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Friday, August 28, 2015

क्या ये भारतीय मजदूर आंदोलन का सक्रांति-काल है।


bannar of all india strike sfi-dyfi photo of a procession
2 सितंबर को होने वाली अखिल भारतीय हड़ताल की जिस तरह से तैयारियां हो रही हैं और जो खबरें आ रही हैं, उससे ये साफ हो गया है की ये भारत की अब तक की सबसे व्यापक हड़ताल होगी। इस तरह की व्यापक एकता इससे पहले भारतीय मजदूर आंदोलन में इससे पहले कभी नही देखी गयी। असल बात तो ये है की पिछले 25 सालों से भारत का मजदूर आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था जिससे आगे बढ़ने का रास्ता मिलना तो दूर की बात, अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहा था।
                1980 के दशक में जब भारी आर्थिक संकट के बाद विकासशील देशों को IMF और विश्व बैंक के पास सहायता के लिए जाना पड़ा तो उस सहायता पैकेज के साथ कुछ शर्तें भी नत्थी हो कर आई। इन शर्तों में निजीकरण की शर्त प्रमुख रूप से शामिल थी। सभी सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के निजीकरण का सिलसिला शुरू किया। इसके साथ ही श्रम कानूनो में छूट दी जाने लगी।
      
man holding play card saying imf-trapping countries in debt
   उसके बाद 1991 में आर्थिक सुधारों का दौर आया। इसमें निजीकरण के साथ ही वैश्वीकरण और उदारीकरण भी शामिल था। सरकार ने आर्थिक पुनर्संगठन के साथ ही SAP ( Structural Adjustment Programme ) शुरू किया। इसमें सभी तरह के उद्योगों के मैनेजमेंट बोर्ड में निजी क्षेत्र के लोगों को भरा जाने लगा। इस प्रोग्राम ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी में बढ़ौतरी की। साथ की रोजगार के क्षेत्र में स्थाई श्रमिकों की जगह ठेकेदारी प्रथा, अस्थाई मजदूर और पार्ट टाइम मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। बड़े पैमाने पर काम का आउटसोर्सिंग किया जाने लगा। इससे पब्लिक सैक्टर के उद्योगों में ट्रेड यूनियनों पर अस्तित्व का संकट आकर खड़ा हो गया।
                   इसके बाद उद्योगों में ट्रेड यूनियनों की बारगेनिंग पावर ( मोलभाव की ताकत ) घटने लगी। इसका प्रभाव ये हुआ की मजदूरों का विश्वास ट्रेड यूनियनों पर कम होने लगा। दूसरी तरफ उदारीकरण के समर्थक देश के नौजवानो  सब्जबाग दिखा रहे थे। उन्हें विकास के झूठे माडल दिखाए  जाने लगे। एक दौर ऐसा भी था जब आईटी क्षेत्र और मार्केटिंग के क्षेत्र में नौजवानो को काम भी मिला। इन क्षेत्रों में भले ही कोई श्रम कानून लागु नही थे लेकिन वेतन का स्तर ऊँचा था। नई पीढ़ी को उसमे ही रास्ता नजर आने लगा। लेकिन इसका बहुत जल्दी ही अंत दिखाई देने लगा। जिस बड़े पैमाने पर नए बेरोजगार कतारों में शामिल हो रहे थे, और जिस बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां जा रही थी उससे संकट बढ़ने लगा।
                 
wemans procession of citu
उससे निपटने के लिए वामपन्थी ट्रेड यूनियनों की पहल पर NCC ( National Compagain Committee ) की स्थापना हुई। लेकिन सभी बड़ी ट्रेड यूनियनों के इस साझा मंच से भारतीय मजदूर संघ और इंटुक अलग रह गयी। उन्हें अभी तक सरकारों के आश्वासन पर भरोसा था। साथ ही शासन में रहने वाली दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी का उन पर सांगठनिक प्रभाव भी था। इस दौरान उदारीकरण की नीतियों के विरोध में कई हड़तालें और आंदोलन हुए। लेकिन हर बार कभी इंटुक और कभी भारतीय मजदूर संघ उससे अलग रहे। वामपन्थी ट्रेड यूनियनें इस अभियान को जारी रखे रही। एक समय ऐसा आया की इंटुक और भारतीय मजदूर संघ से संबंधित यूनियनों के मजदूरों ने अपनी एफिलिएशन से अलग जाकर वामपंथी आंदोलनों में शिरकत की। उसके बाद इन यूनियन के नेताओं में पुनर्विचार का दौर शुरू हुआ। साथ ही अब तक सरकार के सभी आश्वासनों और दावों की हवा निकल चुकी थी। पितृ पार्टियों से मजदूर संगठनो के मतभेद गहराने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा और भारतीय मजदूर संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगडी का विवाद सबको मालूम है।
                 
dharna of labour at railway track
  अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग एक महागठबंधन का निर्माण कर चुके थे। इस गठबंधन में भारतीय मजदूर संघ और इंटुक दोनों से संबंधित यूनियन भी शामिल थी। इस महागठबंधन की कार्यवाहियां कई जगह विजयी हस्तक्षेप करने में कामयाब रही। अब मजदूर संगठनो ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की लामबंदी शुरू की। कई ऐसे क्षेत्र जिनमे आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाओं से लेकर निर्माण मजदूरों तक,  बड़ी संख्या में मजदूर लामबंद हुए। संगठित क्षेत्र में यूनियनों को जो नुकशान उठाना पड़ा था उसकी भरपाई इससे हो गयी। मजदूर संगठनो की कतारें बढ़ने लगी और उनका प्रतिरोध भी बढ़ने लगा।   एकता के कारण मजदूरों का विश्वास इन संगठनो पर बढ़ा और उनमे नए होंसले का संचार हुआ।
                     
communist party logo of hansiya and hatouda
  इसके बाद आई ये 2 सितंबर की अखिल भारतीय हड़ताल। केन्द्रीय मजदूर संगठनो की भागीदारी के मामले में इस हड़ताल को अब तक के सबसे व्यापक संगठनो का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही विभिन्न छात्र और नौजवान संगठनो से लेकर, किसानो और महिलाओं के संगठनो तक ने इस हड़ताल में शामिल होने की घोषणाएँ की हैं। संगठनो के मामले में इतना व्यापक समर्थन इससे पहले कभी देखने को नही मिला। जाहिर है की ये शायद अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हो। इस हड़ताल को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अलावा सभी पब्लिक सैक्टर के उद्योगों के संगठनो के साथ साथ बीमा और बैंक जैसे वित्तीय क्षेत्रों की सभी यूनियन भी शामिल हैं। इस हड़ताल को राज्य सरकारों की बिजली और यातायात जैसी लगभग सभी यूनियनों का समर्थन भी प्राप्त है।
                   
            इसलिए हो सकता है की ये हड़ताल भारतीय मजदूर आंदोलन का नया सक्रांति-काल साबित हो।
                             

Thursday, August 27, 2015

अगर सबकुछ सही है तो प्रॉपर्टी क्यों बेच रही है सरकार ?


विकास के नेहरू मॉडल और मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में हमारे देश में पब्लिक सेक्टर की स्थापना हुई। लेकिन ये क्षेत्र कुछ लोगों की आँखों में खटकता रहा। लेकिन हैसियत ना होने के कारण वो दिल पर पत्थर रखे रहे। आहिस्ता आहिस्ता जब हैसियत बढ़ी तो उन्होंने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। जैसे जैसे उनकी हैसियत बढ़ती रही उनके सवाल भी मुखर होते रहे। सरकार केभृष्टाचार और भाई भतीजावाद के चलते पब्लिक सेक्टर के कुछ उद्योग घाटे में चलने लगे तो उनका हो-हल्ला और बढ़ गया। उन्होंने पुरे पब्लिक सेक्टर को सफेद हाथी बताना शुरू कर दिया। सरकार पर पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को ओने-पौने दामो में बेचने का दबाव बनाया जाने लगा। इसके लिए मुख्य तौर पर दो तर्क दिए जाने लगे।
१.  सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सामाजिक सुरक्षा देना और कानून व्यवस्था बनाये रखना होता है।
२. घटे में चलने वाले पब्लिक सेक्टर के उद्योग सरकार और जनता पर बोझ हैं, इस बोझ से जितना जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाये उतना ही बेहतर होगा।

               उसके बाद शुरू हुआ पब्लिक सैक्टर के उद्योगों का बेचना। ये उद्योग किसी भी सरकार और देश की जनता की पूंजी होते हैं उन्हें बोझ की तरह निपटाया जाने लगा। सरकार ने पहले देशी पूंजीपतियों और फिर विदेशी पूंजीपतियों को ये उद्योग लूटा दिए। इसके लिए सरकार ने एक फार्मूला बनाया जिसे कुछ लोग देश बेचने का फार्मूला भी कहते हैं। 26 -49 -74 -100 का फार्मूला।
               जब भी किसी क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के हवाले करना होता तो सरकार कहती की केवल 26 % हिस्सेदारी बेचीं जा रही है। और वो भी पूंजी की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए। 26 % हिस्सेदारी खरीद कर कोई विदेशी कम्पनी हमारा क्या बिगाड़ लेगी।
                 उसके बाद 49 % हिस्सेदारी बेचने का फैसला कर लिया जाता। अबकी बार तर्क दिया जाता की हमारे पास 51 % हिस्सेदारी रहेगी। इसलिए मैनेजमेंट तो हमारी ही होगी। सो देश को चिंता करने की कोई जरूरत नही है।
                   तीसरा दौर 74 % का आता। इस पर पूंजी की कमी का रोना रोया जाता। बाहर से उन्नत तकनीक और बेहतर मैनेजमेंट आने की दुहाई दी जाती और ये भी कहा जाता की चूँकि हमारी हिस्सेदारी इसमें रहेगी इसलिए विदेशी कम्पनी मनमाने फैसले नही कर पायेगी।
                    अब अंतिम दौर आता 100 % हिस्सेदारी का यानि मुकम्मल तौर पर बेच देने का। अब कहा जाता की सारे फैसले तो व्ही कम्पनी ले रही है। सरकार को कोई फायदा नही हो रहा है इसलिए इसे बेच देते हैं और इस पैसे को दूसरे पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को मजबूत करने में लगा  देते हैं। इससे दूसरे उद्योग अच्छा काम कर पाएंगे। लोगों को सांत्वना दी जाती। और इस फार्मूले के तहत आधा देश बेच दिया।

                     सरकार तर्क देती की गरीबों के लिए काम करने को पैसा चाहिए। ये पैसा गरीबी दूर करने की योजनाओं में लगाया जायेगा। सरकार का काम लोगों को सामाजिक सुरक्षा और आधारभूत सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है और सरकार अब उन पर ध्यान देगी।
                                   लेकिन हुआ क्या ?
                   सरकार ने पहले सड़कों को बनाने का काम निजी क्षेत्र को दे दिया। लो भाई, सड़क बनाओ और टोल टैक्स वसूल करो। बहाना बनाया की सरकार के पास इतना पैसा नही है। उसके बाद स्कूलों को निजी हाथों में दिया जाने लगा। कोई नया स्कुल और कालेज बनाना सरकार ने बंद कर दिया। निजी कालेजों और युनिवर्सिटियों को बढ़ आ गयी। सरकारी हस्पतालों को प्राइवेट किया जाने लगा। एक एक करके जितनी भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली वस्तुएं थी सबसे सरकार ने अपना हाथ खिंच लिया। जो लोग कभी ये कहते थे की सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है, अब कहने लगे की प्रयोग करने वाले को पैसा देना ही चाहिए ,यूजर्स पे का नारा कब आया मालूम ही नही चला।

                     दो दिन पहले सरकार ने इंडियन ऑइल का 10 % हिस्सा बेचने को बाजार में रख दिया। इंडियन ऑइल देश की नवरतन कम्पनी है और भारी मुनाफे में चलती है। सरकार का अनुमान है की इससे सरकार को करीब 9000 करोड़ रुपया मिल जायेगा। ये लोगों की प्रॉपर्टी है। सरकार को ऐसी क्या मजबूरी है जो उसे अपनी प्रॉपर्टी बेचनी पद रही है। और वो भी तब जब सरकार दावा कर रही है की उसने 2G की बोली लगाकर 2 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। और उसने कोयला खदानों की बोली लगाकर 3 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। दूसरे सारे टैक्स तो अपनी जगह हैं ही। एक तरफ प्रधानमंत्री बिहार के लिए एक लाख पैसंठ हजार करोड़ का पैकेज इस तरह घोषित कर रहे हैं जैसे किसी की लड़की की शादी में 100 रुपया कन्यादान डाल रहे हों। दूसरी तरफ नौ हजार करोड़ इकट्ठा करने के लिए नवरत्न कम्पनी का हिस्सा बेचा जा रहा है।
                   1990के बाद जो LPG का दौर ( Liberalization-Privatization-Globalization ) आया उसके बाद पूंजीवाद अपने असली रूप में सामने है। उसे अब कल्याणकारी राज्य के मुखौटे की जरूरत नही है। वो किसी के पास कुछ भी नही छोड़ देना चाहता। उसने लोगों के सपने छीन कर सेल लगा दी। अब बेहतर जिंदगी का सपना देखने की कीमत चुकानी पड़ती है। उसने राष्ट्रों की संप्रभुता छीन ली। अब उसे अपने लोगों के लिए फैसले लेने से पहले विश्व बैंक की अनुमति लेनी पड़ती है। उसने मजदूरों से इन्सान होने केवल हक ही नही अहसास भी छीन लिया। वो किसानो से उनकी जमीन छीन रहा है। वो राज्यों से असहमति का हक छीन रहा है। उसने लोगों की सारी सम्पत्ति चाहे वो सामूहिक रूप से राष्ट्र के पास हो या व्यक्तिगत हो छीन लेनी है। आज का पूंजीवाद पहले से ज्यादा नंगे रूप में सामने है। 

Monday, August 24, 2015

कॉर्पोरेट का इरादा केवल लूट करने का है।

            एक बात बहुत ही हास्यास्पद लगती है, और इसका कोई दूसरा लॉजिक कभी भी मेरी समझ में नही आया। प्राईवेट कंपनियां और कॉर्पोरेट जगत हमेशा पब्लिक सेक्टर के उद्योगों के निजीकरण की मांग करता है। इसके लिए वो तरह तरह के तर्क-कुतर्क करता है। परन्तु क्या हमारे देश में नए उद्योग लगाने पर पाबंदी है। जब कोई भी उद्योगपति नया उद्योग लगा सकता है तो उसे पब्लिक सेक्टर के उद्योग ही क्यों चाहिए ?
             लेकिन उसे पब्लिक सेक्टर के उद्योग ही चाहियें। क्योंकि ये उद्योग उसे कोडियों के भाव चाहियें। जनता के पैसे से बनाई गयी और जनता के पसीने से सींची गयी कंपनियां चाहियें मुफ्त के भाव। जब भी किसी सरकारी उद्योग का निजीकरण किया जाता है तो उसकी सही कीमत निकालने का नाटक किया जाता है। उसके लिए विशेषज्ञों की टीम बनाई जाती है। इस टीम में निजी रेटिंग एजेंसियों के लोग होते हैं जो उसकी कीमत इतनी कम लगाते हैं की वो उसकी सही कीमत के आसपास भी नही बैठती। इस सारे फर्जीवाड़े को बड़े शानदार ढंग से अंजाम दे दिया जाता है। सरकार और कम्पनी खरीदने वालों के बयान आते हैं की पूरी कीमत दी गयी है। अब साबित करते रहो की कीमत पूरी नही है। जब सरकार खुद चोर के साथ मिली हुई हो तो चोरी साबित करना बहुत मुश्किल होता है। सेंटूर होटल जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं। 
                दूसरा कारण जो पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों को खरीदने के लिए होता है वो है उस क्षेत्र से सरकारी प्रतियोगिता का समाप्त हो जाना और एकाधिकार कायम करना। पहले हमारे देश में एक MRTP एक्ट होता था जो किसी भी क्षेत्र में एकाधिकार को रोकने के लिए कदम उठाता था। अब उसे भी खत्म कर दिया गया। रेशा बनाने वाली इकलोती पब्लिक सेक्टर की कम्पनी IPCL को उसके ही प्रतिद्वंदी रिलायंस को बेच दिया गया। अब इस क्षेत्र में रिलायंस का लगभग एकाधिकार है। जो दूसरे छोटे खिलाडी हैं भी तो उन्हें हर मामले में रिलायंस का अनुकरण करना पड़ता है। 
                भारतीय कॉर्पोरेट सेक्टर लगभग हमेशा ही करों में हेराफेरी और कानून कायदों के दुरूपयोग के भरोसे रहा है। वह ईमानदारी से कोई उद्यम स्थापित करने और चलाने के बजाय सरकारी सम्पत्ति के लूट पर नजरें गड़ाए रहता है। इस निजी क्षेत्र को पब्लिक सेक्टर से ज्यादा कुशल और ज्यादा योग्य माना जाता है। लेकिन आज यही सेक्टर है जो थोड़ी सी प्रतिकूल बाजार अवस्था होते ही बैंकों के लोन की पेमेंट नही कर रहा है। लाखों के टैक्स बाकि के केसों को अदालती प्रावधानों का दुरूपयोग करके लटकाए हुए है। और इसमें उसे सरकार का पूरा सहयोग हासिल है। करीब 250000 कारखाने बंद कर चूका है और अब भी ज्यादा कुशल कहलाता है। अगर ये सेक्टर इतना ही कुशल है और पूरी कीमत देकर पब्लिक प्रॉपर्टी को खरीदना चाहता है तो उसे नए उद्योग लगाने चाहियें, इससे देश में निवेश भी बढ़ेगा और रोजगार और उत्पादन भी बढ़ेगा।