कल 23 फ़रवरी है। कल ही हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने रोहित वेमुला की संस्थाकीय हत्या मामले में न्याय की मांग करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया है। इस नारे पर कल दिल्ली में एक बड़ा छात्र प्रदर्शन होने की उम्मीद है। बीजेपी के छात्र संगठन ABVP के रोहित का विरोध करने के बाद केंद्र सरकार के दो मंत्रियों बंडारु दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी ने रोहित की गतिविधियों को राष्ट्र विरोधी बताते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन को उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर करने को मजबूर किया, जिसके चलते रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली। इसलिए पुरे देश के छात्र इसे संस्थाकीय हत्या कह रहे हैं।
लेकिन इसमें एक बहुत ही अजीब सी लगने वाली चीज भी सामने आई है। दलितों के नाम पर राजनीती करने वाली पार्टियां इस पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं। जो पार्टियां बहुत ही छोटी छोटी बातों को भी दलित उत्पीड़न का मामला बता कर राजनीती करती रही हैं, वो इस सवाल पर चुप्पी साध गयी। आखिर इसका क्या कारण है ?
रोहित वेमुला पहले वामपंथी छात्र संगठन SFI के साथ जुड़ा हुआ था और बाद में उसने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन ज्वाइन कर ली। रोहित विश्वविद्यालय की राजनीती में दलित छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के साथ बहुत ही बुनियादी सवाल उठा रहा था जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए थे। ये वो सवाल थे जिनसेदलित राजनीती का स्वरूप बदल सकता था। वह परिवारों के नाम पर या खोखले नारों के नाम पर बनी राजनितिक पार्टियों का विरोध करता था और दलितों के लिए बुनियादी सुधारों की मांग करता था। वह अम्बेडकर की राजनितिक लाइन को समझता था और इसे केवल जातिवादी नारों से वोट बटोरने तक घटाने का विरोधी था। इसीलिए एक तरफ जहां ABVP जैसे साम्प्रदायिक छात्र संगठन उससे डरते थे तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के नाम पर सत्ता की मलाई खाने वालों को भी उससे परेशानी होती थी। रोहित वेमुला छात्र राजनीती में और दलित राजनीती में एक क्रन्तिकारी लेकिन कम पहचानी हुई धारा की अगुवाई कर रहा था। जिस तरह भगत सिंह आजादी की लड़ाई में एक छोटी लेकिन समानान्तर विचारधारात्मक लड़ाई का नेतृत्त्व करते थे। जिस तरह भगत सिंह की शहादत ने देश के नौजवानो को उन विचारों को जानने और समझने के लिए प्रेरित किया था, उसी तरह रोहित वेमुला की शहादत ने भी दलित छात्रों और नौजवानो को उस बुनियादी लड़ाई को समझने के लिए प्रेरित किया है। और यही कारण है की दलित राजनैतिक पार्टियां उससे खतरा महसूस करती हैं। उन्हें लगता है की अगर ये बुनियादी सवाल उठाये गए तो इनमे से एक का भी जवाब उनके पास नही है।
लेकिन क्या ये ख़ामोशी रोहित के विचारों को छात्रों और नौजवानो तक पहुंचने से रोक पायेगी। क्योंकि पुरे हिंदुस्तान में सदियों से इस उत्पीड़न के शिकार दलित और अल्पसंख्यक नौजवान प्रगतिशील वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर एक मोर्चा बना रहे हैं। पूरी खलबली और JNU जैसे हमले इसी मोर्चे से घबराहट का नतीजा हैं। रोहित के साथ भी वही होने वाला है जो अफ़्रीकी नेता लुमुम्बा की हत्या जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में है। उन्होंने कहा था की ," एक मरा हुआ लुमुम्बा, एक जिन्दा लुमुम्बा से ज्यादा खतरनाक होता है। "
लेकिन इसमें एक बहुत ही अजीब सी लगने वाली चीज भी सामने आई है। दलितों के नाम पर राजनीती करने वाली पार्टियां इस पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं। जो पार्टियां बहुत ही छोटी छोटी बातों को भी दलित उत्पीड़न का मामला बता कर राजनीती करती रही हैं, वो इस सवाल पर चुप्पी साध गयी। आखिर इसका क्या कारण है ?
रोहित वेमुला पहले वामपंथी छात्र संगठन SFI के साथ जुड़ा हुआ था और बाद में उसने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन ज्वाइन कर ली। रोहित विश्वविद्यालय की राजनीती में दलित छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के साथ बहुत ही बुनियादी सवाल उठा रहा था जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए थे। ये वो सवाल थे जिनसेदलित राजनीती का स्वरूप बदल सकता था। वह परिवारों के नाम पर या खोखले नारों के नाम पर बनी राजनितिक पार्टियों का विरोध करता था और दलितों के लिए बुनियादी सुधारों की मांग करता था। वह अम्बेडकर की राजनितिक लाइन को समझता था और इसे केवल जातिवादी नारों से वोट बटोरने तक घटाने का विरोधी था। इसीलिए एक तरफ जहां ABVP जैसे साम्प्रदायिक छात्र संगठन उससे डरते थे तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के नाम पर सत्ता की मलाई खाने वालों को भी उससे परेशानी होती थी। रोहित वेमुला छात्र राजनीती में और दलित राजनीती में एक क्रन्तिकारी लेकिन कम पहचानी हुई धारा की अगुवाई कर रहा था। जिस तरह भगत सिंह आजादी की लड़ाई में एक छोटी लेकिन समानान्तर विचारधारात्मक लड़ाई का नेतृत्त्व करते थे। जिस तरह भगत सिंह की शहादत ने देश के नौजवानो को उन विचारों को जानने और समझने के लिए प्रेरित किया था, उसी तरह रोहित वेमुला की शहादत ने भी दलित छात्रों और नौजवानो को उस बुनियादी लड़ाई को समझने के लिए प्रेरित किया है। और यही कारण है की दलित राजनैतिक पार्टियां उससे खतरा महसूस करती हैं। उन्हें लगता है की अगर ये बुनियादी सवाल उठाये गए तो इनमे से एक का भी जवाब उनके पास नही है।
लेकिन क्या ये ख़ामोशी रोहित के विचारों को छात्रों और नौजवानो तक पहुंचने से रोक पायेगी। क्योंकि पुरे हिंदुस्तान में सदियों से इस उत्पीड़न के शिकार दलित और अल्पसंख्यक नौजवान प्रगतिशील वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर एक मोर्चा बना रहे हैं। पूरी खलबली और JNU जैसे हमले इसी मोर्चे से घबराहट का नतीजा हैं। रोहित के साथ भी वही होने वाला है जो अफ़्रीकी नेता लुमुम्बा की हत्या जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में है। उन्होंने कहा था की ," एक मरा हुआ लुमुम्बा, एक जिन्दा लुमुम्बा से ज्यादा खतरनाक होता है। "