मैंने जब से ये सुना है की सरकार हँड़िया चैक कर रही है, दिल को सकून सा मिल गया है। एक बार तो लगा की शायद अच्छे दिन आ गए। इस दिन के लिए लोगों ने कितनी कुर्बानियां दी हैं। लेकिन सरकार अब तक हँड़िया चैक करने से इंकार करती रही है। क्योंकि हँड़िया चैक करना बहुत खतरनाक हो सकता है। सरकार के सारे दावों की हवा निकल सकती है। हर झूठ पकड़ में आ सकता है। इसलिए अब तक कोई भी सरकार हँड़िया चैक करने से इंकार करती रही है।
लोग बार बार कह रहे थे की सरकार आओ, और हमारी हण्डिया चैक करो। इनमे से कितनी हँड़िया ऐसी हैं जो हफ्ते में एक-दो बार ही चूल्हे पर चढ़ती हैं। करोड़ों हँड़िया दो तीन दिन में एकबार चूल्हे पर चढ़ती हैं। कुछ हँड़िया तो ऐसी भी हैं जिन्होंने चूल्हे का मुंह ही नही देखा। क्योंकि जो लाखों लोग और बच्चे कचरे के डब्बे में से खाना चुन कर खाते हैं उन्हें हँड़िया की जरूरत ही नही पड़ती। कितनी विलासिता है। पका पकाया मिल रहा है। ये वो हँड़िया हैं जिनके लिए बाबा नागार्जुन ने ये कविता लिखी थी,-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक काली कुतिया सोई उसके पास।
वरना बाबा को क्या पड़ी थी ऐसा लिखने की। अगर सरकार उससे पहले हँड़िया चैक कर लेती तो इसकी क्या जरूरत रह जाती। सरकार कह सकती है की उसने अब तक हँड़िया चैक ना करके साहित्य की बहुत सेवा की है। दुनिया का आधा साहित्य भूख और रोटी पर आधारित है। अगर सरकार पहले हँड़िया चैक कर लेती तो उसका क्या होता। सरकार पर साहित्य विरोधी होने का आरोप लगता।
दूसरा एक बड़ा खतरा ये भी है की कुछ हंडियों में 30000 रूपये किलो के मशरूम भी मिलते। लोगों को तो अब तक पता ही नही है इस बात का। क्योंकि आदमी अपनी ओकात से बाहर तो कल्पना भी नही कर सकता, ये एक वैज्ञानिक तथ्य है। और हमारे देश का गरीब तो बेचारा इस बात पर आश्चर्य चकित हो जाता है की फलां आदमी " दुबार " ( दिन में दो बार खाना खाने वाला ) है। यहां तक की मध्यम वर्ग तक की ये हालत है की 90 रूपये किलो की गोभी खरीदने के लिए पूरे परिवार की मीटिंग बुलानी पड़ती है। सो ये बड़ा खतरा है की लोगों को ये मालूम पड़ जाये की चाय का एक कप 10000 रूपये का भी होता है और काजू के आटे की रोटी भी होती है।
इसलिए अगर सरकार हँड़िया चैक करने को तैयार हो गयी है तो उसका भरपूर स्वागत होना चाहिए।
लोग बार बार कह रहे थे की सरकार आओ, और हमारी हण्डिया चैक करो। इनमे से कितनी हँड़िया ऐसी हैं जो हफ्ते में एक-दो बार ही चूल्हे पर चढ़ती हैं। करोड़ों हँड़िया दो तीन दिन में एकबार चूल्हे पर चढ़ती हैं। कुछ हँड़िया तो ऐसी भी हैं जिन्होंने चूल्हे का मुंह ही नही देखा। क्योंकि जो लाखों लोग और बच्चे कचरे के डब्बे में से खाना चुन कर खाते हैं उन्हें हँड़िया की जरूरत ही नही पड़ती। कितनी विलासिता है। पका पकाया मिल रहा है। ये वो हँड़िया हैं जिनके लिए बाबा नागार्जुन ने ये कविता लिखी थी,-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक काली कुतिया सोई उसके पास।
वरना बाबा को क्या पड़ी थी ऐसा लिखने की। अगर सरकार उससे पहले हँड़िया चैक कर लेती तो इसकी क्या जरूरत रह जाती। सरकार कह सकती है की उसने अब तक हँड़िया चैक ना करके साहित्य की बहुत सेवा की है। दुनिया का आधा साहित्य भूख और रोटी पर आधारित है। अगर सरकार पहले हँड़िया चैक कर लेती तो उसका क्या होता। सरकार पर साहित्य विरोधी होने का आरोप लगता।
दूसरा एक बड़ा खतरा ये भी है की कुछ हंडियों में 30000 रूपये किलो के मशरूम भी मिलते। लोगों को तो अब तक पता ही नही है इस बात का। क्योंकि आदमी अपनी ओकात से बाहर तो कल्पना भी नही कर सकता, ये एक वैज्ञानिक तथ्य है। और हमारे देश का गरीब तो बेचारा इस बात पर आश्चर्य चकित हो जाता है की फलां आदमी " दुबार " ( दिन में दो बार खाना खाने वाला ) है। यहां तक की मध्यम वर्ग तक की ये हालत है की 90 रूपये किलो की गोभी खरीदने के लिए पूरे परिवार की मीटिंग बुलानी पड़ती है। सो ये बड़ा खतरा है की लोगों को ये मालूम पड़ जाये की चाय का एक कप 10000 रूपये का भी होता है और काजू के आटे की रोटी भी होती है।
इसलिए अगर सरकार हँड़िया चैक करने को तैयार हो गयी है तो उसका भरपूर स्वागत होना चाहिए।
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