हिन्दू धर्म की जिस सनातन परम्परा में आरएसएस विश्वास करता है उसमे सभी के लिए बराबरी का बाकायदा विरोध किया गया है। उसमे कुछ जातिओं को उच्च पायदान पर बिठाया गया है और बाकियों को उनकी सेवा में लगाया गया है। यही हाल महिलाओं का है। महिलाओं को अपनी जातिगत स्थिति का शिकार तो होना ही पड़ता है साथ ही साथ महिला होने का शिकार भी बनना पड़ता है। परन्तु लोकतंत्र और एक आदमी-एक वोट की मजबूरी ने आरएसएस को खुलकर कुछ बातें कहने से रोका हुआ है। फिर भी ये बातें उसके पदाधिकारियों के ब्यानो और आरएसएस के कार्यक्रमों से सामने आ जाती है। मोदी सरकार आने के बाद आरएसएस को लगने लगा है की अब सत्ता पर उसका पक्का कब्जा हो चूका है और वो आने वाले समय में इसे किसी ना किसी बहाने बनाये रख सकती है। इसलिए उसकी ये छिपी हुई इच्छाएं और एजेंडा सामने आने लगा है।
कुछ दिन पहले खुद मोहन भागवत ने ये बात कहि है की हिन्दू धर्म में महिलाओं की बराबरी की बात नही कहि गयी है, बल्कि एकता की बात कहि गयी है। सभी विचारक पहले ये आरोप लगाते रहे हैं की आरएसएस महिला विरोधी संगठन है। इसके जवाब में आरएसएस हमेशा ये रुख अपनाती रही है की हम तो महिलाओं की पूजा करते हैं। और में महिलाओं को देवी का स्थान दिया गया है। और वो बराबरी के सवाल पर साफ बच कर निकल जाता है। अब चूँकि उसकी सरकार केंद्र में है और उसी संविधान की शपथ लेकर शासन कर रही है जिसमे महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है तो उसे कुछ मामलों पर अपनी स्थिति थोड़ी बहुत साफ करनी पद रही है। संसद में महिला आरक्षण का बिल सालों से लटका हुआ है जिसे बीजेपी किसी भी कीमत पर पास नही करवाना चाहती। क्योंकि पार्टी में इस पर मतभेदों को छोड़ भी दिया जाये तो भी ये आरएसएस के सिद्धांतों के खिलाफ बैठता है। आरएसएस जिस उच्च जाती, और पुरुष प्रधान समाज का हिमायती है उसमे महिलाओं को बराबरी के अधिकार की बात कैसे की जा सकती है। इसलिए मोहन भागवत ने इस मामले पर अपनी स्थिति साफ कर दी है की हिन्दू धर्म न्हिलाओं की बराबरी की बात नही करता। अब हो सकता है उसके बीजेपी के कुछ नेता कहीं डैमेज कंट्रोल के लिए फिर महिलाओं की पूजा करने के उदाहरण दें। लेकिन पूजा तो हिंदू धर्म बंदरों, सांपों और गायों की भी करता है। इसके अलावा भी बहुत से जानवरों की पूजा करता है। जानवरों की ही क्यों, पत्थरों की भी करता है। तो महिलाओं को भी क्या आरएसएस इन जानवरों और पत्थरों की श्रेणी में गिनती है। सही कहा जाये तो बिलकुल इसी श्रेणी में गिनती है। बाकि के सारे प्रोग्राम और नारे केवल दिखावटी चीजें हैं और समस्या को उलझाये रखने के साधन हैं। बीजेपी सरकार व्यवहार में ऐसा कोई भी फैसला नही लेगी जिसमे महिलाओं को बराबरी की हैसियत हासिल हो। हाँ, बेटी बचाओ जैसे नारे जरूर लगाती रहेगी।
दूसरा तबका दलितों और पिछड़ों का है। हिन्दू धर्म उनके बारे में क्या क्या कहता है ये तो सबको मालूम है। लेकिन उनकी संख्या और वोट की ताकत आरएसएस को व्ही सब बातें कहने से रोकती हैं जो हिन्दू धर्म ग्रंथों में कहि गयी हैं। उससे उनके मन में गहरे तक बैठी हुई उन बातों को खत्म तो नही किया जा सकता। दलितों, आदिवासियों और समाज के निचले वर्ग के लिए आरएसएस की भावनाएं व्ही हैं जो महाभारत में द्रोणाचार्य की थी। द्रोणाचार्य ने आदिवासी एकलव्य को शिष्य बनाने से तो इंकार किया ही था लेकिन जब वो खुद अपने प्रयासों से धनुर्विद्या सिख गया और द्रोण शिष्य अर्जुन से बेहतर धनुर्धारी हो गया तो गुरुदक्षिणा की दुहाई दे कर उसका अंगूठा भी कटवा दिया। उससे पहले जब रामायण में राम ब्राह्मणो के एक ग्रुप के कहने पर तपस्वी शूद्र शम्बूक का सर काट लेते हैं। रामायण में दलितों और महिलाओं पर अत्याचार के प्रसंग भरे पड़े हैं। वहां जब किसी दलित या आदिवासी का बखान भी किया गया है तो वो भी एक आदर्श सेवक की तरह किया गया है। अगर दलित या आदिवासी सेविकाई से बाहर पैर रखने की कोशिश करता है तो वो तब के ऋषियों को भी बर्दास्त नही होता था और अब आरएसएस को भी नही होता। इसलिए आहिस्ता आहिस्ता दिल की बातें जुबान पर आ रही हैं। मोहन भागवत का आरक्षण की समीक्षा करने का बयान इसी दलित विरोध का हिस्सा है। उससे पहले आरएसएस के प्रमुख पदाधिकारी अम.जी. वैद्य आरक्षण को खत्म करने की मांग कर चुके हैं। अब इस पर तरह तरह के तर्क दिए जायेंगे। आरएसएस जानती है की दलित और पिछड़ी राजनीती के कई सूरमा अब बीजेपी के सामने दण्डवत हैं और उनमे अपने निजी स्वार्थों के आगे अब समाज की लाभ हानि कोई मायने नही रखती। आरएसएस का एजेंडा आजादी के पहले से एक उच्च वर्गीय हिन्दू राज की स्थापना रहा है। इसलिए उस समय के आरएसएस के संघ चालक गोलवलकर ने हिन्दुओं को आजादी की लड़ाई से दूर रहने का आह्वान किया था।
इसलिए आने वाले समय में आरएसएस और बीजेपी अपने इस एजेंडे को लागु करने या आगे बढ़ाने की हरसम्भव कोशिश करेगी। समाज में ऐसा माहोल बनाया जायेगा जिसमे इन बातों का विरोध करने वालों को देशद्रोही घोषित किया जायेगा और समर्थन करने वालों को तठस्थ बुद्धिजीवी और महान विचारक की उपाधि दी जाएगी।
कुछ दिन पहले खुद मोहन भागवत ने ये बात कहि है की हिन्दू धर्म में महिलाओं की बराबरी की बात नही कहि गयी है, बल्कि एकता की बात कहि गयी है। सभी विचारक पहले ये आरोप लगाते रहे हैं की आरएसएस महिला विरोधी संगठन है। इसके जवाब में आरएसएस हमेशा ये रुख अपनाती रही है की हम तो महिलाओं की पूजा करते हैं। और में महिलाओं को देवी का स्थान दिया गया है। और वो बराबरी के सवाल पर साफ बच कर निकल जाता है। अब चूँकि उसकी सरकार केंद्र में है और उसी संविधान की शपथ लेकर शासन कर रही है जिसमे महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है तो उसे कुछ मामलों पर अपनी स्थिति थोड़ी बहुत साफ करनी पद रही है। संसद में महिला आरक्षण का बिल सालों से लटका हुआ है जिसे बीजेपी किसी भी कीमत पर पास नही करवाना चाहती। क्योंकि पार्टी में इस पर मतभेदों को छोड़ भी दिया जाये तो भी ये आरएसएस के सिद्धांतों के खिलाफ बैठता है। आरएसएस जिस उच्च जाती, और पुरुष प्रधान समाज का हिमायती है उसमे महिलाओं को बराबरी के अधिकार की बात कैसे की जा सकती है। इसलिए मोहन भागवत ने इस मामले पर अपनी स्थिति साफ कर दी है की हिन्दू धर्म न्हिलाओं की बराबरी की बात नही करता। अब हो सकता है उसके बीजेपी के कुछ नेता कहीं डैमेज कंट्रोल के लिए फिर महिलाओं की पूजा करने के उदाहरण दें। लेकिन पूजा तो हिंदू धर्म बंदरों, सांपों और गायों की भी करता है। इसके अलावा भी बहुत से जानवरों की पूजा करता है। जानवरों की ही क्यों, पत्थरों की भी करता है। तो महिलाओं को भी क्या आरएसएस इन जानवरों और पत्थरों की श्रेणी में गिनती है। सही कहा जाये तो बिलकुल इसी श्रेणी में गिनती है। बाकि के सारे प्रोग्राम और नारे केवल दिखावटी चीजें हैं और समस्या को उलझाये रखने के साधन हैं। बीजेपी सरकार व्यवहार में ऐसा कोई भी फैसला नही लेगी जिसमे महिलाओं को बराबरी की हैसियत हासिल हो। हाँ, बेटी बचाओ जैसे नारे जरूर लगाती रहेगी।
दूसरा तबका दलितों और पिछड़ों का है। हिन्दू धर्म उनके बारे में क्या क्या कहता है ये तो सबको मालूम है। लेकिन उनकी संख्या और वोट की ताकत आरएसएस को व्ही सब बातें कहने से रोकती हैं जो हिन्दू धर्म ग्रंथों में कहि गयी हैं। उससे उनके मन में गहरे तक बैठी हुई उन बातों को खत्म तो नही किया जा सकता। दलितों, आदिवासियों और समाज के निचले वर्ग के लिए आरएसएस की भावनाएं व्ही हैं जो महाभारत में द्रोणाचार्य की थी। द्रोणाचार्य ने आदिवासी एकलव्य को शिष्य बनाने से तो इंकार किया ही था लेकिन जब वो खुद अपने प्रयासों से धनुर्विद्या सिख गया और द्रोण शिष्य अर्जुन से बेहतर धनुर्धारी हो गया तो गुरुदक्षिणा की दुहाई दे कर उसका अंगूठा भी कटवा दिया। उससे पहले जब रामायण में राम ब्राह्मणो के एक ग्रुप के कहने पर तपस्वी शूद्र शम्बूक का सर काट लेते हैं। रामायण में दलितों और महिलाओं पर अत्याचार के प्रसंग भरे पड़े हैं। वहां जब किसी दलित या आदिवासी का बखान भी किया गया है तो वो भी एक आदर्श सेवक की तरह किया गया है। अगर दलित या आदिवासी सेविकाई से बाहर पैर रखने की कोशिश करता है तो वो तब के ऋषियों को भी बर्दास्त नही होता था और अब आरएसएस को भी नही होता। इसलिए आहिस्ता आहिस्ता दिल की बातें जुबान पर आ रही हैं। मोहन भागवत का आरक्षण की समीक्षा करने का बयान इसी दलित विरोध का हिस्सा है। उससे पहले आरएसएस के प्रमुख पदाधिकारी अम.जी. वैद्य आरक्षण को खत्म करने की मांग कर चुके हैं। अब इस पर तरह तरह के तर्क दिए जायेंगे। आरएसएस जानती है की दलित और पिछड़ी राजनीती के कई सूरमा अब बीजेपी के सामने दण्डवत हैं और उनमे अपने निजी स्वार्थों के आगे अब समाज की लाभ हानि कोई मायने नही रखती। आरएसएस का एजेंडा आजादी के पहले से एक उच्च वर्गीय हिन्दू राज की स्थापना रहा है। इसलिए उस समय के आरएसएस के संघ चालक गोलवलकर ने हिन्दुओं को आजादी की लड़ाई से दूर रहने का आह्वान किया था।
इसलिए आने वाले समय में आरएसएस और बीजेपी अपने इस एजेंडे को लागु करने या आगे बढ़ाने की हरसम्भव कोशिश करेगी। समाज में ऐसा माहोल बनाया जायेगा जिसमे इन बातों का विरोध करने वालों को देशद्रोही घोषित किया जायेगा और समर्थन करने वालों को तठस्थ बुद्धिजीवी और महान विचारक की उपाधि दी जाएगी।
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