गुजरात सरकार ने पटेलों के आरक्षण आंदोलन से निपटने के लिए अपनी बहुप्रचारित स्वावलंबन योजना की घोषणा कर दी। जैसा की अनुमान था आरक्षण आंदोलन करने वाले समुदाय ने इसको ख़ारिज कर दिया। लेकिन सवर्णो का एक वर्ग ऐसा भी है जिसने इसका स्वागत किया है। भाजपा के कार्यकर्ताओं ने हमेशा की तरह आँख मूंद कर नाचना शुरू कर दिया। सवाल ये है की क्या ये योजना आरक्षण की मांग करने वाले एक बड़े तबके की अपेक्षाओं को पूरा करती है ? ध्यान से देखा जाये तो ऐसा नही लगता।
निजीकरण और उदार नीतियों के कारण गुजरात में एक वर्ग ऐसा है जिसको काफी लाभ हुआ। सरकार ने जब सामाजिक सुरक्षा के कामो से अपने हाथ खिंच लिए तब इन क्षेत्रों में इस वर्ग ने अपने पैर फैलाये और भरपूर फायदा उठाया। इसका दूसरा पक्ष ये रहा की आम लोगों को सस्ते में उपलब्ध सामाजिक सुविधाएँ महंगे मूल्यों पर खरीदनी पड़ी। इससे एक तो उनकी आय पर इसका प्रभाव पड़ा दूसरी तरफ इससे जो रोजगार पैदा होना चाहिए था वो नही हुआ। यहां पर रोजगार के सवाल पर दो तरह की आलोचना है, एक तो गिनती में रोजगार कम हुए और दूसरे जो नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा भी हुई उनके वेतन और दूसरी सुविधाओं का स्तर बहुत ही नीचा था। सरकार ने सरकारी और ग्रांटेड स्कूलों और कालेजों में कोई बढ़ौतरी नही की और धीरे धीरे शिक्षा का लगभग पूरा क्षेत्र निजी हाथों में चला गया। निजी क्षेत्र में नौकरी करने वाले अध्यापकों को तीन-तीन, चार-चार हजार में नौकरी करनी पड़ी। सरकार ने भी खर्च घटाने के नाम पर ठेके पर अध्यापकों और दूसरे कर्मचारियों की भर्ती की जिनकी तनख्वाह सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम रखी गयी। आहिस्ता आहिस्ता आजीविका का ये स्रोत सूख गया। निजी क्षेत्र में पहले ही जीने लायक वेतन का अभाव था जिससे स्थिति ये पैदा हुई की बिजनेस के अलावा और कोई स्थान ऐसा नही बचा जिससे एक ठीक ठीक जीवन गुजारा जा सके। उसके बाद आई मंदी से इस क्षेत्र में भी नए लोगों के लिए प्रवेश मुश्किल हो गया। खेती के संकट ने इसमें मिल कर उस वर्ग के लिए जो अब तक सुविधापूर्ण स्थिति में था हालात बिगाड़ दिए। जब हालात मुश्किल हुए तो इस वर्ग ने इसका इलाज आरक्षण में ढूंढने की कोशिश की।
इस आंदोलन से निपटने के लिए सरकार ने जो इलाज सामने रखा वो कोई काम करेगा इसमें शक है। सरकार ने इस पैकेज में जो घोषणाएं की उसका लाभ केवल 90 % से ऊपर अंक प्राप्त करने वाले और 450000 रूपये सालाना आय से कम आय वाले परिवारों को ही मिलेगा। इस शर्त के बाद लाभ मिलने वाले लोगों की संख्या बेहद कम हो जाएगी। सरकार कह रही है की ये 1000 करोड़ का पैकेज है। परन्तु अगर सरकार को इतना पैसा खर्च करना ही था तो उसे सरकारी स्कूलों और कालेजों की संख्या बढ़ाने पर करना चाहिए था जिससे रोजगार के भी नए अवसर पैदा होते और जनता के भी व्यापक हिस्से को उसका लाभ मिलता। बल्कि हो तो ये रहा है की सरकार ने जो एकाध जगह सीट बढ़ाने की घोषणा भी की है तो वहां PPP मॉडल की बात कर रही है। दूसरा इस पैकेज में उसने नौकरियों की संख्या पर कुछ नही कहा है। और तो और जो सरकारी पद खाली पड़े हैं उनको भरने की भी कोई घोषणा नही की है। इसलिए इस पैकेज से आंदोलन करने वाले समुदाय को कोई संतुष्टि महसूस होगी ऐसा नही लगता।
निजीकरण की नीतियों ने जो संकट समाज में पैदा किया है अब उसका असर जमीन पर दिखाई देने लगा है। बिना इन नीतियों को बदले और बिना लोगों को राहत दिए केवल उत्सव मनाने से लोगों को संतुष्टि हो जाएगी लगता नही है।
निजीकरण और उदार नीतियों के कारण गुजरात में एक वर्ग ऐसा है जिसको काफी लाभ हुआ। सरकार ने जब सामाजिक सुरक्षा के कामो से अपने हाथ खिंच लिए तब इन क्षेत्रों में इस वर्ग ने अपने पैर फैलाये और भरपूर फायदा उठाया। इसका दूसरा पक्ष ये रहा की आम लोगों को सस्ते में उपलब्ध सामाजिक सुविधाएँ महंगे मूल्यों पर खरीदनी पड़ी। इससे एक तो उनकी आय पर इसका प्रभाव पड़ा दूसरी तरफ इससे जो रोजगार पैदा होना चाहिए था वो नही हुआ। यहां पर रोजगार के सवाल पर दो तरह की आलोचना है, एक तो गिनती में रोजगार कम हुए और दूसरे जो नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा भी हुई उनके वेतन और दूसरी सुविधाओं का स्तर बहुत ही नीचा था। सरकार ने सरकारी और ग्रांटेड स्कूलों और कालेजों में कोई बढ़ौतरी नही की और धीरे धीरे शिक्षा का लगभग पूरा क्षेत्र निजी हाथों में चला गया। निजी क्षेत्र में नौकरी करने वाले अध्यापकों को तीन-तीन, चार-चार हजार में नौकरी करनी पड़ी। सरकार ने भी खर्च घटाने के नाम पर ठेके पर अध्यापकों और दूसरे कर्मचारियों की भर्ती की जिनकी तनख्वाह सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम रखी गयी। आहिस्ता आहिस्ता आजीविका का ये स्रोत सूख गया। निजी क्षेत्र में पहले ही जीने लायक वेतन का अभाव था जिससे स्थिति ये पैदा हुई की बिजनेस के अलावा और कोई स्थान ऐसा नही बचा जिससे एक ठीक ठीक जीवन गुजारा जा सके। उसके बाद आई मंदी से इस क्षेत्र में भी नए लोगों के लिए प्रवेश मुश्किल हो गया। खेती के संकट ने इसमें मिल कर उस वर्ग के लिए जो अब तक सुविधापूर्ण स्थिति में था हालात बिगाड़ दिए। जब हालात मुश्किल हुए तो इस वर्ग ने इसका इलाज आरक्षण में ढूंढने की कोशिश की।
इस आंदोलन से निपटने के लिए सरकार ने जो इलाज सामने रखा वो कोई काम करेगा इसमें शक है। सरकार ने इस पैकेज में जो घोषणाएं की उसका लाभ केवल 90 % से ऊपर अंक प्राप्त करने वाले और 450000 रूपये सालाना आय से कम आय वाले परिवारों को ही मिलेगा। इस शर्त के बाद लाभ मिलने वाले लोगों की संख्या बेहद कम हो जाएगी। सरकार कह रही है की ये 1000 करोड़ का पैकेज है। परन्तु अगर सरकार को इतना पैसा खर्च करना ही था तो उसे सरकारी स्कूलों और कालेजों की संख्या बढ़ाने पर करना चाहिए था जिससे रोजगार के भी नए अवसर पैदा होते और जनता के भी व्यापक हिस्से को उसका लाभ मिलता। बल्कि हो तो ये रहा है की सरकार ने जो एकाध जगह सीट बढ़ाने की घोषणा भी की है तो वहां PPP मॉडल की बात कर रही है। दूसरा इस पैकेज में उसने नौकरियों की संख्या पर कुछ नही कहा है। और तो और जो सरकारी पद खाली पड़े हैं उनको भरने की भी कोई घोषणा नही की है। इसलिए इस पैकेज से आंदोलन करने वाले समुदाय को कोई संतुष्टि महसूस होगी ऐसा नही लगता।
निजीकरण की नीतियों ने जो संकट समाज में पैदा किया है अब उसका असर जमीन पर दिखाई देने लगा है। बिना इन नीतियों को बदले और बिना लोगों को राहत दिए केवल उत्सव मनाने से लोगों को संतुष्टि हो जाएगी लगता नही है।
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