Sunday, April 24, 2016

न्याय व्यवस्था, सरकार और लूट को समर्थन

               आज उच्च न्यायालय के जजों और मुख्य्मन्त्रियों के सम्मेलन  में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री तीरथ सिंह ठाकुर की भावुक अपील चर्चा का मुद्दा है। सभी टीवी चैनल दिखा रहे हैं की न्यायमूर्ति प्रधानमंत्री के सम्मुख भावुक हो गए। लेकिन एक भी चैनल ने उनके भाषण के जरूरी अंशों और उनके भावुक होने के कारणों पर बात नहीं की। एकाध चैनल ने ये जरूर जोड़ा की मुख्य न्यायाधीश ने सारा दोष जजों पर डालने को गलत बताया। लेकिन ये बहुत ही भयंकर तरिके की कवरेज है जो इतने महत्त्वपूर्ण विषय पर जरूरी चीजों को छुपाने की कोशिश करती है।
                मुख्य न्यायाधीश ने अपने भाषण में साफ तरीके से और उदाहरणों के साथ बताया की अदालतों में केसों की भराई के लिए किस तरह केवल सरकार जिम्मेदार है। उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने ही बताया की किस तरह हाई कोर्ट के स्तर पर 434 जजों के स्थान खाली हैं। और कोलेजियम द्वारा 169 जजों के नाम स्वीकृत किये जाने के बावजूद सरकार उनकी मंजूरी रोके हुए है।
                उन्होंने ये भी बताया की भारत में जजों द्वारा जो काम निपटाया जा रहा है वो अपने आप में एक मिसाल है। 1987 में तत्कालीन ला कमीशन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने बताया की भारत में प्रति दस  लाख की आबादी पर जजों की संख्या केवल 10 है जिसको उस समय बढ़ाकर 50 करने पर सहमति हुई थी लेकिन कुछ नहीं किया गया। उन्होंने ये भी बताया की देश में हर साल  नए केसों की संख्या पांच करोड़ होती है और निपटाए जाने वाले केसों की संख्या केवल दो करोड़ होती है। भारत का हर एक जज अपनी क्षमता से ज्यादा काम करता है और निरंतर दबाव में रहता है। उसके बावजूद न्याय में देरी को इस तरह पेश किया जाता है जैसे उसके लिए जज जिम्मेदार हैं। भारत में नीचे से ऊपर तक केसों को निपटाने की औसत संख्या प्रति जज सालाना 2600 है जबकि अमेरिका में 81 है। बाहर के देशों के जज इस पर आष्चर्य व्यक्त करते हैं।
                  उनके बाद प्रधानमंत्री ने अपने जवाबी भाषण में कुछ इधर उधर की बातें तो जरूर की लेकिन कोई स्प्ष्ट वायदा नहीं किया की वो जजों की संख्या बढ़ाने और पैंडिंग नियुक्तियों को मंजूरी देंगे। जाहिर है की प्रधानमंत्री ने केवल जुडिशियरी और सरकार के आपसी सहयोग जैसी गोलमोल बातें करके अपनी बात खत्म कर दी।
                   न्याय व्यवस्था में इस तरह की अभूतपूर्व देरी से सबसे ज्यादा नुकशान गरीब आदमी का ही होता है। लाखों की तादाद में गरीब लोग जेलों में बंद हैं और न्याय का इंतजार कर रहे हैं। उनमे से अधिकतर लोग केस समाप्त  होने तक उसकी पूरी सजा काट चुके होते हैं और फिर सबूत न होने के कारण बरी हो जाते हैं। लोग दस-दस , पंद्रह- पंद्रह साल सजा काट कर बरी हो जाते हैं और उनकी जिंदगी बर्बाद हो जाती है। हमारी न्याय व्यवस्था में इस तरह गलत तरीके से जेल काटने पर कोई जवाबदेही तो है ही नहीं उल्टा उनको किसी मुआवजे का प्रावधान भी नहीं है। बड़े और दबंग लोगों द्वारा जमीनों पर किये गए अवैध कब्जे के लाखों केस अदालतों में पैंडिंग हैं और सालों लम्बी लड़ाई से थककर गरीब लोग उनके हिसाब से समझौता करने पर मजबूर हो जाते हैं।
                मजदूरों के केसों का तो ये आलम है की गलत तरिके से नौकरी से हटाए जाने के केस का फैसला तब होता है जब मजदूर रिटायरमेंट की उम्र पार कर चूका होता है।
                   लेकिन क्या ये महज अदालतों पर किये जाने वाले खर्च का मामला है ? नहीं। गरीबों को न्याय मिलना दूभर करना भी उसी व्यवस्था का हिस्सा है जो केवल शोषण पर निर्भर है। इस व्यवस्था में जनता को मजबूर किया जाता है की वो ऊपर वालों के सामने समर्पण कर दे। अगर लोगों को त्वरित न्याय मिलने लगेगा तो जुल्म का प्रतिरोध करने की लोगों की क्षमता बढ़ जाएगी। और सत्ता यही नहीं चाहती। लूट को सुलभ करने के लिए न्याय व्यवस्था का कमजोर होना  जरूरी है।

1 comment:

  1. लेकिन क्या ये महज अदालतों पर किये जाने वाले खर्च का मामला है ? नहीं। गरीबों को न्याय मिलना दूभर करना भी उसी व्यवस्था का हिस्सा है जो केवल शोषण पर निर्भर है। इस व्यवस्था में जनता को मजबूर किया जाता है की वो ऊपर वालों के सामने समर्पण कर दे। अगर लोगों को त्वरित न्याय मिलने लगेगा तो जुल्म का प्रतिरोध करने की लोगों की क्षमता बढ़ जाएगी। और सत्ता यही नहीं चाहती। लूट को सुलभ करने के लिए न्याय व्यवस्था का कमजोर होना जरूरी है। ....एकदम सटीक बात

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