Sunday, September 13, 2015

ओपिनियन पोल (Opinion Polls ) का उपयोग भर्मित करने के लिए किया जाता है

जैसे ही चुनाव का मौसम आता है उसके साथ ही ओपिनियन पोल का मौसम भी आ जाता है। टीवी चैनलों से लेकर अख़बारों तक सभी जगह ओपिनियन पोल छाये रहते हैं। दो अलग अलग टीवी चैनलों के ओपिनियन पोल के रिजल्ट  में जमीन आसमान का अंतर हो सकता है। इसलिए इन ओपिनियन पोल पर  विवाद भी बहुत होता है।ओपिनियन पोल की कोई तकनीक हो सकती है लेकिन इस तकनीक का उपयोग केवल लोगों को भर्मित करने के लिए किया जाता है। चुनाव में बड़ी पैसे वाली पार्टियां अपने ओपिनियन पोल करवाती हैं और अपनी मर्जी के नतीजे टीवी पर दिखाए जाते हैं। इन पार्टियों को चूँकि कॉर्पोरेट का समर्थन होता है इसलिए मीडिया इसमें उनकी सहायता करता है।
                         जिस तरह ओपिनियन पोल करने की एक तकनीक होती है उसी तरह लोगों को भर्मित करने की भी तकनीक होती है और टीवी चैनल, ओपिनियन पोल करने वाली कंपनियां और कॉर्पोरेट समर्थित राजनैतिक पार्टिया इसी तकनीक का प्रयोग करती हैं।और ऐसा केवल भारत में हो ऐसा भी नही है। इसका इस्तेमाल पूरी दुनिया में होता है।
                        थोड़े दिन पहले ग्रीस में जनमत संग्रह हुआ था। वहां केवल दो ही तरह के वोट थे एक समर्थन करने वाले और दूसरे विरोध करने वाले। सभी ओपिनियन पोल करने वाली संस्थाएं यूरोपियन संघ का समर्थन करने वाले लोगों का बहुमत दिखाती थी। अंतिम दिन भी वो समर्थन करने वालों का वोट 1 % ज्यादा दिखा रही थी। नतीजा आया तो विरोध करने वाली वोटों का प्रतिशत 67 था। क्या दो तिहाई का अंतर और वो भी सीधे मुकाबले में, ओपिनियन पोल करने वालों को पता नही चला ? पता तो था लेकिन उनका काम तो लोगों को भर्मित करने का था जो वो अंतिम समय तक करते रहे।
                       दूसरा नजदीक का उदाहरण दिल्ली विधानसभा चुनाव का है। सभी ओपिनियन पोल बीजेपी को आगे दिखा रहे थे लेकिन नतीजे क्या आये सबको मालूम है।
                      कुछ दिन पहले एक स्टिंग ऑपरेशन आया था जिसमे इन ओपिनियन पोल करने वाली संस्थाओं को बाकायदा पैसे लेकर उस पार्टी के समर्थन में नतीजे देने की बात करते हुए दिखाया गया था। परन्तु टीवी चैनलों ने उस बात को दबा दिया क्योंकि उससे ना केवल ओपिनियन पोल करने वाली संस्थाओं की, बल्कि टीवी चैनलों की पोल भी खुलती थी। कॉरपोरेट मीडिया केवल पैसे लेकर ये काम करता हो ऐसा भी नही है। कॉर्पोरेट सेक्टर अपनी पसंददीदा पार्टियों को हमेशा दौड़ में आगे दिखाता है ताकि दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ता हताश हो जाएँ। वोटरों का भी एक हिस्सा उसी को वोट देना पसंद करता है जो आगे होती हैं। उसका फायदा उठाने के लिए ये सारा खेल रचा जाता है।
                       इस काम को करने के लिए जो तरीका अपनाया जाता है वो इस प्रकार का होता है। जैसे दो दिन पहले आजतक पर एक ओपिनियन पोल आया है। उसमे बीजेपी को नितीश गठबंधन से 2 % ज्यादा वोट मिलता दिखाया गया है। इसके लिए उसे लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिले वोटों में 19 % की बढ़ौतरी दिखानी पड़ी। पुरे देश में लोकसभा चुनाव के बाद जो भी विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमे बीजेपी को मिलने वाले वोटों की संख्या में लोकसभा चुनाव के मुकाबले 10 से 12 % की गिरावट आई है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी की लोकपिरयता अपने शिखर पर थी। उसके बावजूद ये ओपिनियन पोल उसमे 19 % की बढ़ौतरी दिखा रहा है।
                     जहां भी कॉर्पोरेट की सबसे पसंद दीदा पार्टी पीछे होती है ये ओपिनियन पोल उसे 1 या 2 % आगे दिखाते हैं। फिर कभी उसमे 2 % की बढ़ौतरी दिखा देते हैं और कभी 1 % की गिरावट दिखा देते हैं। दूसरा काम वो ये करते हैं की कॉर्पोरेट की धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों जैसी पार्टी का ऑप्शन ही अपने पोल में नही रखते ताकि मतदाताओं को ये संदेश दिया जा सके की वो तो दौड़ में ही नही है। आखरी दिन तक भी  पार्टी की स्थिति नही सुधरती है तो अंतिम दिन उसे एकदम बराबर या 1 % पीछे दिखा देते हैं ताकि थोड़ी बहुत फेश सेविंग हो सके। बाद में जब रिजल्ट एकदम उसके उल्ट आता है तो शेयर बाजार की तरह उसकी दूसरी व्याख्या कर देते हैं।
                   इसलिए सचेत मतदाता को इन भर्मित करने वाले ओपिनियन पोल को देखकर राय बनाने से बचना चाहिए।

2 comments:

  1. कृपया ब्लॉग पर ब्लॉगर का फ़ालोवर वाला विजेट लगाएँ ताकि आपके ब्लॉग की फ़ीड लेने मे पाठकों को आसानी हो |
    सादर |

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