगे। वरना आगे भी ऐसी सरकार के भरोसे जो कुछ कर  पाने की हैसियत में नही है, लोगों के जान मॉल की रक्षा नही कर सकती है उसे सत्ता पर क्यों रहना चाहिए। इस तरह तो हरियाणा असुरक्षा से हमेशा संकट ग्रस्त रहेगा।

Sunday, October 25, 2015

OPINION -- " मन की बात " केवल " मीठे प्रवचन " बन गयी है।

             हर महीने की तरह आज भी प्रधानमंत्री की मन की बात हुई। देश के सामने पिछले एक महीने में कई जलते हुए सवाल सामने आकर खड़े हो गए हैं। पुरे देश से प्रधानमंत्री से इस पर बोलने और कुछ बातों की स्पष्टता करने की मांग जोर से उठ रही है। लेकिन इस बार फिर मन की बात केवल " मीठे प्रवचन " ही साबित हुई। मैं हैरान हूँ की देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को एक भी सवाल पर बोलने की जरूरत महसूस नही हुई। प्रधानमंत्री ने कहा की भारत- दक्षिणी अफ्रीका मैच दिलचस्प दौर में पहुंच गया है। सुन कर वितृष्णा सी हुई। क्या देश ये बात सुनने के लिए इंतजार कर रहा था। एक बात बिलकुल साफ हो गयी की मन की बात के लिए जो लोग भी भाषण लिखते हैं, उन्हें ये निर्देश दिए गए हैं की देश की किसी भी प्रमुख समस्या का जिक्र भाषण में नही होना चाहिए। प्रधानमंत्री जनता के किसी भी सवाल का जवाब देना ना तो जरूरी समझते हैं और ना ही उपयोगी।
                 इस बात का आरोप लगता रहा है की हमारे प्रधानमंत्री बोलने में बहुत कुशल हैं और इस कुशलता का वो भरपूर फायदा भी उठाते हैं। लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है की ये सारी कुशलता वहां तक ही सिमित है जहां किसी की सवाल का जवाब नही देना हो। अपने बोलने की आदत को लेकर प्रधानमंत्री ने कुछ नई परम्पराएँ भी स्थापित की हैं। जैसे अब तक ये परम्परा रही थी की कोई भी प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर घरेलू मतभेदों की बात नही करते थे। पिछली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को वर्तमान सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता था। क्योंकि विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया है और किसी भी विदेशी सरकार को इस बात से कोई मतलब नही होता की कब किस पार्टी की सरकार रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी विदेशी यात्राओं में पिछली सरकार को नालायक, अक्षम और भृष्ट साबित करने की पूरी कोशिश की। पहले ऐसा कभी नही हुआ। अब विदेश नीति के मामले पर भी पार्टीगत लाइन लेने की शुरुआत कर दी गयी जो देश हित में नही है। क्योंकि ऐसा तो हो नही सकता की प्रधानमंत्री विदेश में ये कहें की आप आईये और हमारे देश में निवेश कीजिये और अब तक जो भृष्टाचार हमारे देश में होता था उसे हम बंद कर रहे हैं और इसके जवाब में कांग्रेस या पिछली सरकारों में रहे लोग ये कहें की हाँ, प्रधानमंत्री बिलकुल सच कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ये कहें की हम पिछली सरकारों द्वारा की गयी गलतियों को सुधार रहे हैं और कांग्रेस ये कहे की हाँ, ये सरकार हमारी गलतियां सुधार रही है।
                    दूसरी जो चीज सामने आई है वो ये है की प्रधानमंत्री की ये सारी मुखरता तभी सामने आती है जब सामने कोई जवाब देने वाला नही होता। जब भी ऐसा मौका आया है की सामने दूसरे लोग भी मौजूद हैं जो आपकी बात का जवाब भी देंगे और सवाल भी खड़े करेंगे वहां प्रधानमंत्री कन्नी काट जाते हैं। इसके कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। पहला ये की डेढ़ साल की सरकार के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकार वार्ता आयोजित नही की। जबकि ये परम्परा रही है की प्रधानमंत्री समय समय पर देश के प्रमुख संपादकों के साथ बातचीत का आयोजन करते हैं, उनके सवालों के जवाब देते हैं और सरकार के फैसलों के ओचित्य साबित करते हैं। लेकिन ऐसा एक बार भी नही हुआ। दूसरा उदाहरण संसद का है। पूरा का पूरा सत्र बेकार हो गया लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के उठाये किसी भी मामले पर चुप्पी नही तोड़ी। यहां तक की प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में आने से भी बचते रहे। संसद में चल रहे गतिरोध को दूर करने के प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी प्रयास नही हुए और सरकार द्वारा बुलाई गयी एकमात्र सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री नही आये। इसलिए ये बात अब जोर पकड़ने लगी है की प्रधानमंत्री वहीं बोलते हैं जहां कोई दूसरा नही होता। ऐसा तो लोकतंत्र की परम्परा नही है। फिर विपक्ष पर ये आरोप लगाना की वो सरकार का सहयोग नही कर रहा है एकदम उलटी ही बात है। संसद में लटके हुए कई बिलों पर जिनकी कॉर्पोरेट सैक्टर को बीजेपी से बहुत जल्दी पास करने की उम्मीद थी अब उसकी आशाएं और धर्य खत्म होता जा रहा है। अभी कॉर्पोरेट सैक्टर इस पर एतराज नही जताता लेकिन वह बहुत दिन इंतजार कर पायेगा इसमें शक है। राहुल बजाज और रतन टाटा जैसे लोग तो थोड़ा थोड़ा बोलना भी शुरू कर चुके हैं।
                 प्रधानमंत्री देश के नेता होते हैं। आज जब देश में जातीय और साम्प्रदायिक हमलों की बाढ़ सी आ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े हो रहे हैं और इन सब का आरोप उन्ही संगठनो पर लग रहा है जिस संगठन से खुद प्रधानमंत्री और उनके ज्यादातर मंत्री आते है, ऐसी हालत में लोग प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते हैं। और प्रधानमंत्री केवल प्रवचन दे रहे हैं। लोगों में ये बात घर कर रही है की संत-महंत और साधु साध्वियां सरकार चला रहे हैं और नेता प्रवचन कर रहे हैं।

Thursday, September 10, 2015

लोकतंत्र की उलटी गिनती शुरू

            बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस का विश्वास कभी भी लोकतंत्र में नही रहा। इसलिए वो अपने सारे आदर्श राजतंत्र में ढूंढती है। यहां तक की जब नेपाल में राजतंत्र को खत्म करके लोकतंत्र की स्थापना हुई तो आरएसएस ने इस पर नाखुशी और चिंता जाहिर की थी। आरएसएस जिन तबकों का प्रतिनिधित्व करता है उनमे सामंती और साम्प्रदायिक तबकों का बहुमत है। इसलिए वो हमेशा लोकतान्त्रिक संस्थाओं के खिलफ रहता है और जब भी मौका मिलता है उन पर हमला करता है। वो अलग बात है की हमला करते वक्त वो कोई दूसरा बहाना बनाता है। वो समान सिविल कानून की बात करता है लेकिन हर आदमी को अपनी पसंद के अनुसार भोजन, पहनावा, भाषा और रहन सहन  की आजादी के खिलाफ है। उसके लिए समान कानून का मतलब है सब कुछ उसके अनुसार।
       हरियाणा का कानून -------
                                                   अभी-अभी हरियाणा की बीजेपी शासित सरकार ने स्थानीय संस्थाओं के चुनाव के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए कुछ शर्तें लगा दी। जाहिर है की ये उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला था इसलिए कुछ लोगों ने उसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए सरकार को नोटिस जारी कर दिया। सरकार को मालूम था की वो इसे न्यायालय में सही साबित नही कर पायेगी तो उसने इसका कानून विधानसभा में सारे विपक्ष के विरोध के बावजूद पास करवा दिया और रात को ही उसे राजयपाल से मंजूरी दिलवा कर सुबह चुनाव आयोग से चुनावों की घोषणा  करवा दी। ये सारा काम इतनी जल्दी में इस तरह प्लान किया गया की किसी को फिर से इसे न्यायालय में चुनौती देने का समय न मिले।
कानून का असर ---------------
                                               इस कानून में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर न्यूनतम शिक्षा प्रमाणपत्र की शर्त लगा दी। हालाँकि इस तरह की शर्त साफ तौर पर एक बड़े तबके को चुने जाने से रोकने के लिए ही लगाई गयी है और खुल्ल्म खुल्ला उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के खिलाफ है। इस शर्त का असर ये हुआ की चुनाव लड़ने की इच्छुक सामान्य श्रेणी की 72 % और अनुसूचित जाती की 82 % महिलाये इससे बाहर हो गयी। इसी तरह बहुत से पुरुष उम्मीदवार भी चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए।
एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत ---------
                                                              पूरी दुनिया में हर आदमी को वोट देने का अधिकार हमेशा से नही था। पहले तो राजा की संतान ही राजा होती थी। उसके बाद जब इस व्यवस्था को पलट दिया गया तब उच्च स्थिति वाले तबकों ने आम जनता को वोट के अधिकार से वंचित रखने के लिए, वोट के अधिकार के लिए एक न्यूनतम सम्पत्ति होने, या फिर न्यनतम शिक्षा प्राप्त होने की शर्त लगा दी। इससे जनता का बहुमत वोट के अधिकार से बाहर हो गया और घूमफिर कर सत्ता फिर उच्च वर्ग के हाथ में रह गयी। अमेरिका में तो इस कानून के अनुसार अगर किसी आदमी की सम्पत्ति दो राज्यों में है तो वह दोनों जगह वोट का अधिकार रखता था। महिलाओं को वोट देने के अधिकार से वंचित रखा गया। आगे चल कर आम लोगों ने जब इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इसके लिए संघर्ष किया तब कहीं जा कर एक व्यक्ति-एक वोट की  व्यवस्था को लागु करवाया। एक व्यक्ति-एक वोट का लागु होना लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। अब हर आदमी की वोट की कीमत बराबर मानी  जाने लगी। मुकेश अम्बानी और उसका चपरासी, दोनों के वोट की कीमत एक जैसी हो गयी। उच्च वर्गों के लिए ये कोई आसानी से हजम होने वाली बात नही थी। इसी अधिकार के मुताबिक वोट देने के साथ साथ चुने जाने का अधिकार भी जुड़ा हुआ है।
बीजेपी और आरएसएस ------------
                                                      आरएसएस, जो वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखती है ये बात कभी मान ही नही सकती की एक अछूत या एक महिला या फिर एक मजदूर चुनाव जीतकर शासन में बैठे। आज भी इस तरह के उदाहरण मिल जाते हैं जहां बड़ी जमीनो के मालिक अनुसूचित जाती के लिए आरक्षित सीट पर अपने यहां काम करने वाले मजदूर को चुनाव जितवाकर खुद उस पद का उपयोग करते रहते हैं। बराबरी की ये व्यवस्था आरएसएस और उसकी राजनैतिक पांख बीजेपी को कभी मंजूर नही हुई। लेकिन लोगों में इसकी स्वीकार्यता को देखते हुए उसकी हिम्मत उसे सीधे सीधे चुनौती देने की नही हुई। इसलिए उसने पिछले रस्ते से इस पर सीमाएं लगानी शुरू की। आज उसने चुने जाने के खिलाफ न्यूनतम शिक्षा की सीमा लगाई है बाद में इसे वोट देने तक भी बढ़ाया जा सकता है।
उलटी गिनती --------------
                                          सही मायने में ये लोकतंत्र की उलटी गिनती है। लोकतंत्र के प्रति बीजेपी की हिकारत उसके सभी कामों में नजर आती है। पार्लियामेंट में विपक्ष के खिलाफ उसका रुख, राज्य सभा के बारे में अरुण जेटली का बयान, प्रधानमंत्री का संसद में इतने बड़े गतिरोध के बावजूद सर्वदलीय मीटिंग में ना आना, संसद को बाईपास करके दूसरे तरीकों  से कानूनो को लागु करने की कोशिश करना इत्यादि ये सब लोकतंत्र के प्रति उसकी हिकारत को ही प्रकट करते हैं। आज हमारे देश में तानाशाही का खतरा सही मायने में तो 1975 से भी ज्यादा है। इसलिए लोकतंत्र की इस उलटी गिनती को रोका  जाना चाहिए।

Saturday, August 15, 2015

Vyang -- लोकतन्त्र बचाने के लिए " शट अप इंडिया " कार्यक्रम

गप्पी -- शोर मच रहा है की भारत का लोकतन्त्र खतरे में है। पहले भी एक बार ये शोर मचा था 1975 में। उसके बाद रह रह कर आवाजें आती रहती हैं की लोकतंत्र खतरे में है। लेकिन इस बार सचमुच खतरे में है। कारण ये है की जब सत्ता पक्ष चिल्लाना शुरू कर दे की लोकतंत्र खतरे में है तो लोगों को समझ जाना चाहिए  लोकतंत्र सचमुच खतरे में है।
               मेरे पड़ौसी कह रहे थे की भाई पुरानी कहावत है की जब चोर का पीछा करती हुई भीड़ चोर-चोर चिल्लाती हुई भाग रही हो तो चालक चोर खुद भी चिल्लाना शुरू कर देता है चोर-चोर। इससे क्या होता है की रस्ते में मिलने वाले लोग उसे भी पकड़ने वालों में मान लेते हैं। और सरकार वही कर रही है। सरकार के कामों पर जब देश ये चिल्लाना शुरू करता है की लोकतंत्र खतरे में है तो चालक सरकार भी चिल्लाना शुरू कर देती है की लोकतंत्र खतरे में है। इससे लोगों को ये अंदेशा तो होता है की लोकतंत्र को खतरा है पर वो ये नही समझ पाते की खतरा किससे है।
                 लोकतंत्र में दो पक्ष होते हैं , एक सत्ता पक्ष और दूसरा विपक्ष। जहां लोकतंत्र नही होता वहां भी दो पक्ष होते हैं एक राज करने वाला और दूसरा आम जनता। जो सत्ता पक्ष होता है जाहिर है की सारे अधिकार और काम करने की जिम्मेदारी उसी की होती है। जो विपक्ष होता है उसका काम सरकार के कामों पर निगाह रखना और अगर कोई काम सही नही लगे तो उसका विरोध करना होता है। जब सरकार विपक्ष के विरोध को नजरअंदाज करके काम करना शुरू करती है और बातचीत की प्रकिर्या को एकतरफा बना देती है तो विपक्ष चिल्लाता है की लोकतंत्र खतरे में है।
                    लेकिन ज्यादा गंभीर मामला तब होता है जब सरकार खुद ये चिल्लाना शुरू कर देती है की लोकतंत्र खतरे में है। इसका मतलब होता है शट -अप। सरकार विपक्ष को और विरोध करने वाले लोगों को कहती है शट-अप। यानि अगर तुम्हे बोलना है तो केवल समर्थन में बोलो वरना चुप रहो। जब सरकार विपक्ष के खिलाफ प्रदर्शन करती है तो उसका मतलब भी शट-अप होता है। जब सरकार विपक्ष को और विरोध करने वाले लोगों को शट-अप कहना शुरू कर दे तब मान लेना चाहिए की लोकतंत्र सचमुच खतरे में है। जब सरकार विपक्ष पर राज्य सभा में बहुमत के प्रयोग को दुरूपयोग का आरोप लगाती है और धमकी देती है की वो सयुंक्त सत्र बुला कर बिल पास करवा लेगी तो ये तो निश्चित रूप से बहुमत का दुरूपयोग है।
                   हमारे प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के भाषण में देश के लिए दो प्रोग्रामो की घोषणा की, एक  "स्टार्ट-अप इंडिया " और एक "स्टैंड-अप इंडिया " . उससे पहले दिन उन्होंने NDA की मीटिंग में एक और प्रोग्राम की घोषणा की "शट-अप इंडिया " . जब प्रधानमंत्री विपक्ष के साथ मीटिंग करके मामलों का हल निकालने की बजाय, विपक्ष के सवालों का उत्तर दिए बिना, संसद में ना आकर सरकारी पक्ष को ये आदेश देते हैं की पुरे देश में जाकर लोगों से कहो की वो विपक्ष को चुप रहने के लिए कहे वरना देश के  "उद्योगपतियों " का विकास नही होगा तो हमे सचमुच मान लेना चाहिए की लोकतंत्र खतरे में है।
                   अब NDA और बीजेपी के सारे लोग विपक्ष के लोगों के संसदीय क्षेत्र में जाकर लोगों से कहेंगे, बेवकूफो, तुमने ये संसद में किसको भेज दिया। जिसको ये भी मालूम नही की विपक्ष का काम सरकार का समर्थन करना होता है। तुम लोगों में इतनी भी अक्ल नही है। चलो, अब अपने सांसद को बोलो की वो जुबान बंद रखे वरना लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। उसके बाद लोग उस सांसद से जाकर कहेंगे की भैया काहे ऐसा कर रहे हो ? लोकतंत्र को खतरे में काहे डाल रहे हो। ऐसा करो की या तो संसद में ही मत जाओ या मुंह पर पट्टी बांध कर जाओ। लोकतंत्र की रक्षा के लिए ये जरूरी है की विपक्ष संसद में मुंह पर पट्टी बांध कर बैठे।

Friday, August 14, 2015

Vyang -- संसद की कार्यवाही कैसी होनी चाहिए ?

गप्पी -- हमारे देश में इस समय एक बड़ी बहस चल रही है। ये बहस है संसद की कार्यवाही को लेकर। इस बहस में पूरा देश शामिल है। जिस आदमी को ये नही मालूम की सोसायटी में रस्ते पर कूड़ा नही डालना चाहिए वो भी इस पर सुझाव दे रहा है की संसद की कार्यवाही कैसी होनी चाहिए। वो लोग जिन्हे ये नही समझ में आता की बाइक पर हेलमेट लगाना क्यों जरूरी है बता रहे हैं की देश की बहुत बदनामी हो गयी। हालत हास्यास्पद हो गयी है। मैं एक ट्रैन में जा रहा था जिसमे पंद्रह-बीस नौजवान भी यात्रा कर रहे थे। सबके सब पीछे कमर पर बैग लटकाये हुए थे और मोबाईल पर गेम खेल रहे थे। लेकिन सबके सब संसद की कार्यवाही ना चलने पर दुखी भी थे और गुस्से में भी थे। वो पुरे विपक्ष को कोस रहे थे। कार्पोरेट मीडिया का तिलस्मी प्रभाव पूरे जोर पर था। बहस बहुत देर चलती रही। अचानक एक जवान ने कहा " यार ये जो राज्य सभा है ये कौनसे राज्य की है। सारी  प्रॉब्लम तो इसी में है। "
         " पता नही यार। रोज तो एक राज्य बनता है। परन्तु मेरे ख्याल से तेलंगाना की होगी, वो ही बना है लास्ट में। " दूसरे ने कहा
        " लेकिन कुछ भी हो, मैं तो कहता हूँ की ये होनी ही नही चाहिए। " दूसरे ने कहा।
        " मैं तो कहता हूँ की ऐसा कानून बना देना चाहिए की कम से कम बीस बिल तो पास करना जरूरी होगा। वरना किसी भी सांसद को कोई वेतन नही मिलेगा। " दूसरे ने जोर देकर कहा।
         " बिलकुल सही बात है। काम नही तो वेतन नही। " लगभग सभी सहमत थे।
         " मैं बताता हूँ इसका परमानेंट इलाज। संसद में ठेका सिस्टम लागु कर देना चाहिए। एक बिल पास करने का दस हजार। वरना कोई पैसा नही। फिर देखो कैसे पास नही होते बिल। " एक नौजवान ने अतिरिक्त उत्साह से कहा। बाकि सबने इस पर तालियाँ बजाई।
           हमारे देश का भविष्य लोकतंत्र को ठेके पर देने पर विचार कर रहा था।
          मैं ट्रेन से उतर कर आगे गया तो रस्ते में एक मिल के खण्डहर आते हैं। ये मिल सालों पहले बंद हो चुकी है यहां शहर के कुछ आवारा लड़के जुआ इत्यादि खेलते हैं। आज वो सब बैठे हुए थे। खेल नही रहे थे। मैं वहां से गुजरा तो उनमे से एक ने मुझे आवाज दी। मैं रुका।
          " अंकल ये संसद क्यों नही चल रही ? इस तरह तो देश का सत्यानाश हो जायेगा। " एक लड़के ने कहा।
          मैं आश्वस्त हो गया भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के प्रति। अब कोई खतरा नही है। पहले हम इस लोकतंत्र की रक्षा की उम्मीद छात्रों, बुद्धिजीवियों, मजदूरों , किसानो और जनसंगठनों से करते थे। अब इसकी जिम्मेदारी जुआरियों ने उठा ली है।
             घर आया तो टीवी पर खबर चल रही थी की देश के उद्योगपतियों ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर सांसदों से संसद की कार्यवाही चलने देने की मांग की है। मैं पुछना चाहता था की क्या इनमे वो उद्योगपति भी शामिल हैं जो बैंको का चार लाख करोड़ रुपया खा कर बैठे हैं। या वो उद्योगपति जो उन पर बकाया लाखों करोड़ रुपया टैक्स बाप का माल समझ कर हड़प कर गए।  वो भी शामिल हैं क्या, जो लोग देश के बैंको को फेल होने के कगार पर पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं। उनको  देशभक्ति का दौरा पड़ा है।
            आगे खबर आई की मशहूर रेल इंजीनियर श्रीधरन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका देर करके मांग की है की उच्चतम न्यायालय संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए हस्तक्षेप करे। मुझे लगा की श्रीधरन संसद और मेट्रो रेल में फर्क नही कर पा रहे हैं। उन्हें पहले भरतीय रेल को सुचारू रूप से चलाने पर ध्यान देना चाहिए और संसद को सांसदों के भरोसे छोड़ देना चाहिए।
              मुझे लगा की देश का कॉर्पोरेट मीडिया और उसके विशेषज्ञ जैसी कार्यवाही चाहते हैं वो इस तरह की होगी।
                सदन के अध्यक्ष सदन में प्रवेश करते हैं। सभी सांसद खड़े हो जाते हैं। अध्यक्ष बैठ जाते हैं तो सभी बैठ जाते हैं। अध्यक्ष पिछले दिन हुई दुर्घटना के मृतकों को श्रद्धांजलि का प्रस्ताव पढ़ते हैं फिर पूरा सदन खड़े होकर मौन धारण करता है। उसके बाद विपक्ष के चार पांच सदस्य खड़े होकर कहते हैं की उन्होंने कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया है। अध्यक्ष कहते हैं की उन्हें नोटिस मिले हैं लेकिन वो उनको ख़ारिज करते हैं। विपक्ष के सदस्य अध्यक्ष का धन्यवाद करके वापिस बैठ जाते हैं। फिर संसदीय कार्य मंत्री खड़े होकर कहते हैं की सरकार का विचार है की कई दिन से विपक्ष के सदस्यों को बोलने का मौका नही दिया गया इसलिए आज का प्रस्ताव मान लिया जाये।
               अध्यक्ष प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं।
                विपक्ष के नेता कहते हैं की अख़बारों में खबर छपी है की सरकार द्वारा विदेशी कम्पनी को दिए गए ठेके में भृष्टाचार हुआ है। और उसमे सत्ताधारी पार्टी के एक राज्य के मुख्यमंत्री का बेटा और वित्तमंत्री की बेटी दोनों शामिल हैं।
                  अध्यक्ष कहते हैं की अख़बार में छपी खबर के हिसाब से आरोप नही लगाये जा सकते।
                  विपक्ष के नेता माफ़ी मांगते हैं और कहते हैं की अगर जाँच हो जाये तो क्या हर्ज है ?
                  अध्यक्ष कहते हैं की सदन में किसी मुख्यमंत्री का नाम नही लिया जा सकता।
                  विपक्ष के नेता फिर माफ़ी मांगते हैं और कहते हैं की वित्तमंत्री की बेटी उसी कम्पनी में काम करती है जिस कम्पनी को ठेका दिया गया है।
                  वित्त मंत्री खड़े होकर कहते हैं की जिन लोगों ने ठेके के कागज पर दस्तखत किये हैं उनमे उनकी बेटी शामिल नही है इसलिए सरकार सारे आरोपों को ख़ारिज करती है। सत्तापक्ष के लोग जोर जोर से मेज थपथपाते हैं। सरकार जाँच करवाने के लिए भी तैयार है लेकिन विपक्ष उसके लिए वो सारे सबूत लेकर आये। अगर विपक्ष सबूत लेकर आता है तो सरकार उन सबूतों की जाँच करवाने के लिए तैयार है। चर्चा समाप्त हो जाती है।
                    उसके बाद सरकार ताजमहल को बेचने का बिल पेश करती है
                    विपक्ष के लोग कहते हैं की ताजमहल नही बेचा जा सकता।
                    मंत्री कहते हैं की सरकार कुछ भी कर सकती है। और कि तुम चुनाव हार गए हो इसलिए तुम्हे बोलने का कोई अधिकार नही है।
                      बिल पास हो जाता है।
 कॉर्पोरेट मीडिया खबर देता है की आज सदन में 105 % काम हुआ। और जो खर्च संसद पर हुआ उसका पूरा उपयोग हुआ।
                           पूरा देश इस पर संतोष व्यक्त करता है।

Wednesday, August 12, 2015

Vyang -- अल्बर्ट पिन्टो को रोना क्यों आता है ?

गप्पी -- अब अल्बर्ट पिन्टो को गुस्सा नही आता , रोना आता है। बेचारगी में किसी को गुस्सा नही आता रोना ही आता है। अल्बर्ट पिन्टो 30 साल का नौजवान है। उसने बी-टेक किया है कम्प्यूटर साइंस में। कभी उसे इस बात का गर्व होता था अब मलाल होता है। आदमी को जिंदगी में बहुत सी चीजों पर मलाल होता है। परन्तु दिक्क्त ये है की जब तक उसे पता चलता है की अमुक चीज पर उसे मलाल होने वाला है और कुछ होने का समय ही नही होता। जब उसे बी-टेक पर मलाल होने का पता लगा, वो बी-टेक कर चूका था। और बी-टेक करने के जुर्माने के रूप में एक लाख का कर्जा भी हो चुका था। उसने बहुत दिन इंतजार किया की ये मलाल मिट जाये, यानि उसे कोई नौकरी मिल जाये परन्तु इस देश के बहुमत के नौजवानो की तरह उसका मलाल मिट नही पाया। दो तीन साल गुजर जाने के बाद पता चला की अब तो कर्जे का ब्याज चुकाने के लिए भी कुछ नही बचा है तो उसने कॉल सेंटर में नौकरी कर ली। 10000 की फिक्स पगार। कुल मिलाकर 120  लोग। जिंदगी मलाल के साथ साथ आगे बढ़ने लगी।
                         कुछ दिन पहले ही ये खबर आई की सरकार श्रम कानूनो में सुधार कर रही है। उसे आशा बंधी, अब कुछ होगा। ये सरकार और प्रधानमंत्री उसके और उस जैसे नौजवानो के लिए कुछ जरूर करेंगे। उन्होंने वादा किया था। और चाहे कुछ भी हो ये "आदमी" अपने वादे का पक्का है। उसने भी चुनाव के दौरान रैलियों में उसके लिए नारे लगाये थे। सोशल मीडिया पर विपक्षियों को गलियां दी थी। अब जाकर उसका दिन आया है। अब सरकार श्रम कानूनो में सुधार करने जा रही है। सरकार का कहना है की इससे रोजगार बढ़ेगा। मजदूरों की कमाई बढ़ेगी। उसे उम्मीद है।
                        लेकिन ये क्या हो रहा है। उसके कॉल सेंटर के मालिक भी खुश हैं और इसका समर्थन कर रहे हैं। उनको तो घबराना चाहिए। लेकिन वो तो मांग कर रहे हैं की इसे जल्दी लागु किया जाये। विपक्ष की पार्टियां और मजदूरों के संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उसे कुछ समझ में नही आ रहा है। सब कुछ उलझा उलझा लग रहा है।
                        आज प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर टीवी में कुछ कहने वाले हैं। बिलकुल "मन की बात" की तरह। टीवी पर आने वाले कार्यक्रम से आधा घंटा पहले ही वह सोफे पर बैठ गया है। घर वाले सीरियल देखना चाहते हैं लेकिन वो सबको डांट देता है। सही समय पर प्रधानमंत्री टीवी पर रूबरू होते हैं। मित्रो, हम इस देश में अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे कुछ श्रम कानूनो में बदलाव करना चाहते हैं। हम चाहते हैं की इस देश में श्रम के बाजार में बढ़ौतरी हो। सब नौजवानो को काम मिले जिससे वो अपने और अपने माँ-बाप के सपनो को पूरा कर सकें। हम ओवर टाइम के कानूनो में बदलाव करना चाहते हैं। दुगना ओवर-टाइम की शर्त गलत शर्त है। क्या किसी मजदूर को इसका हक नही है की वो अपने मालिक के सामने खड़ा होकर अपनी मजदूरी तय कर सके। मैं कहता हूँ की उसको इसका पूरा हक है। क्या उसे हक नही है की वो ये कह सके की वो कितनी देर तक ओवर-टाइम करना चाहता है। मैं कहता हूँ की पूरा हक है। हर मजदूर, हर नौजवान को इस बात का हक है की नही की वो मालिक की आँखों में आँखे डालकर कह सके की वो इतनी देर ओवर-टाइम करेगा और उसके लिए इतनी मजदूरी लेगा। अगर वो नौकरी छोड़ना चाहता है तो उसे इसका पूरा हक है। वो किसी का बंधुआ मजदूर नही है। फिर उस पर एक महीने के नोटिस का प्रतिबंध क्यों है। हम इस प्रतिबंध को समाप्त कर रहे हैं। ये कानून पास होने के बाद हर नौजवान गर्व से अपने नौकरी दाताओं को कह सकेगा की उसे क्या चाहिए।
            उसे शरीर में झुरझुरी महसूस हुई। उसे एक नए माहौल का अहसास हुआ। आत्म सम्मान के अतिरेक में उसे रात को देर से नींद आई।
             टीवी पर संसद का सीधा प्रसारण हो रहा था। सरकार बिल पेश करने की कोशिश कर रही थी। परन्तु विपक्ष उसे हंगामा करके रोक रहा था। उसके मन में जितनी गलियां याद थी वो सारी की सारी विपक्ष को दे चूका था। आखिर सरकार बिल को पेश करने और बिना बहस के पास कराने में कामयाब हो गयी। उसने चैन की साँस ली। एक अजीब सा संतोष उसके चेहरे पर झलक रहा था।
             अगले दिन ड्यूटी के दौरान उसका आत्म विश्वास बढ़ा हुआ था। शाम को ड्यूटी खत्म होने के समय उसे मैनेजर के कार्यालय में बुलाया गया। वहां बाकि के 25-30 लोग भी मौजूद थे। मैनेजर ने कहा की कल से ड्यूटी 12 घंटे की होगी। और ओवर-टाइम भी सिंगल रेट से दिया जायेगा।
                  उसने आगे बढ़कर कहा की पहले दुगना ओवर-टाइम मिलता था। हम तो अब उस पर भी काम करने को तैयार नही हैं। आपको हमारे साथ बात करके रेट तय करना होगा। मैनेजर और उसके साथ बैठे दो-तीन लोग जोर से हँसे। " लगता है भाषण सुन कर आया है समझ कर नही। "
                     " ठीक है, अब दुगने ओवर-टाइम का कानून तो है नही। अब हम सिंगल से ज्यादा नही देंगे। जिसको मंजूर नही हो वो कैश काउन्टर पर जाकर अपना हिसाब ले ले। "
                       आप इस तरह बिना नोटिस दिए अचानक कैसे नौकरी से निकाल सकते हो। उसने अधिकार से कहा।
                        " तुम्हे मालूम नही की एक महीने का नोटिस पीरियड खत्म कर दिया गया है। " मैनेजर ने मुस्कुराते हुए कहा।
                       वह बाहर निकल आया। उसे प्रधानमंत्री का भाषण याद आ रहा था, " क्या किसी नौजवान को हक नही की -----------" और उसे रोना आ गया।

GST बिल घोर जनविरोधी, भयंकर महंगाई बढ़ाने वाला और लघु उद्योगों की मौत का फरमान है।

गप्पी  -- सरकार ने कल राज्य सभा में GST बिल पेश कर दिया। लोकसभा इसे पहले ही पास कर चुकी है। राज्य सभा में इसे पेश करते वक्त कांग्रेस ने भारी हंगामा किया। परन्तु ये हंगामा इस बिल पर किसी सैद्धान्तिक विरोध के कारण नही था बल्कि सरकार और विपक्ष के बीच कुछ मंत्रियों के इस्तीफे को लेकर चल रही खींचतान के कारण था। मुझे इस बात पर आश्चर्य है की इतने जनविरोधी बिल का उस तरह विरोध क्यों नही हो रहा जिस तरह भूमि बिल का हुआ। क्या राजनैतिक पार्टियां इस बिल के जनविरोधी चरित्र  समझने में नाकाम रही या फिर सभी पार्टियां इसकी सहयोगी हैं। हमारा पूरा कॉर्पोरेट क्षेत्र और सभी बड़ी कंपनियां क्यों इसको लागु करने के लिए इतना जोर डाल रही हैं। 

     GST बिल क्या है --

                                   बहुत पहले सरकार ने वैट लागु किया था। तब सरकार ने दावा किया था की वैट के लागु होने के बाद वस्तुओं की कीमतें घटेंगी। और बाकि सारे टैक्स जिसमे CST भी शामिल था, खत्म हो जायेंगे। लेकिन आज क्या स्थिति है। CST जारी है और वैट के बाद कीमतें बढ़ी हैं। ठीक वही तर्क सरकार इस बार भी दे रही है। ये आश्वासन देने वाला वही है जिसने अपने पहले दिए गए आश्वासनों को पूरा नही किया। लेकिन सवाल ये है की इस GST बिल से क्या बदल जाने वाला है। इसमें कौन कौन से प्रावधान हैं जो कीमतों और उत्पादन करने वालों की स्थिति को प्रभावित करेंगे।
१. GST की दर लगभग 20 से 26 % के बीच रहेगी। इसमें एक्साइज ड्यूटी और वैट समेत सभी कर शामिल होंगे। अभी सर्विस टैक्स की दर 14 % है  जो इसके लागु होने के बाद बढ़ जाएगी। जिन वस्तुओं पर अभी 10 % एक्साइज ड्यूटी लगती है और उसके बाद वैट लगता है वो सब इसमें शामिल हो जायेगा।
२. अभी देश में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिन पर एक्साइज ड्यूटी नही लगती है। परन्तु इस बिल के बाद चूँकि एक्साइज ड्यूटी GST में पहले ही शामिल है सो सभी चीजों पर लगेगी। ये एक्साइज ड्यूटी का सर्वीकरण होगा।
३. जिन चीजों पर अभी एक्साइज ड्यूटी लगती है वो उत्पादक पर लगती है। उसके बाद उस पर कोई गणना नही होती है। परन्तु GST लागु होने बाद इसकी गणना हर स्तर पर होगी जैसे अभी वैट की होती है। इसलिए उसका क्षेत्र और रकम बढ़ जाएगी।
४. सरकार एक मजाक कर रही है और कह रही है की इसमें सारे टैक्स जिसमे एक्साइज ड्यूटी, वैट , लक्जरी टैक्स, मनोरंजन कर और सर्विस टैक्स शामिल होंगे इसलिए कीमतें घटेंगी। परन्तु असलियत ये है की जिस पर सर्विस टैक्स लागु है उस पर वैट लागु नही है, जिस पर मनोरंजन कर लागु है उस पर दूसरे टैक्स पहले ही लागु नही हैं।
 GST का महंगाई पर असर ------ ऊपर के हिसाब से ये बात तो भूल ही जानी चाहिए की इससे कीमतें कम हो जाएँगी। इससे भयंकर रूप से महंगाई बढ़ेगी और लोगों की कमर टूट जाएगी। आप एक ऐसी व्यवस्था में प्रवेश करने जा रहे हैं जिसमे अगर आप घर चलाने में 20000 रूपये खर्च कर रहे हैं तो उसमे से 5000 रूपये तो केवल टैक्स होगा। जो हालत अभी पट्रोल और डीजल की है व्ही हालत बाकि चीजों की हो जाएगी। 
लघु उद्योग मर जायेगा --- यही है वो असली मकसद जो इसको लाने के लिए जवाबदार है। अभी हमारे कुल ओद्योगिक उत्पादन में लघु और घरेलू उद्योग का हिस्सा 35 % है। अपनी सारी कोशिशों के बावजूद बड़ी कंपनियां इसको छीनने में असफल हो चुकी हैं। इस हिस्से पर उनकी नजर पहले से है। सरकार इस पर बहुत से तर्क दे कर ये साबित करना चाहती है की GST बिल में लघु उद्योग के लिए सारे प्रावधान रखे गए हैं। हमे एकबार उन प्रावधानों की असलियत जानने की जरूरत है।
१. सरकार का कहना है की घरेलू और लघु उद्योगों के लिए इसमें डेढ़ करोड़ तक के व्यापार की छूट दी गई  है। और ये काफी है। परन्तु ये छूट केवल छलावा है। और इस छूट का कोई भी लाभ लघु और घरेलू उद्योगों को नही होगा। क्योंकि लघु उद्योग जिन दुकानदारों  व्यापारियों के द्वारा अपना मॉल बाजार में बेचता है उनकी छूट की सीमा केवल दस लाख ही है। इसलिए उस पर टैक्स तो लगेगा ही। अगर दुकानदार किसी भी लघु उद्योग से मॉल खरीदता है और वो उद्योग टैक्स छूट की सीमा में आता है तो दुकानदार को मॉल बेचते वक्त वो सारा टैक्स खुद जमा करवाना पड़ेगा। इसलिए इस छूट का कोई मतलब नही रह जाता है।
२. जो लघु उद्योग अपना मॉल सीधे उन उद्योगों को बेचते हैं जो इस सीमा से बाहर हैं तो उन्हें GST जमा करवाना ही पड़ेगा। क्योंकि दुकानदारों की तरह ही उस मॉल की छूट का लाभ बड़े उद्योगों को नही मिलेगा।
३. लघु उद्योग जो कच्चा मॉल बाजार से खरीदेंगे, उस पर GST लग कर ही आएगा और उन्हें वो ऊँचे भाव पर तो मिलेगा ही, दूसरे GST की रजिस्ट्रेशन के बिना उस टैक्स का उन्हें मॉल बेचते वक्त कोई फायदा नही होगा।
४. अभी तक जो लघु उद्योग एक्साइज ड्यूटी से बाहर थे वो सब पिछले दरवाजे से उसमे शामिल कर दिए गए हैं। इसलिए अब छोटे और बड़े उद्योग की लागत बराबर हो जाएगी और लघु उद्योग को जो इस रूप में सरंक्षण प्राप्त था जो खत्म हो जायेगा। यही वो मुख्य कारण है जिसके लिए बड़ी कंपनियां और कार्पोरेट क्षेत्र इसके लिए जान देने को उतारू है। अब तक बड़े और छोटे उद्योगों की मॉल की कीमत में जो फर्क था वो समाप्त हो जायेगा और उसके साथ ही वो उद्योग प्रतियोगिता नही कर पाने के कारण समाप्त हो जायेंगे। आज ओद्योगिक उत्पादन में लघु उद्योगों का जो हिस्सा है वो बड़ी कम्पनियों को मिल जायेगा। सरकार के केवल एक कदम से वो काम सम्भव हो जायेगा जो बड़ी कम्पनियां अपनी सारी कोशिशों के बाद भी नही कर पाई।
                ये GST बिल लघु उद्योगों के लिए मौत की घंटी है।और लघु और घरेलू उद्योग ही वह क्षेत्र है जो देश को खेती के बाद सबसे ज्यादा रोजगार मुहैया करवाता है। जिसको इस बात में अब भी शक है वो GST लागु होने के दो साल के बाद आंकड़े देख ले।
          जीडीपी में बढ़ौतरी का तर्क -------- सरकार तर्क दे रही है की GST लागु होने के बाद हमारी जीडीपी में 2% तक की बढ़ौतरी हो सकती है। कैसे ? कोई टैक्स प्रणाली बदलने से जीडीपी कैसे बढ़ जाएगी। सरकार परोक्ष रूप से मेरी बात को स्वीकार कर रही है। अब तक जो उत्पादन लघु और छोटे उद्योग करते थे उनमे से बहुत सा उत्पादन जीडीपी की गणना में नही आता था। जब ये हिस्सा बड़े उद्योगों को ट्रांसफर हो जायेगा तो इसकी गणना होने लगेगी। इससे उत्पादन समान रहने पर भी जीडीपी के आंकड़े बढ़े हुए दिखाई देंगे। ये एक तरह का सरकार का कबूलनामा है।
   कांग्रेस का विरोध ----- कांग्रेस ने ही सबसे पहले इस बिल को पेश किया था। उसका इस बिल पर कोई सैद्धान्तिक विरोध नही है। उसका विरोध वैसा ही है जैसा उस समय बीजेपी का था। कांग्रेस ने पूरा देश कॉर्पोरेट के लिए लुटा दिया। अब बीजेपी केवल इस लूट को और तेज करना चाहती है।
    वामपन्थी पार्टियां और GST बिल ----- इस तरह के जनविरोधी कदमों का विरोध करने का काम उसके बाद वामपंथियों के हिस्से में आता है। परन्तु दुर्भाग्य की बात है की वामपंथी भी इस बिल का विरोध उस तरह नही कर रहे हैं जिस तरह करना चाहिए। जिस तरह भूमि बिल का विरोध किया और सरकार को अपने कदम वापिस खेंचने पर मजबूर किया।

Tuesday, August 11, 2015

Vyang -- इस बार अर्थशास्त्र का नोबल पुरुस्कार हमारी सरकार को मिलना चाहिए।

गप्पी -- मैं ये बात पूरी जिम्मेदारी और होशोहवास में कह रहा हूँ। पूरी दुनिया में अब तक अथशास्त्र के क्षेत्र में जितनी खोजें हुई हैं ये अकेली खोज उन सब पर भारी है। इस खोज से पूरी दुनिया की गरीबी मिटाई जा सकती है। पूरी दुनिया में पूंजी की जो कमी है वो दूर की जा सकती है। बताओ आपने कभी इससे ज्यादा क्रन्तिकारी खोज के बारे में सुना है। और सबसे बड़ी बात ये है की कई विपक्षी दल भी इस खोज से सहमत हैं। कृपया धर्य रखिये, मैं इस खोज के बारे में बताने ही जा रहा हूँ। अगर इस पर मैं पहले कही गयी बातें नही कहता तो इसकी महान स्थिति को समझने में अापसे गलती हो सकती थी। या फिर आप इसे यों ही ध्यान से निकाल सकते थे। इसलिए पहले मैंने इसके महत्त्व को रखांकित किया और बाद में इसकी तफ्सील बता रहा हूँ। परन्तु मेरी पाठकों से विनती है की वो इसको जरा ध्यान पूर्वक पढ़ें।
                 हमारी सरकार ने संसद में एक बिल पेश किया है जिसे GST बिल कहते हैं। वैसे तो ये बिल टैक्स लगाने और इकट्ठा करने से संबंधित है। और इसको टैक्स क्षेत्र में किये जाने वाला अब तक का सबसे बड़ा सुधार कहा गया है। परन्तु इस बिल के बारे में जो कुछ सरकार की तरफ से और मीडिया में कहा गया है और जो जानकारी दी गयी है उसमे इसकी महानता छिपी हुई है। जैसे,--
    १. इस बिल से ग्राहकों को सस्ता सामान मिलेगा।
    २. इस बिल से उद्योगों को फायदा होगा और उनकी लागत घटेगी।
    ३. इस बिल से सरकार की आमदनी बढ़ेगी।
    ४. इस बिल से राज्य सरकारों की टैक्स की उगाही बढ़ेगी।
                                आया कुछ समझ में ?
              अगर किसी चीज से सरकार की टैक्स उगाही बढ़ती है तो जाहिर है की ये पैसा सामान खरीदने वाले की जेब से जाता है। लेकिन सरकार कह रही है की खरीददार को सामान सस्ता मिलेगा। अगर ग्राहक को सामान सस्ता मिलता है और सरकार को टैक्स ज्यादा मिलता है तो बीच का पैसा कहां से आएगा। जाहिर है की हवा से पैदा होगा। और अगर कोई सरकार हवा से पैसा पैदा कर दे तो उसे नोबल पुरुस्कार मिलना चाहिए की नही। अब तक दुनिया में ऐसे हवा से पैसा पैदा करने की कोई खोज नही हुई है। इसलिए इस क्रन्तिकारी खोज को पूरी दुनिया में लागु करके गरीबी मिटाई जा सकती है। पूंजी की कमी को दूर किया जा सकता है।
                 मीडिया में बैठे हुए एक्सपर्ट इस पर घंटों बहस करते हैं और सिद्ध करते हैं की हाँ, ऐसा ही होने वाला है। इससे देश की जीडीपी में दो प्रतिशत तक बढ़ौतरी हो सकती है। मुझे अब तक ये समझ में नही आया की टैक्स उगाही का सिस्टम बदल देने से पुरे देश की जीडीपी कैसे बढ़ जाएगी। टैक्स उगाही का जीडीपी से क्या लेना देना है। लोग सामान अपनी हैसियत के मुताबिक खरीदते हैं। उसमे दस प्रतिशत की बजाए बीस प्रतिशत टैक्स लगना शुरू हो जाये तो जीडीपी कैसे बढ़ जाएगी। एक ही चीज है जिससे जीडीपी बढ़ सकती है। वो है उत्पादन करने वाले उद्योगों में बदलाव आना। इस सिस्टम के हिसाब से अपना सामान बनाने और उसे बाजार में बेचने के लिए जितनी तरह की लाइसेंस की श्रृंखला चाहिए वो छोटे उद्योगों के लिए सम्भव नही है। इसलिए उनके उत्पादन का स्थान बड़ी कंपनियां ले लेंगी। छोटे उद्योगों का हमारे ओद्योगिक उत्पादन में जो बड़ा हिस्सा है, बड़ी कम्पनियों की आँखे उस पर लगी हुई हैं। इसलिए उनका इतना दबाव है इसे लागु करने का। बड़े उद्योगों को फायदा करवाने के लिए प्रतिबद्ध सरकार पहले छोटे उद्योगों के मरने का रास्ता साफ करेगी और बाद में उस पर संसद में आंसू बहाएगी किसानो की तरह। जो विपक्षी दल आज इसको समर्थन कर रहे हैं कल वो छोटे उद्योगों की मौत पर दहाड़ें मार मार कर रोयेंगे और सरकार को कोसेंगे।
                    परन्तु अगर ये सब नही होगा और व्ही सब होगा जो सरकार कह रही है तो सरकार निश्चित रूप से नोबल पुरुस्कार की अधिकारी है।

Monday, August 10, 2015

Vyang -- सरकार के सारे अनुमान हमेशा छोटे या बड़े क्यों होते है ?

गप्पी -- आज सुबह देवघर में वैद्यनाथ मंदिर में भगदड़ मच गयी और करीब ग्यारह आदमियों के मरने की खबर आई। बहुत से लोग घायल भी हुए। राज्य सरकार से जब हादसे पर पूछा गया तो उसका जवाब था की अनुमान से ज्यादा भीड़ होने के कारण हादसा हुआ। इससे पहले भी मंदिरों और मेलों में भगदड़ मचने और लोगों के मरने की खबरें आती रही हैं। इन सब में कुछ बातें समान है। एक तो सरकार के बयान, जो हमेशा एक जैसे होते हैं। दूसरे भगदड़ मचने का कारण लगभग हमेशा पुलिस का लाठीचार्ज होता है। हमेशा पुलिस कहती है की वो लाइन लगवा रही थी। तीसरी ये की हमारे देश के लोग अब तक ये भी नही सीख पाये की लाइन कैसे लगाई जाती है। उसके बाद की समान चीजों में शोक प्रकट करना, घायलों को सांत्वना देना और मुआवजे की घोषणा करना इत्यादि है।
                  थोड़ी सी बारिश होती है और पूरा शहर पानी पानी हो जाता है। सारी व्यवस्था फेल हो जाती है। लोग डूब जाते हैं। सरकार से पूछो तो कहेगी की अनुमान से ज्यादा बारिश होने कारण ऐसा हुआ।
                    किसी भी काम पर, दुर्घटना पर सरकार से पूछो तो उसका जवाब हमेशा यही होता है की अनुमान से ज्यादा भीड़ या बारिश होने से ऐसा हो गया। मुझे ये समझ नही आता की ऐसे छोटे अनुमान लगाने को आपको किसने कहा था। क्या संविधान में ऐसा कोई प्रावधान है। फिर एक बार की बात नही है। आपके अनुमान तो साल में पांच बार छोटे पड़ते हैं। तो सरकार ये अनुमान लगाने का काम किसी दूसरे को क्यों नही दे देती। जैसे अमेरिका को, मेरा मतलब है अमेरिका की किसी एजेंसी को। क्योंकि हम अमेरिका के अलावा तो किसी पर भरोसा करते नही हैं। जब जब हम पर मुसीबत आई है हमने हमेशा अमेरिका से गुहार लगाई है भले ही वह मुसीबत अमेरिका की ही पैदा की हुई क्यों ना हो।
                      संसद में वित्त मंत्री बजट पेश करते हैं। वह संसद को बताते हैं की इस साल इतने लाख करोड़ टैक्स की उगाही होने का अनुमान है। विपक्ष कहता है की सरकार का अनुमान गलत है। अर्थव्यवस्था में मंदी  है और सरकार के कदमों से मंदी और बढ़ेगी। इसलिए टैक्स की उगाही के सरकारी अनुमान गलत हैं। सरकार नही मानती। वह अपने दावों पर अडिग है। होना भी चाहिए। हमारे यहां मजबूत सरकार उसी को माना जाता है जो अपने गलत दावों पर अडिग रहे। अगले साल वही वित्त मंत्री दुसरा बजट पेश करते हुए कहता है की दुनिया में मंदी के कारण टैक्स की उगाही कम हुई इसलिए हमें स्कूली बच्चों के दोपहर भोजन में कटौती करनी पड़ी।
                         देश में किसान आत्महत्या करते हैं। सरकार कहती है की हमने किसानो की आत्महत्या रोकने के लिए पूरे इन्तजाम किये हैं। आत्महत्याएं होती रहती हैं। सरकार आंकड़े जारी करके कहती है की इस साल आत्महत्याओं में केवल 15 % की बढ़ौतरी हुई है जबकि पिछले साल 18 % दर से बढ़ौतरी हुई थी। इसलिए सरकार द्वारा उठाये गए कदमों का असर नजर आ रहा है। अगले साल बढ़ौतरी का आंकड़ा बढ़ कर 20 % हो जाता है। सरकार कहती है इतने भयानक सूखे का अनुमान नही था।
                       पुलिस या सेना के लिए भर्ती हो रही है। नौजवानो का हजूम उमड़ता है और भगदड़ में कई नौजवान मारे जाते हैं। बाकि नौजवान शहर को लूटने निकल पड़ते हैं। सरकार कहती है की इतनी भीड़ का अनुमान नही था। कोई पूछे की भई क्यों नही था। जब देश में चपरासी की 100 पदों की भर्ती की परीक्षा होती है तो तीन लाख नौजवान अप्लाई करते हैं। जिनमे इंजीनियर से लेकर MBA तक होते हैं। तो आपको सेना की भर्ती में भीड़ का अनुमान क्यों नही था ? लेकिन सरकार इसका जवाब नही देती। सरकार जवाब देने के लिए नही होती, गलत अनुमान लगाने के लिए होती है।
                      कभी कभी लोग ज्यादा शोर मचाते हैं तो जाँच बिठा दी जाती है। अगर शोर थम जाता है तो उसका जाँच अधिकारी ही नियुक्त नही किया जाता। मान लो कोई जाँच सही तरीके से हो भी गयी तो पता चलता है की सरकार ने जिस अधिकारी को मेले का प्रबंध करने की जिम्मेदारी दी थी वो पिछले दस सालों से भेड़ व ऊन विकास निगम को चला रहा था। सरकार को लगा की मेले में आने वाले लोगों और भेड़ों में कोई ज्यादा फर्क नही होता इसलिए उसको जिम्मेदारी दे दी। लेकिन सरकार का अनुमान गलत हो गया।
                 तो फिर इन दुर्घटनाओं को कैसे रोका जाये। क्योंकि सरकार तो कभी सही अनुमान लगाएगी नही।

खबरी -- मैं तो यही दुआ कर सकता हूँ की सरकार ने लोगों के सब्र का जो अनुमान लगाया है कम से कम वो तो सही हो।

Wednesday, August 5, 2015

Vyang -- शुषमा जी का नया ज्ञान बोध, कौन ललित मोदी ?

गप्पी -- शुषमा जी अब तक कह रही थी की उन्होंने ललित मोदी की मदद मानवीय आधार पर की थी। उनके इस पर कई ट्वीट हैं। अब उन्होंने संसद में कह दिया है की मैंने ललित मोदी की कोई मदद नही की। मुझे पूरी उम्मीद है की कुछ दिन बाद शुषमा जी ये कह सकती हैं की - ललित मोदी ! कौन ललित मोदी ?

           शुषमा जी को ये ज्ञान बोध अभी अभी हुआ है। जैसे उन्हें ये ज्ञान बोध भी अभी अभी हुआ है की संसद की कार्यवाही को रोकना ठीक नही है। हमे ही नही पूरे देश को याद है जब शुषमा जी संसद में गरज गरज कर कह रही थी की,

                              तू इधर उधर की बात न कर , ये बता काफिला क्यों लुटा ,

                              मुझे रहजनों से गिला नही ,  तेरी रहबरी पर सवाल है। 

                शायद शुषमा जी इसका मतलब भी भूल गयी होंगी। वो एक परफेक्ट भारतीय महिला हैं। उन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए अपने बाल कटवाने की घोषणा की थी। एक विदेशी महिला को रोकने के लिए। परन्तु देश ने सोनियाजी को जीता दिया उनके मुकाबले में। ये तो भला हो खुद सोनियाजी का जिन्होंने प्रधानमंत्री ना बनने की घोषणा कर दी और शुषमा जी के बाल, बाल-बाल बच गए। 

                      लेकिन देश को शुषमा जी का नया बयान रास नही आ रहा है। अभी थोड़े दिन हुए हैं ना इसलिए, कुछ दिन बाद लोग ये भूल जायेंगे। शुषमा जी ने शुरू दिन से ललित मोदी प्रकरण पर जो सफाई दी है उस पर मुझे एक कहावत याद आ रही है। 

                      एक आदमी पर अदालत में किसी से मारपीट का मुकदमा चल रहा था।  जज ने उससे पूछा की उसे अपनी सफाई में क्या कहना है।  उस आदमी ने कहा की उसे अपनी सफाई में तीन बातें कहनी हैं। 

              पहली - ये  की वो उस दिन घटनास्थल पर था ही नही। 

               दूसरी -- अगर अदालत चाहे तो वो अपनी कलकत्ता वाली मौसी या चेन्नई वाले मामा को अदालत में पेश कर सकता है जो इस बात की गवाही देंगे की वो उसदिन उनके पास था। 

               और तीसरी -- ये की पहले थप्पड़ उसने मारा था। 

        शुषमा जी कह सकती हैं की ये कहावत सिर के बल खड़ी थी और उसने उसे सीधा खड़ा कर दिया। 

       शुषमा जी और उनके सहयोगियों को ये भी नया नया ज्ञान बोध हुआ है की सरकार के कामकाज में केवल कानून को देखा जाता है नैतिकता को नही। वरना पिछले दस साल के उनके भाषण निकाल कर देख लो उनमे नैतिकता पर इतना जोर दिया गया है जितना किताबों में भी नही मिलता। 

               मैं तो कहता हूँ शुषमा जी, अगर संसद में इस मामले पर चर्चा हो और उसमे स्वराज कौशल या बांसुरी कौशल का नाम आये तो कह देना की कौन स्वराज कौशल, कौन बांसुरी कौशल। बाद में इस पर कह देना की जब वो संसद में आती हैं तो सारे रिश्ते-नाते बाहर छोड़ कर आती हैं। और उन्हें देश सेवा में ये छोटी छोटी बातें याद नही रहती। इस पर तालियां बजाने के लिए आपके साथी संसद सदस्य और सोशल मीडिया में बैठे भाड़े के लोग तो हैं ही। 

                      वैसे एक लिस्ट बना लीजिये की आपको क्या-क्या याद रखना है और क्या-क्या भूलना है। वरना कुछ लोगों की बुरी आदत है की पहले कहि गयी बातों को नई बातों को मिला कर देखते हैं। और उनमे ऐसा बहुत कुछ है जो आपने उस समय की सरकार को शर्मिन्दा करने के लिए कहा था। और उन्ही बातों को लोग आपको शर्मिन्दा करने के लिए इस्तेमाल कर सकते  हैं। वैसे मैं तो कहता हूँ की इतने झगड़े में पड़ने की क्या जरूरत है ? साफ साफ कह दीजिये की हमने करना था कर दिया। कर लो जो करना है। साथ में वाजपेयी जी की तरह कह दीजिये की अगर विपक्ष को एतराज है तो अविश्वास प्रस्ताव लाये। जाहिर है की बहुमत के आगे अविश्वास प्रस्ताव की क्या ओकात है। बस आप तो एक चीज का ध्यान रखिये, ये बात गलती से लोगों को मत कह देना। वरना इस देश की जनता ऐसा हांल कर सकती है की खुद आपको भी विश्वास ना हो। 

 

खबरी -- सही बात है। विपक्ष की सौ सुनार की के सामने एक लुहार वाली कर देनी चाहिए।

Tuesday, August 4, 2015

Vyang -- राजनैतिक पार्टियों में लोकतंत्र का डीएनए

खबरी -- ये कैसे मालूम हो की किसी पार्टी में लोकतंत्र का डीएनए है या नही ?


गप्पी -- सवाल बहुत मुश्किल है। अभी तक कोई जाँच सामने नही आई है जो ये बता सके की इस पार्टी में लोकतंत्र का डीएनए है या नही। अभी तक केवल कुछ मान्य सिद्धान्त हैं जो ये समझाने का प्रयास करते हैं की किसी पार्टी की लोकतंत्र के बारे में क्या राय है। अब हमारे देश में ही ले लो। यहां विज्ञापनी लोकतंत्र चल रहा है। जो पार्टी विज्ञापन पर 100 करोड़ महीना खर्च करती है वो 20 करोड़ खर्च करने वाले को अलोकतांत्रिक बता रही है। जो पार्टियां विज्ञापन पर खर्च करने की हैसियत नही रखती उनको समझ नही आ रहा है की वो लोकतंत्र पर अपनी बात कहें कैसे। 

 

खबरी -- लेकिन बीजेपी ने कहा है की चूँकि कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सोनिया और राहुल हैं इसलिए इस पार्टी के डीएनए में ही लोकतंत्र नही है। 


गप्पी -- लेकिन सोनिया और राहुल कांग्रेस के इन पदों पर कांग्रेस की मर्जी से हैं। अगर उनके परिवार की वजह से बीजेपी ऐसा कह रही है तो उसे ये भी बताना चाहिए की सीधे राजघराने से आई हुई वशुन्धरा राजे कैसे लोकतान्त्रिक हैं। ऐसे और भी बहुत से लोग हैं बीजेपी और दूसरी पार्टियों में। बीजेपी के सहयोगियों में से एक बाला साहेब ठाकरे तो बड़े गर्व से कहते थे की महाराष्ट्र की सरकार का रिमोट उनके पास है। और हमने बीजेपी नेता प्रमोद महाजन को इस पर तालियां बजाते देखा है। मठों और अखाड़ों के साधु संसद के सदस्य हैं, वो कौनसे लोकतान्त्रिक मूल्यों से मठों के अध्यक्ष बने थे। 


खबरी -- लेकिन जो लोग पारिवारिक पृष्ठभूमि से नही आते उनमे कुछ तो लोकतान्त्रिक मूल्य दूसरों से ज्यादा होते होंगे ?


गप्पी -- हिटलर और मुसोलिनी किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से नही आये थे लेकिन उनके लोकतंत्र को पूरी दुनिया ने भुगता है। दुनिया में ऐसे ऐसे हत्यारे शासक रहे हैं जिनका नाम सुन कर रूह काँप जाती है लेकिन उनकी कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नही रही। सो ये मापदण्ड पूर्णतया सही नही लगता। संसदीय लोकतंत्र की शुरुआत करने वाले ब्रिटेन में आज भी महारानी संवैधानिक मुखिया है। 


खबरी -- लेकिन किसी शासन में आम लोगों की हिस्सेदारी से तो वहां के लोकतंत्र की स्थिति का पता चलता होगा ?


गप्पी -- ये एक सही मापदण्ड हो सकता था। लेकिन अब हमारे देश में ही लो। यहां लोगों की हिस्सेदारी केवल वोट देने तक सिमित रह गयी है। चुनाव लड़ने को इतना महंगा कर दिया गया है की 95 % जनता उससे बाहर हो गयी है। उसके बाद अगर कुछ लोग बच जाते हैं तो चुनाव का वातावरण धर्म और जाती के नाम पर इतना दूषित कर दिया जाता है की सही चुनाव सम्भव ही नही रहता। उसके बाद चुनी हुई संसद और विधान सभाओं में सत्ताधारी पक्ष बहुमत का प्रयोग करके विपक्ष को लगभग अस्तित्वहीन कर देता है। बिना विपक्ष की मौजूदगी के बिल पास कर लिए जाते हैं। मुझे नही लगता इसमें स्वस्थ लोकतंत्र के कोई लक्षण हैं। 


खबरी -- तो इस देश में बचे खुचे लोकतंत्र को बचाने का कोई रास्ता है या नही ?


गप्पी -- एक रास्ता है लेकिन वो लागु नही हो सकता। संसद में कानून बना कर 90 % सीटें उन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएँ जिनकी सालाना आमदनी दो लाख से कम हो। सारे राजघराने, सारे मठाधीश, सारे भूतपूर्व नेताओं के रिश्तेदार, सारे कॉर्पोरेट के महारथी और सारे माफिया तत्व 10% में रह जायेंगे। 


खबरी -- इसका कानून तो नही बन सकता, लेकिन लोग चाहें तो इसे अपने स्तर पर लागु कर सकते हैं।

Monday, August 3, 2015

Vyang -- सरकार ( केवल ) चर्चा को तैयार है।

गप्पी -- संसद में कामकाज बंद है। सरकार कहती है की वो चर्चा के लिए तैयार है और विपक्ष चर्चा नही कर रहा है। विपक्ष कहता है की सरकार केवल चर्चा करना चाहती है कार्यवाही नही करना चाहती। दोनों पक्ष आमने सामने हैं। सदन में एक अध्यक्ष होता है जिसकी हालत घर  के उस बूढ़े जैसी है जिसकी इज्जत करने का दावा तो सभी करते हैं लेकिन उसकी सुनता कोई नही है। संसद की कार्यवाही इस तरह शुरू होती है। 

                 अध्यक्ष सदन में अपने आसन पर आकर बैठता है। विपक्ष के चार पांच सदस्य खड़े हो जाते हैं और कहते हैं की उन्होंने कार्यस्थगन का नोटिस दिया है। सत्ता पक्ष के चार पांच लोग खड़े हो जाते हैं और प्रस्ताव का विरोध करते हैं। अध्यक्ष प्रस्ताव को ख़ारिज कर देता है। सदन में हो हल्ला होता है और सदन के अध्यक्ष घोषणा करते हैं की कार्यस्थगन क्या पूरा सदन ही दोपहर तक स्थगित किया जाता है। हमारे यहां ये रिवाज है की कार्य को स्थगित करने की बजाय पूरा सदन ही स्थगित कर दिया जाता है। 

                  गांव से कुछ लोग मंत्रीजी से मिलने संसद भवन पहुंचते हैं। 11 बजने वाले हैं, सदन की कार्यवाही शुरू होने वाली है। मंत्रीजी गांव वालों को कहता है की मैं अभी आया पंद्रह मिनट में। तुम तब तक संसद की कैंटीन में सब्सिडी वाला नाश्ता करो। सदन की कार्यवाही शुरू होती है। मंत्री खड़ा होकर कहता है की सरकार चाहती है की सदन चले। मुझे मालूम है की मंत्री झूठ बोल रहा है। वो गांव वालों को पंद्रह मिनट का समय देकर आया है। पहले इस तरह का मजाक लोग हमारी किर्केट टीम के लिए करते थे की बैट्समैन चाय वाले को चाय बनाने की बोलकर बैटिंग करने जाता था और जब तक चाय बनती थी वापिस आ जाता था। 

                 मान लो कार्यवाही चले भी और चर्चा हो तो ऐसी होगी,

विपक्ष -- तुमने घोटाला किया है। 

सरकार -- हमने घोटाला नही किया है। 

विपक्ष --  तो जो शुषमा जी ने किया वो क्या था ?

सरकार -- उसे घोटाला नही मदद कहते हैं। 

विपक्ष -- तुमने एक अपराधी की मदद क्यों की ?

सरकार -- मदद हमारी परम्परा है हम उसमे भेदभाव नही करते। 

विपक्ष -- तो इस्तीफा भी तो परम्परा है। 

सरकार -- हम कांग्रेस की परम्परा को नही मानते। 

विपक्ष -- इस्तीफा दो। 

सरकार -- नही देंगे। 

                                    चर्चा समाप्त। 

           मैं तो कहता हूँ की गलती विपक्ष की है। उसे मंत्रियों का इस्तीफा चाहिए था तो प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगना चाहिए था। क्योंकि हमारे यहां ऐसा ही होता है। 

                   विपक्ष कहता है की चर्चा करो। 

                    सरकार कहती है की चर्चा नही हो सकती। 

                  विपक्ष कहता है की मंत्री इस्तीफा दे। 

                    सरकार कहती है की चर्चा करो। 

                  विपक्ष कहता है की प्रधानमंत्री इस्तीफा दे। 

                     सरकार कहती है संबंधित मंत्री इस्तीफा देंगे। 

सो विपक्ष से चूक हो गयी। आजलक तो बच्चे भी इतने समझदार हो गए हैं की सौ रूपये चाहिए होते हैं तो पांच सौ मांगते हैं। अब विपक्ष हो हल्ला कर रहा है। सरकार सदस्यों को निलंबित करने का प्रस्ताव रख रही है। एक समय आएगा की पूरा विपक्ष निलंबित हो जायेगा। केवल सरकार के लोग बचेंगे। फिर चर्चा  होगी। लेकिन ऐसी चर्चा तो पार्टी की मीटिंग में भी हो सकती थी। संसद की क्या जरूरत थी। 

                       लेकिन बिल तो केवल संसद में ही पास हो सकते हैं। उसके बाद बिल पास होंगे। सरकार कहेगी इस बार संसद में 42 बिल पास हुए।  सारे बिल पूरे विचार-विमर्श और चर्चा बे बाद पास हुए। टीवी चैनल बताएंगे की इस बार रिकार्ड कामकाज हुआ। जनता संतुष्ट होगी की संसद पर हो रहा खर्चा बेकार नही गया। 

 

खबरी -- देश को ये बताया जा रहा है की संसद का काम केवल उसके खर्चे के हिसाब से बिल पास करना है।

Sunday, August 2, 2015

Vyang -- मानवाधिकार आयोग में फेरबदल

गप्पी -- सरकार  के प्रवक्ता ने एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया जिसमे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में आमूल-चूल परिवर्तन की बात की गयी। सरकारी प्रवक्ता ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के पद पर नई नियुक्ति का एलान किया। उन्होंने नई नियुक्ति का एलान करते हुए कहा की देश में कई आयोगों के कामकाज पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। इसलिए सरकार ने सबसे पहले मानवाधिकार आयोग को " सुधारने " का फैसला किया है। अब तक आयोग सरकार को चिट्ठी लिखने, रिपोर्ट मांगने और सरकार के कामो में अड़ंगा डालने के अलावा कोई ढंग का काम नही कर पाया है। इसलिए सरकार ने इसमें परिवर्तन का फैसला लिया है। इसलिए सरकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर स्वामी विचारानन्द की नियुक्ति की घोषणा करती है। स्वामी जी ने परम्परा के अनुसार कई साल गुरुकुल में रहकर शास्त्रों और पुराणो का अध्ययन किया है। स्वामीजी हमारी 5000 साल पुरानी भारतीय संस्कृति के विद्वान रहे हैं। इसलिए सरकार ये उम्मीद करती है की आयोग के काम और तरीके में फर्क दिखाई देगा। अब आप अपने सवाल पूछ सकते हैं। 

           पत्रकार ------ लेकिन अब तक तो ये परम्परा रही है की राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर मुख्य न्यायाधीश को बनाया जाता है ?

            प्रवक्ता ------- ये एक गलत परम्परा थी जिसे बिना विचार किये लागु किया गया था। जो मुख्य न्यायाधीश उच्चतम  न्यायालय जैसी सर्वाधिकार प्राप्त संस्था में रहते हुए मानवाधिकारों की रक्षा नही कर पाया उससे सरकार आगे क्या उम्मीद करेगी। इसलिए ये पद किसी विद्वान को देने का फैसला किया गया है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए हम राज्य पालों के पद सुरक्षित रखने की योजना बना रहे हैं। 

           पत्रकार ----- लेकिन मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष को कानून और संविधान की गहन जानकारी होनी चाहिए इसलिए इस पद पर न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। 

            प्रवक्ता ------ यही जानकारी समस्या की जड़ है। जब कोई आदमी किसी पुलिस अधिकारी द्वारा उसके मानवाधिकारों के हनन की शिकायत लेकर आता है तो आयोग को वो बात पता करने में तीन महीने लगते हैं जो सरकार को पहले दिन मालूम होती है। अव्वल तो पुलिस अधिकारी ने वो काम सरकार के कहने पर ही किया होगा, और अगर उसने किसी दूसरी प्रेरणा से भी ऐसा किया होगा तो वो तुरंत सरकार को बता देता है। इसलिए आयोग उस बात के लिए सरकार को तीन महीने बाद चिट्ठी लिखे ये बात समझ में नही आती। 

            पत्रकार ---  तो सरकार अब इस तरीके में क्या बदलाव लाने  जा रही है ?

           प्रवक्ता ----- इसका जवाब खुद स्वामीजी ही देंगे। ये कहकर उन्होंने माइक स्वामीजी को दे दिया। स्वामीजी 50-55 की उमर के स्वस्थ आदमी थे। उनकी दाढ़ी करीने से छँटी हुई थी जो उनके छँटे होने का आभास दे रही थी। स्वामीजी ने माइक पकड़कर दो मिनट के लिए आँखे बंद की और होठों में कुछ बड़बड़ाया। उसके बाद आँखे खोलकर उन्होंने फ़रमाया, " जब हमारे देश का संविधान बना तो उसमे कुछ आधारभूत गलतियां हो गयी। संविधान बनाने वाली सभा में कोई भी भारतीय संस्कृति को गहराई से जानने वाला विद्वान शामिल नही था वरना ऐसा नही होता। उसमे मौलिक अधिकारों के नाम का एक अध्याय जोड़ दिया गया। जबकि कोई भी अधिकार मौलिक नही होता। नागरिकों के अधिकार राजा की मर्जी के अधीन होते हैं। हमारे शास्त्रों में राजा को भगवान का प्रतिनिधि माना  गया है। यहां तक की राम की स्तुति भी राजा राम कहकर की जाती है। सारी समस्याएँ यहीं से शुरू होती हैं। आयोग अब ये देखेगा की जो काम राजाज्ञा से किया गया होगा उसकी शिकायत नही की जा सकेगी। राजा के अधिकारों को चुनौती नही दी जा सकती ये हमारी परम्परा है। हमारे यहां तो सबसे अच्छा न्याय का उदाहरण उसको माना जाता है जिसमे राजा को मृत्युदंड होने पर उसकी सोने की मूर्ति को फांसी पर लटकाया गया था। और ये हर बात पर शिकायत करना हमारी संस्कृति नही है। हमारे यहां तो कहा गया है,-

                                  सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये,

                                  जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिये। 

  उसी तरह हमारे शास्त्रों में राजा के सेवकों को देवता का दर्जा दिया गया है। क्योंकि उनके बिना राज्य का कामकाज असम्भव है। इसलिए भविष्य में किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ भी कोई शिकायत नही सुनी जाएगी। तुमने वो नया भजन तो सुना होगा। 

                                    दुनिया चले ना श्रीराम के बिना,

                                    रामजी चले ना हनुमान के बिना। 

        पत्रकार -- तो फिर आयोग का काम क्या रह जायेगा। वो क्या काम करेगा ?

       स्वामीजी ----- आयोग जगह जगह सेमिनार और प्रवचन आयोजित करेगा, जिसमे हमारी सदियों पुरानी संस्कृति की तरफ लौटने का आवाहन किया जायेगा। लोगों को समझाया जायेगा की जिन्हे वो अबतक अधिकार समझते रहे हैं वो एक तकनीकी भूल थी। 


खबरी -- तुम्हे हमेशा इस तरह के बुरे सपने ही क्यों आते हैं ?

Friday, July 31, 2015

Vyang -- नेताजी द्वारा पार्टी कार्यकर्ताओं की क्लास

गप्पी -- सरकारी पार्टी के दफ्तर में आज खास चहल पहल थी। राजधानी से एक बड़े नेता पार्टी कार्यकर्ताओं की मीटिंग करने आ रहे थे। इसमें वो तात्कालिक मुद्दों पर आम जनता और विरोधियों को कैसे जवाब दिया जाये ये क्लास लेने वाले थे। नेताजी के सचिव ने पूरे दफ्तर में घूम कर मुआयना किया और फिर नेता जी से कहा, " चाय नाश्ते का इन्तजाम नजर नही आ रहा है। "

          नेताजी ने उसकी तरफ नाराजगी भरी नजरों से देखते हुए कहा, " जब पार्टी सत्ता में होती है तब कार्यकर्ताओं को इकट्ठा करने के लिए नाश्ते की जरूरत नही होती। तुम्हे इतना भी नही मालूम ? "

          सचिव को इत्मीनान हो गया। तय समय पर पूरा हाल खचाखच भर गया। और नेताजी ने अपना स्थान ग्रहण किया। दो चार ओपचारिक बातों के बाद नेताजी सीधे मुददे पर आ गए। 

           " जब पार्टी सत्ता में होती है तो लोग तरह तरह के सवाल आप लोगों से करते हैं। उनका जवाब कैसे दिया जाये और आप लोगों को कोई परेशानी वाली स्थिति में नही पड़ना पड़े उसके लिए आज की मीटिंग और क्लास का आयोजन किया गया है। हर कार्यकर्ता किसी भी तरह का सवाल पूछ सकता है। लेकिन इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की चाहे हम सड़क पर हों, मुहल्ले में हों या संसद में हों, हमारा मकसद सामने वाले को सन्तुष्ट करना नही बल्कि चुप कराना होता है। इस एक नीति वाक्य को ध्यान में रखोगे तो कोई परेशानी नही आएगी। "

एक कार्यकर्ता ने खड़े होकर पूछा," आजकल लोग कुछ मंत्रियों के भृष्टाचार पर बहुत सवाल पूछ रहे हैं। "

   " बहुत अच्छा सवाल है। इसका जवाब बहुत सीधा और आसान है। अपने मंत्रियों के बारे में जवाब देने के  बजाए विपक्ष के मंत्रियों के भृष्टाचार गिनाना शुरू कर दो। हमारे नेता संसद में जो कर रहे हैं उससे ही तुम्हे समझ जाना चाहिए था। "

 " लेकिन लोग हमे हमारे वायदे की याद दिलाना शुरू कर देते हैं की भृष्टाचार बर्दाश्त नही किया जायेगा। " एक दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा। 

   " उन्हें ये बताओ की हम विपक्ष के मंत्रियों का कोई भी भृष्टाचार बर्दाश्त नही करेंगे। कई पुराने मामलों पर सीबीआई को FIR दर्ज करने को कह दिया गया है। और सरकार अपना वायदा जरूर पूरा करेगी। "

    " लेकिन अपने मंत्रियों के भृष्टाचार पर क्या कहें ?" एक दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा। 

    " उसके लिए सामने वाले को कहो  की ये कहना ही गलत है की हमारा कोई मंत्री भृष्टाचार कर सकता है। विपक्ष फालतू में मानवीय आधार पर या पारिवारिक संबंधों  किये गए कामों पर सवाल उठा रहे हैं। लोगों को ये बताओ की उन्हें ये मानकर चलना चाहिए की हमारा कोई मंत्री भृष्टाचार नही कर सकता। "

   " कई लोग हमारे विकास के वायदे पर भी सवाल उठा रहे हैं, कालेधन पर सवाल कर रहे हैं। " एक कार्यकर्ता ने पूछा। 

   " उन्हें कहो की विकास हो रहा है इसके लिए उन्हें मूडीज की रेटिंग दिखाओ। और अगर कहीं विकास नही भी हो रहा है तो उसके लिए विपक्ष जिम्मेदार है। "

   " कुछ लोग कहते हैं की हस्पतालों में ना डाक्टर हैं और ना दवाइयाँ हैं इसमें विपक्ष क्या करेगा ?" एक कार्यकर्ता ने हैरानी जताई। 

    " यही तो फर्क है तुममे और हममे। अरे अगर विपक्ष भूमि बिल पास नही होने देगा तो दवाइयों के कारखाने कहां लगेंगे और मैडीकल कॉलेज कहां खुलेंगे। बोलो इसके लिए विपक्ष जिम्मेदार हुआ की नही। " नेताजी ने गर्व से चारों तरफ देखा। 

 कार्यकर्ता ---    " लोग कह रहे हैं की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल इतना सस्ता हो गया है फिर भी रेल या बस के किराये क्यों नही घट रहे हैं।? " 

 नेताजी -----    " उन्हें बताओ की रेल और बस के किराये कम करने के लिए उनका विस्तार करना जरूरी है। और उसके लिए जमीन चाहिए जो विपक्ष भूमि बिल को रोककर लेने नही दे रहा। "

कार्यकर्ता ----- " चौबीस घंटे और सस्ती बिजली के वायदे पर क्या कहें ? "

नेताजी -------- " चौबीस घंटे और सस्ती बिजली के लिए बिजली के नए और बड़े कारखाने लगाने की जरूरत है। जो भूमि बिल को रोककर विपक्ष करने नही दे रहा। "

कार्यकर्ता ------ " लोग फिल्म इंस्टिट्यूट में गजेन्द्र चौहान को चेयरमैन बनाने की योग्यता पर सवाल कर रहे हैं। "

नेताजी --   " लोगों को बताओ की  उसे गजेन्द्र चौहान की नजरों से ना देखें बल्कि युधिष्ठिर के रूप में देखे। किसी संस्था का चेयरमैन सरकार युधिष्ठिर से बेहतर कहां से लाये। ये लोगों का दृष्टि दोष है। विपक्ष किसी कौरव को चेयरमैन बनाना चाहता है। "

कार्यकर्ता -- " लोग लोकतंत्र की परम्पराओं की बात करते है उस पर क्या तर्क दें ?"

नेताजी -----" तुम लोगों को समझ लेना चाहिए की हमारे लिए भीड़तंत्र ही लोकतंत्र है। और जहां तक तर्क का सवाल है तो सामने वाले को चुप करने के लिए कभी भी तर्क पर भरोसा मत करो, कुतर्क पर करो। सामने वाला कुतर्क से जल्दी चुप होता है। आज के लिए इतना काफी है। बाकि लोगों से हमारी सोशल मीडिया की टीम निपट लेगी। "


खबरी -- बहुत खूब !

Thursday, July 30, 2015

Vyang -- वोट कैसे नही दोगे तुम !

गप्पी -- इस देश के मतदाताओं को बड़ा घमण्ड था। कभी भी और किसी को भी कह देते थे जाओ हम वोट नही देंगे। कई बार तो ऐसा होता था विकास कार्यों की अनदेखी के विरोध में पूरा गांव चुनाव का बहिष्कार कर देता था। ये भी एक लोकतांत्रिक तरीका था अपना विरोध प्रकट करने का। मुहल्ले का छोटा से छोटा आदमी इंकार कर देता था वोट देने से। लोगों को जब सभी पार्टियां और उम्मीदवार किसी काम के नही लगते थे तो वो वोट देने नही जाते थे । जब उसे चुनाव में खड़े लोगों से कोई उम्मीद नजर नही आती थी तो वो वोट देने नही जाता था। एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक होने की हैसियत से हमे ये अधिकार प्राप्त था की हम जिसे चाहें वोट दें और ना चाहें तो किसी को भी वोट ना दें। जब चुनावों में लोगों के वोट डालने की संख्या कम हो जाती है तो अब तक तो उसका विश्लेषण करने वाले कहते थे की राजनितिक पार्टियां लोगों को वोट के लिए आकर्षित करने में विफल रही हैं। यही बात थी जो कुछ पार्टियों को अच्छी नही लगी। इस देश का अदना सा वोटर उसकी गलती निकाल रहा है, उसकी इतनी हिम्मत। सो कानून बना दिया की वोट देना जरूरी है। अगर नही दोगे तो सजा होगी। एक आम वोटर की इतनी हिम्मत की वो वोट देने से इंकार करे। ये नही हो सकता। सरकार ऐसे गैरजिम्मेदार वोटरों को सीधा करेगी। आखिर लोकतंत्र है। 

                        परन्तु मेरे पड़ौसी पूछ रहे थे की जो पार्टियां झूठे वायदे करके वोट ले लेती हैं और बाद में वायदों को जुमला कह देती हैं क्या उनके खिलाफ भी कोई कानून है। वोट देने और चुनाव जीत जाने के बाद लोगों को मालूम पड़ता है की गलत आदमी चुना गया तो क्या उसे वापिस लाने  का कोई कानून है ? जिन लोगों पर अपराधी मामले चल रहे हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने से रोकने का कोई कानून है ? नही है। हो भी नही सकता। ये सारी मांगे नेताओं और पार्टियों के खिलाफ हैं। और हमारे नेता तो लोकतंत्र के राजा हैं तो भला उनके खिलाफ कोई कानून कैसे बन सकता है। 

                        लेकिन कुछ कानून हैं। चुनाव में पैसा खर्च करने की सीमा तय है। कोई भी उम्मीदवार उससे ज्यादा पैसा खर्च नही कर सकता। परन्तु इस कानून का क्या हुआ ? सभी को मालूम है की उम्मीदवार करोड़ों रुपया खर्च करते हैं। कोई पकड़ा भी जाता है तो उसे पार्टी का खर्च बता दिया जाता है। क्या किसी को याद है की कोई उम्मीदवार ज्यादा खर्च करने के लिए चुनाव के अयोग्य घोषित हुआ हो ? फिर लोकतंत्र के राजाओं के खिलाफ बात की जा रही है। जो कभी नही हो सकता। सरकार पांच साल में एकबार चुनाव सुधारों पर मीटिंग का नाटक करती है और बिना किसी नतीजे के समाप्त कर देती है। क्योंकि सरकार समझती है की इस देश के मतदाता अव्वल दरजे के मुर्ख हैं। 

                        सो इन मुर्ख मतदाताओं को सीधा करने का केवल एक ही रास्ता है और वो है कानून। सो कानून बना दिया है की वोट तो भई डालनी ही पड़ेगी वरना सजा भुगतने को तैयार हो जाओ। एक आदमी कह रहा था की भाई अब तो इस मत का भी बटन है की इनमे से कोई नही, फिर क्या एतराज है। अगर आपको कोई भी उम्मीदवार पसंद नही आता है तो आप वो बटन दबा सकते हैं। मुझे हंसी आई। इस बटन का मतलब है खराब से खराब उम्मीदवार भी ये कहेगा लो, मेरी बात छोडो इन्हे तो कोई भी पसंद नही है। वो कहेगा अरे, लोग ही बेकार हैं। अब भगवान राम तो चुनाव लड़ने आने से रहे। दुबारा चुनाव होगा फिर क्या होगा ? तब कोई बाहर से आएगा चुनाव लड़ने ? फिर सारा कसूर जनता का साबित हो जायेगा। 

                       सो इस देश के भोले मतदाताओ, अब ये कानून बन गया की वोट तो तुम्हे देना ही पड़ेगा। दूसरा ये तरीका बन गया और स्थिति पैदा कर दी की कोई भला मनुष्य चुनाव नही लड़ सकता क्योंकि उसके पास इतना पैसा ही नही होगा खर्च करने को। टीवी चैनल पैसा लेकर एक पार्टी की हवा होने के ओपिनियन पोल पेश करेंगे। लाखों के खर्च से खबरों से ज्यादा के विज्ञापन दिखाए जायेंगे। पैसा लेकर खबरें दिखाई जाएँगी। इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियां चुनाव प्रचार और प्रबंध करेंगी। सोशल मीडिया पर पैसे लेकर बैठे हुए लोग लगातार झूठ और गालियों का दौर चलाएंगे। सभी छोटी और सही आवाजें नक्कारखाने में खो जाएँगी। और ऐसे माहोल में अगर कोई मतदाता कानो पर हाथ रखकर घर के अंदर बैठना चाहेगा तो उसे सजा हो जाएगी। धन्य है हमारा लोकतंत्र, जो लगभग लोक के खिलाफ हो गया है। आखिर लोग कब इस तानाशाही के खिलाफ वोट देंगे। 


खबरी -- क्या गुजरात सरकार का अनिवार्य मतदान का कानून अलोकतांत्रिक है ?

Tuesday, July 28, 2015

Vyang -- No Politics Please !

गप्पी -- हम गाहे बगाहे ये बात सुनते रहते हैं की कृपया इस मुद्दे पर राजनीती ना करें। कल पंजाब के गुरदासपुर में आतंकवादी हमला हुआ। कई लोग मारे गए। पंजाब के मुख्यमंत्री बादल साहब का बयान आया की आतंकवादी सीमा पार से आये थे इसलिए ये राज्य का मामला नही है। संसद में विपक्ष ने जब इस पर गुप्तचर असफलता का आरोप  लगाया तो वेंकैया नायडू ने कहा की आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीती नही की जानी  चाहिए। विपक्ष के लोगों को तो एक बार जैसे सांप सूंघ गया। ये बात उस पार्टी के नेता और खुद वो मंत्री कह रहे हैं जो लगभग सारी राजनीती इसी मुद्दे पर करते रहे हैं। पिछली  UPA सरकार का उन्होंने ये कह कह कर जीना हराम कर दिया था की ये सरकार देश की सुरक्षा के मामले पर असफल है।

                 इससे पहले जब भूमि बिल पर विपक्ष ने विरोध जताया था तब भी सरकार ने कहा था की विपक्ष को देश के विकास के सवाल पर राजनीती नही करनी चाहिए। सरकार बार बार विपक्ष को ये याद दिलाती है की भैया इन मामलों पर राजनीती मत करो। लेकिन विपक्ष है की मानता ही नही है। वह हमेशा गलत चीजों पर राजनीती करता है जैसे आतंकवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भूमि बिल इत्यादि। अब अगर विपक्ष इन मामलों पर राजनीती करेगा तो देश का क्या होगा ?

                     इसलिए मेरा सरकार को सुझाव है की वो संसद में एक बिल लेकर आये और उसमे तय कर दिया जाये की किन किन मुद्दों पर राजनीती की जा सकती है। और उन मुद्दों पर राजनीती करने के लिए संसद का एक विशेष सत्र हर साल बुलाया जाये। इसके अलावा बाकि जो भी संसद के सत्र हों उनमे विपक्ष को राजनीती करने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इन सत्रों में विपक्ष का काम केवल हाथ ऊपर करना तय कर दिया जाये वो भी तब जब सरकार कहे।

                     राजनीती करने के लिए जो विशेष सत्र बुलाया जाये उसमे इस तरह का काम रक्खा जाये जैसे राजनीती पर चुटकुले सुनाना, होली खेलना और होली के गीत गाना जिनमे कुछ गालियों की भी छूट दी जा सकती है। संसद से वाकआउट करने और कार्यवाही रोकने जैसे प्रोग्राम भी केवल इसी सत्र में किये जा सकते हैं। कितना अच्छा लगेगा जब संसदीय कार्य मंत्री विपक्ष के किसी नेता पर कोई चुटकुला सुनाएंगे और विपक्ष उसका विरोध करते हुए वाकआउट करेगा। विपक्ष के वाकआऊट की तारीफ करते हुए सत्ता पक्ष के लोग तालियां बजायेंगे और प्रदर्शन की प्रशंसा करेंगे। संसद में एकदम राष्ट्रीय एकता का नजारा होगा।

                       बाकि सत्रों में इस पर रोक का बिल पास होने के बाद जो नियम बनाएं जाएँ उनमे कुछ इस तरह के हो सकते हैं।

        १. सत्र के दौरान विपक्ष के सदस्य मुंह पर कपड़ा लपेट कर आएंगे लेकिन वो काले रंग का नही होना चाहिए।

        २. सरकार किसी बिल पर जब हाथ उठाने के लिए कहेगी तब सभी सदस्यों को पार्टी से ऊपर उठकर हाथ उठाना होगा।

        ३. अचानक कोई घटना घटित होने पर अगर विपक्ष को लगता है की उसे सदन में उठाया जाये तो वो उसे लिखकर संसदीय कार्य मंत्री को देंगे और मंत्री उसकी भाषा कागज पर लिखकर देंगे। उसके अलावा कोई शब्द नही बोला जायेगा।

          ४. किसी मंत्री का कोई घोटाला सामने आता है तो उसे राष्ट्रीय कर्म माना  जायेगा और जब तक सरकार के अंदरुनी मतभेदों के कारण मंत्री को हटाने की नौबत नही आएगी विपक्ष तब तक इंतजार करेगा। ऐसा समय आने पर सरकार विपक्ष को सुचना देगी और विपक्ष उसका इस्तीफा मांग सकता है। इसके अलावा किसी भी मंत्री का इस्तीफा मांगना देशद्रोह माना जायेगा।

           ५.  प्रधानमंत्री से किसी भी मामले पर बयान देने को नही कहा जायेगा और प्रधानमंत्री केवल अपने विदेशी दौरों पर बयान देंगे। और इस पर पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ है ये संदेश देने के लिए विपक्ष के सभी सदस्यों द्वारा मेज थपथपाना जरूरी होगा।

            ६. बजट पर विपक्ष के बहस करने पर पाबंदी रहेगी और केवल सत्ता पक्ष के लोग उस पर बोल सकते हैं।

            ७. देश की सभी संवैधानिक संस्थाए मंत्रियों के नीचे और इशारे पर काम करेंगी। संविधान को सरकार के अधीन माना जायेगा। अब तक जो सरकार को संविधान के अधीन माना जाता है वो गलत है और इस भूल का सुधार कर लिया जायेगा। 

            ८. उच्चतम न्यायालय के जजों की नियुक्ति प्रधानमंत्री करेंगे और उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति का अधिकार मुख्यमंत्री का होगा। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अगर चाहें तो अपने परिवार के सदस्यों की राय ले सकते हैं।

            ९. अगर कोई न्यायिक बैंच दो सदस्यों की है तो  अटार्नी जनरल को बैंच का तीसरा सदस्य माना जायेगा।

            १०. न्यायालय के सभी फैसले मंत्रिमंडल की छानबीन और अनुमति के अधीन रहेंगे। 

            ११.  चुनाव की घोषणा के बाद ही विपक्ष सरकार की आलोचना कर सकेगा। शेष समय सरकार की आलोचना पर पाबंदी रहेगी। 

             १२. किसानों और मजदूरों से संबन्धित किसी भी मांग को विकास विरोधी, अल्पसंख्यकों से संबंधित मांगो को तुष्टिकरण और महिलाओं से संबन्धित मांगों को संस्कृति विरोधी माना जायेगा। 

             १३. संविधान संशोधन बिल पर जो दो- तिहाई बहुमत का प्रावधान है उसे सदन की नही बल्कि सत्तापक्ष की सदस्यता का दो-तिहाई माना जायेगा।

             १४.  ये सभी नियम सरकार के स्थाईत्व को ध्यान में रखकर बनाये गए हैं इसके बावजूद देश के दुर्भाग्य से अगर भाजपा की सरकार चली जाती है तो ये नियम समाप्त मान लिए जायेंगे। 

 

खबरी -- उम्मीद करता हूँ की सरकार तुम्हारे सुझावों को प्रत्यक्ष रूप से भी लागु करेगी।

Sunday, July 26, 2015

Vyang -- मोदीजी की " मन की बात ", मजा आ गया !

खबरी -- मोदीजी ने अभी जो "मन की बात" की है उस पर तुम्हारा क्या कहना है ?


गप्पी -- क्या  कहना है ? अरे ! मैं कहता हूँ की मजा आ गया। जिस दिन से इस बात का जिक्र हो रहा था की मोदीजी मन की बात करने वाले हैं उसी दिन से कोहराम मचा हुआ था। सारा मीडिया कयास लगा रहा था। लोग इंतजार में घड़ी देख रहे थे। विपक्ष के लोगों की दिल की धड़कन तेज हो रही थी। सबको लगता था की मोदीजी अब तो कम से कम भृष्टाचार के आरोपों पर बोलेंगे। देखते हैं क्या कहते हैं। सुषमाजी और वसुंधराजी की सफाई किस तरह देंगे। ललित मोदी पर क्या कहेंगे। पर सब धरे रह गए। मोदीजी ने एक शब्द नही बोला। अब बोलो क्या बोलते हो। सबके चेहरे उतरे हुए थे। कुछ हाथ में नही आया। कुछ लोगों का अनुमान था की संसद न चलने पर विपक्ष को कोसेगे , आरोप लगाएंगे की विपक्ष देश की तरक्की में अड़ंगा डाल  रहा है। पर नही बोले। कुछ लोगों में तो शर्तें लगी हुई थी। एक कह रहा था की ये बोलेंगे, दूसरा कह रहा था की नही, ये बोलेंगे। दोनों हार गए। मैं  तो कहता हूँ की क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले अगर इस बात पर सट्टा लगाएं की प्रधानमंत्री मन की बात में किस बात पर बोलेंगे तो ज्यादा बड़ा काम हो सकता है। प्रधानमंत्री का मन समझना भरतीय टीम के स्कोर के अनुमान से ज्यादा कठिन है।

                       मैं कहता हूँ की मजा आ गया। प्रधानमंत्री जी आपके मन को कौन समझ सकता है। लोग इसे ना तो चुनाओं के पहले समझ पाये और ना बाद में। इस बात को आपने साबित कर दिया की आप किसी के हाथ आने वाले नही हैं। देश में एक से एक बड़ा मसला पड़ा है। चर्चाएं चल रही हैं। लेकिन आप बोले सड़क दुर्घटनाओं पर। विपक्ष के लोगों को छोडो, मीडिया और खुद बीजेपी के लोग तक अनुमान नही लगा पाये। आपकी कपैसिटी पर जिन लोगों को संदेह था शायद अब दूर हो गया हो। आपकी महिमा उनको समझ में आ गयी हो। इतने जलते हुए सवालों के बीच से आप यों साफ निकल गए की देखते ही बनता था।

                                परन्तु आपकी एक बात मुझे समझ में नही आई। आपने पंद्रह अगस्त के भाषण के लिए लोगों से सुझाव क्यों मांगे। मैं कहता हूँ की ये आपने ठीक नही किया। लोग तो भरे बैठे हैं। पता नही क्या-क्या सुझाव भेज देंगे। आपके पास कौनसा मुद्दों का अकाल पड़ा है जो आप उनसे पूछ रहे हैं। इस देश के लोगों की सोच बहुत छोटी है। ये अब तक बेरोजगारी, महंगाई जैसे तुच्छ चीजों और मुद्दों से ऊपर नही उठ पाये हैं। सो इनसे कुछ मत पूछा करो। इन बेवकूफों को तो ये भी नही पता की चुनाव से पहले के और चुनाव के बाद के, दोनों मुद्दे अलग अलग होते हैं।

                                मैं तो कहता हूँ की आपने इतने देशों की यात्रायें की हैं। पंद्रह अगस्त पर आप उन यात्राओं के अनुभव सुना सकते हैं। एकदम नई बात हो जाएगी। अगर कोई भारी भरकम मुद्दा चाहिए जैसे विज्ञानं वगैरा से संबंधित तो आप कैपलर नाम के उस ग्रह पर बोल सकते हैं जिसे नासा ने अभी अभी खोजने का दावा  किया है। आप इस पर अपना दावा भी ठोंक सकते हैं की हमारा है। आप कह सकते हैं की यह ग्रह उन हाथियों से बना है जो महाभारत के युद्ध में भीम ने फेंके थे। जब से आपने गणेश के सर पर भरतीय वैद्यों द्वारा सर्जरी  से हाथी का सिर जोड़ने की बात कही है वैज्ञानिक लोग आपको गंभीरता से नही लेते। सो इस पर कोई विवाद खड़ा नही होगा और आपको अमरीका का समर्थक कहने वालों को बोलती भी बंद हो जाएगी । पंद्रह अगस्त देखने आई भीड़ इस पर तालियां जरूर बजाएगी। लेकिन लोगों से सुझाव मत मांगीये। ये पता नही क्या कह देंगे।

Vyang -- लो बदल दिया नाम, सारे मसले हल

खबरी -- सुना है मध्यप्रदेश सरकार ने व्यापम का नाम बदल दिया ?

गप्पी -- ये बहुत अच्छा किया। बहुत बदनामी हो रही थी। वैसे तो शैक्सपीयर ने कहा था की नाम में क्या रक्खा है। परन्तु अब समय बदल गया है। अब नाम में बहुत कुछ रक्खा है। कुछ नाम दूसरी चीजों के पर्याय हो जाते हैं। जैसे कोलगेट टूथपेस्ट का पर्याय हो गया। डालडा वनस्पति घी का पर्याय हो गया। लोग नाम किसी चीज का लेते हैं और मगज में छवि किसी दूसरी चीज की होती है। जैसे बोफोर्स का नाम आते ही घोटाला याद आने लगता था। उसी तरह व्यापम की हालत हो गयी थी। व्यापम का नाम आते ही श्मशान याद आने लगता था। रात को कोई व्यापम का जिक्र कर देता तो डर के मारे रोंगटे खड़े हो जाते थे। दहशत होने लगती थी। 

                  नाम बदलने के पीछे सरकार की दूसरी मजबूरियां भी रही होंगी। जहां व्यापम का दफ्तर है उस सड़क से लोगों ने डर के मारे आना जाना बंद कर दिया होगा। और एक सड़क बेकार हो गयी होगी। दूसरा जब कोई नई नौकरी या दाखिला निकलता होगा तो बहुत से बच्चे डर के मारे फार्म ही नही भरते होंगे। घर में छोटी मोटी  कहासुनी होने पर संतान व्यापम का फार्म भर देने की धमकी देती होगी। व्यापम का नाम आते ही पता नही किस किस का चेहरा आँखों के आगे घूम जाता होगा। मुझे तो लगता है की कर्मचारियों ने व्यापम में काम करने से इंकार कर दिया होगा परन्तु सरकार ये बात दबा गयी होगी। सो उसने इस मसले का हल निकाल दिया। उसने व्यापम का नाम बदल दिया। अब अगर कोई संसद में या बाहर व्यापम घोटाले का मामला उठाएगा तो बीजेपी और शिवराज सिंह कह सकते हैं, ' कौनसा व्यापम ? हमारे यहां तो कोई व्यापम है नही। आपके यहां है क्या। " सामने वाला चुप हो जायेगा। 

                     दूसरा राजनीती में नाम बदलने का उतना ही महत्त्व है जितना पार्टी बदलने का। महाराष्ट्र के चुनाओं में बीजेपी ने एनसीपी का नाम बदल कर नैशनल करप्ट पार्टी रख दिया। चुनाव खत्म हो गए। कुछ सीटें कम पड़ी तो शिवसेना ने आँख दिखानी शुरू कर दी। शरद पवार ने समर्थन की पेशकश की तो मोदीजी ने एनसीपी का नाम बदल कर " नैशनल कॉपरेटिव पार्टी " कर दिया। उसी तरह जम्मू-कश्मीर के चुनाव में बीजेपी ने पीडीपी का नाम बदल कर " बाप-बेटी कश्मीर लूटो पार्टी " रख दिया। लोगों ने फिर धोखा दे दिया। बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली और पीडीपी का नाम बदल कर " कश्मीर विकास पार्टी "  रख दिया। 

                     अब बिहार में चुनाव आ रहे हैं तो ना जाने कितने नए नाम सुनने को मिलेंगे। शुरुआत भी हो गयी। मोदीजी ने RJD का नाम बदल कर " रोजाना जंगलराज का डर " पार्टी रख दिया। लालूजी कहाँ कम थे उन्होंने बीजेपी का  नाम बदल कर " बेशर्म और झूठी पार्टी " रख दिया। मोदीजी ने नितीश पर मांझी को हटाने को लेकर " महादलित का अपमान " करार दे दिया। बिहार के कई लोग कह रहे हैं की ये बीजेपी ही थी जिसने मांझी को कहीं का नही छोड़ा। 

                          उसी तरह नाम ही नही वायदे और नारे भी बदल रहे हैं। लोकसभा चुनाव में मोदीजी ने नारा दिया था, " कालाधन वापिस लाओ ' वायदा किया था सबको 15 -15 लाख देंगे। सारे युवाओं को रोजगार देंगे। अब नया नारा है " 24 घंटे बिजली देंगे " नया वायदा है की बिहार के लोगों को बिहार में ही काम देंगे। मोदीजी सोच रहे होंगे ये कोई दूसरे लोग हैं और लोकसभा चुनाव में दूसरे लोग थे। भूल गए होंगे, काम का दबाव रहता है। मोदीजी कह रहे हैं की बिहार को 50000 करोड़ से ज्यादा देंगे। नितीश कह रहे हैं की दे दो कौन रोक रहा है ? मोदीजी कह रहे हैं की सही समय पर इसकी घोषणा करेंगे। लोग हंस रहे हैं की नया जुमला है। 

                        कांग्रेस आरोप लगा रही है की सरकार हमारी योजनाओं का नाम बदल बदल कर वहीं  योजनाएं लागु कर रही हैं। मैं कहता हूँ की योजनाएं ही क्यों, सरकार तो हर वह काम कर रही है जो कांग्रेस करती थी। परन्तु सरकार के मंत्री इस बात के सख्त खिलाफ हैं। राजनाथसिंह कहते हैं की हमारा कोई मंत्री आरोप लगने पर UPA सरकार की तरह इस्तीफा नही देगा। बोलो फर्क हुआ की नही। अरुण जेटली जी कहते हैं की पहले हम कहते थे की संसद को चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है अब हम विपक्ष से संसद चलाने की मांग को लेकर धरना दे रहे हैं। बोलो फर्क है की नही। शुष्मा जी पहले कहती थी मंत्री के पद पर रहते निष्पक्ष जाँच सम्भव ही नही है, अब कहती हैं की बिना आरोप सिद्ध हुए इस्तीफा कैसे ? बोलो फर्क हुआ की नही 

                सो राजनीती में नाम, वायदे, नारे और बयान बदलने का अपना महत्त्व है।

Friday, July 24, 2015

Vyang - सबसे बढ़िया धन्धा - राजनीति

गप्पी --  कल हमने एक धन्धे के बारे में बात की। आज हम ऐसे ही दूसरे धन्धों के बारे में बात करेंगे जो कभी धन्धे नही माने जाते थे परन्तु आज के समय में भारी मुनाफा देने वाले धंधे हैं। 

राजनीति --- आज के समय में राजनीति सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला धन्धा है।  इस धन्धे की पहली खासियत ये है की वैसे तो हमारे देश में चपरासी तक की नौकरी के लिए न्यूनतम क्वालिफिकेशन निश्चित है लेकिन राजनीती के धंधे के लिए ऐसी कोई शर्त नही है। एक बिलकुल अंगुठाटेक आदमी ना केवल सांसद या विधायक हो सकता है बल्कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी हो सकता है। दसवीं तक पढ़ा लिखा आदमी शिक्षा मंत्री हो सकता  है और सारी  जिंदगी झाड़-फूंक करने वाला विज्ञानं और तकनीकी मंत्री हो सकता है। दूसरा फायदा इस धंधे का यह है की देश की जनता ने भी अब इसे पूर्णकालिक धंधा मान लिया है सो इसे धंधे की तरह करने में कोई नैतिक रुकावट नही है। वैसे मैं माफ़ी चाहता हूँ की राजनीती के धंधेबाजों से मैं नैतिकता की बात कर रहा हूँ। 

                     ये धंधा शुरू करने का सबसे अच्छा समय यही है। क्योंकि एक तो कुछ सालों के बाद ये धंधा बिलकुल पारिवारिक धंधा हो जाने वाला है और शायद नए लोगों को इसमें जगह नही मिले। इसलिए इसे जितना जल्दी शुरू कर लिया जाये उतना बेहतर है। दूसरा अभी बाकि दुकानों की छवि इतनी खराब है की नए दुकानदार को जमने में ज्यादा समय नही लगेगा। 

                     इस धंधे के लिए जो चीजें जरूरी हैं उनमे एक तो आपको किसी भेड़ - भेड़िये की खाल या गिरगिट की कला आनी चाहियें। आप को अभी-अभी तुरंत कही गयी बात को तुरंत इनकार करने का अभ्यास कर लेना चाहिए। आजकल मीडिआ वीडियो रिकॉर्डिंग कर लेता है इसलिए ये कहना की मीडिया ने मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया है थोड़ा मुश्किल हो गया है लेकिन विद्वान राजनीतिज्ञों ने अब ये कहना शुरू कर दिया है की मीडिया ने मेरी बात को सही संदर्भ में पेश नही किया है। इस तरह किसी पढ़े-लिखे आदमी को सचिव रक्खा जाये तो बेहतर रहता है। वह आपके रोज-रोज के बयानों के अलावा भाषण भी लिख देगा। 

                 इस धंधे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है की आपकी जाती या धर्म के लोगों की तादाद आपके इलाके में कितनी है। अगर वह बहुमत लायक है तब तो चिंता की कोई बात ही नही है। आप तुरंत शोर मचाना शुरू कर सकते है की इस जाती या धर्म के साथ भारी अन्याय हो रहा है और अब सबको इकट्ठे हो जाने की जरूरत है। अगर आपकी जाती या धर्म के लोगों की तादाद कम है तो भी परेशान होने की जरूरत नही है। आप अपनी जाती को किसी दूसरे और नीचे के वर्ग में रखने का आंदोलन चला सकते हैं। आजकल आरक्षण के लिए एक सीढ़ी नीचे उतरने को हर जाती तैयार बैठी है। स्वर्ण जातियां बैकवर्ड में शामिल होने, बैकवर्ड जातियां अनुसूचित जाती में शामिल होने के आंदोलन चल रहे हैं। जिस वर्ग की जातियों के हाथ का छुआ हुआ ये लोग पानी नही पीते थे अब उस में शामिल होने के लिए सारा जोर लगा हुआ है। सो इस तरह का कोई बखेड़ा खड़ा किया जा सकता है। 

                        अगर आप इस ढांचे में भी फिट नही बैठते हैं तो दो चार सन्तों और पत्रकारों को पाल लीजिये। और खुद ही बयान देना शुरू कर दीजिये की नही ये खबर गलत है की मैं भाजपा या कांग्रेस में जा रहा हूँ। हर दूसरे दिन दल बदलने का खंडन कर दीजिये। महीने दो महीने में कोई ना कोई आपसे सम्पर्क जरूर करेगा और आपका काम हो जायेगा। उससे पहले हर हफ्ते राजधानी की यात्रा कीजिये और आसपड़ोस से लेकर पूरे मुहल्ले में बता दीजिये की भाई साब ( भाई साब मतलब कोई भी मंत्री का नाम ले दीजिये )ने बुलाया है। मंत्री का नाम केवल एक-दो बार ही लीजिये उसके बाद केवल भाई साब कहिये। राजधानी में सचिवालय जाकर कहीं बैठ जाइये और शाम को वापिस आ जाइये। वापिस आकर सबको बताइये की भाई साब ने क्या-क्या कहा। खाना ट्रेन में ही खा लीजिये और जब घर से कोई खाने के लिए बुलाने आये तो लोगों के बीच में ही कहिये की भाई साब ने इतना खिला दिया की दो दिन कुछ नही खाया जायेगा। थोड़े दिन में आप एक इलाके के नेता हो जायेंगे। 

     कुछ जरूरी चीजें हैं जिन्हे अच्छी तरह याद कर लीजिये। 

१.  राजनीती में देश का मतलब कभी भी अपने घर की चारदीवारी से बाहर नही होता। 

२.  राजनीती में हर कुकर्म ये कहकर किया जाता है की जनहित के लिए कर रहे हैं। 

३.  विपक्ष का हर नेता और हर पार्टी देशद्रोही होते हैं। 

४. भृष्टाचार जैसा शब्द केवल विपक्ष के लिए इस्तेमाल होता है। 

५. वायदा करने में कभी पीछे मत रहिये, चाँद को लाने और गंगा को वापिस भेजने का वायदा भी किया जा सकता है। 

६.  अपनी सारी विफलताओं का दोष विरोधियों के माथे मढ़िए। अगर एक बार गलती से मुंह से दो और दो पांच निकल जाये तो उसी पर अड़े रहिये। 

        बाकि हालात के हिसाब से कुछ दूसरे पाठ भी हैं लेकिन शुरुआत के लिए इतना काफी है। 

         बाकि कल -----------

Wednesday, July 15, 2015

Vyang -- नेताजी की घोटाला यात्रा, सरकार से सरकार तक

गप्पी -- हुआ यों की पुलिस ने एक कालाबाजारिये के यहां छापा मारा तो उसके यहां से जो कागज मिले उनमे नेताजी को दिए पैसों का जिक्र था। जिसमे नेताजी के हाथ की लिखी हुई एक चिट्ठी भी थी। नेताजी सरकार में वित्त मंत्री के पद पर थे सो हल्ला हो गया। चारों तरफ से इस्तीफा माँगा जाने लगा। जब दबाव बढ़ा तो सरकारी पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा,

                    " नेताजी का किसी गलत काम से कोई लेना देना नही है।  उनका इसके साथ कोई लेनदेन नही है।"

         " लेकिन उसके घर से नेताजी के हाथ का लिखा पत्र मिला है, जिसमे पैसे भेजने के लिए कहा गया है। " एक पत्रकार ने पूछा।

             " पत्र मिला है ये बात सही है, लेकिन अभी ये साबित नही हुआ है की वो लिखाई नेताजी की ही है। "

           " लेकिन मंत्रीजी ने खुद माना है की चिट्ठी उन्होंने लिखी थी। "

            " हमे ये भी देखना चाहिए की क्या पैसों के लेनदेन की कोई रशीद भी मिली है क्या ? आदमी जरूरत में हजार लोगों से पैसे मांगता है इसका मतलब ये नही होता की पैसा लिया ही गया है। "

            " जिस आदमी के यहां से चिट्ठी पकड़ी गयी है वो कह रहा है की उसने मंत्रीजी को पैसे दिए हैं। " पत्रकार ने कहा।

             " तुम एक गुनहगार की बात का यकीन कर रहे हो। आखिर एक गुनहगार की बात की क्या वैल्यू है। " प्रवक्ता ने कहा।

               " महोदय, जब कहीं डकैती होती है और एक डकैत पकड़ा जाता है तो बाकि डकैतों को पकड़ने के लिए पुलिस उस डकैत से ही बाकि नाम पूछती है और बाकि लोगों को पकड़ती है। " पत्रकार ने कहा।

               लेकिन सरकार नही मानी। कई दिन संसद नही चली। ना काम हो रहा था ना बात खत्म हो रही थी। आखिर में मंत्रीजी ने ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया की ," ये मेरे खिलाफ विपक्ष की साजिश है और मैं नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहा हूँ और मुझे देश के कानून और अदालतों पर पूरा भरोसा है। "

                एक पत्रकार ने दूसरे से पूछा की ये अदालतों पर पूरा भरोसा होने की बात का क्या मतलब है, तो सीनियर पत्रकार ने उसे आहिस्ता से बताया की इसका मतलब है की अदालत उसके जीवनकाल में सुनवाई पूरी नही करेगी, उसे इसका भरोसा है।

                 दो-तीन साल जाँच चलती रही लेकिन पुलिस किसी निर्णय पर नही पंहुची। तब तक दूसरी पार्टी की सरकार आ गयी। सरकार ने लोगों की मांग को ध्यान में रखते हुए मामला सीबीआई को दे दिया। सीबीआई ने तुरंत छापेमारी की और बहुत से दस्तावेज बरामद होने का दावा किया। सीबीआई चार्जशीट दाखिल करने के नजदीक पहुंच गयी। तभी उस नेताजी का बयान आया की उसकी पार्टी में सब ठीक नही चल रहा है और उसके खिलाफ साजिश रची जा रही हैं। दूसरी सरकारी पार्टी ने पीछे से उससे अपनी पार्टी में शामिल होने की बात चलाई। बात आगे बढ़ी और चार्जशीट पीछे खिसक गयी। थोड़े दिन बाद नेताजी ने पार्टी बदल ली। अदालत में सीबीआई ने स्टेट्स रिपोर्ट जमा करवाई जिसमे नेताजी के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नही मिलने की बात कही। सरकारी पार्टी के अध्यक्ष ने सीबीआई के अधिकारी को बुलाकर कहा की इतनी जल्दबाजी करने की जरूरत नही है।

                        दलबदल किये नेताजी को जैसे ही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट का पता चला उसने पार्टी से उपयुक्त पद की मांग की और वायदा पूरा ना करने का आरोप लगाया।

                अगले दिन सीबीआई ने प्रेस कांफ्रेंस में कुछ नए तथ्य सामने आने की बात कही।

           नेताजी ने कहा की मीडिया ने उनके बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया है और उनका नई पार्टी के साथ कोई मतभेद नही है।

                सीबीआई का बयान आया की छापे के दौरान मिली चिट्ठी की लिखाई नेताजी की लिखाई से नही मिलती है और जाँच रिपोर्ट आ गयी है।

                 नेताजी ने फिर पार्टी को अपने वायदे की याद दिलाई और पद की मांग की।

          अगले दिन सीबीआई ने अदालत में कहा की चिट्ठी को जाँच के लिए दूसरी लैब में भेजा गया है ताकि कोई शक ना रहे।

                  अदालत ने कहा सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है। 

                  सीबीआई के एक बड़े अधिकारी ने ऑफ़ दा रिकॉर्ड बातचीत में कहा की अदालत ने तोता शब्द का प्रयोग गलत किया है। उसने दलील दी की क्या तोता किसी को काट सकता है ? हम तो सरकार एक बार ऊँगली से जिसकी तरफ इशारा कर देती है उसे उधेड़ कर रख देते हैं। इसलिए अदालत को किसी दूसरे जानवर का नाम लेना चाहिए था।

                  इस तरह पांच साल और निकल गए। ना चार्जशीट दाखिल हुई और ना पद मिला।

   मामला अभी अदालत में पेन्डिंग है और इलेक्शन के बाद चार्जशीट दाखिल होने की सम्भावना है। सीबीआई ने मामले की जाँच में तेजी लाने के लिए विशेष जांचदल गठित किया है।अगली जाँच इस बात पर निभर करेगी की कौनसी पार्टी सत्ता में आती है और नेताजी कौनसी पार्टी में रहते हैं। इसलिए इंतजार कीजिये। 

खबरी -- सरकार ने कहा है की भृष्टाचार को बर्दाश्त नही किया जायेगा।