पिछले कुछ समय से राज्य सभा के अधिकारों पर बहस शुरू हो गयी है। ये बहस नई चुन कर आई हुई सरकार द्वारा बहुमत ना होने के चलते राज्य सभा से अपने संविधान संशोधन बिल पास ना करवा सकने के चलते शुरू हुई है। वित्त मंत्री ने भूमि बिल और GST बिल के राज्य सभा में अटक जाने के कारण बयान देते हुए कहा की बिना चुने हुए लोग, चुने हुए लोगों के काम को अटका रहे हैं और ये लोकतंत्र के लिए सही नही है। उसके बाद कई लोगों ने इस पर अपनी बात कहि है। इसमें अभी-अभी ताजा उदाहरण बीजू जनता दल के सांसद जय पांडा के इस संदर्भ में ताजा लिखे लेख का है जिसमे उसने भी लगभग अरुण जेटली की राय का लगभग समर्थन किया है। इस पूरी पृष्ठ भूमि में इस सवाल की एक विस्तृत छानबीन की जरूरत है।
संविधान की व्यवस्था --
संविधान में राज्य सभा को कुछ मामलों में लोकसभा के बराबर के अधिकार के अधिकार दिए गए हैं और कुछ मामलों में लोकसभा को अबाधित अधिकार दिए गए हैं। बजट को पास करवाने के लिए और किसी भी प्रकार के मनी बिल के संदर्भ में किसी भी बिल को राज्य सभा में पास करवाने की कोई जरूरत नही है। इस मामले में लोकसभा को पूर्ण रूप से अकेले ही अधिकृत किया गया है। लेकिन हमारे संविधान के संघीय ढांचे को देखते हुए संविधान संशोधन के मामले में और दूसरे मामलों में राज्य सभा को वो सभी अधिकार हासिल हैं जो लोकसभा को हासिल हैं। राज्य सभा राज्यों द्वारा चुने गए सदस्यों सदन है और लगभग राज्यों की काउन्सिल की तरह काम करती है। इसलिए संविधान के संघीय ढांचे को बनाये रखने के लिए उसे ये अधिकार दिए गए हैं। राज्य सभा के लोग कोई बिना चुनाव के आये हुए या नामित किये हुए नही हैं। फर्क केवल इतना है की ये लोग लोकसभा सदस्यों की तरह सीधे चुन कर आने की बजाए राज्य विधान सभाओं में लोगों द्वारा चुने गए, लोगों द्वारा चुने गए हैं।
सीधे चुनाव का सवाल -
ये बात की राज्य सभा के सदस्य लोगों का सीधा प्रतिनिधित्व नही करते, सीधे रूप में सही होने के बावजूद दूसरे रूप में सही नही है। राज्य सभा के सदस्य विधान सभाओं के जिन सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं वो सदस्य भी लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं। लेकिन राज्य सभा का चुनाव लोकसभा द्वारा एकसाथ नही होता है बल्कि हर दो साल बाद इसके एक तिहाई सदस्यों का चुनाव होता है। इसलिए अगर इन दो सालों में किसी विधान सभा के चुनाव हुए हों ओर उसमे पार्टियों की स्थिति में बदलाव आया हो तो उसका सीधा असर इस चुनाव पर पड़ता है और नए सदस्यों के हिसाब से लोग चुने जाते हैं। लोकसभा के चुनाव में एक साथ सभी सदस्य सीधे लोगों द्वारा चुने जाते हैं इसलिए उसे सीधा लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन माना जाता है। इसलिए ये मांग उठाई जा रही है की उसे अबाधित अधिकार दिए जाएँ। लेकिन इसमें इस बात का खतरा भी रहता है की लोकसभा चुनाव में लोग किसी तात्कालिक घटना, सहानुभूति के आधार और किसी लहर के चलते भी चुन कर आ सकते हैं। और इस तरह चुन कर आये हुए लोग जल्दबाजी में संविधान में कोई ऐसा परिवर्तन या संशोधन कर सकते हैं जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। संविधान निर्माताओं के ध्यान में ये बात भी रही होगी और इसीलिए उन्होंने कानून बनाने और संविधान संशोधन करने जैसे मामलों में राज्य सभा को भी बराबर के अधिकार दिए ताकि इस तरह की चीजों को रोका जा सके।
लोकसभा और लोक-प्रतिनिधित्व ----
हमारे देश में लोकसभा का चुनाव जिस तरीके से होता है उसमे ये कतई जरूरी नही है की लोकसभा के चुने हुए सदस्य लोगों के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हों। हमारी चुनाव प्रणाली के अनुसार तो 25 % वोट लेने वाली पार्टी भी लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर सकती है। उसके आलावा कोई ऐसी पार्टी भी सरकार में पहुंच सकती है जो देश के किसी एक क्षेत्र जैसे उत्तर या दक्षिण में ही प्रभाव रखती हो। इस हालात में केवल लोकसभा को सारी शक्तियां देना देश के संघीय ढांचे और बहुमत की राय के खिलाफ जा सकती हैं। इसलिए ऐसे मामलों में दोनों सदनों को समान अधिकार एक दूरदर्शी फैसला था।
लोकमहत्त्व के काम और राज्य सभा ---
दूसरा सवाल ये है की क्या राज्य सभा सचमुच में लोक महत्त्व के बिलों को रोकने का साधन बन गयी है ? अभी जो पार्टी सत्ता में है वो अपना प्रो-कॉर्पोरेट एजेंडा लागू करने की जल्दबाजी में है। इसलिए वो कुछ ऐसे संशोधन करना चाहती है जिन पर देश में गंभीर बहस है और देश का एक बड़ा वर्ग उनका विरोध कर रहा है। राज्य सभा पहले भी संविधान संशोधनों को मंजूरी देती रही है और ऐसा नही है की उसने सभी बिलों रोक कर रक्खा हुआ है। लेकिन अपने एजेंडे को लागु ना कर पाने की खीज में सरकार की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं। इसलिए संविधान निर्माताओं की समझ और राज्य सभा को मिले अधिकारों के महत्त्व को परोक्ष या अपरोक्ष चुनाव के नाम पर कम नही किया जाना चाहिए।
संविधान की व्यवस्था --
संविधान में राज्य सभा को कुछ मामलों में लोकसभा के बराबर के अधिकार के अधिकार दिए गए हैं और कुछ मामलों में लोकसभा को अबाधित अधिकार दिए गए हैं। बजट को पास करवाने के लिए और किसी भी प्रकार के मनी बिल के संदर्भ में किसी भी बिल को राज्य सभा में पास करवाने की कोई जरूरत नही है। इस मामले में लोकसभा को पूर्ण रूप से अकेले ही अधिकृत किया गया है। लेकिन हमारे संविधान के संघीय ढांचे को देखते हुए संविधान संशोधन के मामले में और दूसरे मामलों में राज्य सभा को वो सभी अधिकार हासिल हैं जो लोकसभा को हासिल हैं। राज्य सभा राज्यों द्वारा चुने गए सदस्यों सदन है और लगभग राज्यों की काउन्सिल की तरह काम करती है। इसलिए संविधान के संघीय ढांचे को बनाये रखने के लिए उसे ये अधिकार दिए गए हैं। राज्य सभा के लोग कोई बिना चुनाव के आये हुए या नामित किये हुए नही हैं। फर्क केवल इतना है की ये लोग लोकसभा सदस्यों की तरह सीधे चुन कर आने की बजाए राज्य विधान सभाओं में लोगों द्वारा चुने गए, लोगों द्वारा चुने गए हैं।
सीधे चुनाव का सवाल -
ये बात की राज्य सभा के सदस्य लोगों का सीधा प्रतिनिधित्व नही करते, सीधे रूप में सही होने के बावजूद दूसरे रूप में सही नही है। राज्य सभा के सदस्य विधान सभाओं के जिन सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं वो सदस्य भी लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं। लेकिन राज्य सभा का चुनाव लोकसभा द्वारा एकसाथ नही होता है बल्कि हर दो साल बाद इसके एक तिहाई सदस्यों का चुनाव होता है। इसलिए अगर इन दो सालों में किसी विधान सभा के चुनाव हुए हों ओर उसमे पार्टियों की स्थिति में बदलाव आया हो तो उसका सीधा असर इस चुनाव पर पड़ता है और नए सदस्यों के हिसाब से लोग चुने जाते हैं। लोकसभा के चुनाव में एक साथ सभी सदस्य सीधे लोगों द्वारा चुने जाते हैं इसलिए उसे सीधा लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन माना जाता है। इसलिए ये मांग उठाई जा रही है की उसे अबाधित अधिकार दिए जाएँ। लेकिन इसमें इस बात का खतरा भी रहता है की लोकसभा चुनाव में लोग किसी तात्कालिक घटना, सहानुभूति के आधार और किसी लहर के चलते भी चुन कर आ सकते हैं। और इस तरह चुन कर आये हुए लोग जल्दबाजी में संविधान में कोई ऐसा परिवर्तन या संशोधन कर सकते हैं जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। संविधान निर्माताओं के ध्यान में ये बात भी रही होगी और इसीलिए उन्होंने कानून बनाने और संविधान संशोधन करने जैसे मामलों में राज्य सभा को भी बराबर के अधिकार दिए ताकि इस तरह की चीजों को रोका जा सके।
लोकसभा और लोक-प्रतिनिधित्व ----
हमारे देश में लोकसभा का चुनाव जिस तरीके से होता है उसमे ये कतई जरूरी नही है की लोकसभा के चुने हुए सदस्य लोगों के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हों। हमारी चुनाव प्रणाली के अनुसार तो 25 % वोट लेने वाली पार्टी भी लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर सकती है। उसके आलावा कोई ऐसी पार्टी भी सरकार में पहुंच सकती है जो देश के किसी एक क्षेत्र जैसे उत्तर या दक्षिण में ही प्रभाव रखती हो। इस हालात में केवल लोकसभा को सारी शक्तियां देना देश के संघीय ढांचे और बहुमत की राय के खिलाफ जा सकती हैं। इसलिए ऐसे मामलों में दोनों सदनों को समान अधिकार एक दूरदर्शी फैसला था।
लोकमहत्त्व के काम और राज्य सभा ---
दूसरा सवाल ये है की क्या राज्य सभा सचमुच में लोक महत्त्व के बिलों को रोकने का साधन बन गयी है ? अभी जो पार्टी सत्ता में है वो अपना प्रो-कॉर्पोरेट एजेंडा लागू करने की जल्दबाजी में है। इसलिए वो कुछ ऐसे संशोधन करना चाहती है जिन पर देश में गंभीर बहस है और देश का एक बड़ा वर्ग उनका विरोध कर रहा है। राज्य सभा पहले भी संविधान संशोधनों को मंजूरी देती रही है और ऐसा नही है की उसने सभी बिलों रोक कर रक्खा हुआ है। लेकिन अपने एजेंडे को लागु ना कर पाने की खीज में सरकार की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं। इसलिए संविधान निर्माताओं की समझ और राज्य सभा को मिले अधिकारों के महत्त्व को परोक्ष या अपरोक्ष चुनाव के नाम पर कम नही किया जाना चाहिए।
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.