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Wednesday, March 23, 2016

बाबा साहेब अम्बेडकर के राष्ट्रिय स्मारक के मोदीजी द्वारा उदघाटन के बाद सोशल मीडिया पर रंगे सियार के चुटकुले क्यों ?

               
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के राष्ट्रिय स्मारक का उदघाटन किया। इस मोके पर मोदीजी ने नीली जैकेट पहनी हुई थी जो बाबा साहेब द्वारा चुना गया रंग माना जाता है और देश में दलितों की राजनीती करने वाली पार्टियां इसी रंग का प्रयोग करती हैं चाहे वो बहुजन समाज पार्टी हो या रिपब्लिकन पार्टी। इस मोके पर मोदीजी ने खुद को अम्बेडकर का भक्त बताया। लेकिन उसके तुरंत बाद सोशल  मीडिया पर उसकी प्रतिक्रिया आनी  शुरू हो गयी। इसमें मोदीजी द्वारा खुद को अम्बेडकर का भक्त कहे जाने और उनके द्वारा किये गए उन कार्यों की तुलना की जानी शुरू हो गयी जो दलित विरोधी माने जाते हैं।
                                     इस सब के बीच में वो चुटकुला भी शामिल रहा जिसमे एक सियार के नील के मटके में गिर जाने से नीला हो जाने के बाद वो खुद को देवदूत बताने लगता है। ये कथा साहित्य  में रंगे सियार की कथा के नाम से मशहूर है। इसका मतलब प्रधानमंत्री को रंगा सियार बताना हुआ।
                     सवाल ये है की जब प्रधानमंत्री खुद को अम्बेडकर का भक्त बताते हैं तो लोग भरोसा क्यों नही करते ?

Monday, March 14, 2016

लोगों पर हमलों को दूर से देखते राजनितिक दल।

               पिछले कुछ समय से बीजेपी और आरएसएस ने लोगों के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमले तेज कर दिए हैं। इसका पहला शिकार लेखक, बुद्धिजीवी और छात्र हुए हैं। क्योंकि यही वो लोग हैं जो निर्णयों के दूरगामी परिणामो को समझ सकने की काबिलियत रखते हैं। इसके समर्थन में संघ ने ऐसे लोगों को मैदान में उतारा है जो दिमाग से पैदल हैं और आका के हुक्म पर अपने बाप को भी गाली दे सकते हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है की ये लोग जिस तबके से आते हैं वो खुद सरकार के हमलों का शिकार है। जैसे, छात्रों का एक छोटा तबका जो नकली देशभक्ति के नारों से प्रभावित है उसको ये दिखाई नही दे रहा है की जिस तरह के फेरबदल सरकार शिक्षा के क्षेत्र में कर रही है उससे गरीब छात्रों का बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हो जायेगा। और लड़ाई असल में उन्ही बदलावों के खिलाफ शुरू हुई थी चाहे हैदराबाद हो या JNU हो। दूसरी तरफ पर सैनिकों का एक तबका है, लेकिन वो इस बात को भूल गया की OROP के सवाल पर इस सरकार ने वेटरंस के साथ क्या सलूक किया था। और एक सैनिक जब रिटायर होता है तो या तो किसान बनता है , छोटा दुकानदार बनता है या फिर किसी निजी फर्म में नौकरी करता है। वो ये भूल जाता है की किसानो की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, छोटे व्यापार में विदेशी फर्मों को इजाजत देकर छोटे दुकानदारों को मुसीबत में डाला जा रहा है और कर्मचारियों के हित में बने सारे कानून बदले जा रहे हैं। देशभक्ति केवल नारों में नही होती। जब कोई आदमी सेना के किसी गलत काम के खिलाफ आवाज उठाता है तो वो सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहा होता है जो सेना का इस्तेमाल उस काम के लिए कर रही होती है। एक बहुत छोटा सा उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और नक्सलियों के खिलाफ सेना की मुहिम कोई विदेशी ताकत के खिलाफ मुहिम नही है। ये अपने ही गरीब आदिवासियों से जमीन खाली करवा कर उद्योगपतियों को देने की लड़ाई है। और इस लड़ाई में सैनिकों की हालत ये है की जितने सैनिक नक्सलियों के साथ लड़ाई में मारे गए हैं उनसे ज्यादा सैनिक वहां सुविधाओं के आभाव में बिमारियों और दूसरे कारणों से मारे गए हैं। ये सारे आंकड़े गूगल पर उपलब्ध हैं।
                 आजादी से पहले भी इस तरह के दौर आये हैं। उस समय भी देश का बहुत छोटा सा तबका ही था जो इन चीजों को समझता था और इनका विरोध करता था। अंग्रेज हमेशा आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए उसके नेताओं को बदनाम करती रही। राजा राममोहन राय और जगदीश चन्द्र बसु के समाज सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ कटटरपंथी हिन्दुओं का एक तबका परम्परा और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के नाम पर उनके खिलाफ खड़ा रहा। भगत सिंह और उनके साथियों को उस समय भी आतंकवादी कहने वालों की बड़ी संख्या थी।
                 जब आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में थी तब भी जो लोग अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे और जिन कारणों के लिए कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, ठीक उसके उल्ट उन्ही लोगों के साथ मिलकर सरकार बना रहे थे। हिन्दू महासभा, उस समय जिसके नेता वीर सावरकर और शयामा प्रशाद मुखर्जी थे, एक तरफ कांग्रेस पर विभाजन ना रोक पाने का आरोप लगा रही थी और दूसरी तरफ जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रही थी। सावरकर अपने लेखों में दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन भी कर रहे थे और कांग्रेस को भी कोस रहे थे।
                  ठीक यही स्थिति आज भी है। बीजेपी और आरएसएस एक तरफ लेखकों, बुद्धिजीविओं और छात्रों पर कश्मीर के सवाल पर केवल एक वैचारिक बहस को लेकर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं, हमले कर रहे हैं और दूसरी तरफ ठीक उसी विचार पर काम कर रही पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं। कश्मीर में बीजेपी के कोटे से मंत्री बने सज्जाद लोन ने कहा था की जब कोई भारतीय सैनिक मरता है तो उसे सकून मिलता है।
                   लेकिन सवाल दूसरा है। जब इस तरह के हमले हो रहे हों, देश का धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक अस्तित्त्व खतरे में हो तब कुछ राजनैतिक पार्टिया इस पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। आज भी इस सवाल पर वामपंथी दलों, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस को छोड़कर बाकि दल इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। लो लोग दलितों की राजनीती का दावा करते हैं वो रोहित वेमुला के सवाल पर चुप हैं। स्थिति ठीक वैसी ही है। आजादी की लड़ाई के गद्दार आज देशभक्ति का दावा कर रहे हैं। इसी तरह इस लड़ाई के बाद यही राजनैतिक दल नए दावों और नारों के साथ सामने आएंगे।
                     इसलिए हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को स्थिति की गंभीरता को समझकर फैसला लेना होगा। जो हमले आज उन्हें लगता है की दूसरों पर हो रहे हैं, दरअसल पिछले दरवाजे से उन्ही पर हो रहे हैं। ये हमले उन्ही लोगों पर हो रहे हैं जो आम जनता के दूसरे सवालों पर भी, जो उनकी रोज की जिंदगी और काम धंधे से जुड़े होते हैं, सवाल उठाते हैं।  सरकार के खिलाफ लड़ने वाले इन सब लोगों पर हमले का मतलब खुद लोगों पर हमला है। अगर समय से इसका विरोध नही किया गया तो एक लम्बी अँधेरी रात की शुरुआत हो सकती है।

Monday, February 22, 2016

रोहित वेमुला केस में दलित पार्टियों की ख़ामोशी

             कल 23 फ़रवरी है। कल ही हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने रोहित वेमुला की संस्थाकीय हत्या मामले में न्याय की मांग करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया है। इस नारे पर कल दिल्ली में एक बड़ा छात्र प्रदर्शन होने की उम्मीद है। बीजेपी के छात्र संगठन ABVP के रोहित का विरोध करने के बाद केंद्र सरकार के दो मंत्रियों बंडारु दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी ने रोहित की गतिविधियों को राष्ट्र विरोधी बताते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन को उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर करने को मजबूर किया, जिसके चलते रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली। इसलिए पुरे देश के छात्र इसे संस्थाकीय हत्या कह रहे हैं।
             लेकिन इसमें एक बहुत ही अजीब सी लगने वाली चीज भी सामने आई है। दलितों के नाम पर राजनीती करने वाली पार्टियां इस पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं। जो पार्टियां बहुत ही छोटी छोटी बातों को भी दलित उत्पीड़न का मामला बता कर राजनीती करती रही हैं, वो इस सवाल पर चुप्पी साध गयी। आखिर इसका क्या कारण है ?
             रोहित वेमुला पहले वामपंथी छात्र संगठन SFI के साथ जुड़ा हुआ था और बाद में उसने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन ज्वाइन कर ली। रोहित विश्वविद्यालय की राजनीती में दलित छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के साथ बहुत ही बुनियादी सवाल उठा रहा था जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए थे। ये वो सवाल थे जिनसेदलित राजनीती का स्वरूप बदल सकता था। वह परिवारों के नाम पर या खोखले नारों के नाम पर बनी राजनितिक पार्टियों का विरोध करता था और दलितों के लिए बुनियादी सुधारों की मांग करता था। वह अम्बेडकर की राजनितिक लाइन को समझता था और इसे केवल जातिवादी नारों से वोट बटोरने तक घटाने का विरोधी था। इसीलिए एक तरफ जहां ABVP जैसे साम्प्रदायिक छात्र संगठन उससे डरते थे तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के नाम पर सत्ता की मलाई खाने वालों को भी उससे परेशानी होती थी। रोहित वेमुला छात्र राजनीती में और दलित राजनीती में एक क्रन्तिकारी लेकिन कम पहचानी हुई धारा की अगुवाई कर रहा था। जिस तरह भगत सिंह आजादी की लड़ाई में एक छोटी लेकिन समानान्तर विचारधारात्मक लड़ाई का नेतृत्त्व करते थे। जिस तरह भगत सिंह की शहादत ने देश के नौजवानो को उन विचारों को जानने और समझने के लिए प्रेरित किया था, उसी तरह रोहित वेमुला की शहादत ने भी दलित छात्रों और नौजवानो को उस बुनियादी लड़ाई को समझने के लिए प्रेरित किया है। और यही कारण है की दलित राजनैतिक पार्टियां उससे खतरा महसूस करती हैं। उन्हें लगता है की अगर ये बुनियादी सवाल उठाये गए तो इनमे से एक का भी जवाब उनके पास नही है।
             लेकिन क्या ये ख़ामोशी रोहित के विचारों को छात्रों और नौजवानो तक पहुंचने से रोक पायेगी। क्योंकि पुरे हिंदुस्तान में सदियों से इस उत्पीड़न के शिकार दलित और अल्पसंख्यक नौजवान प्रगतिशील वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर एक मोर्चा बना रहे हैं। पूरी खलबली और JNU जैसे हमले इसी मोर्चे से घबराहट का नतीजा हैं। रोहित के साथ भी वही होने वाला है जो अफ़्रीकी नेता लुमुम्बा की हत्या  जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में है। उन्होंने  कहा था की ," एक मरा हुआ लुमुम्बा, एक जिन्दा लुमुम्बा से ज्यादा खतरनाक होता है। "