एक सैनिक हत्यारा नही होता। एक हत्यारे को सेना की सर्विस में नही रखा जाता। लेकिन सत्ता जो हत्याएं करती है, वो उसकी जवाबदेही के समय सैनिक की तरफ ऊँगली करती है।
एक सैनिक जब सेना में जाता है तो उसे इस बात का अच्छी तरह पता होता है की उसे सर्वोच्च बलिदान देना है। वो जब अपने देश की रक्षा करता है तब भी वो हत्याएं नही करता, युद्ध में भी नही। वो अपनी मातृभूमि की रक्षा करता है और इसके लिए उसे विरोधी से मुकाबला करना होता है जान की बाजी लगाकर। और इसमें या तो उसकी जान चली जाती है या फिर विरोधी की। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध के भी नियम निर्धारित हैं। कोई सैनिक गिरफ्तार हो जाता है तो उसके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। दुश्मन देश के सैनिक का मृत्यु के बाद सिर या कोई अंग काटना युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन अब तो सरकार की पार्टी के लोग हर रोज सिर लेकर आने की मांग करते हैं। दोनों तरफ से इसके लिए उन्माद पैदा किया जाता है। इस उन्माद में बहकर कोई सैनिक इस तरह की हरकत कर भी देता है और फिर जवाब और प्रति जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक देशभक्त और जान देने को तैयार सैनिक को हत्यारे में बदलने की मुहीम चलती है।
जब एक सैनिक राजनैतिक नेतृत्व के फैसले के अनुसार किसी मिशन पर होता है तो उसकी जिम्मेदारी उस नेतृत्व की होती है। सैनिक को तो उस मिशन के सही या गलत होने पर सवाल उठाने का हक भी नही होता। इसलिए सेना द्वारा किये गए हर काम के लिए राजनैतिक नेतृत्व को जिम्मेदार माना जाता है। इसके कई सारे उदाहरण हैं। जब अंग्रेज हिंदुस्तान पर शासन करते थे तब वो ब्रिटेन से सेना लेकर नही आये थे। उनकी सेना में भरतीय सैनिक थे जो अंग्रेजों के कहने पर हिंदुस्तानियों पर गोली चलाते थे। लेकिन आजादी के बाद भी उन्हें कभी दुश्मन या गद्दार नही माना गया। क्योंकि उन फैसलों के लिए वो जिम्मेदार नही थे।
लेकिन अब अजीब सवाल खड़ा हो गया है। राजनैतिक नेतृत्व फैसला लेकर किसी इलाके की जनता पर दमन करता है और जब उसकी ज्यादतियों पर सवाल उठता है तो सेना के पीछे छुप जाता है। सैनिकों को जिम्मेदार बताता है। भारत में भी लगभग हर हिस्से में जमीन के लिए संघर्ष चल रहे हैं। चाहे झारखण्ड हो, छत्तीसगढ़ हो या फिर कश्मीर हो, हर जगह सेना सड़क पर है। सरकार को उद्योगपतियों के लिए जमीन चाहिए, जो लोग देने को तैयार नही। उसे खाली कराने की लड़ाई जारी है । सेना जबरदस्ती लोगों से जमीन खाली करवा रही है। लेकिन वो वहां अपने लिए कुछ नही कर रही है। उसी तरह जब वहां के किसान या आदिवासी सेना का विरोध करते हैं तो कई बार उसमे सैनिको की जान भी चली जाती है। तब सरकार चिल्लाती है की देखो ये सेना और सैनिकों के दुश्मन हैं। सरकार जिनके लिए जमीन खाली करवा रही है उन मालिकों का मीडिया भी सरकार के सुर में सुर मिलाता है और लोगों को देशद्रोही करार दे देता है। एक पूरा प्रचार तन्त्र काम करता है। कई बार सैनिक भी वहां के लोगों को सरकार की बजाए अपना विरोधी मान लेते हैं।
ये उन्माद सरकारों की मदद करता है। लोगों की समस्याओं को हल करने में विफल सरकारें इस उन्माद की आड़ में सभी सवालों से बच जाती हैं और लोगों से उनका सब कुछ छीन लेती हैं। जो लोग सरकार में होते हैं, जो जिस वर्ग के प्रतिनिधि होते हैं उसके लिए ही काम करते हैं। सेना के प्रतिनिधियों के रूप में टीवी चैनलों पर बैठने वाले कितने ही लोग किसी ऐसे संगठन के सदस्य होते हैं जहां से उन्हें लगातार फायदा मिलता है। उद्योगपति और सरकार मिलकर उनके लिए इसका प्रबन्ध करते हैं। टीवी चैनलों के मालिक यही उद्योगपति होते हैं। वो केवल अपने मुताबिक खबरें देते हैं। कोई ईमानदार पत्रकार अगर इनकी मर्जी से काम नही करता है तो या तो उसे धमका दिया जाता है या बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
सेना के हितैषी होने का दावा करने वाले इन राष्ट्रवादियों और सरकारों की पोल उस समय खुल जाती है जब सैनिको के लिए सुविधाओं का सवाल आता है। उनको जो वेतन दिया जाता है उससे केवल जिन्दा रहा जा सकता है। आज भी हमारे भूतपूर्व सैनिक पेन्सन की मांग को लेकर महीनों से धरने पर बैठे हैं। अब ये खबर आयी है की घायल होने वाले सैनिकों की पेन्सन को घटाकर आधा कर दिया गया है। एक बार आप सैनिक सेवा के लायक नही रहे फिर आपकी कोई जरूरत नही है। भाड़ में जाओ।
इसलिए लोगों और सैनिकों, दोनों का फर्ज है की वो राजनैतिक नेतृत्व यानि सरकार को फैसलों की जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर करें। सरकार को सैनिकों के पीछे छिपने नही दें।
एक सैनिक जब सेना में जाता है तो उसे इस बात का अच्छी तरह पता होता है की उसे सर्वोच्च बलिदान देना है। वो जब अपने देश की रक्षा करता है तब भी वो हत्याएं नही करता, युद्ध में भी नही। वो अपनी मातृभूमि की रक्षा करता है और इसके लिए उसे विरोधी से मुकाबला करना होता है जान की बाजी लगाकर। और इसमें या तो उसकी जान चली जाती है या फिर विरोधी की। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध के भी नियम निर्धारित हैं। कोई सैनिक गिरफ्तार हो जाता है तो उसके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। दुश्मन देश के सैनिक का मृत्यु के बाद सिर या कोई अंग काटना युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन अब तो सरकार की पार्टी के लोग हर रोज सिर लेकर आने की मांग करते हैं। दोनों तरफ से इसके लिए उन्माद पैदा किया जाता है। इस उन्माद में बहकर कोई सैनिक इस तरह की हरकत कर भी देता है और फिर जवाब और प्रति जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक देशभक्त और जान देने को तैयार सैनिक को हत्यारे में बदलने की मुहीम चलती है।
जब एक सैनिक राजनैतिक नेतृत्व के फैसले के अनुसार किसी मिशन पर होता है तो उसकी जिम्मेदारी उस नेतृत्व की होती है। सैनिक को तो उस मिशन के सही या गलत होने पर सवाल उठाने का हक भी नही होता। इसलिए सेना द्वारा किये गए हर काम के लिए राजनैतिक नेतृत्व को जिम्मेदार माना जाता है। इसके कई सारे उदाहरण हैं। जब अंग्रेज हिंदुस्तान पर शासन करते थे तब वो ब्रिटेन से सेना लेकर नही आये थे। उनकी सेना में भरतीय सैनिक थे जो अंग्रेजों के कहने पर हिंदुस्तानियों पर गोली चलाते थे। लेकिन आजादी के बाद भी उन्हें कभी दुश्मन या गद्दार नही माना गया। क्योंकि उन फैसलों के लिए वो जिम्मेदार नही थे।
लेकिन अब अजीब सवाल खड़ा हो गया है। राजनैतिक नेतृत्व फैसला लेकर किसी इलाके की जनता पर दमन करता है और जब उसकी ज्यादतियों पर सवाल उठता है तो सेना के पीछे छुप जाता है। सैनिकों को जिम्मेदार बताता है। भारत में भी लगभग हर हिस्से में जमीन के लिए संघर्ष चल रहे हैं। चाहे झारखण्ड हो, छत्तीसगढ़ हो या फिर कश्मीर हो, हर जगह सेना सड़क पर है। सरकार को उद्योगपतियों के लिए जमीन चाहिए, जो लोग देने को तैयार नही। उसे खाली कराने की लड़ाई जारी है । सेना जबरदस्ती लोगों से जमीन खाली करवा रही है। लेकिन वो वहां अपने लिए कुछ नही कर रही है। उसी तरह जब वहां के किसान या आदिवासी सेना का विरोध करते हैं तो कई बार उसमे सैनिको की जान भी चली जाती है। तब सरकार चिल्लाती है की देखो ये सेना और सैनिकों के दुश्मन हैं। सरकार जिनके लिए जमीन खाली करवा रही है उन मालिकों का मीडिया भी सरकार के सुर में सुर मिलाता है और लोगों को देशद्रोही करार दे देता है। एक पूरा प्रचार तन्त्र काम करता है। कई बार सैनिक भी वहां के लोगों को सरकार की बजाए अपना विरोधी मान लेते हैं।
ये उन्माद सरकारों की मदद करता है। लोगों की समस्याओं को हल करने में विफल सरकारें इस उन्माद की आड़ में सभी सवालों से बच जाती हैं और लोगों से उनका सब कुछ छीन लेती हैं। जो लोग सरकार में होते हैं, जो जिस वर्ग के प्रतिनिधि होते हैं उसके लिए ही काम करते हैं। सेना के प्रतिनिधियों के रूप में टीवी चैनलों पर बैठने वाले कितने ही लोग किसी ऐसे संगठन के सदस्य होते हैं जहां से उन्हें लगातार फायदा मिलता है। उद्योगपति और सरकार मिलकर उनके लिए इसका प्रबन्ध करते हैं। टीवी चैनलों के मालिक यही उद्योगपति होते हैं। वो केवल अपने मुताबिक खबरें देते हैं। कोई ईमानदार पत्रकार अगर इनकी मर्जी से काम नही करता है तो या तो उसे धमका दिया जाता है या बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
सेना के हितैषी होने का दावा करने वाले इन राष्ट्रवादियों और सरकारों की पोल उस समय खुल जाती है जब सैनिको के लिए सुविधाओं का सवाल आता है। उनको जो वेतन दिया जाता है उससे केवल जिन्दा रहा जा सकता है। आज भी हमारे भूतपूर्व सैनिक पेन्सन की मांग को लेकर महीनों से धरने पर बैठे हैं। अब ये खबर आयी है की घायल होने वाले सैनिकों की पेन्सन को घटाकर आधा कर दिया गया है। एक बार आप सैनिक सेवा के लायक नही रहे फिर आपकी कोई जरूरत नही है। भाड़ में जाओ।
इसलिए लोगों और सैनिकों, दोनों का फर्ज है की वो राजनैतिक नेतृत्व यानि सरकार को फैसलों की जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर करें। सरकार को सैनिकों के पीछे छिपने नही दें।
sahi likha hai aapne !
ReplyDeleteहिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika