आरएसएस को कभी ऐसा लगता था की अगर केंद्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार आ जाये तो वो बहुत आसानी से " भारत विजय " कर सकता है। यहां भारत विजय से मतलब है देश के लोगों द्वारा देश, देशभक्ति, लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्र के बारे में जो संघ का विचार है उसे देश की जनता द्वारा स्वीकार कर लिया जाना है । इसलिए उसने सरकार के में आते ही अपने एजेंडे को लागु करना शुरू कर दिया। जिन संस्थाओं और मूल्यों को लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है और जो संघ की समझदारी के खिलाफ बैठती हैं, उन सब पर उसने हमला किया। भारत की विविधता पूर्ण संस्कृति, उसके बहुधर्मी समाज और अनेक भाषा भाषी होने की हकीकत संघ की राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ होती है। इसलिए हमारी संस्थाओं की पूरी कार्यप्रणाली अब तक इसी विचार के तहत थी। इसमें सबसे बड़ा योगदान हमारे विश्वविद्यालयों का था जो ना केवल इस अवधारणा के साथ खड़े हैं, बल्कि इस पर निरंतर शोध के जरिये इसे और ज्यादा समृद्ध भी करते हैं। वहां पढ़ने वाले छात्र और पढ़ाने वाले प्रोफेसर इस पर लगातार काम कर रहे हैं। इसके साथ ही वो ऐसे समाजशास्त्री भी हैं जो राष्ट्र और समाज के बारे में संघ की समझ का तर्कपूर्ण तरीके से विरोध करते हैं। संघ को मालूम है की जब तक हमारे विश्विद्यालय संघ की विचारधारा को स्वीकार नही करते तब तक उसका भारत विजय सपना पूरा नही हो सकता।
इसलिए उसने सबसे पहला हमला यहीं से शुरू किया। हमारे सिनेमा और टीवी से जुड़े और विश्व में अपनी प्रतिष्ठा रखने वाला FTII उनका पहला निशाना बना। संघ को मालूम है की उसकी विचारधारा में ना तो इतनी शक्ति है और ना ही उसे किसी स्वीकार्य शोध का समर्थन प्राप्त है की वो बहस के स्तर पर उसका मुकाबला कर सके। इसलिए उसने उसे बौद्धिक चुनौती देने की बजाए उसे नष्ट करना ही बेहतर ऑप्सन लगा। इसलिए उसने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के बदलाव किये की निरंतर शोध की यह प्रक्रिया ही समाप्त हो जाये। उसने पीएचडी करने वाले छात्रों की स्कॉलरशिप समाप्त कर दी। उसने दूसरे विश्व स्तरीय संस्थानों की फ़ीस में इतनी बढ़ोतरी कर दी की दलितों, गरीबों और दूर दराज से आने वाले छात्र उसमे दाखिला ही ना ले सकें। साथ ही उसने विश्विद्यालयों के उपकुलपति से लेकर दूसरे तमाम महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर दूसरे दर्जे के लोगों की नियुक्तिया करनी शुरू कर दी जो सिर झुकाकर संघ के आदेशों का पालन करते रहें।
इसके साथ ही उसने दबाव में ना आने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों को डराने धमकाने और यहां तक की उन पर शारीरिक हमलों तक की शुरुआत कर दी। विरोधी बुद्धिजीवियों पर झूठे मुकदमे बनवाने शुरू कर दिए और उनके संगठनो पर पाबंदियां लगानी शुरू कर दी। उनके लोगों ने इन कार्यों का विरोध करने वाले लोगों पर अदालतों तक में हमले किये और खुलेआम दुबारा ऐसा करने की धमकियां दी।
लेकिन क्या हुआ ? संघ को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा की लोगों ने डरकर समर्पण करने की बजाय उसके विरोध में खड़े होने और लड़ने का फैसला किया। FTII से लेकर चाहे वो JNU हो या इलाहबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या IIT मद्रास, हर जगह उनका पुरजोर विरोध हुआ। और जहां से उन्होंने लड़ाई शुरू की थी वो एक जगह से भी उसे जीत कर आगे नही बढ़ पाये। सरकार ने अपने सारे मुखौटे उतार फेंके लेकिन इस लड़ाई को जीत नही पाये। हाँ, इसका एक उल्टा असर जरूर हुआ। अब तक जो दलित छात्र संगठन दक्षिण की इक्का दुक्का संस्थानों में थी उसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया। वामपंथ, जो 2009 के चुनावों के बाद मीडिया में अपनी जगह खो चूका था उसे दुबारा हासिल करने में कामयाब रहा। और इन सब में जो सबसे बड़ी बात हुई वो ये की दलितों, वामपंथियों और अल्पसंख्यकों के बीच बड़े पैमाने पर एक साझा समझ विकसित हुई। लोगों में साथी और विरोधी की तर्कपूर्ण पहचान करने की समझ बढ़ी।
इसलिए जो संघ अब तक ये समझता था की एक सिमित हमले के बाद लोग समर्पण कर देंगे उसे एक एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उसे रस्ते में आने वाला हर सर कलम करना पड़ रहा है। उसके बावजूद अबतक तो उसे ये भी नही पता की वो आगे बढ़ा है या पीछे हटा है। पूरी सरकार की निष्पक्षता और सभी संस्थाओं की स्वायतत्ता को खोकर भी वो कुछ हासिल नही पाया।
इसलिए उसने सबसे पहला हमला यहीं से शुरू किया। हमारे सिनेमा और टीवी से जुड़े और विश्व में अपनी प्रतिष्ठा रखने वाला FTII उनका पहला निशाना बना। संघ को मालूम है की उसकी विचारधारा में ना तो इतनी शक्ति है और ना ही उसे किसी स्वीकार्य शोध का समर्थन प्राप्त है की वो बहस के स्तर पर उसका मुकाबला कर सके। इसलिए उसने उसे बौद्धिक चुनौती देने की बजाए उसे नष्ट करना ही बेहतर ऑप्सन लगा। इसलिए उसने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के बदलाव किये की निरंतर शोध की यह प्रक्रिया ही समाप्त हो जाये। उसने पीएचडी करने वाले छात्रों की स्कॉलरशिप समाप्त कर दी। उसने दूसरे विश्व स्तरीय संस्थानों की फ़ीस में इतनी बढ़ोतरी कर दी की दलितों, गरीबों और दूर दराज से आने वाले छात्र उसमे दाखिला ही ना ले सकें। साथ ही उसने विश्विद्यालयों के उपकुलपति से लेकर दूसरे तमाम महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर दूसरे दर्जे के लोगों की नियुक्तिया करनी शुरू कर दी जो सिर झुकाकर संघ के आदेशों का पालन करते रहें।
इसके साथ ही उसने दबाव में ना आने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों को डराने धमकाने और यहां तक की उन पर शारीरिक हमलों तक की शुरुआत कर दी। विरोधी बुद्धिजीवियों पर झूठे मुकदमे बनवाने शुरू कर दिए और उनके संगठनो पर पाबंदियां लगानी शुरू कर दी। उनके लोगों ने इन कार्यों का विरोध करने वाले लोगों पर अदालतों तक में हमले किये और खुलेआम दुबारा ऐसा करने की धमकियां दी।
लेकिन क्या हुआ ? संघ को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा की लोगों ने डरकर समर्पण करने की बजाय उसके विरोध में खड़े होने और लड़ने का फैसला किया। FTII से लेकर चाहे वो JNU हो या इलाहबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या IIT मद्रास, हर जगह उनका पुरजोर विरोध हुआ। और जहां से उन्होंने लड़ाई शुरू की थी वो एक जगह से भी उसे जीत कर आगे नही बढ़ पाये। सरकार ने अपने सारे मुखौटे उतार फेंके लेकिन इस लड़ाई को जीत नही पाये। हाँ, इसका एक उल्टा असर जरूर हुआ। अब तक जो दलित छात्र संगठन दक्षिण की इक्का दुक्का संस्थानों में थी उसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया। वामपंथ, जो 2009 के चुनावों के बाद मीडिया में अपनी जगह खो चूका था उसे दुबारा हासिल करने में कामयाब रहा। और इन सब में जो सबसे बड़ी बात हुई वो ये की दलितों, वामपंथियों और अल्पसंख्यकों के बीच बड़े पैमाने पर एक साझा समझ विकसित हुई। लोगों में साथी और विरोधी की तर्कपूर्ण पहचान करने की समझ बढ़ी।
इसलिए जो संघ अब तक ये समझता था की एक सिमित हमले के बाद लोग समर्पण कर देंगे उसे एक एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उसे रस्ते में आने वाला हर सर कलम करना पड़ रहा है। उसके बावजूद अबतक तो उसे ये भी नही पता की वो आगे बढ़ा है या पीछे हटा है। पूरी सरकार की निष्पक्षता और सभी संस्थाओं की स्वायतत्ता को खोकर भी वो कुछ हासिल नही पाया।
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