देश में बहुत बार आम सहमति की बात होती है। जब भी आर्थिक मामलों की बात चलती है तो ये कहा जाता है की देश में आर्थिक सुधारों को लेकर आम सहमति है। ये भी कहा जाता है की आर्थिक मामलों पर आम सहमति होनी चाहिए और उस पर राजनीती नही होनी चाहिए। विदेश मामलों में तो खासकर आम सहमति की बात की जाती है और ये दावा किया जाता है की कम से कम विदेश नीति के मामले में तो देश में आम सहमति है।
लेकिन पिछले कुछ सालों से आम सहमति के मायने बदल गए हैं। खासकर जब से आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है इस बात पर खास जोर दिया जा रहा है। अब आम सहमति का मतलब हो गया है सरकार के साथ सहमति। यदि कोई किसी नीति पर सवाल उठाता है तो उसे ये कहकर हड़काया जाता है की वो कम से कम इस मामले में तो आम सहमति बनाये। दूसरे शब्दों में उसे इस बात के लिए मजबूर किया जाता है की वो सरकार की हाँ में हाँ मिलाये। अगर कोई सवाल उठाता है तो कहा जाता है की वो राजनीती कर रहा है। और राजनीती करने को बहुत बुरा माना जाता है। जब से आर्थिक सुधारों का ये दौर शुरू हुआ है सारी नीतियां कॉर्पोरेट को ध्यान में रखकर और उसके फायदे के लिए बनाई जाती हैं। भले ही लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए उसे कोई नाम दिया जाये।
दूसरी जो बात इस तथाकथित आम सहमति के नाम पर सामने आई है वो ये है की दो पार्टियों, यानि बीजेपी और कांग्रेस की सहमति को आम सहमति मान लिया गया है। उसके बाद चाहे सरकार हो या कॉर्पोरेट के लोग हों, या कॉर्पोरेट का मीडिया हो या फिर टीवी चैनलों में बैठे हुए विशेषज्ञ हों, सब एक ही राग अलापते हैं की इस मामले पर आम सहमति है। जबकि असलियत ये है की उन दोनों को मिले वोट का प्रतिशत बहुत बार 50 % से कम होता है। बाकि राजनैतिक दलों से ना कोई बात की जाती है और ना ही उनकी राय को कोई महत्त्व दिया जाता है। जब सिद्धांतों की बात होती है तो सरकार कॉपरेटिव फडरेलिज्म की बात करती है और संघीय ढांचे की आरती उतारती है।
GST बिल के सवाल पर ये बात बहुत ही मुखर होकर सामने आ रही है। बीजेपी ने इस बिल पर किसी पार्टी से कोई बात करने की कोशिश नही की। केवल देश के विकास की हवा का दबाव बना कर इसका समर्थन करने के लिए कहा गया। वो तो कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते खराब होने के चलते उसे उसके साथ बातचीत करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अगर उसके पास राज्य सभा में बिल पास करने लायक बहुमत होता तो वो कांग्रेस की तरफ मुड़ कर भी नही देखती। लेकिन इन हालात के बावजूद उसने बाकि राजनितिक पार्टियों के साथ संवाद की कोई कोशिश नही की। हमारे यहां आम सहमति का केवल यही मतलब है की अगर आपका काम निकल गया तो किसी को पूछने की जरूरत नही है।
विदेश नीति पर भी अजब नजारा सामने है। सरकार का मानना है की अगर वो किसी देश को गालियां देती है तो पुरे विपक्ष को उसे गालियां देनी चाहिए और अगर वो उसके साथ गलबहियां डाल कर घूमती है तो पूरे विपक्ष को तालियां बजानी चाहियें। अगर कोई ये सवाल पूछता है की भाई गाली देने का कारण बताइये तो चारों तरफ से उस पर फिटकार डाली जाती है की देखो, देखो इस देशद्रोही को विदेशी मामले पर भी राजनीती कर रहा है। इस सरकार की पाकिस्तान नीति हो या फिर नेपाल नीति ये हमेशा सवालों के घेरे में रही हैं। विपक्ष की तो छोडो, इस सरकार के भक्तगण भी पाकिस्तान के बारे में उसकी पलटी पर खुद को एडजेस्ट नही कर पा रहे हैं।
उसके बाद भी अगर विपक्ष का कोई दल अपना विरोध सख्त करता है तो सरकार का तर्क होता है की संसद में चर्चा के लिए सरकार तैयार है। बीजेपी की ये सरकार बनने के बाद संसद की चर्चा का मतलब भी वही हो गया है। जिन मामलों में पुरे देश में चिंता और बहस का माहोल था उन पर भी चर्चा का ये हाल था की सरकार चर्चा से पहले जो कहती रही वही चर्चा के बाद भी कहती रही। असहिष्णुता के मामले में चर्चा हुई। पुरे विपक्ष ने सैकड़ों उदाहरण दे कर इस खतरे को सामने रक्खा लेकिन सरकार ने वही रुख अपनाया जो चर्चा से पहले था। किसी एक सवाल पर उसने इतना तक नही कहा की सरकार इसको देखेगी या कोई कदम उठाएगी। उसके बाद अगर कोई इस मामले पर बात करता है तो सरकार का जवाब होता है की इस मामले पर संसद में चर्चा हो चुकी है और संसद ( असल में सरकार ) उसे ख़ारिज कर चुकी है। फिर किसी मामले पर सरकार कहती है की विपक्ष इस पर संसद में चर्चा क्यों नही कर रहा ? भई वो इसलिए नही कर रहा की उसे मालूम है की सरकार पर जो टेप चढ़ी हुई है वही बजने वाली है। सरकार विपक्ष की किसी भी जायज चिंता को स्वीकार करने को तैयार नही है।
लेकिन पिछले कुछ सालों से आम सहमति के मायने बदल गए हैं। खासकर जब से आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है इस बात पर खास जोर दिया जा रहा है। अब आम सहमति का मतलब हो गया है सरकार के साथ सहमति। यदि कोई किसी नीति पर सवाल उठाता है तो उसे ये कहकर हड़काया जाता है की वो कम से कम इस मामले में तो आम सहमति बनाये। दूसरे शब्दों में उसे इस बात के लिए मजबूर किया जाता है की वो सरकार की हाँ में हाँ मिलाये। अगर कोई सवाल उठाता है तो कहा जाता है की वो राजनीती कर रहा है। और राजनीती करने को बहुत बुरा माना जाता है। जब से आर्थिक सुधारों का ये दौर शुरू हुआ है सारी नीतियां कॉर्पोरेट को ध्यान में रखकर और उसके फायदे के लिए बनाई जाती हैं। भले ही लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए उसे कोई नाम दिया जाये।
दूसरी जो बात इस तथाकथित आम सहमति के नाम पर सामने आई है वो ये है की दो पार्टियों, यानि बीजेपी और कांग्रेस की सहमति को आम सहमति मान लिया गया है। उसके बाद चाहे सरकार हो या कॉर्पोरेट के लोग हों, या कॉर्पोरेट का मीडिया हो या फिर टीवी चैनलों में बैठे हुए विशेषज्ञ हों, सब एक ही राग अलापते हैं की इस मामले पर आम सहमति है। जबकि असलियत ये है की उन दोनों को मिले वोट का प्रतिशत बहुत बार 50 % से कम होता है। बाकि राजनैतिक दलों से ना कोई बात की जाती है और ना ही उनकी राय को कोई महत्त्व दिया जाता है। जब सिद्धांतों की बात होती है तो सरकार कॉपरेटिव फडरेलिज्म की बात करती है और संघीय ढांचे की आरती उतारती है।
GST बिल के सवाल पर ये बात बहुत ही मुखर होकर सामने आ रही है। बीजेपी ने इस बिल पर किसी पार्टी से कोई बात करने की कोशिश नही की। केवल देश के विकास की हवा का दबाव बना कर इसका समर्थन करने के लिए कहा गया। वो तो कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते खराब होने के चलते उसे उसके साथ बातचीत करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अगर उसके पास राज्य सभा में बिल पास करने लायक बहुमत होता तो वो कांग्रेस की तरफ मुड़ कर भी नही देखती। लेकिन इन हालात के बावजूद उसने बाकि राजनितिक पार्टियों के साथ संवाद की कोई कोशिश नही की। हमारे यहां आम सहमति का केवल यही मतलब है की अगर आपका काम निकल गया तो किसी को पूछने की जरूरत नही है।
विदेश नीति पर भी अजब नजारा सामने है। सरकार का मानना है की अगर वो किसी देश को गालियां देती है तो पुरे विपक्ष को उसे गालियां देनी चाहिए और अगर वो उसके साथ गलबहियां डाल कर घूमती है तो पूरे विपक्ष को तालियां बजानी चाहियें। अगर कोई ये सवाल पूछता है की भाई गाली देने का कारण बताइये तो चारों तरफ से उस पर फिटकार डाली जाती है की देखो, देखो इस देशद्रोही को विदेशी मामले पर भी राजनीती कर रहा है। इस सरकार की पाकिस्तान नीति हो या फिर नेपाल नीति ये हमेशा सवालों के घेरे में रही हैं। विपक्ष की तो छोडो, इस सरकार के भक्तगण भी पाकिस्तान के बारे में उसकी पलटी पर खुद को एडजेस्ट नही कर पा रहे हैं।
उसके बाद भी अगर विपक्ष का कोई दल अपना विरोध सख्त करता है तो सरकार का तर्क होता है की संसद में चर्चा के लिए सरकार तैयार है। बीजेपी की ये सरकार बनने के बाद संसद की चर्चा का मतलब भी वही हो गया है। जिन मामलों में पुरे देश में चिंता और बहस का माहोल था उन पर भी चर्चा का ये हाल था की सरकार चर्चा से पहले जो कहती रही वही चर्चा के बाद भी कहती रही। असहिष्णुता के मामले में चर्चा हुई। पुरे विपक्ष ने सैकड़ों उदाहरण दे कर इस खतरे को सामने रक्खा लेकिन सरकार ने वही रुख अपनाया जो चर्चा से पहले था। किसी एक सवाल पर उसने इतना तक नही कहा की सरकार इसको देखेगी या कोई कदम उठाएगी। उसके बाद अगर कोई इस मामले पर बात करता है तो सरकार का जवाब होता है की इस मामले पर संसद में चर्चा हो चुकी है और संसद ( असल में सरकार ) उसे ख़ारिज कर चुकी है। फिर किसी मामले पर सरकार कहती है की विपक्ष इस पर संसद में चर्चा क्यों नही कर रहा ? भई वो इसलिए नही कर रहा की उसे मालूम है की सरकार पर जो टेप चढ़ी हुई है वही बजने वाली है। सरकार विपक्ष की किसी भी जायज चिंता को स्वीकार करने को तैयार नही है।
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