अभी कुछ ही दिन हुए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने तलाक से सम्बन्धित एक केस की सुनवाई के बाद ये फैसला दिया की, अगर कोई पत्नी अपने पति को उसके माँ बाप से अलग रहने का दबाव डाले तो उसे क्रूरता माना जायेगा और पति को तलाक लेने का हक होगा।
इस फैसले पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी। जिनमे एक हिस्से ने इसे सही फैसला माना और माँ बाप से अलग रहने के लिए दबाव डालना गलत माना गया। इसके विरोध में भी आवाजें आयी। आज जब पुरे देश में समान नागरिक सहिंता पर जोर शोर से बहस हो रही है तो इस फैसले से प्रभावित सभी पक्षों के हितों पर विचार करने की जरूरत है।
पत्नी अगर अपने पति को किसी भी कारण से उससे माँ बाप से अलग रहने को कहती है तो ये क्रूरता है। लेकिन पति तो शादी के पहले ही दिन पत्नी को उसके माँ बाप से अलग रहने को मजबूर करता है तो उसे परम्परा का नाम दे दिया जाता है। पत्नी अपनी पूरी जिंदगी अपने माँ बाप से दूर दूसरे के घर में गुजारती है, उसके माँ बाप भले ही अकेले हों, अशक्त हों, लाचार हों लेकिन वो अपने पति और ससुराल वालों को इसके लिए मजबूर या तैयार नही कर सकती की उन्हें अपने साथ रख सके। तो उसके अधिकार और बराबरी के क्या मायने हैं। क्या सर्वोच्च न्यायालय उस पत्नी को भी तलाक का अधिकार देगा जिसके माँ बाप को उसके पति अपने साथ रखने को तैयार नही है। अगर नही तो ये फैसला संवैधानिक बराबरी के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
अगर ये सवाल उस समय खड़ा होता है जब दोनों के बच्चे भी हों। तलाक के बाद बच्चे किसके पास रहेंगे। जाहिर है की एक के पास ही रहेंगे। तो क्या ये उन बच्चों के अपने माँ बाप दोनों के साथ रहने के अधिकार का उल्लंघन नही होगा। पति पत्नी के सम्बन्धों के बीच में किसी तीसरे पक्ष, भले ही वो माँ बाप ही क्यों ना हों, इतना बड़ा रोल प्ले नही कर सकते और कारण नही बन सकते की दोनों का तलाक हो जाये।
माँ बाप को बुढ़ापे में अपने साथ रखना और उनकी देखभाल करना औलाद की जिम्मेदारी होती है। लेकिन ये जिम्मेदारी नैतिक और सामाजिक ज्यादा है क़ानूनी कम। क़ानूनी तोर पर आप किन्ही दो लोगों को इकट्ठा रखने के लिए, दूसरे दो लोगों को अलग नही कर सकते। उनके लिए कानून में दूसरे सरंक्षण रखे गए हैं। अगर नैतिकता को आधार बना कर क़ानूनी फैसले किये गए तो सारे वो कानून जो संपत्ति के विवादों से सम्बन्धित हैं, बदलने पड़ेंगे। माँ बाप को साथ रखना और केवल पति के माँ बाप को साथ रखना, इसे आप क़ानूनी बाध्यता नही बना सकते।
क्या ऐसा कोई कानून है जो बेटे को माँ बाप को साथ रखने के लिए मजबूर करता हो। उसके लिए गुजारे का प्रबन्ध करना क़ानूनी जरूर है। जब आप किसी बेटे को अपने माँ बाप को साथ रखने के लिए क़ानूनी तौर पर मजबूर नही कर सकते तो सारा ठीकरा बहू के सिर पर फोड़ने की क्या जरूरत है। बेटा अगर ना चाहे तो अपने माँ बाप को भले ही साथ ना रखे, आप उसे क़ानूनी तोर पर मजबूर नही कर सकते लेकिन बहू अगर ना चाहे तो तलाक हो जायेगा। ये एक पिछड़ी हुई सोच है जो पितृसत्तात्मक दिमाग की उपज है।
असल में अपने वृद्ध नागरिकों की देखभाल और गुजारे की जिम्मेदारी सरकार की होती है जो बहुत से देशों में लागु है। न्यायालय को पहले सरकार को इसके लिए मजबूर करना चाहिए। परम्परा और नैतिकता के नाम पर महिलाओं को एकतरफा तौर पर इसके लिए जिम्मेदार ठहराना सही नही है।
इस फैसले पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी। जिनमे एक हिस्से ने इसे सही फैसला माना और माँ बाप से अलग रहने के लिए दबाव डालना गलत माना गया। इसके विरोध में भी आवाजें आयी। आज जब पुरे देश में समान नागरिक सहिंता पर जोर शोर से बहस हो रही है तो इस फैसले से प्रभावित सभी पक्षों के हितों पर विचार करने की जरूरत है।
पत्नी अगर अपने पति को किसी भी कारण से उससे माँ बाप से अलग रहने को कहती है तो ये क्रूरता है। लेकिन पति तो शादी के पहले ही दिन पत्नी को उसके माँ बाप से अलग रहने को मजबूर करता है तो उसे परम्परा का नाम दे दिया जाता है। पत्नी अपनी पूरी जिंदगी अपने माँ बाप से दूर दूसरे के घर में गुजारती है, उसके माँ बाप भले ही अकेले हों, अशक्त हों, लाचार हों लेकिन वो अपने पति और ससुराल वालों को इसके लिए मजबूर या तैयार नही कर सकती की उन्हें अपने साथ रख सके। तो उसके अधिकार और बराबरी के क्या मायने हैं। क्या सर्वोच्च न्यायालय उस पत्नी को भी तलाक का अधिकार देगा जिसके माँ बाप को उसके पति अपने साथ रखने को तैयार नही है। अगर नही तो ये फैसला संवैधानिक बराबरी के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
अगर ये सवाल उस समय खड़ा होता है जब दोनों के बच्चे भी हों। तलाक के बाद बच्चे किसके पास रहेंगे। जाहिर है की एक के पास ही रहेंगे। तो क्या ये उन बच्चों के अपने माँ बाप दोनों के साथ रहने के अधिकार का उल्लंघन नही होगा। पति पत्नी के सम्बन्धों के बीच में किसी तीसरे पक्ष, भले ही वो माँ बाप ही क्यों ना हों, इतना बड़ा रोल प्ले नही कर सकते और कारण नही बन सकते की दोनों का तलाक हो जाये।
माँ बाप को बुढ़ापे में अपने साथ रखना और उनकी देखभाल करना औलाद की जिम्मेदारी होती है। लेकिन ये जिम्मेदारी नैतिक और सामाजिक ज्यादा है क़ानूनी कम। क़ानूनी तोर पर आप किन्ही दो लोगों को इकट्ठा रखने के लिए, दूसरे दो लोगों को अलग नही कर सकते। उनके लिए कानून में दूसरे सरंक्षण रखे गए हैं। अगर नैतिकता को आधार बना कर क़ानूनी फैसले किये गए तो सारे वो कानून जो संपत्ति के विवादों से सम्बन्धित हैं, बदलने पड़ेंगे। माँ बाप को साथ रखना और केवल पति के माँ बाप को साथ रखना, इसे आप क़ानूनी बाध्यता नही बना सकते।
क्या ऐसा कोई कानून है जो बेटे को माँ बाप को साथ रखने के लिए मजबूर करता हो। उसके लिए गुजारे का प्रबन्ध करना क़ानूनी जरूर है। जब आप किसी बेटे को अपने माँ बाप को साथ रखने के लिए क़ानूनी तौर पर मजबूर नही कर सकते तो सारा ठीकरा बहू के सिर पर फोड़ने की क्या जरूरत है। बेटा अगर ना चाहे तो अपने माँ बाप को भले ही साथ ना रखे, आप उसे क़ानूनी तोर पर मजबूर नही कर सकते लेकिन बहू अगर ना चाहे तो तलाक हो जायेगा। ये एक पिछड़ी हुई सोच है जो पितृसत्तात्मक दिमाग की उपज है।
असल में अपने वृद्ध नागरिकों की देखभाल और गुजारे की जिम्मेदारी सरकार की होती है जो बहुत से देशों में लागु है। न्यायालय को पहले सरकार को इसके लिए मजबूर करना चाहिए। परम्परा और नैतिकता के नाम पर महिलाओं को एकतरफा तौर पर इसके लिए जिम्मेदार ठहराना सही नही है।
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