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Tuesday, April 12, 2016

व्यंग -- गुरुग्राम, महाभारत और हरियाणा सरकार।

                   हरियाणा सरकार ने गुडग़ांव का नाम बदलकर गुरुग्राम कर दिया। इस तरह सरकार ने एक ऐतिहासिक भूल का सुधार कर दिया। पिछले 850 साल की गुलामी के दौरान जो जो भूलें देश ने की हैं, ये सरकार उन सब को सुधारने के लिए कटिबद्ध है। इसमें 1947 में की गई आजादी नाम की भूल भी शामिल है।
                   गुडग़ांव नाम का ये ऐतिहासिक नगर हरियाणा में दिल्ली से सटा हुआ है। हमारी कमनसीबी देखिये की हमे दिल्ली शब्द का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। कितना अच्छा लगता की दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ या हस्तिनापुर होता। तब हम सर उठकर कहते की गुरुग्राम इन्द्रप्रस्थ से सटा हुआ है। तब कोई हमसे पूछता की ये हरियाणा के किस हिस्से में है तो हम बताते की ये करुक्षेत्र से इतने किलोमीटर दूर है। लेकिन पिछली केंद्र सरकारों ने देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के कोई कदम नहीं उठाये। अब हम 850 साल के बाद देश की पहली हिन्दू सरकार से निवेदन करेंगे की वो दिल्ली का नाम बदल दे।
                      बात गुरुग्राम की चल रही थी सो हम आपको बताना चाहते हैं की ये वही नगर है जो कुरु शासकों ने अपने राजकुमारों को शिक्षा देने की एवज में गुरु द्रोणाचार्य को भेंट किया था। उस समय इसे विद्या का बहुत बड़ा केंद्र माना जाता था। जहां कई देशो और विदेशों से राजकुमार पढ़ने के लिए आते थे। विदेशों से हमारा मतलब मगध और सिंध आदि देशों से है। तब इन्हे विदेश कहा जाता था। उस समय महान हिन्दू राष्ट्र हस्तिनापुर की सीमाएं एक अनुमान के अनुसार एक तरफ मथुरा को छूती थी और दूसरी तरफ पटना तक जो उस समय पाटलिपुत्र कहलाता था फैली हुई थी। इस विशाल साम्राज्य के महान योद्धा गुरुग्राम से ही शिक्षा प्राप्त करते थे।राजकुमारों से अलग आम आदमी के लिए यहां शिक्षा प्राप्त करना महाभारत काल में भी असम्भव था और आज भी असम्भव है। उस समय ब्र्ह्मास्त्र का निर्माण भी हो चूका था लेकिन लड़ाई के दौरान तीरों और गदा का इस्तेमाल किया जाता था।
                       खैर बात गुरुग्राम और शिक्षा की चल रही थी। उस समय विद्या के इस महान केंद्र में केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दी जाती थी। वैसे तो इस बात का ध्यान रखा जाता था की कोई शुद्र गलती से भी शिक्षा प्राप्त ना कर ले, लेकिन फिर भी दुष्टात्माओं की कमी तो किसी भी काल में नहीं रही और कोई शुद्र छिप छिपाकर शिक्षा प्राप्त भी कर ले तो उससे निपटने के उपाय भी तैयार होते थे। इसमें सभी गुरुकुलों के बीच एक साझा समझ थी और एकमत था। एकलव्य और कर्ण दोनों के उदाहरण सामने हैं।
                     इसलिए मौजूदा हरियाणा सरकार भी 850 साल के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठी पहली हिन्दू सरकार का ही गौरवपूर्ण हिस्सा है इसलिए वो भारत खण्ड को उसका खोया हुआ गौरव वापिस दिलवाने का प्रयास करती रहेगी। इस सरकार ने ये भी नॉट किया है की मौजूदा समय में शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने से रोकने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने की जरूरत है। इसलिए सरकार ने हरियाणा के 350 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है। सरकार को उम्मीद है की इससे शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होगी। और इससे हमारी महान संस्कृति की रक्षा हो सकेगी।
                 इसके साथ ही हरियाणा सरकार पुरे देश में दिल्ली सरकार द्वारा विश्व विद्यालयों में की जा रही पुराने गौरव को वापिस दिलाने वाले सभी कदमो का पुरजोर समर्थन करती है। जिन विश्व विद्यालयों में एकलव्य और कर्ण जैसे शिष्यों की संख्या ज्यादा हो गई है उनको या तो बंद करने की कोशिश की जाएगी या फिर कम से कम अध्यापन कार्य को बाधित करने को कोशिश तो अवश्य की जाएगी। सरकार द्वारा सत्ता सम्भालते ही इस तरह के प्रयास पुरे जोर शोर से किये जा रहे हैं।
                   हरियाणा सरकार का मानना है की जल्दी ही महान आर्यावर्त के इस भूभाग को जिसे अब हरियाणा कहा जाता है उसका खोया हुआ गौरव फिर से हासिल होगा। हमने एक ही परिवार को दो पक्षों में बांटकर आपस में लड़ाने की पुराणी प्रथा को भी पुनर्जीवित किया है और अभी अभी हरियाणा में उसका सफल प्रयोग भी किया है। कुछ लोग जनता को एक ही परिवार के दो पक्षों द्वारा लड़े गए महाभारत के युद्ध के नतीजों को याद करवा रहे हैं। ऐसे लोग प्राचीन भारतीय संस्कृति के दुश्मन हैं इसलिए उन्हें देशद्रोही करार दिया जा चूका है। ये सरकार अपने एजेंडे पर कायम है और किसी को भरम में रहने की जरूरत नहीं है।

Monday, April 11, 2016

समाज में विभाजन पैदा करना देशभक्ति कैसे है ?

                    इस बात पर तो कोई बहस नहीं है की एक विभाजित समाज कभी भी मजबूत राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। भारत एक बहुजातीय, बहुधार्मिक और उससे भी आगे बहुसांस्कृतिक समाज है। लेकिन हमारे कर्णधारों का प्रयास रहा की इस विविधता को ही भारत की एकता का आधार बनाया जाये। इसके लिए जरूरी था सभी को सम्मान और न्याय मिले। हर तरह की संस्कृति और विचारों को मानने वाले यहां अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस करें। इसके लिए हमने हमेशा दो धर्मो और जातियों में एकता के सूत्र खोजे। चाहे भक्ति आंदोलन हो या सूफी मत हो, सबकी कोशिश हमेशा विभाजनकारी प्रतीकों के खिलाफ एकता के प्रतीक ढूढ़ने की रही। अंग्रेजो के खिलाफ लड़ते हुए लोगों ने कुछ मूल्यों की स्थापना की और वही मूल्य ना केवल आजादी का आधार बने बल्कि उन्ही मूल्यों को आधार बना कर एक मजबूत देश का निर्माण शुरू हुआ। इस तरह सदियों में ये देश एक मजबूत देश के रूप में उभरा।
                    लेकिन कुछ ताकतों को ये बात रास नहीं आई। उन्होंने हमेशा किसी ना किसी बहाने इसकी विविधताओं को विभाजन  में परिभासित करने की कोशिशें की। उन्होंने हमेशा विविध धर्म और संस्किर्तिओं को मानने वाले लोगों के बीच में टकराव पैदा करने की कोशिश की। धर्म इसमें मुख्य कारक रहा। अंग्रेजों ने इस बिभाजन को चौड़ा करने की सारी कोशिशें की। क्योंकि वो एक विदेशी सत्ता थी और उसे देश की एकता से खतरा था। इसलिए उसने फूट डालने और राज करने की नीति अपनाई।
                  लेकिन अब तो कोई विदेशी सत्ता नहीं है। फिर भी कुछ संगठन इस एकता को विभाजन में बदलने पर क्यों उतारू हैं। खासकर आरएसएस पुरे जोर शोर से इस बिभाजन को टकराव तक ले जाने की पूरी कोशिश कर रहा है। बीजेपी के सत्ता में आने के बाद, सरकार के सक्रिय सहयोग से उसकी ये कोशिशें खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई हैं। आज विभिन्न धर्मों, जातियों, राज्यों और संस्कृतियों के बीच में जो भी विविधता है, आरएसएस उसे विभाजन के रूप में पेश कर रही है। देश में जितने भी टकराव के आधार हो सकते थे उन सबको सक्रिय कर दिया गया है। उसमे हिन्दू बनाम मुस्लिम है, हिन्दू बनाम ईसाई है, दलित बनाम स्वर्ण है, कश्मीरी बनाम गैर कश्मीरी है, आदिवासी बनाम गैर आदिवासी है, ऐसे सभी पक्षों को टकराव में धकेला जा रहा है।
                 इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल ये है की जो लोग समाज में विभाजन पैदा कर रहे हैं, समुदायों में फूट डाल रहे हैं वो देशभक्त कैसे हो सकते हैं।  समाज की दरारों को चौड़ा करना देशभक्ति है? हररोज नया बहाना ढूंढ कर कुछ लोगों को गद्दार घोषित करना और पुरे देश को इस तरह के सवालों पर तनाव में रखना आखिर देशभक्ति कैसे है ? अगर ये देशभक्ति है तो फिर गद्दारी की क्या परिभाषा होगी ? लोगों को इस बात को समझना होगा की समाज में विभाजन पैदा करने वाले लोग देशभक्त नहीं हैं बल्कि देश के दुश्मन हैं।

Friday, March 18, 2016

आरएसएस को " भारत विजय " के अभियान में एक-एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

                आरएसएस को कभी ऐसा लगता था की अगर केंद्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार आ जाये तो वो बहुत आसानी से " भारत विजय " कर सकता है। यहां भारत विजय से मतलब है देश के लोगों द्वारा देश, देशभक्ति, लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्र के बारे में जो संघ का विचार है उसे देश की जनता द्वारा स्वीकार कर लिया जाना है । इसलिए उसने सरकार के में  आते ही अपने एजेंडे को लागु करना शुरू कर दिया। जिन संस्थाओं और मूल्यों को लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है और जो संघ की समझदारी के खिलाफ बैठती हैं, उन सब पर उसने हमला किया। भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति, उसके बहुधर्मी समाज और अनेक भाषा भाषी होने की हकीकत संघ की राष्ट्र की  अवधारणा के खिलाफ होती है। इसलिए हमारी संस्थाओं की पूरी कार्यप्रणाली अब तक इसी विचार के तहत थी। इसमें सबसे बड़ा योगदान हमारे विश्वविद्यालयों का था जो ना केवल इस अवधारणा के साथ खड़े हैं, बल्कि इस पर निरंतर शोध के जरिये इसे और ज्यादा समृद्ध भी करते हैं। वहां पढ़ने वाले छात्र और पढ़ाने वाले प्रोफेसर इस पर लगातार काम कर रहे हैं। इसके साथ ही वो ऐसे समाजशास्त्री भी हैं जो राष्ट्र और समाज के बारे में संघ की समझ का तर्कपूर्ण तरीके से विरोध करते हैं। संघ को मालूम है की जब तक हमारे विश्विद्यालय संघ की विचारधारा को स्वीकार नही करते तब तक उसका भारत विजय सपना पूरा नही हो सकता।
                 इसलिए उसने सबसे पहला हमला यहीं से शुरू किया। हमारे सिनेमा और टीवी से जुड़े और विश्व में अपनी प्रतिष्ठा रखने वाला FTII उनका पहला निशाना बना। संघ को मालूम है की उसकी विचारधारा में ना तो इतनी शक्ति है और ना ही उसे किसी स्वीकार्य शोध का समर्थन प्राप्त है की वो बहस के स्तर पर उसका मुकाबला कर सके। इसलिए उसने उसे बौद्धिक चुनौती देने की बजाए उसे नष्ट करना ही  बेहतर ऑप्सन लगा। इसलिए उसने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के बदलाव  किये की निरंतर शोध की यह प्रक्रिया ही समाप्त हो जाये। उसने पीएचडी करने वाले छात्रों की स्कॉलरशिप समाप्त कर दी। उसने दूसरे विश्व स्तरीय संस्थानों की फ़ीस में इतनी बढ़ोतरी कर दी की दलितों, गरीबों और दूर दराज से आने वाले छात्र उसमे दाखिला ही ना ले सकें। साथ ही उसने विश्विद्यालयों के उपकुलपति से लेकर दूसरे तमाम महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर दूसरे दर्जे के लोगों की नियुक्तिया करनी शुरू कर दी जो सिर झुकाकर संघ के आदेशों का पालन करते रहें।
                 इसके साथ ही उसने दबाव में ना आने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों को डराने धमकाने और यहां तक की उन पर शारीरिक हमलों तक की शुरुआत कर दी। विरोधी बुद्धिजीवियों पर झूठे मुकदमे बनवाने शुरू कर दिए और उनके संगठनो पर पाबंदियां लगानी शुरू  कर दी। उनके लोगों ने इन कार्यों का विरोध करने वाले लोगों पर अदालतों तक में हमले किये और खुलेआम दुबारा ऐसा करने की धमकियां दी।
                   लेकिन क्या हुआ ? संघ को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा की लोगों ने डरकर समर्पण करने की बजाय उसके विरोध में खड़े होने और लड़ने का फैसला किया। FTII से लेकर चाहे वो JNU हो या इलाहबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या IIT मद्रास, हर जगह उनका पुरजोर विरोध हुआ। और जहां से उन्होंने लड़ाई शुरू की थी वो एक जगह से भी उसे जीत कर आगे नही बढ़ पाये। सरकार ने अपने सारे मुखौटे उतार फेंके लेकिन इस लड़ाई को जीत नही पाये। हाँ, इसका एक उल्टा असर जरूर हुआ। अब तक जो दलित छात्र संगठन दक्षिण की इक्का दुक्का संस्थानों में थी उसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया। वामपंथ, जो 2009 के चुनावों के बाद मीडिया में अपनी जगह खो चूका था उसे दुबारा हासिल करने में कामयाब रहा। और इन सब में जो सबसे बड़ी बात हुई वो ये की दलितों, वामपंथियों और अल्पसंख्यकों के बीच बड़े  पैमाने पर एक साझा समझ विकसित हुई। लोगों में साथी और विरोधी की तर्कपूर्ण पहचान करने की समझ बढ़ी।
                  इसलिए जो संघ अब तक ये समझता था की एक सिमित  हमले के बाद लोग समर्पण कर देंगे उसे एक एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उसे रस्ते में आने वाला हर सर कलम करना पड़ रहा है। उसके बावजूद अबतक तो उसे ये भी नही पता की वो आगे बढ़ा है या पीछे हटा है। पूरी सरकार की निष्पक्षता और सभी संस्थाओं की स्वायतत्ता को खोकर भी वो कुछ हासिल नही  पाया।

Sunday, March 6, 2016

आरएसएस और बीजेपी के देशविरोधी षड्यंत्र

            
  आम लोग कई चीजों पर एकदम निर्णायक नतीजे पर नही पहुंच सकते और इस पर पहुंचने के लिए वो मीडिया द्वारा फैलाई गयी अफवाहों के शिकार हो जाते हैं। पिछले दो साल में जब से ये सरकार सत्ता में आई है इस पर आरएसएस का एजेंडा लागु करने के आरोप लगते रहे हैं। इस दौरान कुछ बड़ी घटनाएँ भी हुई हैं जिनके बारे में भी एक पक्ष का आरोप है की वो कोई अकस्मात घटी हुई घटनाएँ नही हैं, बल्कि एक सोची समझी साजिश के तहत बाकायदा प्लान करके की गयी वारदातें हैं। इन घटनाओं की प्लानिंग का आरोप बीजेपी और आरएसएस के लोगों पर है और मीडिया के एक हिस्से की इसमें साझेदारी है। बीजेपी हमेशा इससे इंकार तो करती रही है लेकिन उसने उन सवालों का जवाब कभी नही दिया जो उस पर उठाये गए। इन घटनाओं में से कुछ का विश्लेषण इस प्रकार है। --
 १.       बिहार चुनाव से पहले दादरी की घटना हुई। इसमें गाय मारने के आरोप में एक व्यक्ति अख़लाक़ की हत्या कर दी गयी। इस घटना में मुख्य आरोपी बीजेपी नेता के पुत्र निकले। असल बात ये है की जिस गाय को मारने के आरोप में भीड़ को भड़का कर ये घटना अंजाम दी गयी वो गाय मरने जैसी कोई घटना वहां हुई ही नही थी। एक झूठी कहानी गढ़कर एक समुदाय के खिलाफ भावनाएं भड़काई  गयी। फिर उसके बाद क्या हुआ ? बीजेपी और आरएसएस के सारे नेता पूरी बहस को इस मुद्दे पर ले आये की गाय को मारना सही है या गलत। पूरी बहस उस चीज पर हो रही थी जो असल में घटनास्थल पर मौजूद ही नही थी। मीडिया का एक हिस्सा पुरे जोर शोर से इसका प्रचार कर रहा था। सोशल मीडिआ में बैठे भाड़े के लोग इसे हवा दे रहे थे। और बीजेपी के सबसे बड़े नेता इस पर चुप्पी साधे  हुए थे यानि उनका मौन समर्थन इस पूरी मुहीम को हासिल था।
२.         अब JNU की घटना को देखिये। छात्रों का एक समूह एक प्रोग्राम का आयोजन करता है जिसका कोई संबंध ना वहां की चुनी हुई स्टूडेंट यूनियन से था  और ना  उसके वामपंथी अध्यक्ष से था। बीजेपी का छात्र संगठन ABVP उस प्रोग्राम से ठीक 15 मिनट पहले वाइस चांसलर से मिलकर उसकी अनुमति रद्द करवा देता है। ABVP के नेता पहले से ही इसकी तैयारी के तहत एक बदनाम न्यूज चैनल के लोगों को वहां बिना अनुमति के बुला कर रखते हैं। उसके बाद प्रोग्राम करने वाले छात्रों और ABVP के सदस्यों में झगड़ा होता है। छात्रसंघ अध्यक्ष उसमे बीच बचाव की कोशिश करता है। इतने में मुंह पर कपड़ा बांधे हुए कुछ लोग देश विरोधी नारे लगाते हैं और निकल भी जाते हैं। बात खत्म हो जाती है। उसके बाद पूरी घटना के विडिओ को छेड़छाड़ करके उसमे बाहर से नारे डाले  जाते हैं। इस काम का आरोप HRD मंत्री स्मृति ईरानी की सहयोगी शिल्पी तिवारी पर आता है। उसके बाद वही न्यूज चैनल उस बदले गए विडिओ को पूरा दिन टीवी पर दिखाता है और पूरी JNU को देशद्रोह के अड्डे में तब्दील कर देता है। उसके बाद बीजेपी के सांसद महेश गिरी देशद्रोह का मामला दर्ज करवाते हैं और पुलिस सरकार के इशारे पर छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लेते हैं। उसके बाद पूरी बीजेपी और आरएसएस लगातार वामपंथ पर देशद्रोह में शामिल होने का राग अलापते हैं। इसके बाद जो चीजें सामने आई वो इस प्रकार हैं।
                १. मीडिया के कुछ चैनलों द्वारा दिखाए गए विडिओ फर्जी थे।
                २. कन्हैया ने इस तरह का कोई नारा नही लगाया इसका कोई विडिओ सबूत पुलिस के पास नही    है।
                ३. मुंह ढंककर नारे लगाने वाला एक भी आदमी पकड़ा नही गया। और शायद ही कभी पकड़ा जाये।
         लेकिन हो क्या रहा है। इस पूरी घटना को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे बीजेपी को छोड़कर सभी विपक्षी पार्टियां, चाहे वो कांग्रेस हो, वामपंथी हों या जनता दल हो सब देशद्रोही हैं। अभी अभी बीजेपी के नेता अरुण झुठली ने भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यक्रम में कहा की कन्हैया भारत के टुकड़े करने के नारे लगा रहे थे और दूसरी तरफ इनकी पुलिस अदालत में कह रही है की उसके पास कोई इसकी कोई विडिओ फुटेज नही है। ये व्ही अरुण झुठली हैं जो दिल्ली चुनाव में एक हाथ में माइक पकड़कर कह रहे थे की आम आदमी पार्टी रंगे हाथ पकड़ी गयी और दूसरे हाथ से उच्च न्यायालय के उस एफिडेविट पर साइन कर रहे थे जिसमे लिखा था की आम आदमी पार्टी के खातों में कोई गड़बड़ी नही पाई गयी।
               अब दूसरा सवाल ये उठता है की क्या ये कोई अलग अलग घटी हुई आकस्मिक घटनाएँ हैं। नही ये बाकायदा एक विचारधारा के आधार पर देश में एक साम्प्रदायिक विभाजन पैदा करने और उसे बनाये रखने की सोची समझी रणनीति है। इस रणनीति में मीडिया का एक हिस्सा जिसके मालिक बीजेपी के नजदीकी उद्योगपति हैं उसकी मदद करता है। इसमें सोशल मीडिया में बैठा एक भाड़े का तबका और कुछ लम्पट किस्म के लोग योगदान करते रहते हैं। देश में ऐसे लोग जिनकी सोचने और समझने की शक्ति कमजोर है वो इस बहाव में बह जाते हैं।

Friday, February 26, 2016

क्या ये दूसरा शम्बूक वध ( हत्या ) है ?

            
  हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की संस्थाकीय हत्या के बाद JNU की घटनाओं पर बीजेपी और आरएसएस का रुख ठीक उसी तरह है जिस तरह शम्बूक नामक शूद्र की ज्ञान प्राप्ति से घबराये हुए अयोध्या के ब्राह्मणो का था। रामायण में इस बात का जिक्र है की शम्बूक की ज्ञान प्राप्ति को रोकने के लिए उस समय अयोध्या के ब्राह्मणो के पास कोई उचित तर्क नही था। इसलिए उन्होंने एक ब्राह्मण के बालक की असामयिक मृत्यु को उसके साथ जोड़ दिया। और उस समय के राजा राम को उस नितान्त असंगत आधार पर भी शम्बूक की हत्या करने में कोई हिचक नही हुई। समाज में ऊपरी पायदान पर बैठा वर्ग हमेशा अपनी स्थिति के खो जाने की आशंका से भयभीत रहता है। और वो हमेशा इस स्थिति को बनाये रखने में कुतर्को और षड्यंत्रों का सहारा लेता रहा है। चाहे द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा काटने की घटना हो या मौजूदा समय में उच्च शिक्षा में दलितों के प्रवेश को रोकने के लिए की गयी तिकड़में हों।
                JNU में छात्रवृति बंद करने के पीछे भी यही कारण था। उच्च शिक्षा से छात्रवृति बंद करना सीधे सीधे गरीब छात्रों को उच्च शिक्षा से वंचित किये जाने का मामला है जिनमे से बड़ा हिस्सा दलितों से आता है। इस निर्णय के विरोध में JNU छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया के नेतृत्व में छात्रों का संघर्ष और OCCUPAI  UGC  जैसे प्रोग्राम सामने आये। इन सब पर सरकार ने जो दमन चक्र चलाया उसके बाद सरकार इस  स्थिति में ही नही है की वो इससे इंकार कर सके।
                 उसके बाद संसद में और टीवी चैनलों पर बीजेपी और आरएसएस के प्रवक्ता इस बहस को दुर्गा और महिसासुर तक ले गए। इसे यहां तक लेकर जाना आरएसएस और बीजेपी के उस प्लान का ही हिस्सा है जो देश में एक साम्प्रदायिक और जातीय विभाजन खड़ा करने की कोशिश करता हैं। संसद की ये परम्परा रही है की किसी भी वर्ग समूह द्वारा किसी भी देवी देवता और ऐतिहासिक महापुरुषों के बारे में की गयी आपत्तिजनक टिप्पणी का मुद्दा यदि उठाया जाता है तो उन शब्दों का प्रयोग ज्यों का त्यों नही किया जाता जिन पर आपत्ति होती है। क्योंकि इससे किसी दूसरे समुदाय की भावनाएं आहत हो सकती हैं। लेकिन बीजेपी ने स्मृति ईरानी के नेतृत्त्व में ठीक उन्ही शब्दों का प्रयोग किया और पहले घटी हुई किसी घटना जिसमे बीजेपी के  मौजूदा सांसद उदित राज मुख्य वक्ता थे, उसके लिए राहुल गांधी को जवाब देने के लिए कहा। बीजेपी एक बार अपने सांसद उदित राज से तो पूछ लेती की उसका इस बारे में क्या विचार है। लेकिन उसने इसका राजनैतिक प्रयोग किया।
                 भारतीय समाज में देवी देवताओं और पूजा पध्दतियों के बारे में इतनी विविधतायें हैं जिनको आरएसएस और बीजेपी एक रूप देने की विफल कोशिश करती रही हैं। कुछ समुदाय महिसासुर और रावण की पूजा करते हैं। बिहार में जरासंध का जन्मदिन मनाया जाता है और उसमे बीजेपी के नेता शामिल होते हैं। धर्म की मान्यताएं हमेशा अकादमिक बहस का मुद्दा रही हैं। जिन्हे हम समाज सुधारक कहते है उन्होंने क्या किया था ? पहले चली आ रही मान्यताओं पर हमला करके उनके जन विरोधी चरित्र को उजागर किया था और उन्हें बदलने के लिए लोगों को तैयार किया था। इस तरह तो सबको देशद्रोही घोषित किया जा सकता है। बीजेपी के प्रवक्ता का ये कहना की हमे महिसासुर की पूजा से एतराज नही है बल्कि दुर्गा के चित्रण में प्रयोग शब्दों पर आपत्ति है। लेकिन ये आपत्ति तो कुछ लोगों द्वारा महिसासुर और रावण के चित्रण में प्रयोग शब्दों पर भी हो सकती है। क्या संबित पात्रा इस बात की गारंटी लेंगे की की आगे से चाहे रामलीला हो या कोई दूसरा प्रवचन, उसमे इनके लिए उस तरह का चित्रण नही किया जायेगा। इसलिए लोगों और विभिन्न समूहों द्वारा सदियों से अपनाये गए रीती रिवाजों पर अकादमिक बहस तो हो सकती है, लेकिन इनका राजनैतिक इस्तेमाल देश को बहुत महंगा पड़ सकता है।
                अब आते हैं रोहित वेमुला की मौत पर। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं की ABVP के कहने पर बीजेपी सरकार के मंत्रियों ने उन पर कार्यवाही के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया और उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर निकलवाया। हो सकता है ये चीजें अदालत में साबित ना हों। अदालत में बहुत सी चीजें साबित नही होती, इसका मतलब ये नही होता की सच्चाई बदल जाएगी। रोहित एक होनहार रिसर्च स्कालर था और उस वर्ग से आता था जो रामराज से आज तक शिक्षा का अधिकारी स्वीकार नही किया गया है। ये साफ तोर पर दूसरी बार शम्बूक की हत्या है।

न्याय और व्यवस्था को विफल करने की कोशिश

            
  पिछले लगभग दो सालो से जब से ये सरकार सत्ता में आई है तब से नई तरह बहस, नए तरह के कुतर्क और नए तरह के हथकंडे सामने आ रहे हैं। केवल बहस के स्तर पर ही नही बल्कि कार्यवाही के स्तर पर भी नए हथकंडो का सहारा लिया जा रहा है।
               बीजेपी के लोग चाहे वो सरकार में रहें या विपक्ष में वो हमेशा इन हथकंडों का सहारा लेते है। कुतर्कों से बहस करते हैं और तकनीकी कुप्रयासों से  न्यायायिक और प्रशासनिक व्यवस्था को विफल करते हैं। ये तरीका हमने गुजरात में अच्छी तरह से देखा था। जब 2002 की ट्रेन का डब्बा जलाने की घटना के बाद गुजरात में सरकार प्रायोजित हिंसा का ताण्डव हुआ और उस पर जब बीजेपी नेताओं से सवाल पूछे गए तो उन्होंने उसे उसी तरह की स्वाभाविक पर्तिकिर्या बताया जैसे अब दिल्ली में वकीलों के हमले को बताया। जब दबाव बढ़ता तब बीजेपी के नेता हल्के स्वरों में हिंसा की निंदा करते और जब कार्यवाही की बात आती तो हमलावरों के साथ खड़े हो जाते। हिंसा पर सवाल उठाने वालों पर सामने से सवाल किया जाता की क्या गीधरा की घटना सही थी ? पूरा देश उसकी निंदा करता रहा लेकिन बीजेपी और आरएसएस उसे अपने कुकर्मो और हमलावरों के समर्थन में  इस्तेमाल करती रही। अब जब JNU और हैदराबाद विश्विद्यालय का  सवाल उठाया जाता है तो उसी तरह सामने से सवाल दागा जाता है की क्या देश के खिलाफ नारे लगाना सही है ? आप लाख जवाब देते रहिये और निंदा करते रहिये लेकिन उसे कौन सुनने वाला है।
               दिल्ली पुलिस की कार्यवाही पर जब संसद में पूछा गया तो गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा की पुलिस ने कानून के अनुसार काम किया है। पुलिस उच्चत्तम न्यायालय के स्पष्ट आदेशों के बावजूद हमलावरों को क्यों सहयोग कर रही थी इसका जवाब उन्होंने नही दिया। बीजेपी के सभी वक्ताओं ने पूरी बहस को तकनीकी मामलों में उलझाने की पूरी कोशिश की। कन्हैया की जमानत के मामले में दिल्ली पुलिस ने जिस तरह सरकार के साथ साथ अपनी पोजीशन बदली उसके लिए उसने कहा की नए तथ्य सामने आये हैं। लेकिन जो लोग मुंह ढंककर नारे लगा रहे थे उन पर पुलिस ने कुछ नही कहा। गोधरा में भी यही हुआ था। असली गुनहगार कभी नही पकड़े जायेंगे। नकली विडिओ फुटेज बनाने वालों पर कार्यवाही पर व्ही जवाब की जाँच चल रही है। वकीलों के असली विडिओ पर कार्यवाही पर व्ही जवाब की जाँच चल रही है।
               लेकिन इस बार एक फर्क है। देश गुजरात से बहुत बड़ा है। पूरा देश हिंदुत्व की प्रयोगशाला में बदल जायेगा ये खुशफहमी ही है। धीरे धीरे बीजेपी और आरएसएस की कार्यप्रणाली और उद्देश्य दोनों सामने आ रही हैं। लोग इसे समझने लगे हैं। भले ही उनकी संख्या अभी कम है और उन्माद का असर है लेकिन पर्दाफाश होकर रहेगा।

Tuesday, February 23, 2016

राष्ट्रवादी हमला -- अदालत सुरक्षित जगह ढूंढ रही है।

              JNU अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद पटियाला हॉउस कोर्ट में हुई हिंसा के बाद दिल्ली पुलिस को उच्चत्तम न्यायालय ने पूरी सुरक्षा के आदेश दिए। उसके बाद कन्हैया कुमार को कोर्ट में पेश करते वक्त जिस तरह तथाकथित राष्ट्रवादी वकीलों के एक गिरोह ने कन्हैया और प्रैस के लोगों पर हमला किया और उनकी पिटाई की उस पर पुलिस कमिशनर के उस वक्त के लंगड़े बचाव के बाद ये बात भी सामने आ गयी की ये हमला बाकायदा पुलिस के सहयोग से किया गया था। उसके बाद कई सवाल उठे। लेकिन सरकार और पुलिस के प्रवक्ताओं ने इसे बहुत ही मामूली सी घटना बताया। उसके बाद कई दिनों तक उन वकीलों की गिरफ्तारी ना होना और बाद में गिरफ्तारी के तुरंत बाद पुलिस द्वारा ठाणे में ही उनको जमानत दे दिया जाना दिखाता है की पुलिस और सरकार की मिलीभगत अब भी जारी है।
              इससे पहले गुजरात दंगो के बाद भी ये बात सामने आई थी की गुजरात में इन दंगों के मामले पर निष्पक्ष सुनवाई सम्भव नही है। तब उच्चत्तम न्यायालय ने उन केसों की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने का फैसला किया। जिन केसों को पुलिस ने बंद कर दिया था उन्हें SIT और सीबीआई ने दुबारा खोला और उनमे सजा हुई। ये बात सामने आ गयी की सारी पुलिस कार्यवाही और सरकार के बयान फर्जी थे। लेकिन उसके लिए ना तो सरकार और ना ही पुलिस के किसी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही हुई। न्याय व्यवस्था को विफल करने के दोषी मजे से अपना काम करते रहे।
              उसी तरह का माहौल अब पटियाला हाउस कोर्ट के मामले में है। ऐसा कहा जा रहा है की उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य के मामले में जज अदालत की बजाय पुलिस स्टेशन में आकर सुनवाई कर  सकता है। यानि ये मान लिया गया है की पटियाला हाउस कोर्ट में अदालती कार्यवाही की सुरक्षा की कोई गारंटी नही है। और ये हालात किसने पैदा किये है ? उन्ही लोगों ने जिनको गिरफ्तार करने की पुलिस को कोई जरूरत महसूस नही हुई और सरकार जिसे मामूली घटना बता रही है। अदालत का कामकाज हिंसा के द्वारा रोक दिया गया और अदालत खुद के लिए सुरक्षित जगह ढूंढ रही है और ये मामूली  घटना है।
               इन राष्ट्रवादी हमलों का अगला दौर संसद और विधानसभाओं की कार्यवाहियों को जबरदस्ती अंदर घुस कर रोक देने का होगा। क्योंकि संविधान में अदालत और विधायिका को समान दरजा है। हो सकता है एक राष्ट्रवादी आतंकवादियों का एक गुट कल दिल्ली विधानसभा में घुस जाये और केजरीवाल से कहे की बाकि बातें छोडो और भारत माता की जय बोलो।
               जो लोग घटनाओं की गंभीरता को नही समझ रहे हैं और इन लोकतंत्र विरोधी राष्ट्रवादियों की हाँ में हाँ मिला रहे हैं उन्हें जब तक इसकी गंभीरता समझ में आएगी तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी। वो अलग बात है की उनको कोई फर्क नही पड़ता। क्योंकि वो और उनके ये राष्ट्रवादी गुंडे तो अंग्रेजी राज में भी कुशल पूर्वक थे , आजादी के लिए मरने वाले तो दूसरे ही थे।

Sunday, February 21, 2016

बीजेपी पूर्व सैनिकों के नाम पर फासिज्म को बढ़ावा दे रही है।

खबरी -- बीजेपी JNU के मामले को सैनिकों से क्यों जोड़ रही है ?

गप्पी -- फासिज्म की पहचान ही यही है की वो देशभक्ति का चोला ओढ़कर आता है। पूरा विश्व इतिहास इसका गवाह है। आरएसएस भारत में भी फासिज्म को तिरंगे में लपेट रही है। उस तिरंगे में, जिसको खुद उसने कभी अपने कार्यालयों पर नही फहराया। JNU की घटना का सैनिकों से या तिरंगे से कोई लेना देना नही है, लेकिन चूँकि पूरा देश सेना और सैनिकों का सम्मान करता है इसलिए आरएसएस इसे घुमा फ़िरा कर सेना से जोड़ने की कोशिश कर रही है। वरना पूरा देश जानता है की सेना के जवान जिन किसानो और मजदूरों के घरों से आते हैं उनके लिए बीजेपी सरकार ने क्या किया है। देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बीजेपी के राज में दो गुनी हो गई है। जितना बदहाल किसान आज है उतना इससे पहले कभी नही था। यही किसान अपने एक बेटे को सरहद पर भेजता है। इसी सैनिक का उपयोग बीजेपी किसान के उस बेटे के खिलाफ करने की कोशिश कर रही है जो कालेज में पढ़ता है और सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत करता है।
               पहले एक मजाक बहुत प्रचलित था जिसमे एक छात्र जवाहरलाल पर निबंध याद करता है। उसके बाद परीक्षा में चाहे गुलाब पर निबंध लिखना हो या कोट पर, संसद पर लिखना हो या संविधान पर, वो उसे घुमा फ़िर कर जवाहरलाल पर ले आता है और हर बार वही लिख देता है। आरएसएस और बीजेपी का भी वही हाल है। मामला चाहे आदिवासियों का हो, छात्रों का हो, हथियारों में दलाली का हो या दिल्ली के वकीलों का हो, वो उसे घुमा फ़िर कर सैनिकों और शहीदों पर ले आती है और हल्ला कर देती है की देखो ये सब देशद्रोही हैं और शहीदों का अपमान कर रहे हैं।

Thursday, February 18, 2016

संघ और बीजेपी कबसे देशभक्त हो गए ?

              नई खबर आई है की आरएसएस और बीजेपी देश भक्त हो गए हैं। वरना अब तक तो लोगों को ये पता है की इन्होने आजादी की लड़ाई का विरोध किया था। लेकिन कुछ और भी तथ्य हैं जिनको जानना जरूरी है। इन तथ्यों से ये साफ हो जायेगा की बीजेपी और आरएसएस की देशभक्ति केवल सत्ता प्राप्त करने का हथियार है। जैसे --
१.   आजादी से पहले  तरफ संघ के संचालक गोलवरकर हिन्दुओं को आजादी की लड़ाई से दूर रहने का आह्वान कर रहे थे और अंग्रेजों के साथ सहयोग कर रहे थे तब इनका राजनितिक दल था हिन्दू महासभा। इसके अध्यक्ष थे वीर सावरकर ( वीर शब्द वीरता के लिए बल्कि उनका नाम वीर था ) और इसके दूसरे प्रमुख नेता थे श्यामा प्रशाद मुखर्जी। जब मोहम्मद अली जिन्ना अलग पाकिस्तान के लिए सीधी कार्यवाही का नारा दे रहे थे और जो भारत के विभाजन और 20 लाख लोगों की मौत का कारण बना, उस समय ये जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कांग्रेस के विरोध में तीन प्रांतों, सिंध, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त और बंगाल में साझा सरकार चला रहे थे।
2.    जब पंजाब में खालिस्तानी उग्रवाद अपने चरम पर था और उसके बाद अकाली दल ने संसद के मुख्य द्वार पर भारत के संविधान की प्रति जलाई थी तब से ही अकाली इनके सहयोगी हैं। उसके बाद अब तक पंजाब में उग्रवाद और नेताओं की हत्या में सजा प्राप्त उग्रवादियों की अकाली दल तरफदारी करता रहा है और उसे बीजेपी का समर्थन प्राप्त है। बीजेपी ने इन मौत की सजा प्राप्त आतंकवादियों को कभी देश द्रोही नही कहा।
3.      तमिलनाडु में लिट्टे का खुलेआम समर्थन करने वाले, प्रभाकरन को हीरो बताने वाले MDMK के साथ इन्होने पिछला लोकसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा था और वो NDA का हिस्सा थी जो बाद में श्रीलंका के मामले पर खुद अलग हो गयी। बीजेपी ने राजीव गांधी की हत्या करने वाले और फांसी की सजा प्राप्त लोगों को कभी देश द्रोही नही कहा।
4.        कश्मीर के मामले पर पीडीपी का रुख और अफजल गुरु को शहीद मानने का उसका एलान सबको मालूम है। लेकिन जब बीजेपी को ऐसा लगा की वहां सत्ता की मलाई में हिस्सा हो सकता है तो उसने एक मिनट नही लगाई उसके साथ समझौता करने में। उसके बाद कश्मीर में अफजल गुरु को शहीद बताने वाले बीजेपी की तरह ही देहभक्त हो गए और बाकि देश में देश द्रोही रह गए।
5.          याकूब मेनन की फांसी को 15 दिन रोकने के लिए जिन 100 बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रपति को अपील करते हुए पत्र लिखा था उन सब को बीजेपी ने देशद्रोही करार दे दिया। अब 26 /11 के हमले के आरोपी डेविड हेडली को बीजेपी सरकार ने पूरी माफ़ी देने का समझौता कर लिया उसके बाद भी वो देशभक्त हैं। डेविड हेडली भी सालस्कर जैसे सैनिकों की मौत का जिम्मेदार है और तब बीजेपी को सेना के शहीदों की याद नही आई।
6.          बार बार अपने पक्ष में लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए बीजेपी हमेशा सेना और शहीदों का नाम लेती रही है। लेकिन OROP के सवाल पर यही सेना के वेटरन 6 महीने धरना देकर बैठे रहे, मैंने रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल सतबीर सिंह की आँखों में आंसू देखे हैं , इन्होने अपने मेडल वापिस कर दिए , लेकिन बीजेपी ने उनकी मांग नही मानी जिसपर सालाना 8000 करोड़ खर्च का अनुमान था। दूसरी तरफ उसने केवल 30 उद्योगपतियों का एक लाख चौदह हजार करोड़ एक झटके में माफ़ कर दिया। इतनी रकम के केवल ब्याज से ही OROP को दो बार लागु किया जा सकता है।
                   इसके साथ ही ये भी एक सवाल है की बीजेपी ने कभी भी असम के उग्रवादियों, बोडो उग्रवादियों, तमिल उग्रवादियों, खालिस्तानी उग्रवादियों और प्रज्ञा ठाकुर जैसे हिन्दू उग्रवादियों के लिए कभी भी देश द्रोही शब्द का इस्तेमाल करना तो दूर उल्टा उनकी मदद ही की है। बीजेपी केवल मुस्लिम और नक्सली उग्रवादियों के लिए ही देशद्रोही शब्द का प्रयोग करती है। इसलिए कम से कम बीजेपी और आरएसएस की देशभक्ति हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी।

Sunday, February 14, 2016

वामपन्थ पर हमला और संघी राष्ट्रवाद

            JNU की घटना और उसके बाद संघ और बीजेपी सहित सरकार समेत उसके सभी अंग वामपंथ पर टूट पड़े हैं। इनमे वामपंथ को देशद्रोही साबित करने की होड़ लग गयी है। JNU की घटना में वामपंथी छात्र संगठनो की भूमिका को एकतरफा तरीके से दिखाने की कोशिशों के बावजूद, इस बात को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है की ये सारी कवायद बीजेपी सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में आरएसएस के एजेंडे के अनुसार भगवाकरण करने के प्रयास और पुरे देश में वामपंथी छात्र संगठनो के नेतृत्त्व में उसके बढ़ते हुए विरोध के बाद शुरू हुए हैं। शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से बाहर करने की कोशिश में लगातार बढ़ाई जा रही फ़ीस, शोध के क्षेत्र में स्कॉलरशिप खत्म किये जाने, और तीसरे दर्जे के लोगों को, जो संघ की विचारधारा के नजदीक हैं, उन्हें शिक्षा संस्थानों में नियुक्त किये जाने का इन संगठनो ने भारी विरोध किया था। इस बार इस विरोध में उनके साथ दलित छात्रों के संगठन और अल्पसंख्यकों के छात्र संगठनो का भी समर्थन था और बीजेपी के लिए इसे आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा था।
              लेकिन इस सबके बावजूद राष्ट्रवाद की ठेकेदारी करने वाले इन संघी संगठनो और वामपंथी संगठनो के पिछले रिकार्ड पर भी एक नजर डालना बेहतर  होगा।
                पंजाब में जब आतंकवाद अपने शिखर पर था और देश की एकता और अखण्डता को चुनौती दे रहा था तब उसके विरोध में कौन खड़ा था। वामपंथी पार्टियों के 200 से ज्यादा नेता इसमें शहीद हुए थे लेकिन उन्होंने अंत तक उसका मुकाबला किया था। बीजेपी बताये की उसके कितने और किस किस नेता ने क़ुरबानी दी थी ? उस समय अकाली दल ने संसद भवन के गेट पर भारत के संविधान की प्रति जलाई थी। उसके बाद से ही अकाली दल और बीजेपी सहयोगी दल हैं।
               बीजेपी हमेशा कश्मीर के मुद्दे को उठाती रही है। लेकिन उसका योगदान वहां आतंकवाद से लड़ने में क्या है ? बीजेपी और उसके अनुपम खेर जैसे समर्थक एक नाम नही बता सकते जिसने कश्मीर में आतंकवाद से लड़ते हुए जान दी हो। हाँ, कश्मीर के नाम पर कमाई जरूर की है फिर चाहे वो सरकार में हिस्सेदारी का मामला हो या पद्म पुरस्कारों का। दूसरी तरफ कश्मीर में सीपीएम के राज्य सचिव मोहम्मद युसूफ तारिगामी पर आतंकवादियों के दस से ज्यादा हमले हुए हैं और इन हमलों में उसके 15 से ज्यादा परिवार के सदस्य मारे गए हैं। लेकिन उसने कश्मीर नही छोड़ा और अब भी वहीं है। इस तरह के कई उदाहरण हैं।
                आजादी से पहले तो संघ का रिकार्ड ही अंग्रेजों के सहयोगी का रहा है। लेकिन कुछ तथ्य हैं जिनका आम जनता को नही पता। आजादी से पहले आज की बीजेपी के आराध्य नेता श्यामा प्रशाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के नेता होते थे। 1940 में जब जिन्नाह की मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान की मांग का प्रस्ताव पास किया, उसके बाद जिन्ना और मुस्लिम लीग का हर कदम पाकिस्तान की तरफ बढ़ रहा था। आजादी से पहले जब अंग्रेज राज के तहत स्थानीय शासन के लिए विधान सभाओं के चुनाव हुए थे उसमे इसी हिन्दू महासभा ने कांग्रेस का विरोध करते हुए मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। हैरत है की इन सारे तथ्यों के बावजूद आज राष्ट्रवाद की ठेकेदारी संघ और बीजेपी कर रही हैं।
                  आज भी मौजूदा समय में संघ और बीजेपी के राष्ट्रवाद और देश प्रेम का एक नमूना मैं यहां देना चाहता हूँ। भारत के लगभग 30 बड़े उद्योगपति, आम जनता के खून पसीने की कमाई का एक लाख चौदह हजार करोड़ रुपया दबा कर बैठ गए। बीजेपी सरकार ने बैंको को इस पैसे की उघराणी करने की बजाए इसे माफ़ कर देने को कहा। बैंको ने ये सारा कर्जा माफ़ कर दिया जबकि इन लोगों के पास लाखों करोड़ की सम्पत्ति है। इसके बाद इन उद्योगपतियों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने की बजाए, बीजेपी सरकार ने इस साल उनमे से दो लोगों को पदमश्री दे दिया। लोगों की मेहनत की कमाई को चर जाने का इनाम। संघ और बीजेपी के राष्ट्रवाद का यही तरीका है। ये रकम पुरे देश के आदिवासियों को पिछले पांच साल में दिए गए बजट प्रावधान से ज्यादा होती है। अब अगर कोई आदिवासी इस पर सवाल  करेगा तो उसे आराम से नक्सली घोषित करके मारा जा सकता है।
                    सरकार के इस काम में अज्ञानी और धर्मान्ध लोगों का एक तबका सहयोग करता है। साथ में कुछ टीवी चैनल, ( जो या तो सीधे तौर पर इस फायदा प्राप्त उद्योगपतियों के होते हैं या फिर उन्हें विज्ञापन के बड़े लाभ दिए जा रहे होते हैं। राज्य सभा की सीट और पद्म पुरस्कार अलग से ) इसमें लगातार सरकारी प्रचार में लगे रहते हैं।
             सवाल ये है की क्या बीजेपी और संघ, वामपंथ पर हमला करके शिक्षा के भगवाकरण और व्यापारीकरण में कामयाब हो जायेगा। या फिर लोग इसे जनतन्त्र पर हमला मान कर विफल कर देंगे।

Sunday, September 27, 2015

क्या भाजपा ( BJP ) वाकई में आरएसएस ( RSS ) के एजेंडे पर काम कर रही है ?

भाजपा पर हमेशा से ये आरोप लगता रहा है की वो आरएसएस के गुप्त एजेंडे पर काम कर रही है। लेकिन इस बार आरोप गुप्त नही बल्कि खुले तौर पर आरएसएस के एजेंडे पर काम करने का है। भाजपा और आरएसएस ने कभी भी आपसी रिश्तों का खण्डन नही किया है बल्कि उसे स्वीकार किया है। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद इन रिश्तों का खुल कर सामने आना इस आरोप को और ज्यादा सही होने को प्रमाणित करता है। यहां सवाल ये है की आरएसएस का वो एजेंडा आखिर है क्या जिसको लागु करने का लोग आरोप लगा रहे हैं और सारे रिश्तों की स्वीकारोक्ति के बावजूद भाजपा जिससे इंकार करती रही है।
                   आरएसएस एक हिन्दू उच्च जातियों का संगठन है जिसकी स्थापना आजादी से पहले हुई थी। परन्तु इसकी स्थापना आजादी की लड़ाई में किसी योगदान के लिए नही बल्कि भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से हुई थी। आरएसएस को अंग्रेजों से कोई तकलीफ नही थी इसलिए आरएसएस के सर संघ चालक गोलवरकर ने उस समय हिन्दुओं से ये आह्वान किया था की आजादी की लड़ाई में शामिल हो कर अपनी शक्ति और समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नही है। और हिन्दुओं को अंग्रेजों से बड़े दुश्मन मुस्लिमों, ईसाईयों और कम्युनिष्टों के खिलाफ लड़ना चाहिए।
                    आरएसएस जिस हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है उसमे उसकी योजना मनु स्मृति के अनुसार बताये गए ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र की चार श्रेणियों में बंटे समाज की स्थापना करना है। इस समाज में दलितों और महिलाओं को कोई अधिकार नही होंगे और उसी तरह दूसरे धर्म को मानने वालों को भी कोई अधिकार नही होंगे। उसकी अवधारणा में लोकतंत्र कहीं फिट नही बैठता है। अब जरूरत इस बात की है की आखिर इसकी स्थापना के लिए कौनसे काम करने जरूरी होंगे।

                १. आजादी की लड़ाई में कोई भी हिस्सेदारी ना होने और इसे एक महान उपलब्धि के रूप में स्वीकार ना करने की समझ और उसके बाद आजादी की लड़ाई ने हमारे देश में जिन लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना की थी वो सब आरएसएस के हमले के दायरे में हैं। ये मूल्य धर्मनिरपेक्षता, समानता और स्वतंत्रता के साथ सामाजिक न्याय के मूल्य थे। ये सभी मूल्य आरएसएस के मानस  में मौजूद हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में फिट नही बैठते हैं।

                 २. इसलिए आरएसएस हमेशा ऐसे कार्यक्रमों और ब्यानो को बढ़ावा देती है जिससे हिन्दुओं और दूसरे धर्म के लोगों के बीच गहरी विभाजन रेखा खींची जा सके। वो इस काम को कभी भी ठंडा नही होने देना चाहती इसलिए उसके नेता कुछ ना कुछ ऐसे बयान देते रहते हैं जिससे हिन्दू और गैर हिन्दू हमेशा आमने सामने रहें। इस खाई को चौड़ा करने के लिए वो हर उस चीज और विविधता को मुद्दा बनाते हैं जो इन समुदायों के बीच में है , जैसे खाने पीने की आदतों में फर्क, कपड़ों और पहनावे में फर्क, पूजा पद्धति में फर्क, त्योहारों और धार्मिक मान्यताओं में फर्क। इसलिए आरएसएस सबसे पहले उस जगह हमला करता है जहां उसे ज्यादा लोगों का समर्थन मिलने की उम्मीद होती है और फिर आहिस्ता आहिस्ता एक एक कदम उसे आगे बढ़ाता रहता है। जैसे पहले उसने बीफ बैन को मुद्दा बनाया ताकि गाय के प्रति हिन्दुओं की भावनाओं को भुनाया जा सके फिर धीरे धीरे मीट बैन तक चले गए।

                   ३. आरएसएस के लोग ईद पर क़ुरबानी को भी मुद्दा बना रहे हैं जबकि हिन्दुओं के कितने मंदिरों में ही अब तक बलि की प्रथा जारी है। झारखंड से रोज डायन कहकर महिलाओं को मारने की खबरें आती हैं। पूरी दुनिया में मुस्लिम ईद पर क़ुरबानी देते हैं अब इस को भी विवाद का विषय बनाना उस बड़ी साजिश का ही हिस्सा है जिसमे कभी भी इस आग को ठंडा ना होने देने की बात है। आरएसएस को मालूम है की मुस्लिम कभी भी ईद पर क़ुरबानी की प्रथा को बंद करने की मांग को मान नही सकते। जिस जीव हत्या को बहाना बनाकर आरएसएस मुस्लिमो पर हमले कर रहा है तो उसे सभी तरह के पशुओं , मछलियों, मुर्गे, बकरे और सूअर इत्यादि सभी तरह के पशुओं के पालने पर प्रतिबंध लगाना होगा। साथ ही उसे सभी तरह के हिंसक जानवरों जैसे शेर इत्यादि को भी खत्म करना होगा क्योंकि वो सभी जीव हत्या के कारण हैं। लेकिन चूँकि हमला मुस्लिमो पर है इसलिए इस प्रतिबंध को मुस्लिमो की मान्यताओं, खाने की आदतों और काम धंधे तक ही सिमित रखना होगा। मीट बैन के लिए आरएसएस और बीजेपी ने इस बार जैन समुदाय को बहाना बनाया और तर्क दिया की चूँकि जैन समुदाय अल्पसंख्यक है इसलिए उसकी भावनाओं का भी सम्मान करना चाहिए। जब मुस्लिमो का सवाल आता है तब आरएसएस का तर्क होता है की उसे बहुमत की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।

                          ४.आरएसएस ने मुस्लिमो के खिलाफ नफरत फ़ैलाने के अपने अभियान में शुरुआत उन मुगल हमलावरों से की जो भारत को लूटने के इरादे से आये थे और जिनसे भारतीय जनता के मन में नफरत का भाव था जैसे मोहम्मद गौरी और गजनी। धीरे धीरे ये उसे बढ़ाकर पुरे मध्यकाल तक ले आये लेकिन इसमें भी उन्होंने ओरंगजेब जैसे शासकों को सामने रखा। आज हालत ये है की वो भारतीय  इतिहास के महान शासकों जैसे अकबर और टीपू सुल्तान को भी देशद्रोही साबित करने पर तुले हैं। अब बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है और यहां तक की उनका हमला पूरी तरह साम्प्रदायिक रूप ले चूका है और इसमें हर मुस्लिम शामिल है चाहे  वो उपराष्ट्रपति अहमद अंसारी ही क्यों ना हों। पूरी दुनिया में विभाजनकारी ताकतें इसी तरह आहिस्ता आहिस्ता अपने विरोध का दायरा बढ़ती हैं और अपने पैर फैलाती हैं।

                          ५. आजादी की लड़ाई के स्वतंत्रता, समाजवाद और भाईचारे जैसे मूल्यों पर हमला करने के लिए उन्होंने कांग्रेस के मौजूदा नेताओं को चुना। सोनिया के विदेशी मूल को मुद्दा बनाने के बाद पूरा गांधी परिवार उनके हमले के दायरे में आ गया। यहां तक की UPA सरकार के भृष्टाचार को भी उन्होंने गांधी परिवार पर व्यक्तिगत हमले के लिए प्रयोग किया। उसके बाद जवाहरलाल नेहरू पर हमला करने के लिए उन्होंने सरदार पटेल और नेहरू के मतभेदों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया। अब वो नेहरू पर हमला करने के लिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को मोहरा बना रहे हैं। ये हमला नेहरू पर नही बल्कि उन सभी मूल्यों पर है जो आरएसएस की राह में रोड़ा हैं। ये लोग नेहरू को बहाना बना कर उन सभी मूल्यों पर हमला कर रहे हैं। जबकि सच्चाई ये है की इनके खुद के पास नेहरू के कद के आसपास का तो छोडो उसके पांच प्रतिशत का भी कोई नेता नही है।

                          ६. आरएसएस को अपनी इस मुहीम में सबसे ज्यादा खतरा वामपंथियों से है। क्योंकि यही एक विचारधारा है जो आरएसएस को रोक सकती है। वामपंथियों से मतलब केवल राजनैतिक पार्टियां नही बल्कि वो सभी लोग हैं जो शिक्षा, साहित्य और कला के क्षेत्र में पुरे देश में फैले हुए हैं। इसलिए मोदी सरकार आने के तुरंत बाद उन्होंने सबसे तेज हमला हमारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा, साहित्य और कला से जुड़े संस्थानों पर किया। सभी मुख्य संस्थानों में से काबिल लोगों को बाहर करके अपने तीसरे और चौथे दर्जे के लोगों को भरना शुरू किया। FTII से लेकर IIT और नेशनल बुक ट्रस्ट तक सारी नियुक्तियां और पुरे देश में शिक्षा के स्लैब्स को बदलने की मुहीम इसी का हिस्सा है। इन्होने भाषा को भी इस विभाजन का आधार बना दिया। अब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को नक्सलियों और ड्रग्स का अड्डा बताना और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा बताना भी इसी हमले का हिस्सा है।

                              ७. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का ये बयान की हिन्दू धर्म ने कभी भी महिलाओं की बराबरी की बात नही की और बार बार ये दोहराना की महिलाओं की पहली जिम्मेदारी घर होती है या उसके संगठनो द्वारा वेलेंटाइन डे इत्यादि पर हमले करना, महिलाओं के प्रति आरएसएस की सोच और एजेंडे  को सामने लाता है। अब आरक्षण पर मोहन भागवत के लगातार बयान दलितों के प्रति उसकी सोच के परिचायक हैं। संघ अभी इन चीजों को लागु करने की स्थिति में नही है इसलिए इन पर एक आदमी बयान देता है और दूसरा खंडन करता है ताकि दोनों तरफ के लोगों को संकेत दिया जा सके। भारत के संविधान के जिन हिस्सों पर संघ को घोर आपत्ति है उसमे महिलाओं और दलितों की बराबरी वाले हिस्से शामिल हैं। ये बात भी किसी से छिपी नही  है की संघ ने तो संविधान की जगह मनु स्मृति लागु करने की मांग की थी।

                                और इन ऊपर के सभी कार्यक्रमों को मोदी सरकार पूरी तैयारी और जोर के साथ लागु कर रही है। बेसक अभी कुछ विदेशी निवेशकों को जाने वाले गलत संदेशों को रोकने के लिए और NDA में शामिल दूसरी पार्टियों को बेनकाब होने से बचाने के लिए प्रधानमंत्री कभी कभी कुछ अच्छी बातें भी कह देते हैं जो भरम फ़ैलाने के लिए जरूरी है लेकिन जमीन पर सब कुछ उसी तरह से लागु किया जा रहा है जो आरएसएस चाहती है। फिर इस बात में किसको संदेह रह जाता है की बीजेपी आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रही है।