पिछले कुछ समय से बीजेपी और आरएसएस ने लोगों के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमले तेज कर दिए हैं। इसका पहला शिकार लेखक, बुद्धिजीवी और छात्र हुए हैं। क्योंकि यही वो लोग हैं जो निर्णयों के दूरगामी परिणामो को समझ सकने की काबिलियत रखते हैं। इसके समर्थन में संघ ने ऐसे लोगों को मैदान में उतारा है जो दिमाग से पैदल हैं और आका के हुक्म पर अपने बाप को भी गाली दे सकते हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है की ये लोग जिस तबके से आते हैं वो खुद सरकार के हमलों का शिकार है। जैसे, छात्रों का एक छोटा तबका जो नकली देशभक्ति के नारों से प्रभावित है उसको ये दिखाई नही दे रहा है की जिस तरह के फेरबदल सरकार शिक्षा के क्षेत्र में कर रही है उससे गरीब छात्रों का बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हो जायेगा। और लड़ाई असल में उन्ही बदलावों के खिलाफ शुरू हुई थी चाहे हैदराबाद हो या JNU हो। दूसरी तरफ पर सैनिकों का एक तबका है, लेकिन वो इस बात को भूल गया की OROP के सवाल पर इस सरकार ने वेटरंस के साथ क्या सलूक किया था। और एक सैनिक जब रिटायर होता है तो या तो किसान बनता है , छोटा दुकानदार बनता है या फिर किसी निजी फर्म में नौकरी करता है। वो ये भूल जाता है की किसानो की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, छोटे व्यापार में विदेशी फर्मों को इजाजत देकर छोटे दुकानदारों को मुसीबत में डाला जा रहा है और कर्मचारियों के हित में बने सारे कानून बदले जा रहे हैं। देशभक्ति केवल नारों में नही होती। जब कोई आदमी सेना के किसी गलत काम के खिलाफ आवाज उठाता है तो वो सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहा होता है जो सेना का इस्तेमाल उस काम के लिए कर रही होती है। एक बहुत छोटा सा उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और नक्सलियों के खिलाफ सेना की मुहिम कोई विदेशी ताकत के खिलाफ मुहिम नही है। ये अपने ही गरीब आदिवासियों से जमीन खाली करवा कर उद्योगपतियों को देने की लड़ाई है। और इस लड़ाई में सैनिकों की हालत ये है की जितने सैनिक नक्सलियों के साथ लड़ाई में मारे गए हैं उनसे ज्यादा सैनिक वहां सुविधाओं के आभाव में बिमारियों और दूसरे कारणों से मारे गए हैं। ये सारे आंकड़े गूगल पर उपलब्ध हैं।
आजादी से पहले भी इस तरह के दौर आये हैं। उस समय भी देश का बहुत छोटा सा तबका ही था जो इन चीजों को समझता था और इनका विरोध करता था। अंग्रेज हमेशा आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए उसके नेताओं को बदनाम करती रही। राजा राममोहन राय और जगदीश चन्द्र बसु के समाज सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ कटटरपंथी हिन्दुओं का एक तबका परम्परा और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के नाम पर उनके खिलाफ खड़ा रहा। भगत सिंह और उनके साथियों को उस समय भी आतंकवादी कहने वालों की बड़ी संख्या थी।
जब आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में थी तब भी जो लोग अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे और जिन कारणों के लिए कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, ठीक उसके उल्ट उन्ही लोगों के साथ मिलकर सरकार बना रहे थे। हिन्दू महासभा, उस समय जिसके नेता वीर सावरकर और शयामा प्रशाद मुखर्जी थे, एक तरफ कांग्रेस पर विभाजन ना रोक पाने का आरोप लगा रही थी और दूसरी तरफ जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रही थी। सावरकर अपने लेखों में दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन भी कर रहे थे और कांग्रेस को भी कोस रहे थे।
ठीक यही स्थिति आज भी है। बीजेपी और आरएसएस एक तरफ लेखकों, बुद्धिजीविओं और छात्रों पर कश्मीर के सवाल पर केवल एक वैचारिक बहस को लेकर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं, हमले कर रहे हैं और दूसरी तरफ ठीक उसी विचार पर काम कर रही पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं। कश्मीर में बीजेपी के कोटे से मंत्री बने सज्जाद लोन ने कहा था की जब कोई भारतीय सैनिक मरता है तो उसे सकून मिलता है।
लेकिन सवाल दूसरा है। जब इस तरह के हमले हो रहे हों, देश का धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक अस्तित्त्व खतरे में हो तब कुछ राजनैतिक पार्टिया इस पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। आज भी इस सवाल पर वामपंथी दलों, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस को छोड़कर बाकि दल इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। लो लोग दलितों की राजनीती का दावा करते हैं वो रोहित वेमुला के सवाल पर चुप हैं। स्थिति ठीक वैसी ही है। आजादी की लड़ाई के गद्दार आज देशभक्ति का दावा कर रहे हैं। इसी तरह इस लड़ाई के बाद यही राजनैतिक दल नए दावों और नारों के साथ सामने आएंगे।
इसलिए हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को स्थिति की गंभीरता को समझकर फैसला लेना होगा। जो हमले आज उन्हें लगता है की दूसरों पर हो रहे हैं, दरअसल पिछले दरवाजे से उन्ही पर हो रहे हैं। ये हमले उन्ही लोगों पर हो रहे हैं जो आम जनता के दूसरे सवालों पर भी, जो उनकी रोज की जिंदगी और काम धंधे से जुड़े होते हैं, सवाल उठाते हैं। सरकार के खिलाफ लड़ने वाले इन सब लोगों पर हमले का मतलब खुद लोगों पर हमला है। अगर समय से इसका विरोध नही किया गया तो एक लम्बी अँधेरी रात की शुरुआत हो सकती है।
आजादी से पहले भी इस तरह के दौर आये हैं। उस समय भी देश का बहुत छोटा सा तबका ही था जो इन चीजों को समझता था और इनका विरोध करता था। अंग्रेज हमेशा आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए उसके नेताओं को बदनाम करती रही। राजा राममोहन राय और जगदीश चन्द्र बसु के समाज सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ कटटरपंथी हिन्दुओं का एक तबका परम्परा और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के नाम पर उनके खिलाफ खड़ा रहा। भगत सिंह और उनके साथियों को उस समय भी आतंकवादी कहने वालों की बड़ी संख्या थी।
जब आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में थी तब भी जो लोग अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे और जिन कारणों के लिए कांग्रेस का विरोध कर रहे थे, ठीक उसके उल्ट उन्ही लोगों के साथ मिलकर सरकार बना रहे थे। हिन्दू महासभा, उस समय जिसके नेता वीर सावरकर और शयामा प्रशाद मुखर्जी थे, एक तरफ कांग्रेस पर विभाजन ना रोक पाने का आरोप लगा रही थी और दूसरी तरफ जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रही थी। सावरकर अपने लेखों में दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन भी कर रहे थे और कांग्रेस को भी कोस रहे थे।
ठीक यही स्थिति आज भी है। बीजेपी और आरएसएस एक तरफ लेखकों, बुद्धिजीविओं और छात्रों पर कश्मीर के सवाल पर केवल एक वैचारिक बहस को लेकर देशद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं, हमले कर रहे हैं और दूसरी तरफ ठीक उसी विचार पर काम कर रही पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं। कश्मीर में बीजेपी के कोटे से मंत्री बने सज्जाद लोन ने कहा था की जब कोई भारतीय सैनिक मरता है तो उसे सकून मिलता है।
लेकिन सवाल दूसरा है। जब इस तरह के हमले हो रहे हों, देश का धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक अस्तित्त्व खतरे में हो तब कुछ राजनैतिक पार्टिया इस पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। आज भी इस सवाल पर वामपंथी दलों, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस को छोड़कर बाकि दल इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। लो लोग दलितों की राजनीती का दावा करते हैं वो रोहित वेमुला के सवाल पर चुप हैं। स्थिति ठीक वैसी ही है। आजादी की लड़ाई के गद्दार आज देशभक्ति का दावा कर रहे हैं। इसी तरह इस लड़ाई के बाद यही राजनैतिक दल नए दावों और नारों के साथ सामने आएंगे।
इसलिए हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को स्थिति की गंभीरता को समझकर फैसला लेना होगा। जो हमले आज उन्हें लगता है की दूसरों पर हो रहे हैं, दरअसल पिछले दरवाजे से उन्ही पर हो रहे हैं। ये हमले उन्ही लोगों पर हो रहे हैं जो आम जनता के दूसरे सवालों पर भी, जो उनकी रोज की जिंदगी और काम धंधे से जुड़े होते हैं, सवाल उठाते हैं। सरकार के खिलाफ लड़ने वाले इन सब लोगों पर हमले का मतलब खुद लोगों पर हमला है। अगर समय से इसका विरोध नही किया गया तो एक लम्बी अँधेरी रात की शुरुआत हो सकती है।
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