हर महीने की तरह आज भी प्रधानमंत्री की मन की बात हुई। देश के सामने पिछले एक महीने में कई जलते हुए सवाल सामने आकर खड़े हो गए हैं। पुरे देश से प्रधानमंत्री से इस पर बोलने और कुछ बातों की स्पष्टता करने की मांग जोर से उठ रही है। लेकिन इस बार फिर मन की बात केवल " मीठे प्रवचन " ही साबित हुई। मैं हैरान हूँ की देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को एक भी सवाल पर बोलने की जरूरत महसूस नही हुई। प्रधानमंत्री ने कहा की भारत- दक्षिणी अफ्रीका मैच दिलचस्प दौर में पहुंच गया है। सुन कर वितृष्णा सी हुई। क्या देश ये बात सुनने के लिए इंतजार कर रहा था। एक बात बिलकुल साफ हो गयी की मन की बात के लिए जो लोग भी भाषण लिखते हैं, उन्हें ये निर्देश दिए गए हैं की देश की किसी भी प्रमुख समस्या का जिक्र भाषण में नही होना चाहिए। प्रधानमंत्री जनता के किसी भी सवाल का जवाब देना ना तो जरूरी समझते हैं और ना ही उपयोगी।
इस बात का आरोप लगता रहा है की हमारे प्रधानमंत्री बोलने में बहुत कुशल हैं और इस कुशलता का वो भरपूर फायदा भी उठाते हैं। लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है की ये सारी कुशलता वहां तक ही सिमित है जहां किसी की सवाल का जवाब नही देना हो। अपने बोलने की आदत को लेकर प्रधानमंत्री ने कुछ नई परम्पराएँ भी स्थापित की हैं। जैसे अब तक ये परम्परा रही थी की कोई भी प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर घरेलू मतभेदों की बात नही करते थे। पिछली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को वर्तमान सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता था। क्योंकि विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया है और किसी भी विदेशी सरकार को इस बात से कोई मतलब नही होता की कब किस पार्टी की सरकार रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी विदेशी यात्राओं में पिछली सरकार को नालायक, अक्षम और भृष्ट साबित करने की पूरी कोशिश की। पहले ऐसा कभी नही हुआ। अब विदेश नीति के मामले पर भी पार्टीगत लाइन लेने की शुरुआत कर दी गयी जो देश हित में नही है। क्योंकि ऐसा तो हो नही सकता की प्रधानमंत्री विदेश में ये कहें की आप आईये और हमारे देश में निवेश कीजिये और अब तक जो भृष्टाचार हमारे देश में होता था उसे हम बंद कर रहे हैं और इसके जवाब में कांग्रेस या पिछली सरकारों में रहे लोग ये कहें की हाँ, प्रधानमंत्री बिलकुल सच कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ये कहें की हम पिछली सरकारों द्वारा की गयी गलतियों को सुधार रहे हैं और कांग्रेस ये कहे की हाँ, ये सरकार हमारी गलतियां सुधार रही है।
दूसरी जो चीज सामने आई है वो ये है की प्रधानमंत्री की ये सारी मुखरता तभी सामने आती है जब सामने कोई जवाब देने वाला नही होता। जब भी ऐसा मौका आया है की सामने दूसरे लोग भी मौजूद हैं जो आपकी बात का जवाब भी देंगे और सवाल भी खड़े करेंगे वहां प्रधानमंत्री कन्नी काट जाते हैं। इसके कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। पहला ये की डेढ़ साल की सरकार के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकार वार्ता आयोजित नही की। जबकि ये परम्परा रही है की प्रधानमंत्री समय समय पर देश के प्रमुख संपादकों के साथ बातचीत का आयोजन करते हैं, उनके सवालों के जवाब देते हैं और सरकार के फैसलों के ओचित्य साबित करते हैं। लेकिन ऐसा एक बार भी नही हुआ। दूसरा उदाहरण संसद का है। पूरा का पूरा सत्र बेकार हो गया लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के उठाये किसी भी मामले पर चुप्पी नही तोड़ी। यहां तक की प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में आने से भी बचते रहे। संसद में चल रहे गतिरोध को दूर करने के प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी प्रयास नही हुए और सरकार द्वारा बुलाई गयी एकमात्र सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री नही आये। इसलिए ये बात अब जोर पकड़ने लगी है की प्रधानमंत्री वहीं बोलते हैं जहां कोई दूसरा नही होता। ऐसा तो लोकतंत्र की परम्परा नही है। फिर विपक्ष पर ये आरोप लगाना की वो सरकार का सहयोग नही कर रहा है एकदम उलटी ही बात है। संसद में लटके हुए कई बिलों पर जिनकी कॉर्पोरेट सैक्टर को बीजेपी से बहुत जल्दी पास करने की उम्मीद थी अब उसकी आशाएं और धर्य खत्म होता जा रहा है। अभी कॉर्पोरेट सैक्टर इस पर एतराज नही जताता लेकिन वह बहुत दिन इंतजार कर पायेगा इसमें शक है। राहुल बजाज और रतन टाटा जैसे लोग तो थोड़ा थोड़ा बोलना भी शुरू कर चुके हैं।
प्रधानमंत्री देश के नेता होते हैं। आज जब देश में जातीय और साम्प्रदायिक हमलों की बाढ़ सी आ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े हो रहे हैं और इन सब का आरोप उन्ही संगठनो पर लग रहा है जिस संगठन से खुद प्रधानमंत्री और उनके ज्यादातर मंत्री आते है, ऐसी हालत में लोग प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते हैं। और प्रधानमंत्री केवल प्रवचन दे रहे हैं। लोगों में ये बात घर कर रही है की संत-महंत और साधु साध्वियां सरकार चला रहे हैं और नेता प्रवचन कर रहे हैं।
इस बात का आरोप लगता रहा है की हमारे प्रधानमंत्री बोलने में बहुत कुशल हैं और इस कुशलता का वो भरपूर फायदा भी उठाते हैं। लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है की ये सारी कुशलता वहां तक ही सिमित है जहां किसी की सवाल का जवाब नही देना हो। अपने बोलने की आदत को लेकर प्रधानमंत्री ने कुछ नई परम्पराएँ भी स्थापित की हैं। जैसे अब तक ये परम्परा रही थी की कोई भी प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर घरेलू मतभेदों की बात नही करते थे। पिछली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को वर्तमान सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता था। क्योंकि विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया है और किसी भी विदेशी सरकार को इस बात से कोई मतलब नही होता की कब किस पार्टी की सरकार रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी विदेशी यात्राओं में पिछली सरकार को नालायक, अक्षम और भृष्ट साबित करने की पूरी कोशिश की। पहले ऐसा कभी नही हुआ। अब विदेश नीति के मामले पर भी पार्टीगत लाइन लेने की शुरुआत कर दी गयी जो देश हित में नही है। क्योंकि ऐसा तो हो नही सकता की प्रधानमंत्री विदेश में ये कहें की आप आईये और हमारे देश में निवेश कीजिये और अब तक जो भृष्टाचार हमारे देश में होता था उसे हम बंद कर रहे हैं और इसके जवाब में कांग्रेस या पिछली सरकारों में रहे लोग ये कहें की हाँ, प्रधानमंत्री बिलकुल सच कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ये कहें की हम पिछली सरकारों द्वारा की गयी गलतियों को सुधार रहे हैं और कांग्रेस ये कहे की हाँ, ये सरकार हमारी गलतियां सुधार रही है।
दूसरी जो चीज सामने आई है वो ये है की प्रधानमंत्री की ये सारी मुखरता तभी सामने आती है जब सामने कोई जवाब देने वाला नही होता। जब भी ऐसा मौका आया है की सामने दूसरे लोग भी मौजूद हैं जो आपकी बात का जवाब भी देंगे और सवाल भी खड़े करेंगे वहां प्रधानमंत्री कन्नी काट जाते हैं। इसके कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। पहला ये की डेढ़ साल की सरकार के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकार वार्ता आयोजित नही की। जबकि ये परम्परा रही है की प्रधानमंत्री समय समय पर देश के प्रमुख संपादकों के साथ बातचीत का आयोजन करते हैं, उनके सवालों के जवाब देते हैं और सरकार के फैसलों के ओचित्य साबित करते हैं। लेकिन ऐसा एक बार भी नही हुआ। दूसरा उदाहरण संसद का है। पूरा का पूरा सत्र बेकार हो गया लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के उठाये किसी भी मामले पर चुप्पी नही तोड़ी। यहां तक की प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में आने से भी बचते रहे। संसद में चल रहे गतिरोध को दूर करने के प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी प्रयास नही हुए और सरकार द्वारा बुलाई गयी एकमात्र सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री नही आये। इसलिए ये बात अब जोर पकड़ने लगी है की प्रधानमंत्री वहीं बोलते हैं जहां कोई दूसरा नही होता। ऐसा तो लोकतंत्र की परम्परा नही है। फिर विपक्ष पर ये आरोप लगाना की वो सरकार का सहयोग नही कर रहा है एकदम उलटी ही बात है। संसद में लटके हुए कई बिलों पर जिनकी कॉर्पोरेट सैक्टर को बीजेपी से बहुत जल्दी पास करने की उम्मीद थी अब उसकी आशाएं और धर्य खत्म होता जा रहा है। अभी कॉर्पोरेट सैक्टर इस पर एतराज नही जताता लेकिन वह बहुत दिन इंतजार कर पायेगा इसमें शक है। राहुल बजाज और रतन टाटा जैसे लोग तो थोड़ा थोड़ा बोलना भी शुरू कर चुके हैं।
प्रधानमंत्री देश के नेता होते हैं। आज जब देश में जातीय और साम्प्रदायिक हमलों की बाढ़ सी आ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े हो रहे हैं और इन सब का आरोप उन्ही संगठनो पर लग रहा है जिस संगठन से खुद प्रधानमंत्री और उनके ज्यादातर मंत्री आते है, ऐसी हालत में लोग प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते हैं। और प्रधानमंत्री केवल प्रवचन दे रहे हैं। लोगों में ये बात घर कर रही है की संत-महंत और साधु साध्वियां सरकार चला रहे हैं और नेता प्रवचन कर रहे हैं।
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