बिहार चुनाव के एग्जिट पोल आने शुरू हुए, और उनमे लगभग सभी कांटे की टककर दिखाने लगे और कुछ तो बीजेपी गठबंधन को आगे दिखाने लगे तो सबसे ज्यादा असहमत उन चैनलों के एंकर ही लग रहे थे। वो एग्जिट पोल प्रसारित जरूर कर रहे थे परन्तु उनके चेहरे पर इन पोल के परिणामो से असहमति साफ नजर आ रही थी। इसका कारण ये था की धरातल से जो खबरें उन्हें मिल रही थी वो इनसे मेल नही खा रही थी। उनमे से बहुत से रिपोर्टर और एंकर या तो खुद बिहार से थे या रिपोर्टिंग के लिए बिहार गए थे। उन्होंने वहां महागठबंधन के पक्ष में एक स्पष्ट माहोल देखा था इसलिए उनका दिमाग इन सर्वे रिजल्ट को स्वीकार नही कर पा रहा था। वोटों की गिनती से पहले NDTV पर प्रसारित किये गए हंसा रिसर्च के सर्वे में बीजेपी गठबंधन को आगे बताया गया। ये प्रोग्राम प्रसारित करते समय एंकरिंग रवीश कुमार कर रहे थे, जिनकी निजी राय के अनुसार महागठबंधन बिहार में 160 सीटें जीतने जा रहा था। जहां तक NDTV का सवाल है उसकी प्रतिष्ठा इतनी तो जरूर है की कोई ये नही मानता की ये सर्वे उसने जानबूझकर बीजेपी के पक्ष में दिखाया है। फिर क्या हुआ। बिहार चुनाव में एग्जिट पोल करने वाली ज्यादातर संस्थाएं वहां के असल हालात को क्यों नही पकड़ पाई। सबके परिणाम गलत क्यों साबित हुए ?
मुझे लगता है की एग्जिट पोल करने की जो पध्दति है उसमे कुछ गंभीर किस्म की खामियां हैं। ये खामी उनमे हमेशा शामिल रहती है भले ही किसी बार ये पोल सही भी क्यों ना साबित हुए हों। उनका तरीका भले ही कितना ही वैज्ञानिक होने का दावा करे, भारत जैसे देश में उसको एकदम सटीक होने के लिए अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना पड़ेगा। इस बात को कई सर्वे करने वाले लोग भी मानते हैं की उनके सैंपल लेते वक्त एक अपर-क्लास बायस रहता है कम या ज्यादा। लेकिन इसके अलावा भी कई चीजें हैं जो उनके परिणामो को गलत दिशा में ले जाती हैं।
इनमे एक चीज जो सबसे ज्यादा इनके परिणामो को प्रभावित करती है वो हर समाज और समूह द्वारा किये गए वोटिंग प्रतिशत की जानकारी ना होना है। हर संस्था अपने पोल को ज्यादा से ज्यादा सटीक और वैज्ञानिक बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास करती है। वो ये भी देखती है की सर्वे किये जाने वाले इलाके में किस जाती समूह का वोट प्रतिशत कितना है, और इस बात की पूरी कोशिश भी करती है की उनके सैंपल उसी हिसाब से लिए जाएँ। लेकिन हमारे यहां अलग अलग समूहों का वोट डालने का प्रतिशत हमेशा अलग अलग होता है। जिस तरह शहर और गांवों के वोटिंग प्रतिशत में फर्क होता है, उसी तरह अलग अलग समूहों के वोटिंग प्रतिशत में भी फर्क होता है। और ये फर्क कभी कभी बहुत ही निर्णायक होता है। लेकिन इसकी सुचना उसी दिन सर्वे एजेंसी के पास नही होती। इस तरह की सूचनाएं आने में समय लगता है। इसलिए सर्वे करने वाली एजेंसी उसे समान मानकर नतीजे निकाल देती है जो परिणामो को एकदम बदल देते हैं। ये वैसा ही है जैसे बिहार चुनाव की गिनती शुरू होने के तुरंत बाद पोस्टल बैलेट की गिनती ने एक घंटा पुरे देश को नचाकर रख दिया था और वो बीजेपी की एकतरफा जीत दिखा रहे थे। डाक से वोट भेजने वाले मतदाताओं का समूह बिहार के कुल मतदाताओं से एकदम विपरीत वोट कर रहा था।
दूसरा सबसे बड़ा कारण ये है की गरीब और अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग सैम्पल लेने वाले आदमी को सही बात नही बताते। मेरा खुद का अनुभव है की एक बार रोज मेरे साथ रहने वाले एक अनुसूचित जाति के आदमी ने मुझे उसके द्वारा दी जाने वाली वोट के बारे में गलत सुचना दी थी। सही सम्पलिंग के लिए सर्वे करने वाली संस्थाओं को उसी समूह या जाति के आदमी का इस्तेमाल करना पड़ेगा वरना उसमे गलत सुचना मिलने की पूरी पूरी संभावना हैं।
हमारा समाज एक बहुत ही जटिल समाज है। इसमें सैंपल के आधार पर किये जाने वाले सर्वे के लिए एकदम वैज्ञानिक और सटीक तरीके की खोज करना बहुत ही दुरूह काम है। अभी इसमें पता नही कितने सुधारों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए बिहार चुनाव के एग्जिट पोल करने वाले चैनल गलत साबित हुए।
मुझे लगता है की एग्जिट पोल करने की जो पध्दति है उसमे कुछ गंभीर किस्म की खामियां हैं। ये खामी उनमे हमेशा शामिल रहती है भले ही किसी बार ये पोल सही भी क्यों ना साबित हुए हों। उनका तरीका भले ही कितना ही वैज्ञानिक होने का दावा करे, भारत जैसे देश में उसको एकदम सटीक होने के लिए अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना पड़ेगा। इस बात को कई सर्वे करने वाले लोग भी मानते हैं की उनके सैंपल लेते वक्त एक अपर-क्लास बायस रहता है कम या ज्यादा। लेकिन इसके अलावा भी कई चीजें हैं जो उनके परिणामो को गलत दिशा में ले जाती हैं।
इनमे एक चीज जो सबसे ज्यादा इनके परिणामो को प्रभावित करती है वो हर समाज और समूह द्वारा किये गए वोटिंग प्रतिशत की जानकारी ना होना है। हर संस्था अपने पोल को ज्यादा से ज्यादा सटीक और वैज्ञानिक बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास करती है। वो ये भी देखती है की सर्वे किये जाने वाले इलाके में किस जाती समूह का वोट प्रतिशत कितना है, और इस बात की पूरी कोशिश भी करती है की उनके सैंपल उसी हिसाब से लिए जाएँ। लेकिन हमारे यहां अलग अलग समूहों का वोट डालने का प्रतिशत हमेशा अलग अलग होता है। जिस तरह शहर और गांवों के वोटिंग प्रतिशत में फर्क होता है, उसी तरह अलग अलग समूहों के वोटिंग प्रतिशत में भी फर्क होता है। और ये फर्क कभी कभी बहुत ही निर्णायक होता है। लेकिन इसकी सुचना उसी दिन सर्वे एजेंसी के पास नही होती। इस तरह की सूचनाएं आने में समय लगता है। इसलिए सर्वे करने वाली एजेंसी उसे समान मानकर नतीजे निकाल देती है जो परिणामो को एकदम बदल देते हैं। ये वैसा ही है जैसे बिहार चुनाव की गिनती शुरू होने के तुरंत बाद पोस्टल बैलेट की गिनती ने एक घंटा पुरे देश को नचाकर रख दिया था और वो बीजेपी की एकतरफा जीत दिखा रहे थे। डाक से वोट भेजने वाले मतदाताओं का समूह बिहार के कुल मतदाताओं से एकदम विपरीत वोट कर रहा था।
दूसरा सबसे बड़ा कारण ये है की गरीब और अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग सैम्पल लेने वाले आदमी को सही बात नही बताते। मेरा खुद का अनुभव है की एक बार रोज मेरे साथ रहने वाले एक अनुसूचित जाति के आदमी ने मुझे उसके द्वारा दी जाने वाली वोट के बारे में गलत सुचना दी थी। सही सम्पलिंग के लिए सर्वे करने वाली संस्थाओं को उसी समूह या जाति के आदमी का इस्तेमाल करना पड़ेगा वरना उसमे गलत सुचना मिलने की पूरी पूरी संभावना हैं।
हमारा समाज एक बहुत ही जटिल समाज है। इसमें सैंपल के आधार पर किये जाने वाले सर्वे के लिए एकदम वैज्ञानिक और सटीक तरीके की खोज करना बहुत ही दुरूह काम है। अभी इसमें पता नही कितने सुधारों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए बिहार चुनाव के एग्जिट पोल करने वाले चैनल गलत साबित हुए।
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