पिछले कई दिनों से चीन की अर्थव्यवस्था के बारे में काफी बुरी खबरें आ रही हैं। वहां की अर्थव्यवस्था की बढ़ौतरी की दर धीमी पड़ रही है। जो अब घटते घटते 7 . 5 % पर पहुंच चुकी है। अर्थव्यवस्था के बारे में वैसे ये कोई बुरी दर नही है लेकिन जिस तरह की दर पिछले समय में चीन में रही है उसके मुकाबले ये काफी कम है। अब चीन के निर्यात गिर रहे हैं और उससे उसके शेयर बाजार भी गिर रहे हैं। जब चीनी अर्थव्यवस्था का तेजी का दौर था उस समय में चीनी मुद्रा युआन की कीमत में लगभग 50 % तक की बढ़ौतरी हो गयी थी। अब जब निर्यात गिर रहे हैं तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगी बनाने के लिए चीन ने अपनी मुद्रा का करीब 4 % तक अवमूल्यन कर दिया। जिससे पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में भूचाल आ गया। वित्तीय बाजार के विशेषज्ञों ने करेन्सी वार शुरू होने का अन्देशा जताया। चीनी शेयर बाजार को गिरने से रोकने के लिए वहां की सरकार ने अपना बहुत बड़ा रिजर्व फण्ड बाजार में लगा दिया लेकिन फिर भी वो पूरी टूर पर निवेशकों में भरोसा नही जगा पाई। उसने अपने नागरिकों से शेयर बाजार से पैसा ना निकालने की अपील की।
लेकिन सवाल ये है की चीनी निर्यातों के गिरने का कारण चीन के अंदर नही है। पूरी दुनिया में जो आर्थिक मंदी का माहौल 2008 से चल रहा है और जिसे अब तक दुनिया चीनी ईंजन का उपयोग करके खींच रही थी उसकी सीमा आने लगी है। अगर दुनिया में माँग नही बढ़ती है तो केवल भारी भरकम निवेशों के सहारे ओवर प्रोडक्शन करके उसे कितने दिन खिंचा जा सकता है। चीन ने निर्यातों की इस संभावित गिरावट को पहले ही भांप लिया था। और वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आते ही चीन में ढांचागत सुधारों की शुरुआत की। उसने चीनी उत्पादों को निर्यात की बजाय घरेलू मांग के अनुरूप परिवर्तन करने की शुरुआत की। इस दौरान चीन में जो रियल एस्टेट में कीमतों का गुब्बारा बन रहा था उसकी हवा निकलनी शुरू हो गयी। लेकिन चीन में जो बढ़ते हुए न्यूनतम वेतन और मजबूत सामाजिक सुरक्षा की जो व्यवस्था है उसके चलते उसकी घरेलू मांग में कोई बहुत बड़ी गिरावट ना तो आई है और ना इसकी संभावना है।
लेकिन जब चीन से ये सारी खबरें आ रही थी तो हमारे देश का वर्ग इस बात पर बहुत आशावान था की भारत को इसका फायदा मिलेगा। वो इस पर बहसों के दौरान ये बात रखता भी था और उसका रुख ये होता था की आखिर चीन से जाने के बाद ये निवेशक कहां जायेंगे। उनके पास भारत के अलावा दूसरा कौनसा ऑप्शन मौजूद है ? उनका कहना था की इतनी तेज वृद्धि दर चीन के बाद केवल हमारे यहां है। और मुनाफे के लोभ में इधर उधर दौड़ने वाली वित्तीय पूंजी के लिए केवल भारत ही एक ठिकाना बचता है।
परन्तु एक तो अभी जो उत्पादन के आंकड़े आये हैं वो बहुत ही निराशा जनक हैं। उसमे हम अपनी जीडीपी दर को बढ़ाना तो दूर उसे बरकरार भी नही रख पाये हैं। और हमारे शेयर बाजार से जिस तरह विदेशी निवेशक अपना पैसा निकाल रहे हैं और उसकी वजह से जो हमारा बाजार गिर रहा है वह भी कोई अच्छा संकेत नही दे रहा है। कुल मिलकर स्थिति इतनी उलझी हुई हो गयी है की हमे चीन के गिरते हुए बाजारों पर खुश होना चाहिए (जैसा की कुछ विशेषज्ञ कह रहे थे) या दुखी होना चाहिए। दूसरा हमारी सरकार की कोई भी नीति या नियत ऐसी नही दिखाई दे रही है जिसके कारण हमारे लोगों की खरीद शक्ति में कोई बढ़ौतरी हो और हमारी घरेलू मांग में बढ़ौतरी हो।
इसलिए ये कोई अपने आप टूट कर गिरने वाला फल नही है जो अपने आप हमारे आँगन में गिर जायेगा।
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