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Thursday, September 17, 2015

Vyang - बिजनेस फ्रेंडली राज्य बनाने पर सुझाव

पिछले दिनों वर्ल्ड बैंक ने एक लिस्ट जारी की है जिसमे भारत में सबसे आसानी से बिजनेस किये जाने वाले राज्यों की सूचि जारी की है। मुझे बड़ा दुःख हुआ जब मैंने देखा की हमारे राज्य का नंबर तो झारखण्ड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े हुए राज्यों के भी बाद आता है। सो मैंने इन सभी राज्यों में मिलने वाली सुविधाओं और सहूलियतों का गहन अध्धयन करने के बाद कुछ सुझाव तैयार किये हैं जिन्हे अपनाकर दूसरे राज्य भी इस सूची में अपना नंबर सुधार सकते हैं। ये सारे सुझाव एकदम मुफ्त में और बिना मांगे दिए जा रहे हैं और मैं उम्मीद करता हूँ की इन्हे अपनाने वाले राज्य मेरी सेवाओं का सम्मान करेंगे।
सिंगल विंडो स्कीम ------- 
                                       जब कोई आदमी किसी राज्य में बिजनेस शुरू करना चाहता है तो उसे अलग अलग कई विभागों से मंजूरी लेनी पड़ती है। सभी विभागों के अधिकारी काम करने के लिए सीधे सीधे पैसे लेने की बजाय दलालों की मार्फत पैसे लेते हैं। उन सभी अधिकारीयों के दलालों को ढूंढना काफी मुस्किल भी होता है और इसमें समय भी बहुत लगता है। इसलिए सरकार को एक सिंगल विंडो स्कीम पेश करनी चाहिए जिसमे एक ही दलाल सभी विभागों के अधिकारीयों का पैसा ले ले और बाद में अधिकारी और विभाग की हैसियत के हिसाब से बंटवारा कर दे। विकसित राज्यों में इन दलालों को सचिवालय के बाहर बैठने के लिए जगह दी गयी है जिससे इन्हे ढूंढने में कोई दिक्क़त नही हो। इस अनुभव का फायदा दूसरे राज्यों द्वारा भी उठाया जा सकता है।
खनन उद्योग माफिया के भरोसे --------
                                                          सरकार को ये पता लगाने के लिए की कहां  कहां खनन किया जा सकता है और कैसे किया जा सकता है बहुत खर्चा करना पड़ता है। फिर भी अधिकारीयों के भरोसे ये काम ठीक से नही हो पाता है। इसलिए इसमें निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और पुरे खनन क्षेत्र को माफिया के भरोसे छोड़ देना चाहिए। ये साबित हो चूका है की माफिया खनन का विकास ज्यादा तेजी से करता है। सभी बिजनेस फ्रेंडली राज्यों ने खनन को माफिया के ही भरोसे छोड़ा हुआ है। अधिकारीयों का काम केवल उनसे पैसे लेकर ऊपर  तक पहुंचाना होता है। इससे सरकार का समय भी बचता है और नए नए क्षेत्रों में खनन का विकास भी तेजी से होता है।
व्हिसल ब्लोवरों पर लगाम --------
                                                   हर राज्य में कुछ विकास विरोधी लोग होते हैं जो सरकार और बिजनेस मैन के काम में अड़ंगा लगाते रहते हैं और अपने आप को व्हिसल ब्लोवर कहते हैं। विकास के हित में इन पर लगाम लगाई जानी बहुत जरूरी है। उनमे से दो-तीन को मार दिया जाये तो बाकि को धमकाना आसान हो जायेगा। हर विकास शील राज्य ने यही तरीका अपनाया है। उसके बाद ये समस्या धीरे धीरे कम हो जाती है। पुलिस को आदेश दिए जाएँ की अगर कोई व्हिसल ब्लोवर धमकी की शिकायत लेकर पुलिस के पास आये तो उसी पर ब्लैकमेल का मुकदमा बना दिया जाये।
श्रम विभाग को नया काम --------
                                                किसी भी राज्य में उद्योग के विकास के लिए ये जरूरी है की मजदूर कानूनो को संविधान के बाहर मान लिया जाये। हर बिजनेसमैन को ये छूट दी जाये की वो कितनी ही देर काम करवाये और कितना ही वेतन दे। इसके लिए सबसे अच्छा तरीका ये है की राज्य में ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दिया जाये और मजदूर कानूनों को बदलने का झंझट लेने की बजाए उन पर ध्यान ना देने का रास्ता अपनाया जाये। यूनियनों पर प्रतिबंध लगा दिया जाये और श्रम विभाग का काम केवल ठेकेदारों का पता लगाकर उनसे पैसे इक्क्ठे करने तक सिमित कर दिया जाये। वैसे ज्यादा विकसित राज्यों में तो ये काम उद्योगपतियों के जिम्मे ही है की वो हर महीने ठेकेदारों के भुगतान में से पैसे काटकर विभाग में जमा करा दे। अब जब उनको प्रोविडेंट फंड और ईएसआई जमा करवाने से छुटकारा मिल गया है तो वो इतना काम तो राज्य की भलाई में कर ही सकते हैं।
टैक्स सुधारों को लागु करना ------
                                                   टैक्स सुधारों का मुद्दा इसमें काफी मायने रखता है। सरकार को पिछले दरवाजे से जो टैक्स आता है उसकी प्रगति पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए। बाकि खजाने में कितना टैक्स आता है उस की ज्यादा चिंता नही करनी चाहिए। उसमे अगर कमी आती है तो पट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाकर पूरा किया जा सकता है। पिछले दरवाजे से टैक्स देने वाले व्यापारियों को बही खातेचैक करवाने से छूट दी जाये। इससे जो सफेद धन को काला करने की प्रकिर्या है उसमे तेजी आएगी। इन टैक्स सुधारों को लागु करना बिजनेस फ्रेंडली राज्य बनाने के लिए बहुत जरूरी है।
विकास के प्रचार में तेजी -----
                                               इस उपलब्धि के लिए जो काम सबसे जरूरी है वो ये की विकास के प्रचार में तेजी लाई जाये। चाहे आदिवासियों के विस्थापन का सवाल हो, चाहे किसानो की जमीन छीनने का काम हो या पर्यावरण का सवाल हो, इनका विरोध करने वाले हर आदमी और संस्था को विकास विरोधी और बाद में देशद्रोही घोषित कर दिया जाये। उनके लाइसेंस रद्द कर दिए जाएँ और मीडिया हाउसों को इसकी खबरों पर बैन लगाने के आदेश दिए जाएँ। इन लोगों पर हमला इतना तेज किया जाये की जब तक लोगों को सच्चाई समझ में आये तब तक काम पूरा हो चुका हो।
                    ये कुछ सुझाव बहुत छानबीन और विचार करने के बाद तैयार किये गए हैं और राज्य इनसे लाभ उठा सकते हैं।

Friday, August 28, 2015

क्या ये भारतीय मजदूर आंदोलन का सक्रांति-काल है।


bannar of all india strike sfi-dyfi photo of a procession
2 सितंबर को होने वाली अखिल भारतीय हड़ताल की जिस तरह से तैयारियां हो रही हैं और जो खबरें आ रही हैं, उससे ये साफ हो गया है की ये भारत की अब तक की सबसे व्यापक हड़ताल होगी। इस तरह की व्यापक एकता इससे पहले भारतीय मजदूर आंदोलन में इससे पहले कभी नही देखी गयी। असल बात तो ये है की पिछले 25 सालों से भारत का मजदूर आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था जिससे आगे बढ़ने का रास्ता मिलना तो दूर की बात, अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहा था।
                1980 के दशक में जब भारी आर्थिक संकट के बाद विकासशील देशों को IMF और विश्व बैंक के पास सहायता के लिए जाना पड़ा तो उस सहायता पैकेज के साथ कुछ शर्तें भी नत्थी हो कर आई। इन शर्तों में निजीकरण की शर्त प्रमुख रूप से शामिल थी। सभी सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के निजीकरण का सिलसिला शुरू किया। इसके साथ ही श्रम कानूनो में छूट दी जाने लगी।
      
man holding play card saying imf-trapping countries in debt
   उसके बाद 1991 में आर्थिक सुधारों का दौर आया। इसमें निजीकरण के साथ ही वैश्वीकरण और उदारीकरण भी शामिल था। सरकार ने आर्थिक पुनर्संगठन के साथ ही SAP ( Structural Adjustment Programme ) शुरू किया। इसमें सभी तरह के उद्योगों के मैनेजमेंट बोर्ड में निजी क्षेत्र के लोगों को भरा जाने लगा। इस प्रोग्राम ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी में बढ़ौतरी की। साथ की रोजगार के क्षेत्र में स्थाई श्रमिकों की जगह ठेकेदारी प्रथा, अस्थाई मजदूर और पार्ट टाइम मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। बड़े पैमाने पर काम का आउटसोर्सिंग किया जाने लगा। इससे पब्लिक सैक्टर के उद्योगों में ट्रेड यूनियनों पर अस्तित्व का संकट आकर खड़ा हो गया।
                   इसके बाद उद्योगों में ट्रेड यूनियनों की बारगेनिंग पावर ( मोलभाव की ताकत ) घटने लगी। इसका प्रभाव ये हुआ की मजदूरों का विश्वास ट्रेड यूनियनों पर कम होने लगा। दूसरी तरफ उदारीकरण के समर्थक देश के नौजवानो  सब्जबाग दिखा रहे थे। उन्हें विकास के झूठे माडल दिखाए  जाने लगे। एक दौर ऐसा भी था जब आईटी क्षेत्र और मार्केटिंग के क्षेत्र में नौजवानो को काम भी मिला। इन क्षेत्रों में भले ही कोई श्रम कानून लागु नही थे लेकिन वेतन का स्तर ऊँचा था। नई पीढ़ी को उसमे ही रास्ता नजर आने लगा। लेकिन इसका बहुत जल्दी ही अंत दिखाई देने लगा। जिस बड़े पैमाने पर नए बेरोजगार कतारों में शामिल हो रहे थे, और जिस बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां जा रही थी उससे संकट बढ़ने लगा।
                 
wemans procession of citu
उससे निपटने के लिए वामपन्थी ट्रेड यूनियनों की पहल पर NCC ( National Compagain Committee ) की स्थापना हुई। लेकिन सभी बड़ी ट्रेड यूनियनों के इस साझा मंच से भारतीय मजदूर संघ और इंटुक अलग रह गयी। उन्हें अभी तक सरकारों के आश्वासन पर भरोसा था। साथ ही शासन में रहने वाली दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी का उन पर सांगठनिक प्रभाव भी था। इस दौरान उदारीकरण की नीतियों के विरोध में कई हड़तालें और आंदोलन हुए। लेकिन हर बार कभी इंटुक और कभी भारतीय मजदूर संघ उससे अलग रहे। वामपन्थी ट्रेड यूनियनें इस अभियान को जारी रखे रही। एक समय ऐसा आया की इंटुक और भारतीय मजदूर संघ से संबंधित यूनियनों के मजदूरों ने अपनी एफिलिएशन से अलग जाकर वामपंथी आंदोलनों में शिरकत की। उसके बाद इन यूनियन के नेताओं में पुनर्विचार का दौर शुरू हुआ। साथ ही अब तक सरकार के सभी आश्वासनों और दावों की हवा निकल चुकी थी। पितृ पार्टियों से मजदूर संगठनो के मतभेद गहराने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा और भारतीय मजदूर संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगडी का विवाद सबको मालूम है।
                 
dharna of labour at railway track
  अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग एक महागठबंधन का निर्माण कर चुके थे। इस गठबंधन में भारतीय मजदूर संघ और इंटुक दोनों से संबंधित यूनियन भी शामिल थी। इस महागठबंधन की कार्यवाहियां कई जगह विजयी हस्तक्षेप करने में कामयाब रही। अब मजदूर संगठनो ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की लामबंदी शुरू की। कई ऐसे क्षेत्र जिनमे आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाओं से लेकर निर्माण मजदूरों तक,  बड़ी संख्या में मजदूर लामबंद हुए। संगठित क्षेत्र में यूनियनों को जो नुकशान उठाना पड़ा था उसकी भरपाई इससे हो गयी। मजदूर संगठनो की कतारें बढ़ने लगी और उनका प्रतिरोध भी बढ़ने लगा।   एकता के कारण मजदूरों का विश्वास इन संगठनो पर बढ़ा और उनमे नए होंसले का संचार हुआ।
                     
communist party logo of hansiya and hatouda
  इसके बाद आई ये 2 सितंबर की अखिल भारतीय हड़ताल। केन्द्रीय मजदूर संगठनो की भागीदारी के मामले में इस हड़ताल को अब तक के सबसे व्यापक संगठनो का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही विभिन्न छात्र और नौजवान संगठनो से लेकर, किसानो और महिलाओं के संगठनो तक ने इस हड़ताल में शामिल होने की घोषणाएँ की हैं। संगठनो के मामले में इतना व्यापक समर्थन इससे पहले कभी देखने को नही मिला। जाहिर है की ये शायद अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हो। इस हड़ताल को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अलावा सभी पब्लिक सैक्टर के उद्योगों के संगठनो के साथ साथ बीमा और बैंक जैसे वित्तीय क्षेत्रों की सभी यूनियन भी शामिल हैं। इस हड़ताल को राज्य सरकारों की बिजली और यातायात जैसी लगभग सभी यूनियनों का समर्थन भी प्राप्त है।
                   
            इसलिए हो सकता है की ये हड़ताल भारतीय मजदूर आंदोलन का नया सक्रांति-काल साबित हो।
                             

Thursday, June 25, 2015

मेरा पड़ौसी और आपातकाल

गप्पी -- मेरा एक पड़ौसी एकदम झल्लाया हुआ मेरे पास आया और बोला, " ये क्या हो रहा है भई , जो भी चैनल लगाओ एक ही रट लगी हुई है, आपातकाल, आपातकाल। मैं पूछना चाहता हूँ की आखिर ये आपातकाल आखिर है क्या बला। इससे ऐसा क्या हो जायेगा जो लोगों को इस तरह डराया  जा रहा है। अच्छा तुम बताओ की आपातकाल से क्या हो जाता है। "

" देखो आपातकाल का मतलब होता है की उसमे  सारे नागरिक अधिकार छीन लिए जाते हैं। " मैंने उसे समझाने का प्रयास किया। 

" क्या अभी आपातकाल है ?" उसने पूछा। 

" कैसी बात करते हो यार। अभी कौन कहता है की आपातकाल है। " मैंने कहा। 

" अच्छा, तो अब तुम्हे कौन सा अधिकार है। " उसने दोनों हाथ कमर पर रख लिए। 

" देखो, नागरिक अधिकारों का मतलब होता है वो बड़े बड़े अधिकार जैसे भाषण देने का अधिकार ओर…… " मैंने बताना शुरू किया तो उसने मुझे बीच में ही रोककर पूछा, " तुमने कभी भाषण दिया है ?"

"नही।"  मैंने कहा . 

" तो इस अधिकार का तुम क्या करोगे। अच्छा ये बताओ की अगर तुम बीमार हो और तुम्हारी जेब में पैसे न हों तो क्या तुम इलाज करवा सकते हो ?" उसने अपनी बात पूरी की। 

" बिना पैसे तो इलाज नही हो सकता। " मैंने कहा। 

" अगर पुलिस तुम्हे पकड़ने आये तो क्या तुम उससे पूछ सकते हो की मेरा वारंट है या नही। "

" वैसे कोई पूछता नही क्योंकि इसमें पिटने का खतरा रहता है। " मैंने कहा। 

" चलो जाने दो, ये बताओ की क्या तुम किसी बड़े आदमी को जिसने तुम्हे मारने की धमकी दी हो, बिना किसी सिफारिश या रिश्वत के उसके खिलाफ FIR दर्ज करवा सकते हो ?" उसने अगला सवाल पूछा। 

" नही करवा सकता। " मैं ढीला हो कर सच पर उत्तर आया। 

" क्या तुम अपने  बच्चो को अपनी मर्जी के स्कूल या विषय में पढ़ा  सकते हो, बिना पैसे। " 

" नही पढ़ा सकता। "

" अच्छा, कुछ बड़े अधिकारों के बारे में पूछता हूँ। क्या तुम बिना पुलिस से इजाजत लिए धरना दे सकते हो ?"

" नही दे सकता। " मैंने कहा। 

" अगर तुम्हारे पास काम नही है तो क्या तुम काम के अधिकार से परिवार का पेट भर सकते हो। "  वो अब हावी होने लगा था। 

" बिना काम परिवार कैसे  पाला जा सकता है। " मैंने जवाब दिया। 

" अगर कारखाने का मालिक नही चाहे तो क्या तुम वहां यूनियन बना सकते हो ?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा। 

" नही, लेबर इन्स्पेक्टर अगले ही दिन मालिक को बता देता है की फलां आदमी ने यूनियन बनाने की दरख्वास्त दी है। " मैंने हकीकत के हिसाब से जवाब दिया। 

" तो तुम ये बताओ की तुम्हारे लिए आपातकाल हटा कब था। फालतू शोर मचा रक्खा है। " उसने कहा और बिना मेरे जवाब का इन्तजार किये चला गया।


खबरी -- लेकिन आपातकाल नही है इसलिए तुम ये सब कह सकते हो।