Wednesday, November 18, 2015

OPINION --" कांग्रेस मुक्त भारत " की इच्छा और संसदीय गतिरोध

लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी एक नारा बड़े जोर-शोर से लगाती थी। ये नारा था " कांग्रेस मुक्त भारत " का। पिछली कांग्रेस सरकार की घटती हुई या यूँ कहिये की लगभग खत्म हो चुकी लोकप्रियता के चलते किसी को ये नारा अटपटा नही लगा। लेकिन अब जब इस सरकार का एक तिहाई समय गुजर चूका है और लोग अभी उसके वायदों के पुरे होने का इंतजार ही कर रहे हैं, ऐसे समय में लोगों को ये नारा अच्छा नही लग रहा है।
                लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के इवेंट मैनेजमेंट के करिश्मे को लोगों ने कामयाब होते देखा। इससे पहले भी गुजरात के चुनावों में बीजेपी और नरेंद्र मोदी इस इवेंट मैनेजमेंट का इस्तेमाल करते रहे हैं। हर जीते जाने वाले चुनाव के बाद बीजेपी ने जैसे ये मान लिया की लोकतंत्र केवल इवेंट मैनेजमेंट के द्वारा चलाया जा सकता है। हमारा मीडिया, जो इस मैनेजमेंट का सीधा बनिफिसयरी था, वो भी सारी चीजों को उसी तरह पेश कर रहा था। लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामो ने इस पुरे मिथक की हवा निकाल दी।
                पिछले लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के खिलाफ लोगों और कॉर्पोरेट सेक्टर की जो नाराजगी थी उसके बाद बीजेपी को उसका फायदा मिला। लेकिन बीजेपी ने ये समझ लिया की वो सचमुच में कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ बढ़ सकती है। सरकार बनने के बाद भी बीजेपी की तरफ से कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार पर उसके व्यक्तिगत हमले जारी रहे। बीजेपी ने चाहे राहुल गांधी की व्यक्तिगत इमेज हो या राबर्ट वाड्रा हो कोई मौका हमला करने का नही छोड़ा।
                 इसके बाद बारी आई संसद में सरकारी कामकाज की। पहले ही सत्र में संसद ने काम के नए रिकार्ड स्थापित किये। सरकार ने कई ऐसे बिल पास करवा लिए जिनका खुद उन्होंने विपक्ष में रहते हुए विरोध किया था और पॉलिसी पैरालिसिस का इल्जाम सरकार पर लगाया था। इन बिलों को पास करवाने में कांग्रेस ने सक्रिय योगदान दिया। लेकिन सरकार ने इसे भी उसकी खुद की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया। बीजेपी ने ऐसा आभास देने की कोशिश की जैसे पिछली सरकार सचमुच निकम्मी थी और वो बहुत कार्यक्षम सरकार है। बीजेपी ने विपक्ष को धन्यवाद देने की सामान्य परम्परा का भी निर्वहन नही किया।
                उसके बाद विवादास्पद भूमि बिल आया। जिसका पुरे देश में किसान संगठनो और विपक्षी दलों ने भारी विरोध किया। लेकिन बीजेपी को लगता था की वो विपक्ष को विकास विरोधी चित्रित करके उसे इस बिल का समर्थन करने को मजबूर कर देगी। और बीजेपी ने यही तरीका अपनाया। इसके लिए उसने चार बार इसके किये अध्यादेश जारी किया। विपक्ष के खिलाफ विकास को रोकने का इल्जाम पुरे जोर-शोर से लगाया। लेकिन चूँकि लोकतंत्र केवल इवेंट मैनेजमेंट नही होता, बीजेपी इसे पास करवाने में विफल हो गयी। उसने शर्मिंदगी के साथ इस बिल को वापिस ले लिया।
                   उसके बाद आया GST बिल का मुद्दा। इस पर भी कांग्रेस ने विरोध का रास्ता अपना लिया। बीजेपी ने फिर वही विकास विरोध की बातें करनी शुरू की और कांग्रेस के खिलाफ अपने हमले जारी रखे। लिहाजा वो इस बिल को पास कराना तो दूर संसद को भी नही चला पाई। उसने संसद के गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की, लेकिन लोगों को बीजेपी द्वारा संसद को बाधित करने के वाक़ये अभी भी याद थे। इसलिए लोगों ने इस मामले पर सरकार की राय को कोई महत्त्व नही दिया, ये बिहार चुनावों से भी साफ हो गया।
                 अब फिर संसद का सत्र सामने है। मीडिया और लोगों का एक हिस्सा इसको भी गतिरोध की भेंट चढ़ जाने का अंदेशा प्रकट कर रहे हैं। कॉर्पोरेट सेक्टर इस सत्र पर आँखे गड़ाए हुए है। लेकिन इससे पहले एक बार फिर राबर्ट वाड्रा और कांग्रेस पर व्यक्तिगत हमलों की बौछार शुरू हो गयी है। बीजेपी अब भी समझती है की वो इस तरह डरा धमका कर अपना काम निकाल लेगी। लेकिन उसकी इस रणनीति के कारण एकबार फिर ये सत्र भी गतिरोध का शिकार होता नजर आ रहा है।
                  अब समय आ गया है की बीजेपी आत्म-मुग्धता की स्थिति से बाहर निकले और विपक्ष के साथ बातचीत और सहयोग का रवैया अपनाये। उसकी ये धारणा गलत है की विरोध करने पर विपक्ष या कांग्रेस बदनाम होगी, उसे ये समझना चाहिए की काम होने या ना होने की जिम्मेदारी उसकी है और इसका जवाब भी उसको ही देना है। लोगों को कांग्रेस और बीजेपी की आपसी राजनीती से कोई मतलब नही है। अगर सरकार काम नही कर रही है तो जिम्मेदारी उसकी ही होगी।

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