बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस का विश्वास कभी भी लोकतंत्र में नही रहा। इसलिए वो अपने सारे आदर्श राजतंत्र में ढूंढती है। यहां तक की जब नेपाल में राजतंत्र को खत्म करके लोकतंत्र की स्थापना हुई तो आरएसएस ने इस पर नाखुशी और चिंता जाहिर की थी। आरएसएस जिन तबकों का प्रतिनिधित्व करता है उनमे सामंती और साम्प्रदायिक तबकों का बहुमत है। इसलिए वो हमेशा लोकतान्त्रिक संस्थाओं के खिलफ रहता है और जब भी मौका मिलता है उन पर हमला करता है। वो अलग बात है की हमला करते वक्त वो कोई दूसरा बहाना बनाता है। वो समान सिविल कानून की बात करता है लेकिन हर आदमी को अपनी पसंद के अनुसार भोजन, पहनावा, भाषा और रहन सहन की आजादी के खिलाफ है। उसके लिए समान कानून का मतलब है सब कुछ उसके अनुसार।
हरियाणा का कानून -------
अभी-अभी हरियाणा की बीजेपी शासित सरकार ने स्थानीय संस्थाओं के चुनाव के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए कुछ शर्तें लगा दी। जाहिर है की ये उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला था इसलिए कुछ लोगों ने उसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए सरकार को नोटिस जारी कर दिया। सरकार को मालूम था की वो इसे न्यायालय में सही साबित नही कर पायेगी तो उसने इसका कानून विधानसभा में सारे विपक्ष के विरोध के बावजूद पास करवा दिया और रात को ही उसे राजयपाल से मंजूरी दिलवा कर सुबह चुनाव आयोग से चुनावों की घोषणा करवा दी। ये सारा काम इतनी जल्दी में इस तरह प्लान किया गया की किसी को फिर से इसे न्यायालय में चुनौती देने का समय न मिले।
कानून का असर ---------------
इस कानून में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर न्यूनतम शिक्षा प्रमाणपत्र की शर्त लगा दी। हालाँकि इस तरह की शर्त साफ तौर पर एक बड़े तबके को चुने जाने से रोकने के लिए ही लगाई गयी है और खुल्ल्म खुल्ला उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के खिलाफ है। इस शर्त का असर ये हुआ की चुनाव लड़ने की इच्छुक सामान्य श्रेणी की 72 % और अनुसूचित जाती की 82 % महिलाये इससे बाहर हो गयी। इसी तरह बहुत से पुरुष उम्मीदवार भी चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए।
एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत ---------
पूरी दुनिया में हर आदमी को वोट देने का अधिकार हमेशा से नही था। पहले तो राजा की संतान ही राजा होती थी। उसके बाद जब इस व्यवस्था को पलट दिया गया तब उच्च स्थिति वाले तबकों ने आम जनता को वोट के अधिकार से वंचित रखने के लिए, वोट के अधिकार के लिए एक न्यूनतम सम्पत्ति होने, या फिर न्यनतम शिक्षा प्राप्त होने की शर्त लगा दी। इससे जनता का बहुमत वोट के अधिकार से बाहर हो गया और घूमफिर कर सत्ता फिर उच्च वर्ग के हाथ में रह गयी। अमेरिका में तो इस कानून के अनुसार अगर किसी आदमी की सम्पत्ति दो राज्यों में है तो वह दोनों जगह वोट का अधिकार रखता था। महिलाओं को वोट देने के अधिकार से वंचित रखा गया। आगे चल कर आम लोगों ने जब इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इसके लिए संघर्ष किया तब कहीं जा कर एक व्यक्ति-एक वोट की व्यवस्था को लागु करवाया। एक व्यक्ति-एक वोट का लागु होना लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। अब हर आदमी की वोट की कीमत बराबर मानी जाने लगी। मुकेश अम्बानी और उसका चपरासी, दोनों के वोट की कीमत एक जैसी हो गयी। उच्च वर्गों के लिए ये कोई आसानी से हजम होने वाली बात नही थी। इसी अधिकार के मुताबिक वोट देने के साथ साथ चुने जाने का अधिकार भी जुड़ा हुआ है।
बीजेपी और आरएसएस ------------
आरएसएस, जो वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखती है ये बात कभी मान ही नही सकती की एक अछूत या एक महिला या फिर एक मजदूर चुनाव जीतकर शासन में बैठे। आज भी इस तरह के उदाहरण मिल जाते हैं जहां बड़ी जमीनो के मालिक अनुसूचित जाती के लिए आरक्षित सीट पर अपने यहां काम करने वाले मजदूर को चुनाव जितवाकर खुद उस पद का उपयोग करते रहते हैं। बराबरी की ये व्यवस्था आरएसएस और उसकी राजनैतिक पांख बीजेपी को कभी मंजूर नही हुई। लेकिन लोगों में इसकी स्वीकार्यता को देखते हुए उसकी हिम्मत उसे सीधे सीधे चुनौती देने की नही हुई। इसलिए उसने पिछले रस्ते से इस पर सीमाएं लगानी शुरू की। आज उसने चुने जाने के खिलाफ न्यूनतम शिक्षा की सीमा लगाई है बाद में इसे वोट देने तक भी बढ़ाया जा सकता है।
उलटी गिनती --------------
सही मायने में ये लोकतंत्र की उलटी गिनती है। लोकतंत्र के प्रति बीजेपी की हिकारत उसके सभी कामों में नजर आती है। पार्लियामेंट में विपक्ष के खिलाफ उसका रुख, राज्य सभा के बारे में अरुण जेटली का बयान, प्रधानमंत्री का संसद में इतने बड़े गतिरोध के बावजूद सर्वदलीय मीटिंग में ना आना, संसद को बाईपास करके दूसरे तरीकों से कानूनो को लागु करने की कोशिश करना इत्यादि ये सब लोकतंत्र के प्रति उसकी हिकारत को ही प्रकट करते हैं। आज हमारे देश में तानाशाही का खतरा सही मायने में तो 1975 से भी ज्यादा है। इसलिए लोकतंत्र की इस उलटी गिनती को रोका जाना चाहिए।
हरियाणा का कानून -------
अभी-अभी हरियाणा की बीजेपी शासित सरकार ने स्थानीय संस्थाओं के चुनाव के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए कुछ शर्तें लगा दी। जाहिर है की ये उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला था इसलिए कुछ लोगों ने उसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए सरकार को नोटिस जारी कर दिया। सरकार को मालूम था की वो इसे न्यायालय में सही साबित नही कर पायेगी तो उसने इसका कानून विधानसभा में सारे विपक्ष के विरोध के बावजूद पास करवा दिया और रात को ही उसे राजयपाल से मंजूरी दिलवा कर सुबह चुनाव आयोग से चुनावों की घोषणा करवा दी। ये सारा काम इतनी जल्दी में इस तरह प्लान किया गया की किसी को फिर से इसे न्यायालय में चुनौती देने का समय न मिले।
कानून का असर ---------------
इस कानून में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर न्यूनतम शिक्षा प्रमाणपत्र की शर्त लगा दी। हालाँकि इस तरह की शर्त साफ तौर पर एक बड़े तबके को चुने जाने से रोकने के लिए ही लगाई गयी है और खुल्ल्म खुल्ला उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के खिलाफ है। इस शर्त का असर ये हुआ की चुनाव लड़ने की इच्छुक सामान्य श्रेणी की 72 % और अनुसूचित जाती की 82 % महिलाये इससे बाहर हो गयी। इसी तरह बहुत से पुरुष उम्मीदवार भी चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए।
एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत ---------
पूरी दुनिया में हर आदमी को वोट देने का अधिकार हमेशा से नही था। पहले तो राजा की संतान ही राजा होती थी। उसके बाद जब इस व्यवस्था को पलट दिया गया तब उच्च स्थिति वाले तबकों ने आम जनता को वोट के अधिकार से वंचित रखने के लिए, वोट के अधिकार के लिए एक न्यूनतम सम्पत्ति होने, या फिर न्यनतम शिक्षा प्राप्त होने की शर्त लगा दी। इससे जनता का बहुमत वोट के अधिकार से बाहर हो गया और घूमफिर कर सत्ता फिर उच्च वर्ग के हाथ में रह गयी। अमेरिका में तो इस कानून के अनुसार अगर किसी आदमी की सम्पत्ति दो राज्यों में है तो वह दोनों जगह वोट का अधिकार रखता था। महिलाओं को वोट देने के अधिकार से वंचित रखा गया। आगे चल कर आम लोगों ने जब इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इसके लिए संघर्ष किया तब कहीं जा कर एक व्यक्ति-एक वोट की व्यवस्था को लागु करवाया। एक व्यक्ति-एक वोट का लागु होना लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। अब हर आदमी की वोट की कीमत बराबर मानी जाने लगी। मुकेश अम्बानी और उसका चपरासी, दोनों के वोट की कीमत एक जैसी हो गयी। उच्च वर्गों के लिए ये कोई आसानी से हजम होने वाली बात नही थी। इसी अधिकार के मुताबिक वोट देने के साथ साथ चुने जाने का अधिकार भी जुड़ा हुआ है।
बीजेपी और आरएसएस ------------
आरएसएस, जो वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखती है ये बात कभी मान ही नही सकती की एक अछूत या एक महिला या फिर एक मजदूर चुनाव जीतकर शासन में बैठे। आज भी इस तरह के उदाहरण मिल जाते हैं जहां बड़ी जमीनो के मालिक अनुसूचित जाती के लिए आरक्षित सीट पर अपने यहां काम करने वाले मजदूर को चुनाव जितवाकर खुद उस पद का उपयोग करते रहते हैं। बराबरी की ये व्यवस्था आरएसएस और उसकी राजनैतिक पांख बीजेपी को कभी मंजूर नही हुई। लेकिन लोगों में इसकी स्वीकार्यता को देखते हुए उसकी हिम्मत उसे सीधे सीधे चुनौती देने की नही हुई। इसलिए उसने पिछले रस्ते से इस पर सीमाएं लगानी शुरू की। आज उसने चुने जाने के खिलाफ न्यूनतम शिक्षा की सीमा लगाई है बाद में इसे वोट देने तक भी बढ़ाया जा सकता है।
उलटी गिनती --------------
सही मायने में ये लोकतंत्र की उलटी गिनती है। लोकतंत्र के प्रति बीजेपी की हिकारत उसके सभी कामों में नजर आती है। पार्लियामेंट में विपक्ष के खिलाफ उसका रुख, राज्य सभा के बारे में अरुण जेटली का बयान, प्रधानमंत्री का संसद में इतने बड़े गतिरोध के बावजूद सर्वदलीय मीटिंग में ना आना, संसद को बाईपास करके दूसरे तरीकों से कानूनो को लागु करने की कोशिश करना इत्यादि ये सब लोकतंत्र के प्रति उसकी हिकारत को ही प्रकट करते हैं। आज हमारे देश में तानाशाही का खतरा सही मायने में तो 1975 से भी ज्यादा है। इसलिए लोकतंत्र की इस उलटी गिनती को रोका जाना चाहिए।
पूरी दुनिया में हर आदमी को वोट देने का अधिकार हमेशा से नही था। पहले तो राजा की संतान ही राजा होती थी। उसके बाद जब इस व्यवस्था को पलट दिया गया तब उच्च स्थिति वाले तबकों ने आम जनता को वोट के अधिकार से वंचित रखने के लिए, वोट के अधिकार के लिए एक न्यूनतम सम्पत्ति होने, या फिर न्यनतम शिक्षा प्राप्त होने की शर्त लगा दी। इससे जनता का बहुमत वोट के अधिकार से बाहर हो गया और घूमफिर कर सत्ता फिर उच्च वर्ग के हाथ में रह गयी
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