आरक्षण विरोधियों के दिल से फिर गरीबों के लिए खून टपक रहा है। जब जब आरक्षण की बात होती है तब तब आरक्षण विरोधियों के दिल से खून टपकने लगता है, कभी टेलेंट के नाम पर और कभी गरीबों के नाम पर। अपर क्लास के कुछ लोगों को कभी भी आरक्षण हजम नही हुआ। जहां भी उन्हें लगता है की उनका सामाजिक और आर्थिक आधिपत्य प्रभावित हो रहा है, उनके दिल से खून टपकने लगता है। मंडल आयोग ने जब OBC के लिए 27 % आरक्षण की सिफारिश की थी तब इसके विरोध में इन लोगों ने बहुत बड़े पैमाने पर उत्पात मचाया था। तब ये आरक्षण का विरोध कर रहे थे। और उस समय बहाना था मेरिट का। उस समय तरह तरह के कुतर्क सुनाई देते थे, जैसे 40 % नंबरों से दाखिला लेने वाले किसी डाक्टर से कौन अपना आपरेशन करवाना चाहेगा। क्या किसी ऐसे विमान चालक पर भरोसा किया जा सकता है जिसे कम नंबरों के बावजूद आरक्षण के कारण दाखिला मिला हो। इस तरह के बहुत से उदाहरण दिए जाते थे।
उसके बाद जब ये उस आरक्षण को लागु होने से नही रोक पाये तो उसे निष्प्रभावी करने का दूसरा तरीका निकाला। अब उन्होंने अपनी अपनी जातियों को आरक्षण की सूचि में डालने की मांग करनी शुरू कर दी। अब की बार उन्होंने गरीबी का बहाना बनाया। अब वो दोनों तरह के तर्क दे रहे हैं। जैसे या तो आरक्षण को खत्म कर दो, या फिर हमे भी दे दो। अगर हमे आरक्षण दे देते हो तो आरक्षण सही है वरना गलत है। अब उन्हें देश में आरक्षण मिली हुई जातियों में कोई अछूत और गरीब नजर नही आता।
लेकिन ये जो लोग सबको समानता की बात कर रहे हैं और कभी मेरिट तो कभी गरीबी का मुद्दा उठा रहे हैं उनमे कौन कौन लोग हैं ? इनमे बड़ी तादाद में वो लोग हैं जिनके नालायक बच्चे 40 % नंबर लेकर डोनेशन वाली सीटों पर डाक्टरी कर रहे हैं। इनमे से बहुत ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों की तो छोडो अपनी जाती के गरीबों का इलाज किफायती रेट पर करने को तैयार नही हैं। इनमे बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के लिए जिम्मेदार हैं। अभी मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की जो खबरें आ रही हैं उनमे इन्ही लोगों के बच्चों की बड़ी तादाद है। ये लोग प्राइवेट स्कुल चलाते हैं और बिना डोनेशन के किसी को दाखिला नही देते, लेकिन जब आरक्षण की बात आती है तो इनके दिल से गरीबों के लिए खून टपकने लगता है।
जो लोग सबको समानता की बात करते हैं उन्होंने एकबार भी नही कहा की सारी प्राइवेट सीटों को सरकार अपने कोटे में शामिल करे। इन्होने कभी नही कहा की सभी सरकारी स्कूलों की सीटें दुगनी की जाएँ। सभी प्राइवेट स्कुल कालेजों को सरकारी सहायता देकर भारी फ़ीस से मुक्ति दिलाई जाये। इन्होने कभी नही कहा की चार-चार हजार की फिक्स पगार पर भर्तियां बंद हों। हमारे देश में तो प्राइवेट संस्थाओं में आरक्षण नही है। इन्होने कभी नही कहा की उनमे काम के हालत सुधार कर उन्हें सरकारी नौकरियों के जैसा ही आकर्षक बनाया जाये। ये ऐसा कभी नही कहेंगे क्योंकि ये सारे निजी संस्थान यही लोग तो चलाते हैं और अपनी जाति के गरीब मजदूरों को न्यूनतम वेतन तक नही देते।
असल समस्या कहीं और है। जो काम सरकारों को करना चाहिए था उन्होंने नही किया। जो लोग सबकी समानता की बात करते हैं उन्हें सबके लिए शिक्षा और रोजगार की मांग करनी चाहिए थी। सरकारी स्कूलों और कालेजों में सीटें बढ़ाने की मांग करनी चाहिए थी। सरकार में खाली पड़े पदों को भरने की मांग करनी चाहिए। परन्तु चूँकि ये सारे काम ऊँचे स्थान पर बैठे लोगों को रास नही आते इसलिए इनकी मांग भी नही होती। इसके साथ ही ऊँची जातियों में जो गरीब लोग हैं वो अपने आप को उपेक्षित महसूस ना करें इसलिए उनके लिए 10 % आरक्षण की मांग की जा सकती है। इस पर शायद ही समाज का कोई वर्ग या जाति विरोध करे। जरूरत पड़े तो इसके लिए कानून में बदलाव भी किया जा सकता है। क्योंकि इस मांग पर लगभग आम सहमति है। परन्तु फिर वही बात आती है। जो लोग आरक्षण के आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं उन्हें इसका कोई फायदा नही होगा। इसलिए ये मांग नही उठाई जाएगी। उन लोगों का तो अंतिम मकसद पूरे आरक्षण की प्रणाली को ही निष्प्रभावी बनाना है।
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