Wednesday, June 17, 2015

माया का मोह कैसे छोड़ूँ

खबरी -- क्या कभी सतसंग में गए हो ?


गप्पी -- कई बार गया हूँ। लेकिन मुझे सतसंग करने वालों और सुनने वालों दोनों में कोई दिलचस्पी नही है। मेरे सारे मित्र  भी इस बात को जानते हैं इसलिए मुझे चलने के लिए कोई जोर नही देता। लेकिन एक दिन एक ऐसी घटना हुई जिसे मैं जरूर बताना चाहूंगा। 

                         मेरे एक मित्र मेरे पास बैठे थे। उनकी सतसंग में बहुत श्रद्धा थी। वो कई  बार अपने गुरु के गुणगान कर चुका था परन्तु हमारी तरफ से कोई उत्सुकता न दिखाने  के कारण निराश हो जाता था। नौकरी से रिटायर हो चुका था और लड़के अच्छे पदों पर थे। कोई काम उनके जिम्मे नही था यानि सतसंग का पूरा योग बनता था। तभी वहां हमारे एक दूसरे मित्र का आगमन हुआ। ये बेचारा स्वभाव से थोड़ा भोला था और काम धन्धे के बारे में  हमेशा परेशान रहता था। इसी वजह से घर में थोड़ी बहुत कहा सुनी भी हो जाती थी। वह परेशान हाल हमारे पास आता और हम उसे थोड़ी सांत्वना दे देते और उसका धीरज बंधाते तो वह सामान्य हो जाता। उस दिन भी वह बुरी तरह परेशान था। उसने घर के झगड़े का जिक्र किया ही था की पहला मित्र बोला चलो आज तुम मेरे साथ सतसंग में चलो। वहां गुरु जी की वाणी सुनोगे तो सारे सन्ताप दूर हो जायेंगे। उन्होंने जोर देकर मुझे भी साथ आने को कहा। मैं जाना नही चाहता था क्योंकि दो एक बार मित्रों के साथ गया था तो वहां मैंने एकाध सवाल पूछ लिया और नतीजा ये निकला की दोनों दोस्तों के साथ हमेशा के लिए संबंध समाप्त हो गए। मैं वैसा कोई खतरा उठाना नही चाहता था परन्तु अधिक जोर देने के बाद मुझे साथ जाना पड़ा। परन्तु मैंने तय कर लिया की सवाल पूछना तो दूर, मैं एक शब्द भी नही बोलूंगा। 

                       हम वहां पहुंचे। हमारे से पहले ही वहां 30 -35 लोग बैठे हुए थे। उनके गुरूजी भी बैठे हुए थे। सतसंग थोड़ी देर पहले शुरू हो चुका था। प्रवचन चालू था। गुरूजी ने एक बार रुक कर हमारी तरफ देखा और जब हम बैठ गए तो आगे बोलना शुरू किया। 

                        " आत्मा और शरीर का किराये के मकान जैसा संबंध है। किरायेदार को चले जाना है और मकान को वहीं रह जाना है। शरीर को सुख दुःख का अनुभव होता है, आत्मा को नही होता। इसलिए मनुष्य को शरीर की चिंता नही करनी चाहिए केवल आत्मा की शुद्धि की तरफ ध्यान देना चाहिए। मनुष्य माया के जाल  में जकड़ा हुआ है माया उसे तरह तरह का नाच नचाती है। इसलिए मनुष्य को माया के मोह में नही पड़ना चाहिए। "

                       मैंने देखा की हमारा नया दोस्त कुछ ज्यादा ही सतर्क हो कर सुन रहा है। 

                      गुरु जी ने आगे बोलना शुरू किया। " मनुष्य को चाहिए की वो माया को छोड़ दे और शांति की तलाश करे। मनुष्य का उद्देश्य शांति प्राप्त करना होना चाहिए। "

                   हाल में भीड़ बढ़ गयी थी और पहले ही गर्मी के मौसम के कारण गर्मी और बढ़ गयी। गुरु जी ने  सफेद अँगौछे से पसीना पौंछा और पहली कतार में बैठे एक आदमी को सम्बोधित किया। ये आदमी एक मिल मालिक था जो आधे शहर का पैसा खा जाने के कारण बदनाम था। 

                   " विकट गर्मी है। साधकों की आत्मा को बहुत कष्ट होता है। एकाध वातानुकूलित यंत्र का प्रबंध हो जाता तो अच्छा रहता। "

                  क्यों नही गुरूजी , कल ही करवा देता हूँ। मिल मालिक ने जवाब दिआ। 

                   दोनों के चेहरे पर संतुष्टि  भाव उभर आये। मैंने अपने आप को बड़ी मुश्किल से ये पूछने से रोका की अभी तो आप कह रहे थे आत्मा को कष्ट नही होता। परन्तु मुझे मेरे मित्र पर दया आई और मैंने नही पूछा। परन्तु मुझे मालूम पड़ गया था की अब सतसंग ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे और चलेगा क्योंकि उसके बाद गुरूजी को अपनी आत्मा को ठंडी बियर में डुबोने की जरूरत पड़ेगी वरना वो इस नश्वर शरीर को छोड़ जाने की कोशिश कर सकती है। वही हुआ , गुरूजी ने सतसंग समाप्त करने की घोषणा कर दी। हम तीनो बाहर आए। हमारे सतसंगी साथी ने नए साथी से पूछा की कुछ समझ में आया की नही। 

                        नया साथी पहली बार सतसंग आया था और स्वभाव से भोला भी था। उसने कहा की गुरूजी तो सचमुच अंतर्यामी हैं। उन्हें मेरी समस्या का बिना बताये ही पता चल गया। ये बात सही है की माया ने मुझ पर अधिकार जमा रक्खा है। और माया के अधिक मोह के कारण ही हमारे पांच बच्चे हो गए जो इस महंगाई के जमाने में ज्यादा ही हैं। लेकिन मुझे गुरूजी की एक बात ठीक नही लगी।  उसने उलाहना देने जैसा मुंह बनाया। 

             मैं अपनी हंसी को मुश्किल से रोके हुए था। 

           क्या पसंद नही आया? सतसंगी ने पूछा। 

  यही की माया को छोड़ दो। ये बात सही है की मैं भी शांति को ज्यादा पसंद करता था परन्तु अब इस उम्र में मैं माया को छोड़ दूँ तो मेरे बच्चों का क्या होगा। उसने भोलेपन में जवाब दिया। 

               मेरे मुंह से ठहाका निकला और हँसते हँसते पेट में बल पड़ गए। मेरे सतसंगी मित्र की हालत ऐसी थी जैसी उस आदमी की होती है जो खजाने की तलाश में बिल में हाथ डालता है और उसे बिच्छू काट लेता है।

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