किसी भी देश की व्यवस्था को चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है। और ये पैसा सरकार के पास टैक्स के द्वारा आता है। परन्तु सारी राजनीती इस बात पर निर्भर करती है की टैक्स इकट्ठा किससे किया जा रहा है और खर्च किस पर किया जा रहा है। लेकिन ये मामला इतना आसान नही होता। इसलिए इस बारे में एक भ्रम का जाल फैलाया जाता है। दुनिया की बड़ी से बड़ी एकतरफा व्यवस्था भी इसका भ्रम फैलाती है की वो सारे नागरिकों की भलाई के लिए काम कर रही है। इसका प्रचार इतना प्रबल होता है की लोग उन चीजों का भी समर्थन करते हैं जो उनके खिलाफ होती हैं।
हमारे देश में भी इसी तरह का जाल फैलाया गया है। जिसका असर ये हुआ है की पढ़े लिखे लोगों में से भी बहुत से लोग उन चीजों का समर्थन करते हैं जो उनके खिलाफ हैं। और अगर कोई संस्था या व्यक्ति उनके हित में बात भी करता है तो सबसे ज्यादा विरोध यही लोग करते हैं। यही चीज है जिसके कारण ये जनविरोधी व्यवस्था टिकी हुई है। लोगों को उनके हितों के खिलाफ ही लामबंद कर लिया जाता है। इसलिए ये जरूरी हो गया है की लोगों तक सही जानकारी पहुंचे।
हर एक देश में दो तरह के टैक्स होते हैं जिन्हे इकोनोमिक्स की भाषा में प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर कहते हैं। इसे आसान भाषा में सीधा कर और आड़ा कर कहा जा सकता है। सीधा कर वह होता है जो सीधे कर के नाम से लिया जाता है जैसे इन्कम टैक्स और धन टैक्स (Wealth tax ) . और आड़ा कर वो होता है जो चीजों की कीमत में जुड़कर इकट्ठा होता है जैसे वैट या सेल्स टैक्स, एक्साइज ड्यूटी इत्यादि। ये जो कर चीजों की कीमत में जोड़कर लिया जाता है इसका प्रभाव हर आदमी पर होता है। जो भी आदमी कोई भी चीज खरीदता है उससे ये टैक्स ले लिया जाता है भले ही वह कितना ही गरीब क्यों ना हो। इसलिए जितना ये कर ज्यादा होता है उतना ही गरीबों को नुकशान होता है। अगर इस टैक्स की दर ज्यादा होती है तो उसका बोझ आम आदमी पर पड़ता है।
लेकिन जो सीधा कर होता है वो उन लोगों से इकट्ठा किया जाता है जो एक सीमा से ज्यादा पैसा कमा रहे होते हैं। इसमें भी टैक्स की दरें इस तरह रखी जाती हैं की कम कमाई वाले आदमी पर इसका बोझ कम पड़े और ज्यादा कमाने वाले पर ज्यादा बोझ पड़े। लेकिन हमारे देश में अगर ऊपर की ज्यादा कमाई वाले लोगों पर टैक्स की दर बढ़ाने की मांग की जाती है तो वो लोग ही इसका सबसे ज्यादा विरोध करते हैं जिनको ये टैक्स देना ही नही है। इसलिए अरबों रूपये कमाने वालों को समर्थन करने के लिए बैठे बिठाए लोग मिल जाते हैं। इसलिए इस सवाल को जरा ध्यान से समझने की जरूरत है।
सरकार अभी आड़ा टैक्स की प्रणाली को बदलने के लिए GST बिल लेकर आ रही है। इसमें जो सुझाव है उसके अनुसार इसकी दर 22 से 27 % के बीच रहने वाली है। इसका मतलब ये है की आम आदमी जो भी सामान या सेवा (जैसे बिजली या टेलीफोन इत्यादि का बिल ) खरीदेगा उसे कुल कीमत का एक चौथाई पैसा केवल टैक्स के रूप में देना पड़ेगा। यानि एक गरीब आदमी जो 6000 रूपये महीने में घर चलाता है उसे भी पिछले दरवाजे से हर महीने 1500 रूपये टैक्स के रूप में देने पड़ेंगे। ये टैक्स सामान की कीमत में ही जुड़ा होता है इसलिए आम आदमी को तो इसका मालूम ही नही पड़ता। परन्तु इतना भारी टैक्स होने के बावजूद देश में इसके खिलाफ कोई बोल ही नही रहा है। सरकार और मीडिया ने मिलकर ऐसा माहौल बना दिया है जैसे ये टैक्स तो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही जरूरी है और देश के हित में है।
दूसरी तरफ सीधा कर जो इनकम टैक्स के नाम से और धन कर के नाम से लिया जाता है उसमे धन कर को तो सरकार ने इस साल से खत्म कर दिया है। ये वो कर था जो बड़ी सम्पत्ति के स्वामियों से लिया जाता था और जिसे कभी भी सरकार ने ईमानदारी से इकट्ठा करने की कोशिश नही की। वरना अगर इसे ईमानदारी से इकट्ठा किया जाता तो इससे बहुत बड़ी रकम प्राप्त हो सकती थी और आम आदमी पर इसका कोई बोझ भी नही पड़ता। हमारे देश में एक नंबर की सम्पत्ति के जो आंकड़े मौजूद हैं उसके अनुसार हमारे देश में स्थाई सम्पत्ति एक करोड़ बाईस लाख सत्तर हजार करोड़ रूपये है। इसमें लोगों के बैंक में जमा पैसा, बीमा में जमा , शेयर और दूसरे फंड में जमा पैसा शामिल नही है। इसमें केवल सोना और रियल एस्टेट जैसी चीजे ही शामिल हैं। इसमें से 74 % सम्पत्ति के मालिक केवल ऊपर के 10 % लोग हैं। और उससे भी आगे ये की इसमें से 49 % सम्पत्ति के मालिक केवल 1 % लोग हैं। अगर उन 1 % लोगों की सम्पत्ति पर सालाना केवल 1 % टैक्स ही लिया जाये तो उसकी रकम सालाना 60000 करोड़ से ज्यादा बैठती है। और ये तो वो सम्पत्ति है जो एक नंबर की है और उसकी कीमत भी उन लोगों की ही बताई हुई है। सरकार ने ये टैक्स कभी ईमानदारी से इकट्ठा नही किया और अब उसे समाप्त कर दिया।
अगला उदाहरण इनकम टैक्स का है। जब भी इनकम टैक्स की दर में ऊपर के स्तर पर बढ़ौतरी की मांग उठती है तो सबसे पहले इसका विरोध वो लोग करते हैं जिन्हे वो दर जिंदगी में कभी लागु नही होगी।
2011 -12 के आंकड़ों के अनुसार 5 लाख तक की कमाई वाले लोगों से कुल 15000 करोड़ रुपया इकट्ठा हुआ था और उनकी संख्या 28844000 थी। अगर इन लोगों को टैक्स की स्लैब में 50000 रूपये की छूट दे दी जाती है तो सरकार को कुल मिला कर 5000 करोड़ का भी नुकशान नही होगा। दूसरी तरफ 20 लाख से ऊपर की कमाई बताने वाले लोगों की संख्या केवल 4 लाख 6 हजार थी। अगर इन लोगों की स्लैब में 30 % से बढ़ाकर 40 % की स्लैब कर दी जाये तो सरकार को करीब 23000 करोड़ रुपया ज्यादा मिल सकता है। सारे फेरबदल से लाभ होने वाले लोगों की संख्या 3 करोड़ है और असर पड़ने वाले लोगों की संख्या केवल 4 लाख है और सरकार को करीब 18000 करोड़ का फायदा भी हो सकता है। ये 2012 के आंकड़े हैं और अब 2015 है। इसलिए अगर एक करोड़ सालाना से ज्यादा कमाई बताने वाले लोगों पर 40 % की स्लैब लागु कर दी जाये तो मुश्किल से एक लाख लोग इससे प्रभावित होंगे और सरकार की कमाई करीब 25000 करोड़ बढ़ जाएगी।
लेकिन सरकार इससे उल्टा कर रही है। उसने कॉर्पोरेट टैक्स की दर को 5 % घटा दिया, धन कर खत्म कर दिया और आम लोगों पर वैट बढ़ाने जा रही है। ये सारी व्यवस्था अमीरों को और अमीर बनाने और गरीबों को गरीब बनाने के हिसाब से चल रही है। और ना केवल चल रही है बल्कि देश के मध्यम वर्ग का समर्थन भी प्राप्त कर रही है।रिजर्व बैंक द्वारा जारी किये गए 2012 -13 के अनुसार हमारे देश में कुल टैक्स उगाही में सीधे करों का हिस्सा 38 . 44 % है और आड़ा करों का हिस्सा 61 . 56 % है। गरीबी और अमीरी का अंतर कम करने के लिए इस अनुपात को उल्टा करना जरूरी है। इसलिए इससे जो मुख्य बातें निकल कर आती हैं वो इस प्रकार हैं। ---
१. इन्कम टैक्स की दर को एक करोड़ से ऊपर कमाई वाले लोगों के लिए 40 % किया जाये।
२. कॉर्पोरेट टैक्स को घटाना बंद किया जाये।
३. जीवन जरूरत की चीजों पर वैट हटाया जाये।
४. धन कर को दुबारा और प्रभावशाली तरीके से लागु किया जाये और इसकी दर सालाना 1 % रखी जाये।
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