Showing posts with label Caste. Show all posts
Showing posts with label Caste. Show all posts

Tuesday, September 29, 2015

बिहार, भाजपा और जातिवाद की राजनीती

             बिहार में भाजपा लालू प्रसाद यादव पर जातिवाद की राजनीती का आरोप लगा रही है। साथ ही ये दावा भी कर रही है की वो ये चुनाव विकास के एजेंडे पर लड़ रही है। मीडिया भी जातिवाद की बात होते ही लालू यादव को लपेटना शुरू कर देता है। लेकिन सवाल ये है की कौन चाहता है की बिहार जातिवाद की राजनीती से बाहर निकले। बिहार में चुनाव लड़ने वाली सभी पार्टियों का अपना एजेंडा है जो कहीं ना कहीं जातिवाद से जाकर जुड़ जाता है।
                बिहार में जाती हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही है। जमीनो पर अगदी जातियों का कब्जा और खेतिहर मजदूरी करने वाले लोगों के बीच का संघर्ष भी अपने अंतिम रूप में जाती युद्ध का रूप लेता रहा है। बीजेपी पुरे देश में हिंदूवादी राजनीती करती रही है भले ही वो इसकी पैकेजिंग कभी राष्ट्रवाद के नाम पर करती रही हो या संस्कृति के नाम पर। परन्तु उसके मूल में हमेशा हिंदुत्व की राजनीती रही है।पिछला लोकसभा चुनाव, जिसमे नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत मिला, उसके लिए बीजेपी ये दावा करती रही है की वो चुनाव विकास के नाम पर लड़ा गया था। लेकिन असलियत ये है की उस समय भी हिंदुत्व की विकासशील पैकेजिंग की गयी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है की लोकसभा में बीजेपी के चुने गए 282 सांसदों में एक भी मुस्लिम नही है। नारा था सबका साथ सबका विकास।
               अब जब बिहार का चुनाव नजदीक आ रहा था तो बीजेपी ही बिहार में जातिगत एजेंडा तय कर रही थी। नीतीश और लालू के जातीय गठबंधन को चुनौती देने के लिए बीजेपी ने ही जीतनराम मांझी को मोहरा बनाकर महादलित को राजनीती का मुद्दा बनाया। प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में केवल महादलित ही छाया रहा। लेकिन जातिगत राजनीती में लालूप्रसाद के यादव और उसके साथ ही पिछड़े वोट बैंक को कोई ढंग की चुनौती बीजेपी नही दे पाई। अगदी जातियों को अपने अपने पक्ष में गोलबंद करने की कोशिश में मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने वाला बयान दे दिया और फंस गए। इस बयान से बीजेपी को अगड़ों में तो समर्थन बढ़ा परन्तु दूसरी तरह पिछड़ों का धुर्वीकरण लालू यादव की तरफ होता दिखाई दिया। अब बीजेपी इस धुर्वीकरण को रोकने के लिए लालू यादव पर जातिगत राजनीती के आरोप लगा रहे हैं।
                 लेकिन क्या अब बीजेपी जातिगत राजनीती से किनारा कर रही है ? बिलकुल नही। जब लालू यादव ये कहते हैं की ये अगड़ों और पिछड़ों के बीच की लड़ाई है तो उसके जवाब में गिरिराज सिंह और रविशंकर प्रसाद ये बयान देते हैं की NDA का मुख्यमंत्री भी कोई दलित या पिछड़ा ही होगा और कोई स्वर्ण जाती का व्यक्ति मुख्यमंत्री नही होगा, ये बयान किस तरह जातिवादी नही है ?
                     राजनीती हमेशा दो पक्षों में होती है। ये दो पक्ष कभी हिन्दू और मुस्लिम हो सकते है, कभी अगड़े या पिछड़े हो सकते है या फिर आमिर और गरीब हो सकते हैं। आरएसएस और बीजेपी हमेशा आर्थिक आधार की बात करती रही है पर वो कोई भी चुनाव आमिर और गरीब के नाम पर नही लड़ सकती। अगर उसने ये कोशिश की तो मजदूरों और किसानो के सवाल बहस में आ जायेंगे। और ये सवाल बीजेपी के विरुद्ध जायेंगे। इसलिए बीजेपी भी चाहती है की बिहार का चुनाव जाती के आधार पर लड़ा जाये बस उसमे थोड़ा सा हिन्दुत्त्व का तड़का लगा हो। और हिंदुत्तव का तड़का लगाने के लिए उसने साध्वी निरंजन ज्योति सहित अपने पुरे भगवा संगठन को काम पर लगा दिया है। इस काम में उसे ओवैसी से भी बहुत उम्मीद है। दूसरी तरफ यादवों के गठजोड़ में भरम फ़ैलाने और सेंध लगाने के लिए पप्पू यादव से लेकर मुलायम सिंह तक सभी को काम पर लगा दिया है। ये आरोप है की ये दोनों नेता अलग से गठबंधन बनाकर बीजेपी की शह पर ही लड़ रहे हैं।
                   इसलिए कोई नही चाहता, और कम से कम बीजेपी तो कभी नही चाहती की भिहार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जाये।

Sunday, August 30, 2015

आरक्षण विरोधियों के दिल से फिर गरीबों के लिए खून टपक रहा है !

peoples gathering

आरक्षण विरोधियों के दिल से फिर गरीबों के लिए खून टपक रहा है। जब जब आरक्षण की बात होती है तब तब आरक्षण विरोधियों के दिल से खून टपकने लगता है, कभी टेलेंट के नाम पर और कभी गरीबों के नाम पर। अपर क्लास के कुछ लोगों को कभी भी आरक्षण हजम नही हुआ। जहां भी उन्हें लगता है की उनका सामाजिक और आर्थिक आधिपत्य प्रभावित हो रहा है, उनके दिल से खून टपकने लगता है। मंडल आयोग ने जब OBC के लिए 27 % आरक्षण की सिफारिश की थी तब इसके विरोध में इन लोगों ने बहुत बड़े पैमाने पर उत्पात मचाया था। तब ये आरक्षण का विरोध कर रहे थे। और उस समय बहाना था मेरिट का। उस समय तरह तरह के कुतर्क सुनाई देते थे, जैसे 40 % नंबरों से दाखिला लेने वाले किसी डाक्टर से कौन अपना आपरेशन करवाना चाहेगा। क्या किसी ऐसे विमान चालक पर भरोसा किया जा सकता है जिसे कम नंबरों के बावजूद आरक्षण के कारण दाखिला मिला हो। इस तरह के बहुत से उदाहरण दिए जाते थे।
                        उसके बाद जब ये उस आरक्षण को लागु होने से नही रोक पाये तो उसे निष्प्रभावी करने का दूसरा तरीका निकाला। अब उन्होंने अपनी अपनी जातियों को आरक्षण की सूचि में डालने की मांग करनी शुरू कर दी। अब की बार उन्होंने गरीबी का बहाना बनाया। अब वो दोनों तरह के तर्क दे रहे हैं। जैसे या तो आरक्षण को खत्म कर दो, या फिर हमे भी दे दो। अगर हमे आरक्षण दे देते हो तो आरक्षण सही है वरना गलत है। अब उन्हें देश में आरक्षण मिली हुई जातियों में कोई अछूत और गरीब नजर नही आता।
                          
mass protest rally
लेकिन ये जो लोग सबको समानता की बात कर रहे हैं और कभी मेरिट तो कभी गरीबी का मुद्दा उठा रहे हैं उनमे कौन कौन लोग हैं ? इनमे बड़ी तादाद में वो लोग हैं जिनके नालायक बच्चे 40 % नंबर लेकर डोनेशन वाली सीटों पर डाक्टरी कर रहे हैं। इनमे से बहुत ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों की तो छोडो अपनी जाती के गरीबों का इलाज किफायती रेट पर करने को तैयार नही हैं। इनमे बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के लिए जिम्मेदार हैं। अभी मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की जो खबरें आ रही हैं उनमे इन्ही लोगों के बच्चों की बड़ी तादाद है। ये लोग प्राइवेट स्कुल चलाते हैं और बिना डोनेशन के किसी को दाखिला नही देते, लेकिन जब आरक्षण की बात आती है तो इनके दिल से गरीबों के लिए खून टपकने लगता है।
                          जो लोग सबको समानता की बात करते हैं उन्होंने एकबार भी नही कहा की सारी प्राइवेट सीटों को सरकार अपने कोटे में शामिल करे। इन्होने कभी नही कहा की सभी सरकारी स्कूलों की सीटें दुगनी की जाएँ। सभी प्राइवेट स्कुल कालेजों को सरकारी सहायता देकर भारी फ़ीस से मुक्ति दिलाई जाये। इन्होने कभी नही कहा की चार-चार हजार की फिक्स पगार पर भर्तियां बंद हों। हमारे देश में तो प्राइवेट संस्थाओं में आरक्षण नही है। इन्होने कभी नही कहा की उनमे काम के हालत सुधार कर उन्हें सरकारी नौकरियों के जैसा ही आकर्षक बनाया जाये। ये ऐसा कभी नही कहेंगे क्योंकि ये सारे निजी संस्थान यही लोग तो चलाते हैं और अपनी जाति  के गरीब मजदूरों को न्यूनतम वेतन तक नही देते।
                       
  वैसे जो लोग सही में ऐसा समझते हैं की अब छुआछूत की कोई समस्या देश में बची नही है और सामाजिक तौर पर बराबरी आ गयी है, उनको इन जातियों में शादियां करनी चाहियें। हमारे देश में कानून है की किसी दलित और स्वर्ण की शादी होने के बाद उनके बच्चे किसी का भी उपनाम प्रयोग कर सकते हैं। इस तरह उन्हें अनुसूचित जाती के आरक्षण का लाभ अपने आप मिलने लगेगा और देश से जाति  प्रथा भी दूर हो जाएगी। लेकिन वो ऐसा तो कभी नही कर सकते।
                         
  असल समस्या कहीं और है। जो काम सरकारों को करना चाहिए था उन्होंने नही किया। जो लोग सबकी समानता की बात करते हैं उन्हें सबके लिए शिक्षा और रोजगार की मांग करनी चाहिए थी। सरकारी स्कूलों और कालेजों में सीटें बढ़ाने की मांग करनी चाहिए थी। सरकार में खाली पड़े पदों को भरने की मांग करनी चाहिए। परन्तु चूँकि ये सारे काम ऊँचे स्थान पर बैठे लोगों को रास नही आते इसलिए इनकी मांग भी नही होती। इसके साथ ही ऊँची जातियों में जो गरीब लोग हैं वो अपने आप को उपेक्षित महसूस ना करें इसलिए उनके लिए 10 % आरक्षण की मांग की जा सकती है। इस पर शायद ही समाज का कोई वर्ग या जाति  विरोध करे। जरूरत पड़े तो इसके लिए कानून में बदलाव भी किया जा सकता है। क्योंकि इस मांग पर लगभग आम सहमति है। परन्तु फिर वही बात आती है। जो लोग आरक्षण के आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं उन्हें इसका कोई फायदा नही होगा। इसलिए ये मांग नही उठाई जाएगी। उन लोगों का तो अंतिम मकसद पूरे आरक्षण की प्रणाली को ही निष्प्रभावी बनाना है।