आज देश दो बड़े फैसले आये। एक फैसले में उच्चत्तम न्यायालय ने हरियाणा सरकार द्वारा स्थानीय निकाय के चुनावों में लगाई गयी न्यूनतम शिक्षा व अन्य शर्तों के खिलाफ दायर याचिका को ख़ारिज कर दिया। इस फैसले के आने के बाद हरियाणा में लगभग 82 % लोग चुनाव लड़ने की योग्यता खो चुके हैं। अब ये लोग किसी भी स्थानीय निकाय का चुनाव नही लड़ सकते।
अभी पिछले हफ्ते संसद में संविधान दिवस मनाया गया। उस अवसर पर बोलते हुए माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा था की सार्वभौमिक मताधिकार हमारे संविधान की सबसे बड़ी ताकत है और इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नही की जा सकती। उन्होंने बीजेपी शासित राज्यों में इस अधिकार को सिमित करने वाले नियम लागु करने की आलोचना करते हुए हरियाणा सरकार के इस कानून का विशेष तौर पर जिक्र किया था और इसे लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ बताया था।
लेकिन उसके एक हफ्ते बाद ही उच्चत्तम न्यायालय द्वारा इस पर मुहर लगाना लोगों आश्चर्य में डालने वाला है। पहले जब महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नही था तब उस व्यवस्था के समर्थक भी ये तर्क देते थे की महिलाएं राजकाज के बारे में कम जानती हैं। कुछ देशों में जिनके पास सम्पत्ति नही होती थी तो उनको वोट डालने का अधिकार नही होता था। अब शिक्षा की कमी होने, घर में पक्का शौचालय ना होने और किसी बैंक का कर्ज बाकि होने पर चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जा रहा है। ऐसा तो नही है की पिछला जमाना लौट रहा हो और देश के अनपढ़, गरीब, भूमिहीन, घरविहीन लोगों को चुनावी प्रक्रिया से बाहर किया जा रहा हो।
बाद में कोई सरकार फिर से सम्पत्ति के आधार पर वोट की कीमत तय कर सकती है। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है की एक ठेला लगाने वाले और मुकेश अम्बानी दोनों के वोट की कीमत एक जैसी हो।
चार दिन पहले माननीय न्यायमूर्ति और उच्चत्तम न्यायालय के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश महोदय ने देश की जनता को भरोसा देते हुए कहा था की जब तक स्वतंत्र न्यायपालिका है किसी को डरने की जरूरत नही है। लेकिन अब उसी उच्चत्तम न्यायालय ने एक राज्य के बहुमत लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया।
देश में गरीब और शोषित लोगों के खिलाफ एक अनदेखी का भाव बढ़ रहा है। विकास के नाम पर ऐसे प्रोजैक्टों को मंजूर किया जा रहा है जिनसे बहुत बड़े पैमाने पर आदिवासियों और दूसरे लोगों का विस्थापन होता है। और उनके पुनर्वास के लिए कोई पुख्त योजना नही होती है। सालों से इस तरह के उजड़े हुए लोग अब भी सड़क पर जीवन गुजारने को मजबूर हैं।
इस दौरान ऐसे मामलों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है जब किसी उद्योग में हड़ताल होने पर न्यायालय तुरंत उस पर रोक लगा देता है। लेकिन देश में न्यूनतम वेतन लागु नही है ये न्यायालय की परेशानी नही है। जो लोग ये कहते हैं की न्यायालय भी वर्गीय शासन का हिस्सा होता है और निष्पक्ष न्यायालय जैसी कोई चीज वजूद में नही है क्या वो सही हैं ?
पिछले दिनों उपहार सिनेमा के फैसले के बाद जिन लोगों की ये धारणा बनी थी की पैसे वाले लोगों को सजा दिलाना मुश्किल होता जा रहा है आज सलमान खान के फैसले के बाद उनकी ये अवधारणा और मजबूत होगी।
अभी पिछले हफ्ते संसद में संविधान दिवस मनाया गया। उस अवसर पर बोलते हुए माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा था की सार्वभौमिक मताधिकार हमारे संविधान की सबसे बड़ी ताकत है और इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नही की जा सकती। उन्होंने बीजेपी शासित राज्यों में इस अधिकार को सिमित करने वाले नियम लागु करने की आलोचना करते हुए हरियाणा सरकार के इस कानून का विशेष तौर पर जिक्र किया था और इसे लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ बताया था।
लेकिन उसके एक हफ्ते बाद ही उच्चत्तम न्यायालय द्वारा इस पर मुहर लगाना लोगों आश्चर्य में डालने वाला है। पहले जब महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नही था तब उस व्यवस्था के समर्थक भी ये तर्क देते थे की महिलाएं राजकाज के बारे में कम जानती हैं। कुछ देशों में जिनके पास सम्पत्ति नही होती थी तो उनको वोट डालने का अधिकार नही होता था। अब शिक्षा की कमी होने, घर में पक्का शौचालय ना होने और किसी बैंक का कर्ज बाकि होने पर चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जा रहा है। ऐसा तो नही है की पिछला जमाना लौट रहा हो और देश के अनपढ़, गरीब, भूमिहीन, घरविहीन लोगों को चुनावी प्रक्रिया से बाहर किया जा रहा हो।
बाद में कोई सरकार फिर से सम्पत्ति के आधार पर वोट की कीमत तय कर सकती है। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है की एक ठेला लगाने वाले और मुकेश अम्बानी दोनों के वोट की कीमत एक जैसी हो।
चार दिन पहले माननीय न्यायमूर्ति और उच्चत्तम न्यायालय के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश महोदय ने देश की जनता को भरोसा देते हुए कहा था की जब तक स्वतंत्र न्यायपालिका है किसी को डरने की जरूरत नही है। लेकिन अब उसी उच्चत्तम न्यायालय ने एक राज्य के बहुमत लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया।
देश में गरीब और शोषित लोगों के खिलाफ एक अनदेखी का भाव बढ़ रहा है। विकास के नाम पर ऐसे प्रोजैक्टों को मंजूर किया जा रहा है जिनसे बहुत बड़े पैमाने पर आदिवासियों और दूसरे लोगों का विस्थापन होता है। और उनके पुनर्वास के लिए कोई पुख्त योजना नही होती है। सालों से इस तरह के उजड़े हुए लोग अब भी सड़क पर जीवन गुजारने को मजबूर हैं।
इस दौरान ऐसे मामलों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है जब किसी उद्योग में हड़ताल होने पर न्यायालय तुरंत उस पर रोक लगा देता है। लेकिन देश में न्यूनतम वेतन लागु नही है ये न्यायालय की परेशानी नही है। जो लोग ये कहते हैं की न्यायालय भी वर्गीय शासन का हिस्सा होता है और निष्पक्ष न्यायालय जैसी कोई चीज वजूद में नही है क्या वो सही हैं ?
पिछले दिनों उपहार सिनेमा के फैसले के बाद जिन लोगों की ये धारणा बनी थी की पैसे वाले लोगों को सजा दिलाना मुश्किल होता जा रहा है आज सलमान खान के फैसले के बाद उनकी ये अवधारणा और मजबूत होगी।
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