2 सितंबर को होने वाली अखिल भारतीय हड़ताल की जिस तरह से तैयारियां हो रही हैं और जो खबरें आ रही हैं, उससे ये साफ हो गया है की ये भारत की अब तक की सबसे व्यापक हड़ताल होगी। इस तरह की व्यापक एकता इससे पहले भारतीय मजदूर आंदोलन में इससे पहले कभी नही देखी गयी। असल बात तो ये है की पिछले 25 सालों से भारत का मजदूर आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था जिससे आगे बढ़ने का रास्ता मिलना तो दूर की बात, अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहा था।
1980 के दशक में जब भारी आर्थिक संकट के बाद विकासशील देशों को IMF और विश्व बैंक के पास सहायता के लिए जाना पड़ा तो उस सहायता पैकेज के साथ कुछ शर्तें भी नत्थी हो कर आई। इन शर्तों में निजीकरण की शर्त प्रमुख रूप से शामिल थी। सभी सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के निजीकरण का सिलसिला शुरू किया। इसके साथ ही श्रम कानूनो में छूट दी जाने लगी।
उसके बाद 1991 में आर्थिक सुधारों का दौर आया। इसमें निजीकरण के साथ ही वैश्वीकरण और उदारीकरण भी शामिल था। सरकार ने आर्थिक पुनर्संगठन के साथ ही SAP ( Structural Adjustment Programme ) शुरू किया। इसमें सभी तरह के उद्योगों के मैनेजमेंट बोर्ड में निजी क्षेत्र के लोगों को भरा जाने लगा। इस प्रोग्राम ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी में बढ़ौतरी की। साथ की रोजगार के क्षेत्र में स्थाई श्रमिकों की जगह ठेकेदारी प्रथा, अस्थाई मजदूर और पार्ट टाइम मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। बड़े पैमाने पर काम का आउटसोर्सिंग किया जाने लगा। इससे पब्लिक सैक्टर के उद्योगों में ट्रेड यूनियनों पर अस्तित्व का संकट आकर खड़ा हो गया।
इसके बाद उद्योगों में ट्रेड यूनियनों की बारगेनिंग पावर ( मोलभाव की ताकत ) घटने लगी। इसका प्रभाव ये हुआ की मजदूरों का विश्वास ट्रेड यूनियनों पर कम होने लगा। दूसरी तरफ उदारीकरण के समर्थक देश के नौजवानो सब्जबाग दिखा रहे थे। उन्हें विकास के झूठे माडल दिखाए जाने लगे। एक दौर ऐसा भी था जब आईटी क्षेत्र और मार्केटिंग के क्षेत्र में नौजवानो को काम भी मिला। इन क्षेत्रों में भले ही कोई श्रम कानून लागु नही थे लेकिन वेतन का स्तर ऊँचा था। नई पीढ़ी को उसमे ही रास्ता नजर आने लगा। लेकिन इसका बहुत जल्दी ही अंत दिखाई देने लगा। जिस बड़े पैमाने पर नए बेरोजगार कतारों में शामिल हो रहे थे, और जिस बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां जा रही थी उससे संकट बढ़ने लगा।
उससे निपटने के लिए वामपन्थी ट्रेड यूनियनों की पहल पर NCC ( National Compagain Committee ) की स्थापना हुई। लेकिन सभी बड़ी ट्रेड यूनियनों के इस साझा मंच से भारतीय मजदूर संघ और इंटुक अलग रह गयी। उन्हें अभी तक सरकारों के आश्वासन पर भरोसा था। साथ ही शासन में रहने वाली दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी का उन पर सांगठनिक प्रभाव भी था। इस दौरान उदारीकरण की नीतियों के विरोध में कई हड़तालें और आंदोलन हुए। लेकिन हर बार कभी इंटुक और कभी भारतीय मजदूर संघ उससे अलग रहे। वामपन्थी ट्रेड यूनियनें इस अभियान को जारी रखे रही। एक समय ऐसा आया की इंटुक और भारतीय मजदूर संघ से संबंधित यूनियनों के मजदूरों ने अपनी एफिलिएशन से अलग जाकर वामपंथी आंदोलनों में शिरकत की। उसके बाद इन यूनियन के नेताओं में पुनर्विचार का दौर शुरू हुआ। साथ ही अब तक सरकार के सभी आश्वासनों और दावों की हवा निकल चुकी थी। पितृ पार्टियों से मजदूर संगठनो के मतभेद गहराने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा और भारतीय मजदूर संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगडी का विवाद सबको मालूम है।
अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग एक महागठबंधन का निर्माण कर चुके थे। इस गठबंधन में भारतीय मजदूर संघ और इंटुक दोनों से संबंधित यूनियन भी शामिल थी। इस महागठबंधन की कार्यवाहियां कई जगह विजयी हस्तक्षेप करने में कामयाब रही। अब मजदूर संगठनो ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की लामबंदी शुरू की। कई ऐसे क्षेत्र जिनमे आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाओं से लेकर निर्माण मजदूरों तक, बड़ी संख्या में मजदूर लामबंद हुए। संगठित क्षेत्र में यूनियनों को जो नुकशान उठाना पड़ा था उसकी भरपाई इससे हो गयी। मजदूर संगठनो की कतारें बढ़ने लगी और उनका प्रतिरोध भी बढ़ने लगा। एकता के कारण मजदूरों का विश्वास इन संगठनो पर बढ़ा और उनमे नए होंसले का संचार हुआ।
इसके बाद आई ये 2 सितंबर की अखिल भारतीय हड़ताल। केन्द्रीय मजदूर संगठनो की भागीदारी के मामले में इस हड़ताल को अब तक के सबसे व्यापक संगठनो का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही विभिन्न छात्र और नौजवान संगठनो से लेकर, किसानो और महिलाओं के संगठनो तक ने इस हड़ताल में शामिल होने की घोषणाएँ की हैं। संगठनो के मामले में इतना व्यापक समर्थन इससे पहले कभी देखने को नही मिला। जाहिर है की ये शायद अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हो। इस हड़ताल को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अलावा सभी पब्लिक सैक्टर के उद्योगों के संगठनो के साथ साथ बीमा और बैंक जैसे वित्तीय क्षेत्रों की सभी यूनियन भी शामिल हैं। इस हड़ताल को राज्य सरकारों की बिजली और यातायात जैसी लगभग सभी यूनियनों का समर्थन भी प्राप्त है।
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