बिहार में भाजपा लालू प्रसाद यादव पर जातिवाद की राजनीती का आरोप लगा रही है। साथ ही ये दावा भी कर रही है की वो ये चुनाव विकास के एजेंडे पर लड़ रही है। मीडिया भी जातिवाद की बात होते ही लालू यादव को लपेटना शुरू कर देता है। लेकिन सवाल ये है की कौन चाहता है की बिहार जातिवाद की राजनीती से बाहर निकले। बिहार में चुनाव लड़ने वाली सभी पार्टियों का अपना एजेंडा है जो कहीं ना कहीं जातिवाद से जाकर जुड़ जाता है।
बिहार में जाती हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही है। जमीनो पर अगदी जातियों का कब्जा और खेतिहर मजदूरी करने वाले लोगों के बीच का संघर्ष भी अपने अंतिम रूप में जाती युद्ध का रूप लेता रहा है। बीजेपी पुरे देश में हिंदूवादी राजनीती करती रही है भले ही वो इसकी पैकेजिंग कभी राष्ट्रवाद के नाम पर करती रही हो या संस्कृति के नाम पर। परन्तु उसके मूल में हमेशा हिंदुत्व की राजनीती रही है।पिछला लोकसभा चुनाव, जिसमे नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत मिला, उसके लिए बीजेपी ये दावा करती रही है की वो चुनाव विकास के नाम पर लड़ा गया था। लेकिन असलियत ये है की उस समय भी हिंदुत्व की विकासशील पैकेजिंग की गयी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है की लोकसभा में बीजेपी के चुने गए 282 सांसदों में एक भी मुस्लिम नही है। नारा था सबका साथ सबका विकास।
अब जब बिहार का चुनाव नजदीक आ रहा था तो बीजेपी ही बिहार में जातिगत एजेंडा तय कर रही थी। नीतीश और लालू के जातीय गठबंधन को चुनौती देने के लिए बीजेपी ने ही जीतनराम मांझी को मोहरा बनाकर महादलित को राजनीती का मुद्दा बनाया। प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में केवल महादलित ही छाया रहा। लेकिन जातिगत राजनीती में लालूप्रसाद के यादव और उसके साथ ही पिछड़े वोट बैंक को कोई ढंग की चुनौती बीजेपी नही दे पाई। अगदी जातियों को अपने अपने पक्ष में गोलबंद करने की कोशिश में मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने वाला बयान दे दिया और फंस गए। इस बयान से बीजेपी को अगड़ों में तो समर्थन बढ़ा परन्तु दूसरी तरह पिछड़ों का धुर्वीकरण लालू यादव की तरफ होता दिखाई दिया। अब बीजेपी इस धुर्वीकरण को रोकने के लिए लालू यादव पर जातिगत राजनीती के आरोप लगा रहे हैं।
लेकिन क्या अब बीजेपी जातिगत राजनीती से किनारा कर रही है ? बिलकुल नही। जब लालू यादव ये कहते हैं की ये अगड़ों और पिछड़ों के बीच की लड़ाई है तो उसके जवाब में गिरिराज सिंह और रविशंकर प्रसाद ये बयान देते हैं की NDA का मुख्यमंत्री भी कोई दलित या पिछड़ा ही होगा और कोई स्वर्ण जाती का व्यक्ति मुख्यमंत्री नही होगा, ये बयान किस तरह जातिवादी नही है ?
राजनीती हमेशा दो पक्षों में होती है। ये दो पक्ष कभी हिन्दू और मुस्लिम हो सकते है, कभी अगड़े या पिछड़े हो सकते है या फिर आमिर और गरीब हो सकते हैं। आरएसएस और बीजेपी हमेशा आर्थिक आधार की बात करती रही है पर वो कोई भी चुनाव आमिर और गरीब के नाम पर नही लड़ सकती। अगर उसने ये कोशिश की तो मजदूरों और किसानो के सवाल बहस में आ जायेंगे। और ये सवाल बीजेपी के विरुद्ध जायेंगे। इसलिए बीजेपी भी चाहती है की बिहार का चुनाव जाती के आधार पर लड़ा जाये बस उसमे थोड़ा सा हिन्दुत्त्व का तड़का लगा हो। और हिंदुत्तव का तड़का लगाने के लिए उसने साध्वी निरंजन ज्योति सहित अपने पुरे भगवा संगठन को काम पर लगा दिया है। इस काम में उसे ओवैसी से भी बहुत उम्मीद है। दूसरी तरफ यादवों के गठजोड़ में भरम फ़ैलाने और सेंध लगाने के लिए पप्पू यादव से लेकर मुलायम सिंह तक सभी को काम पर लगा दिया है। ये आरोप है की ये दोनों नेता अलग से गठबंधन बनाकर बीजेपी की शह पर ही लड़ रहे हैं।
इसलिए कोई नही चाहता, और कम से कम बीजेपी तो कभी नही चाहती की भिहार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जाये।
बिहार में जाती हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही है। जमीनो पर अगदी जातियों का कब्जा और खेतिहर मजदूरी करने वाले लोगों के बीच का संघर्ष भी अपने अंतिम रूप में जाती युद्ध का रूप लेता रहा है। बीजेपी पुरे देश में हिंदूवादी राजनीती करती रही है भले ही वो इसकी पैकेजिंग कभी राष्ट्रवाद के नाम पर करती रही हो या संस्कृति के नाम पर। परन्तु उसके मूल में हमेशा हिंदुत्व की राजनीती रही है।पिछला लोकसभा चुनाव, जिसमे नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत मिला, उसके लिए बीजेपी ये दावा करती रही है की वो चुनाव विकास के नाम पर लड़ा गया था। लेकिन असलियत ये है की उस समय भी हिंदुत्व की विकासशील पैकेजिंग की गयी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है की लोकसभा में बीजेपी के चुने गए 282 सांसदों में एक भी मुस्लिम नही है। नारा था सबका साथ सबका विकास।
अब जब बिहार का चुनाव नजदीक आ रहा था तो बीजेपी ही बिहार में जातिगत एजेंडा तय कर रही थी। नीतीश और लालू के जातीय गठबंधन को चुनौती देने के लिए बीजेपी ने ही जीतनराम मांझी को मोहरा बनाकर महादलित को राजनीती का मुद्दा बनाया। प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में केवल महादलित ही छाया रहा। लेकिन जातिगत राजनीती में लालूप्रसाद के यादव और उसके साथ ही पिछड़े वोट बैंक को कोई ढंग की चुनौती बीजेपी नही दे पाई। अगदी जातियों को अपने अपने पक्ष में गोलबंद करने की कोशिश में मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने वाला बयान दे दिया और फंस गए। इस बयान से बीजेपी को अगड़ों में तो समर्थन बढ़ा परन्तु दूसरी तरह पिछड़ों का धुर्वीकरण लालू यादव की तरफ होता दिखाई दिया। अब बीजेपी इस धुर्वीकरण को रोकने के लिए लालू यादव पर जातिगत राजनीती के आरोप लगा रहे हैं।
लेकिन क्या अब बीजेपी जातिगत राजनीती से किनारा कर रही है ? बिलकुल नही। जब लालू यादव ये कहते हैं की ये अगड़ों और पिछड़ों के बीच की लड़ाई है तो उसके जवाब में गिरिराज सिंह और रविशंकर प्रसाद ये बयान देते हैं की NDA का मुख्यमंत्री भी कोई दलित या पिछड़ा ही होगा और कोई स्वर्ण जाती का व्यक्ति मुख्यमंत्री नही होगा, ये बयान किस तरह जातिवादी नही है ?
राजनीती हमेशा दो पक्षों में होती है। ये दो पक्ष कभी हिन्दू और मुस्लिम हो सकते है, कभी अगड़े या पिछड़े हो सकते है या फिर आमिर और गरीब हो सकते हैं। आरएसएस और बीजेपी हमेशा आर्थिक आधार की बात करती रही है पर वो कोई भी चुनाव आमिर और गरीब के नाम पर नही लड़ सकती। अगर उसने ये कोशिश की तो मजदूरों और किसानो के सवाल बहस में आ जायेंगे। और ये सवाल बीजेपी के विरुद्ध जायेंगे। इसलिए बीजेपी भी चाहती है की बिहार का चुनाव जाती के आधार पर लड़ा जाये बस उसमे थोड़ा सा हिन्दुत्त्व का तड़का लगा हो। और हिंदुत्तव का तड़का लगाने के लिए उसने साध्वी निरंजन ज्योति सहित अपने पुरे भगवा संगठन को काम पर लगा दिया है। इस काम में उसे ओवैसी से भी बहुत उम्मीद है। दूसरी तरफ यादवों के गठजोड़ में भरम फ़ैलाने और सेंध लगाने के लिए पप्पू यादव से लेकर मुलायम सिंह तक सभी को काम पर लगा दिया है। ये आरोप है की ये दोनों नेता अलग से गठबंधन बनाकर बीजेपी की शह पर ही लड़ रहे हैं।
इसलिए कोई नही चाहता, और कम से कम बीजेपी तो कभी नही चाहती की भिहार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जाये।
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.