विकास के नेहरू मॉडल और मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में हमारे देश में पब्लिक सेक्टर की स्थापना हुई। लेकिन ये क्षेत्र कुछ लोगों की आँखों में खटकता रहा। लेकिन हैसियत ना होने के कारण वो दिल पर पत्थर रखे रहे। आहिस्ता आहिस्ता जब हैसियत बढ़ी तो उन्होंने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। जैसे जैसे उनकी हैसियत बढ़ती रही उनके सवाल भी मुखर होते रहे। सरकार केभृष्टाचार और भाई भतीजावाद के चलते पब्लिक सेक्टर के कुछ उद्योग घाटे में चलने लगे तो उनका हो-हल्ला और बढ़ गया। उन्होंने पुरे पब्लिक सेक्टर को सफेद हाथी बताना शुरू कर दिया। सरकार पर पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को ओने-पौने दामो में बेचने का दबाव बनाया जाने लगा। इसके लिए मुख्य तौर पर दो तर्क दिए जाने लगे।
१. सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सामाजिक सुरक्षा देना और कानून व्यवस्था बनाये रखना होता है।
२. घटे में चलने वाले पब्लिक सेक्टर के उद्योग सरकार और जनता पर बोझ हैं, इस बोझ से जितना जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाये उतना ही बेहतर होगा।
उसके बाद शुरू हुआ पब्लिक सैक्टर के उद्योगों का बेचना। ये उद्योग किसी भी सरकार और देश की जनता की पूंजी होते हैं उन्हें बोझ की तरह निपटाया जाने लगा। सरकार ने पहले देशी पूंजीपतियों और फिर विदेशी पूंजीपतियों को ये उद्योग लूटा दिए। इसके लिए सरकार ने एक फार्मूला बनाया जिसे कुछ लोग देश बेचने का फार्मूला भी कहते हैं। 26 -49 -74 -100 का फार्मूला।
जब भी किसी क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के हवाले करना होता तो सरकार कहती की केवल 26 % हिस्सेदारी बेचीं जा रही है। और वो भी पूंजी की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए। 26 % हिस्सेदारी खरीद कर कोई विदेशी कम्पनी हमारा क्या बिगाड़ लेगी।
उसके बाद 49 % हिस्सेदारी बेचने का फैसला कर लिया जाता। अबकी बार तर्क दिया जाता की हमारे पास 51 % हिस्सेदारी रहेगी। इसलिए मैनेजमेंट तो हमारी ही होगी। सो देश को चिंता करने की कोई जरूरत नही है।
तीसरा दौर 74 % का आता। इस पर पूंजी की कमी का रोना रोया जाता। बाहर से उन्नत तकनीक और बेहतर मैनेजमेंट आने की दुहाई दी जाती और ये भी कहा जाता की चूँकि हमारी हिस्सेदारी इसमें रहेगी इसलिए विदेशी कम्पनी मनमाने फैसले नही कर पायेगी।
अब अंतिम दौर आता 100 % हिस्सेदारी का यानि मुकम्मल तौर पर बेच देने का। अब कहा जाता की सारे फैसले तो व्ही कम्पनी ले रही है। सरकार को कोई फायदा नही हो रहा है इसलिए इसे बेच देते हैं और इस पैसे को दूसरे पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को मजबूत करने में लगा देते हैं। इससे दूसरे उद्योग अच्छा काम कर पाएंगे। लोगों को सांत्वना दी जाती। और इस फार्मूले के तहत आधा देश बेच दिया।
सरकार तर्क देती की गरीबों के लिए काम करने को पैसा चाहिए। ये पैसा गरीबी दूर करने की योजनाओं में लगाया जायेगा। सरकार का काम लोगों को सामाजिक सुरक्षा और आधारभूत सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है और सरकार अब उन पर ध्यान देगी।
लेकिन हुआ क्या ?
सरकार ने पहले सड़कों को बनाने का काम निजी क्षेत्र को दे दिया। लो भाई, सड़क बनाओ और टोल टैक्स वसूल करो। बहाना बनाया की सरकार के पास इतना पैसा नही है। उसके बाद स्कूलों को निजी हाथों में दिया जाने लगा। कोई नया स्कुल और कालेज बनाना सरकार ने बंद कर दिया। निजी कालेजों और युनिवर्सिटियों को बढ़ आ गयी। सरकारी हस्पतालों को प्राइवेट किया जाने लगा। एक एक करके जितनी भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली वस्तुएं थी सबसे सरकार ने अपना हाथ खिंच लिया। जो लोग कभी ये कहते थे की सरकार का काम व्यापार करना नही बल्कि लोगों को सुविधाएँ मुहैया करवाना होता है, अब कहने लगे की प्रयोग करने वाले को पैसा देना ही चाहिए ,यूजर्स पे का नारा कब आया मालूम ही नही चला।
दो दिन पहले सरकार ने इंडियन ऑइल का 10 % हिस्सा बेचने को बाजार में रख दिया। इंडियन ऑइल देश की नवरतन कम्पनी है और भारी मुनाफे में चलती है। सरकार का अनुमान है की इससे सरकार को करीब 9000 करोड़ रुपया मिल जायेगा। ये लोगों की प्रॉपर्टी है। सरकार को ऐसी क्या मजबूरी है जो उसे अपनी प्रॉपर्टी बेचनी पद रही है। और वो भी तब जब सरकार दावा कर रही है की उसने 2G की बोली लगाकर 2 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। और उसने कोयला खदानों की बोली लगाकर 3 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया है। दूसरे सारे टैक्स तो अपनी जगह हैं ही। एक तरफ प्रधानमंत्री बिहार के लिए एक लाख पैसंठ हजार करोड़ का पैकेज इस तरह घोषित कर रहे हैं जैसे किसी की लड़की की शादी में 100 रुपया कन्यादान डाल रहे हों। दूसरी तरफ नौ हजार करोड़ इकट्ठा करने के लिए नवरत्न कम्पनी का हिस्सा बेचा जा रहा है।
1990के बाद जो LPG का दौर ( Liberalization-Privatization-Globalization ) आया उसके बाद पूंजीवाद अपने असली रूप में सामने है। उसे अब कल्याणकारी राज्य के मुखौटे की जरूरत नही है। वो किसी के पास कुछ भी नही छोड़ देना चाहता। उसने लोगों के सपने छीन कर सेल लगा दी। अब बेहतर जिंदगी का सपना देखने की कीमत चुकानी पड़ती है। उसने राष्ट्रों की संप्रभुता छीन ली। अब उसे अपने लोगों के लिए फैसले लेने से पहले विश्व बैंक की अनुमति लेनी पड़ती है। उसने मजदूरों से इन्सान होने केवल हक ही नही अहसास भी छीन लिया। वो किसानो से उनकी जमीन छीन रहा है। वो राज्यों से असहमति का हक छीन रहा है। उसने लोगों की सारी सम्पत्ति चाहे वो सामूहिक रूप से राष्ट्र के पास हो या व्यक्तिगत हो छीन लेनी है। आज का पूंजीवाद पहले से ज्यादा नंगे रूप में सामने है।
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